Friday, 13 January 2017

ब्रह्मगुप्त

ब्रह्मगुप्त
ब्रह्मगुप्त का जन्म 520 शक (655 विक्रम संवत या 589 ए.डी.) रेवाह के राजा व्याघ्रमुख के समकालीन थे।
ब्रह्मगुप्त के पिता का नाम जिस्नुगुप्त था।
30 वर्ष की उम्रं में ब्रह्मस्फूटसिद्धांत ग्रंथ 550 शक में लिखा था।
587 शके में खण्डखाद्यक ग्रंथ लिखा।
दादा का नाम विष्णुगुप्त था
श्रीचापवंशखिलके श्रीव्याघ्रमुखे नृपे शकनृपाणाम्।
पंचाषत्यसंयुक्तै र्वर्षशतैः पंचभिरतीतैः।
ब्राह्मःस्फुटसिद्धान्तः सज्जनगणितज्ञगोलयीत्प्रीत्यै।
त्रिंशद्वर्षेण कृते जिष्णुसुतब्रह्मगुप्तेन।।
ब्राह्मस्फुट सिद्धांत के संज्ञाध्याय में आचार्य की इस उक्ति के अनुसार 520 शाकवर्ष में आचार्य ब्रह्मगुप्त का जन्म हुआ। 30 वर्ष की आयु में ही उन्होने ब्राह्मस्फुट सिद्धांत नामक ज्योतिष के इस महान सिद्धांत ग्रंथ का प्रणयन किया। इसी से रीवा नरेश व्याघ्रभटेश्वर ने इन्हें अपना प्रधान ज्योतिषी बनाकर सम्मानित किया।
इनका जन्म गुर्जर देशान्तर्गत भीनमाल नामक गांव में हुआ। गुर्जर प्रदेश की उत्तर सीमा में मालव (मारवाड़) देश से दक्षिण दिशा की ओर आबूपर्वत और लूणी नदी के मध्यवर्ती पर्वत से वायव्य कोण में भीनमाल में इनका जन्म हुआ।
आचार्य ने स्वयं स्पष्ट किया है कि विष्णुधर्मोत्तर पुराण के अन्तर्गत अति प्राचीन सिद्धांत को ही आगम मानकर उसका संशोधन करके नवीन ब्राह्मस्फुट सिद्धांत की रचना की।
इनकी कुल तीन रचनाए थी-1 ब्राह्मस्फुट सिद्धांत, 2 खण्डखाद्यक , 3 ध्यानग्रहोपदेश
ब्रह्मगुप्त प्रसिद्ध भारतीय गणितज्ञ थे, ये अच्छे वेधकर्ता थे और इन्होंने वेधों के अनुकूल भगणों की कल्पना की हैं। मध्यकालीन यात्री अलबरूनी ने भी ब्रह्मगुप्त का उल्लेख किया है। इनके दो ग्रंथों का अनुवाद अरबी भाषा में अनुमानतः खलीफा मंसूर के समय, सिंदहिंद और अल अकरंद के नाम से हुआ।
ब्राह्मस्फुटसिद्धांत उनका सबसे पहला ग्रंथ माना जाता है जिसमें शून्य का अलग अंक के रूप में उल्लेख किया गया है। यही नहीं , बल्कि इस ग्रंथ में ऋणात्मक अंकां और शून्य पर गणित करने के सभी नियमों का वर्णन भी किया गया है। यह नियम आज भी अपनाए जाते है। हां एक अन्तर अवश्य है कि उन्होंने शून्य से भाग करने का नियम सही नहीं दे पाये। 0/0 बराबर 0
ब्रह्मस्फुटसिद्धांत के साढ़े चार अध्याय मूलभूत गणित को समर्पित है।
बीजगणित केजिस प्रकरण में अनिर्धार्य समीकरणों का अध्ययन किया जाता है, उसका पुराना नाम ‘कुट्टक’ है। इस पर ही इस विज्ञान का नाम सन् 628 ई. में कुट्टक गणित रखा। उन्होंने द्विघातीय अनिर्धार्य समीकरणों के हल की विधि भी खोज निकाली, जिसका नाम चक्रवाल विधि है।
इनके ब्राह्मस्फुटसिद्धांत के द्वारा ही अरबों को भारतीय ज्योतिष का पता लगा। अब्बासिद खलीफा अल-मंसूर (712-775 ईस्वी) ने बगदाद की स्थापना की और इसे शिक्षा के केन्द्र के रूप में विकसित किया। उसने उज्जैन के कंकः को आमंत्रित किया जिसने ब्राह्मस्फुटसिद्धांत के सहारे भारतीय ज्योतिष की व्याख्या की। अब्बासिद के आदेश पर अल-फजरी ने इसका अनुवाद अरबी भाषा में किया।
ब्रह्मगुप्त ने किसी वृत्त के क्षेत्रफल को उसके समान क्षेत्रफल वाले वर्ग से स्थानांतरित करने का भी यत्न किया।
ब्रह्मगुप्त ने पृथ्वी की परिधि ज्ञात की थी, जो आधुनिक मान के निकट है।
ब्रह्मगुप्त ने पाई का मान 10 के वर्गमूल (3.16227766) के बराबर माना था।
ब्रह्मगुप्त अनावर्त वित भिन्नों के सिद्धांत से परिचित थे। इन्होंने एक घातीय अनिर्धार्य समीकरण का पूर्णांकों में व्यापक हल दिया, जो आधुनिक पुस्तकों में इसी रूप में पाया जाता है।
ब्रह्मगुप्त का सबसे महत्वपूर्ण योगदान चक्रीय चतुर्भुज पर है। जिसमें विकर्ण परस्पर लम्बवत होते है। उन्होंने चक्रीय चतुर्भुज के क्षेत्रफल निकालने का सन्निकट सूत्र ;ंचचतवगपउंजमद्ध तथा यथातथ सूत्र ;मगंबज वितउनसंद्ध भी दिया है। 


प्राचीन ब्रह्मसिद्धांत तीन प्रकार के उपलब्ध होते है। 1 शाकल्यसंहितान्तर्गत, 2 विष्णुधर्मोत्तरपुराणान्तर्गत, 3 पंचवर्षमययुगवर्णनात्मक। वराहमिहिरकृत पंचसिद्धांतान्तकान्तर्गत, इन तीनों में ब्रह्मगुप्ताचार्य किसको स्फूट कहते है, यह स्पष्टरूप से नहीं कह सकते तथापि ग्रभगणविमानों के समत्व के कारण विष्णुधर्मोत्तरपुराणान्तर्गत ही ब्रह्मसिद्धांत के ब्रह्मगुप्त आगमत्य करके स्वीकार करते है। पंचवर्षमय युग के तन्त्रपरीक्षाध्याय में ‘युगमाहुःपंचाब्द’ इत्यादि से संहिताकार क ेमत को वर्णनन करते हुए ब्रह्मगुप्त के मत में ज्योतिष वेदांग ब्रह्ममत नहीं है, यह स्पष्ट है। वराहमिहिराचार्यके मत से यह विरूद्ध है।
इस (ब्राह्मस्फुट सिद्धांत) की चतुर्वेदाचार्य कृत ‘तिलक’ नाम की टीका प्रसिद्ध थी, जो वर्तमान में संपूर्ण उपलब्ध नहीं है।
‘कोलबू्रक’ नामक पाश्चात्य विद्वान के पास संपूर्ण टीका उपलब्ध थी। इसी कारण उसके आधार पर इस ग्रंथ के बारहवें (व्यक्त) अध्याय और अठारहवें (अव्यक्तगणित) अध्याय का आंग्ल भाषा में अनुवाद सन् 1817 में ही उपलब्ध हो गया था।
इस ग्रंथ (ब्राह्मस्फुट सिद्धांत) में 1008 श्लोक (आर्यावृत्त) है। पूर्वाध और उत्तरार्ध नामक दो भागों में बटा हुआ है। पूर्वाध में 1 मध्यगति, 2 स्फुटगति, 3 त्रिप्रश्नाध्याय, 4 चंद्रग्रहणाध्याय, 5 सूर्यग्रहणाध्याय, 6 उदयास्तमयाध्याय, 7 चंद्रश्रृंगोन्नत्यध्याय, 8 चंद्राच्छायाध्याय, 9 ग्रहयुत्यध्याय और 10 भग्रहयुत्यध्याय यह दस अध्याय है।
उत्तरार्ध में 1 तन्त्रपरीक्षाध्याय, 2 गणिताध्याय, 3 मध्यमत्युत्तराध्याय, 4 स्फुटगत्युत्तराध्याय, 5 त्रिप्रश्नोत्तराध्याय, 6 ग्रहणोत्तराध्याय, 7 छेद्यकाध्याय, 8 श्रृंगोन्नत्युत्तराध्याय, 9 कुट्टाकाराध्याय, 10 छन्दश्चित्युत्तराध्याय, 11 गोलाध्याय, 12 यन्त्राध्याय, 13 मानाध्याय और 14 संज्ञाध्याय। यह चौदह अध्याय है। कुल मिलाकर 24 अध्याय है।
इन अध्यायों में तन्त्रपरीक्षाध्याय बहुत विचारणीय है। क्योंकि इस अध्याय में आचार्य ने और अनेक आचार्यों के नामों और उनके मतों का उल्लेख किया है।
वराहमिहिराचार्य के बाद और ब्रह्मगुप्त से पूर्व 426 और 550 शाक वर्ष के मध्य दो आचार्य श्रीषेण और विष्णुचंद्र ने ज्योतिषसिद्धांत के विशाल ग्रंथों की रचना की थी।
भास्काराचार्य ने अपने सिद्धांत शिरोमणि के गणिताध्याय के आरंभ में आचार्य ब्रह्मगुप्त को अभिवादन किया तथा अनेक स्थानों पर ब्रह्मगुप्त के मत का उल्लेख किया अर्थात् अनुकरण किया। यथा
यथाऽत्र ग्रंथे ब्रह्मगुप्त स्वीकृतानमोऽङ्गीकृतः।
उस अश्विन्यादि में क्रांतिपात था, इसलिए अश्विन्यादि से नक्षत्रों की गणना प्रवृत्त हुई, जो आज तक यही प्रक्रिया प्रचलित है। क्रांतिपात पश्चिम में प्रायः 65 वर्ष में एक अंश चलता है, जिससे इसका ज्ञान अल्पसमय में असंभव होने से ब्रह्मगुप्त भी अयनचलन की उपलब्धि नहीं कर सकें।
37 वर्ष की आयु में ब्रह्मगप्त ने ‘खण्डखाद्यक’ ग्रंथ की रचना का प्रणयन किया। उस समय सर्वत्र मनुष्यों के व्यवहारों में प्रचलित आर्यभट मत का निराकरण करना अत्यंत कठीन था। इसलिए आर्यभट मतानुसार व्यवहार करते हुए मनुष्यों के उपकारार्थ व्यावहारिक ‘खण्डखाद्यक’ नामक करण ग्रंथ की रचना ब्रह्मगुप्त ने की।
भास्कराचार्य के अनुसार ब्रह्मगुप्त का बहुत बड़ा बीजगणित का ग्रंथ था, परन्तु यह गं्रथ आज प्राप्य नहीं है।
ब्रह्मगुप्त ही औरों की अपेक्षा श्रीपति का श्रेष्ठतर आदर्श है। श्रीपति ने ब्राह्मस्फुट सिद्धांत और शिष्यधीवृद्धि गं्रथों का परिशीलन करने के पश्चात् ही सिद्धांतशेखर की रचना की।
विशेष
ब्रह्मगुप्त ने एक बहुत विलक्षण विषय को अपनी रचना में स्थान दिया है। यह है-‘नतकर्म’।
मंदफल शीघ्रफल भुजान्तरादि संस्कार करने से जो स्पष्टग्रह आते है वे स्वगोलीय (ग्रहगोलीय) स्पष्ट ग्रह होते है, जिनको हम लोग देखते है वे हम लोगों के लिए स्पष्ट ग्रह होते है। स्वगोलीय स्पष्टग्रह में जितना संस्कार करने से हम लोगों के स्पष्ट ग्रह होते है उसी संस्कार का नाम ‘नतकर्म’ है। इस ‘नतकर्म’ के बारें में पूर्ववर्ती किसी भी आचार्य ने कुछ भी नहीं लिखा है। इससे स्पष्ट होता है कि नतकर्म का आविष्कर्त्ता ब्रह्मगुप्त ही है।

ब्राह्मस्फुट सिद्धांत में बहुत से स्थलों में वर्णन की स्थूलता अवश्य है, तथापि नाना प्रकार के विषयों का अपूर्व समावेश है। अतएव ब्राह्मस्फुट सिद्धांत सर्वश्रेष्ठ ग्रंथ है। इस कथन में किसी प्रकार की प्रतिपत्ति (विरोध) प्रतीत नहीं होती हैं।
 

Saturday, 7 January 2017

शनि पनोती

शनि पनोती
शनि को आंग्ल भाषा में सेटर्न कहते हैं। सेट (स्थिर) व्यक्ति को जो टर्न (घुमाव) दे उसी का नाम है-सेटर्न। क्योंकि शनि मूलभूत रूप से कर्मवाद से जुड़ा हुआ ग्रह हैं। सेटर्न मिन्स मेनेजमेण्ट ऑफ्टर डिस्टक्शन अर्थात् सर्वनाश के बाद आयोजन।
पुराणों में उल्लेख आता है कि शनि जाते हुए अच्छे लगते है यानि शनि अपनी पनोती में कष्ट देते है, परन्तु जब पनोती पूरी होती है तो आपको लाभ देने वाले बनते हैं। दूसरे शब्दों में व्यक्ति सोलह कलाओं से खिल उठता है। इतिहास साक्षी है कि प्रत्येक सफल व्यक्ति को पनोती के बाद ही सफलता प्राप्त हुई है।
वर्तमान में शनि मंगल की राशि वृश्चिक पर परिभ्रमण कर रहे है, परन्तु 26 जनवरी 2017 से धनु राशि में प्रवेश करने जा रहे है। धनु राशि बृहस्पति की स्वगृही राशि है जिसमें शनि अपना तटस्थ प्रभाव शुरू करेंगे क्योंकि शनि व बृहस्पति दोनों ग्रह एक दूसरे के लिए न्यूटल ग्रह है। 
कहते है कि संस्कृत के प्रकाण्ड पंडित रावण ने अपने पुत्र मेघनाद के जन्म के पूर्व उसके अमरता के लिए सभी नौ ग्रहों को अपने अनुकूल बना लिया था परन्तु मेघनाद के जन्म से पूर्व शनि ने अपनी चाल बदल दी जिससे रावण ने शनि को बंदी बना दिया था जिसे कालान्तर में हनुमान ने मुक्त कराया था। इसलिए शनि की पनोती के समय हनुमान की पूजा करने से शनि के प्रकोप से बचा जा सकता है।
मूल रूप से शनि अशुभ फल दाता ही नहीं होता है। शनि मूल रूप से न्यायाधिपति है अर्थात् प्राणि मात्र के द्वारा किये गये शुभ व अशुभ कर्मों के अनुसार दण्ड व सुफल देते है।
शनि को शनिश्चर भी कहा जाता है। शनि राशि चक्र में सभी ग्रहों की अपेक्षा अति मन्द गति से चलने वाला होने से इसे मन्द भी कहते है। शनि के चारों ओर तीन रिंग है। यह तीनों रिंग एक दूसरे के कुछ दूरी पर है। प्रत्येक दो रिंग के बीच में काले रंग जैसी खाली जगह है। शनि तीन पीलें रिंग या घेरे सहित आसमानी गेंद की तरह दिखाई देता है।
शनि, सूर्य से 886 मिलियन माइल्स दूर है। यह बृहस्पति से छोटा है, इसका व्यास 75000 मील हैं। इसके नौ चंद्रमा यानि उपग्रह है। शनि, पृथ्वी से आयतन में 700 गुणा बड़ा है, पर वजन में 100 गुणा से कुछ कम है। सूर्य पुत्र शनि को सूर्य की परिक्रमा करने में लगभग 29) वर्ष का समय लगता है। जिससे शनि एक राशि पर लगभग 30 महिनें का यानि 2) वर्ष का समय लेता है।

शनि का धन राशि में आगमन 30 वर्ष में हो रहा है। 26.01.2017 को 19 बजकर 38 मिनट पर शनि धनु राशि में प्रवेश करेगा। सामान्य नियम प्रमाण से शनि ढाई वर्ष एक राशि पर प्रभाव करता है। शनिदेव की समाज व राष्टव्यक्तित्व पर सबसे ज्यादा असर होती है। स्थिर ग्रहों पर शनि किसी भी राशि में होने पर अपने स्थान से तीसरे, सातवें व दसवें भाव पर पूर्ण दृष्टि से देखता है, अर्थात् जन्मकुण्डली में जातक के स्थानों का असरकारक होता है।
पिछले समय अर्थात् 02.11.2014 से मंगल के घर में जलतत्व के शनि ने भूमंडल को ऊपर नीचे कर दिया। राजकारण के राजा शनि ने अति उत्तम नेता दिये। साथ ही प्रजा में कुछ अशांति भी फैली।
अभी धनु राशि में शनि के प्रभाव से अनेक देशों में क्रांति व नये युग का प्रारंभ होगा।
इस वर्ष शनि दो नक्षत्रों पर भ्रमण करेगा जिससे देश में नेताओं में परस्पर मतभेद, शस्त्र कोप, शत्रु भय, रोग वृद्धि व वर्षा में विषमता होगी।
 शनि का धनु राशि में प्रवेश 26.1.2017 को 19.38 पर होगा। उस समय चंद्र पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र व धनु राशि पर है, जिसका प्रभाव विभिन्न राशियों पर निम्न प्रकार से होगा।
विशेष- शनि पनोती का असर स्थूल रूप से दिया गया है, सूक्ष्म फल हेतु जन्मपत्रिका से देखे।

राशि अनुसार फल
मेष- इस राशि के जातकों को छोटी पनोती से मुक्ति मिलेगी। तथा भाग्य भाव में जाने से लम्बी यात्रा प्रवास, भाई-बहिन के सुख में वृद्धि, नौकरी में स्थानान्तरण, पदौन्नति, रोग से मुक्ति एवं कोर्ट मामलों में राहत मिलेगी।
वृषभ- इस राशि वालें जातकों के छोटी पनोती लौह पाद पर कष्टदायक रहेगी। नजदीकी संबंधी के अशुभ समाचार, छोटी बीमारी, ऋण की बढ़त आदि कष्ट होंगे।
मिथुन-इस राशि वालों के सातवें शनि रहकर देह भाव पर दृष्टि से रोग उत्पन्न करेगा। शनि संधि, हड्डी व रक्त को मंद करने का काम करता है जिससे रोग होता है। वायु प्रकृति वालों को विशेष ध्यान रखना है। दाम्पत्य जीवन पर भी अशुभ फल दायक रहेगा।
कर्क-इस राशि वालों के शनि छठे भाव में होने से शत्रु पर विजय, नौकरी में स्थानान्तरण, पदौन्नति, पैतृक सम्पत्ति, पुराने कर्ज व छोटी यात्रा में लाभ होगा।
सिंह-इस राशि वालों के शनि पांचवें भाव में रहकर दाम्पत्य जीवन की असमझ में सुधार, अविवाहितों के लिए संबंध बनने, भाग्य में परिवर्तन लायेगा परन्तु पढ़ाई हेतु समस्याग्रस्त रहेगा।
कन्या- इस राशि वालें जातकों के छोटी पनोती लौह पाद पर कष्टदायक रहेगी।  जमीन-जायदाद के मामलों में सावधानी बरतें। छाती या हृदय में कुछ भी दर्द होतो तुरंत चिकित्सक से सलाह ले।
तुला- इस राशि के जातकों को साढे़साती पनोती से मुक्ति मिलेगी। नवीन सर्जन, राज सुख, नौकरी आदि में पदौन्नति, रिश्तेदारों से संबंध व संतानों संबंधी शुभ समाचार आदि में लाभ प्राप्त होगा।
वृश्चिक- इस राशि वालें जातकों के साढ़ेसाती का अन्तिम भाग यानि पैरों पर चांदी के पाद पर शुरू होगा जो लाभदायक रहेगा। परन्तु अनीति पर चलने वालों के लिए समय दिन में तारें भी दिखा सकता है।
धनु- इस राशि वालें जातकों के साढ़ेसाती का मध्य भाग यानि छाती पर सुवर्ण के पाद पर शुरू होगा जो चिंता कारक रहेगा। शरीर में वायु विकार, दाम्पत्य जीवन में संघर्ष, भागीदारी में नुकसान व भाग्य का साथ कम रहेगा।
मकर- इस राशि वालें जातकों के साढ़ेसाती का प्रथम भाग यानि सिर पर लौह पाद पर कष्ट दायक रहेगा। बड़ा खर्च, शत्रु भय, रिश्तेदारों के अशुभ समाचार, रोग व देवप्रकोप में वृद्धि आदि से सावधानी बरतें।
कुंभ-इस राशि वालों के शनिदेव ग्यारहवें भाव में होने से मित्र वर्ग, वाहन, संतान प्रगति, होगी। चतुर्दिक लाभ व शुभ समाचार मिलेंगे।
मीन-इस राशि वालों के छोटी यात्रा, फालतु खर्च, व्यापार में परिवर्तन, गुप्त शत्रु का आगमन आदि होगा। छोटे रोग पर तुरंत ईलाज लेवे।