महाशिवरात्रि 24 फरवरी को है।
गरूड पुराण के अनुसार शिवरात्रि से एक दिन पूर्व त्रयोदशी तिथि में शिवजी की पूजा करनी चाहिए और और व्रत का संकल्प लेना चाहिए । इसके उपरांत चतुर्दशी तिथि को निराहार रहना चाहिए। महाशिवरात्रि के दिन भगवान शिव को गंगा जल चढ़ाने से विशेष पुण्य प्राप्त होता है। महाशिवरात्रि के दिन भगवान शिव की मूर्ति या शिवलिंग को पंचामृत से स्नान कराकर ओम नमः शिवाय मंत्र से पूजा करनी चाहिए। इसके बाद रात्रि के चारो प्रहर में शिव जी की पूजा करनी चाहिए और अगले दिन प्रातः काल ब्राह्मणों को दान दक्षिणा देकर व्रत का पारणा करना चाहिए।
भगवान शिव की पूजा अर्चन करने के लिए यह दिन सबसे शुभ होता है। वैसे प्रतिमास शिवरात्रि आती है, परन्तु सबसे बड़ी शिवरात्रि को महाशिवरात्रि कहते है। सूर्य के मकर राशि में प्रवेश के बाद महाशिवरात्रि का आगमन होता है। भगवान शिव पंचमुखी होकर 10 भुजाओं से युक्त है एवं पृथ्वी, आकाश और पाताल तीनों लोकांे के एक मात्र स्वामी है। शिव का ज्योतिर्मय रूप भौतिकी शिव के नाम से जाना जाता है जिसकी हम सभी आराधना करते है। ज्योतिर्मय शिव पंचतत्वों से निर्मित है। भौतिकी शिव का वैदिक रीति से अभिषेक एवं स्तुति आदि से स्तवन किया जाता है। तत्वों के आधार पर शिव परिवार के वाहन सुनिश्चित है। शिव स्वयं पंचतत्व मिश्रित जल प्रधान है। इनका वाहन नंदी आकाश तत्व की प्रधानता लिए हुए है। शिव दर्शन करने के पूर्व नंदीदेव के सींगों के बीच में से शिव दर्शन करते है। क्योंकि शिव ज्योतिर्मय भी है और सीधे दर्शन करने पर उनका तेज सहन नहीं किया जा सकता है। नंदी देव आकाश तत्व होने से वे शिव के तेज को सहन करने की पूर्ण क्षमता रखते है। माता गौरी अग्नि तत्व की प्रधानता लिए हुए है। इनका वाहन सिंह भी अग्नितत्व है। स्वामी कार्तिकेय वायु तत्व है जिनका वाहन मयूर भी वायुतत्व है। गणेश पृथ्वी तत्व एवं इनका वाहन मूषक भी पृथ्वी तत्व है।
भगवान शिव को शंख से जल, केतकी का पुष्प तथा कंकु नहीं चढ़ाना चाहिए। परन्तु शिवरात्रि को अर्धरात्रि के समय सूखा कंकु चढ़ाया जा सकता है। हरतालिका को केतकी का पुष्प।
शिव जी के विभिन्न द्रव्यों से अभिषेक के फल
जल से वृष्टि होती है।
कुशोदक से व्याधि शान्ति होती है।
इक्षुरस से श्री की प्राप्ति
दुध से पुत्र प्राप्ति
जलधारा से ज्वर शान्ति
वंश वृद्धि के लिए घृतधारा
शर्करा युक्त दुध से जड़बुद्धि का विकास
सरसों के तेल से शत्रु नाश
मधु से राज्य प्राप्ति
शिव नीलकण्ठ क्यों बनें
भगवान आशुतोष को महादेव के नाम से जाना जाता है। क्योंकि वे देवों के देव है। तथा यह नाम उन्हें वैसे ही प्राप्त नहीं हुआ होगा। इसके लिए कोई न कोई कारण अवश्य रहा होगा। उन्हीं श्रृंखला में एक कारण यह भी रहा होगा कि समुद्र मंथन से उत्पन्न हलाहल नाम का विष पान शिवजी ने ही किया था। इस सम्बन्ध निम्न उदाहरण दृष्टव्य हैं।
एक बार राजदरबार में शिवजी के विषपान करते हुए चित्र को देखकर राजा भोज के दिमाग में कालिदास से प्रश्न करने की सुझी और उन्होंने कालिदास से पूछा, किम् कारणमपिवत हर हलाहलं ? (महादेव ने विष पान क्यों किया ?) कवि ने विचार किया कि अवश्य ही राजेन्द्र को आशुतोष नीलकण्ठ के चित्र को देखकर कोई विनोद सूझा हैं, अन्यथा क्या उन्हें शिव द्वारा विषपान का कारण ज्ञात नहीं ! महाकवि कालिदास ने मां शारदा का स्मरण किया व इस प्रकार निवेदन किया,
वृषभो प्रपलायते प्रतिदिनं सिंहावलोकादभया पश्यन्
मŸामयूरमन्तिक चरं, भूषा भुजंग व्रजः कृŸिां कृन्तति
मूषकोऽपि रजनौ भिक्षान्तमाक्षयन
दुखेनेतिदिगम्बरः स्मरहरो हलाहलं पीतवान।
अर्थात् पार्वती के वाहन सिंह के भय से अपना वाहन प्रतिदिन कांपता प्रलाप करता रहता हैं, अपने स्वयं के आभूषण भुजंग को अपने पुत्र कार्तिकेय का वाहन मयूर को देखकर बार-बार उधर लपकता हैं अथवा मयूर को देखकर भुजंग भयाक्रांत हो भागता है, गणेश का वाहन मूषक भिक्षा से प्राप्त अन्न को काटता कुतरता रहता है, इससे रात्रि में नींद नहीं आती, इसी दुःख के कारण दिगम्बर हो रहने पर भी दुखी कामरी महादेव ने विष पीकर आत्महत्या करनी चाही थी। सारी सभा धन्य! धन्य!! के शब्दों से गूंज उठी परन्तु राजा भोज के श्रृंगार रस से परिपूर्ण तृप्ति नहीं हुई, उनके मुख मण्डल पर मुस्कराहट फैली फिर भी बोले, अप्यन्श्व ? अर्थात् क्या कोई और भी कारण हैं ? महाकवि के अधरों पर भी मुस्कान उभरी। उन्होंने राजा को नत मस्तक करके एक छन्द और पढ़ा
अŸाुं वाच्छति वाहनं गणपतेराखुं क्षुधार्तः फणी तज्व
कौंचपतेः शिखी, च गिरिजा सिंहोऽपि नागाननम्।
गौरी जह्नु सुता मसूयति कलानाथं कपालाऽनिलो
निर्विष्णः सपपौ कुटुम्ब कहलादी शोऽपि हलाहलम्।
अर्थात् हे राजन्! अपने पुत्र गणेश के वाहन चूहे को स्वयं का प्रिय भूषण सर्प निगल लेना चाहता है और अपने उसी अंलकार भुजंग को दूसरे पुत्र कार्तिकेय का वाहन मोर, मार डालना चाहता हैं, अपनी पत्नी का वाहन सिंह अपने पुत्र गजानन को हाथी समझकर उसका अन्त करने के लिए व्याकुल रहता है। पार्वती अपने पति के सिर चढ़ी गंगा को देख कर सौतिया डाह से जलती रहती है और जटाजूट पर लटका चन्द्रमा बेचारा तृतीय नैत्र की ज्वाला से दग्ध तनमना होकर निस्तेज बन रहा हैं, हे राजा! अपने कुटुम्ब के भीतर ऐसा भीषण कलह देख कर ही ईश्वर कहलाने वाले शिव को भी विष पीना पड़ा था।
महराजा भोज ने महाकवि को अपने गले से लगाकर बहुमूल्य मणिमाल उनको उपहार में पहना दी।
गरूड पुराण के अनुसार शिवरात्रि से एक दिन पूर्व त्रयोदशी तिथि में शिवजी की पूजा करनी चाहिए और और व्रत का संकल्प लेना चाहिए । इसके उपरांत चतुर्दशी तिथि को निराहार रहना चाहिए। महाशिवरात्रि के दिन भगवान शिव को गंगा जल चढ़ाने से विशेष पुण्य प्राप्त होता है। महाशिवरात्रि के दिन भगवान शिव की मूर्ति या शिवलिंग को पंचामृत से स्नान कराकर ओम नमः शिवाय मंत्र से पूजा करनी चाहिए। इसके बाद रात्रि के चारो प्रहर में शिव जी की पूजा करनी चाहिए और अगले दिन प्रातः काल ब्राह्मणों को दान दक्षिणा देकर व्रत का पारणा करना चाहिए।
भगवान शिव की पूजा अर्चन करने के लिए यह दिन सबसे शुभ होता है। वैसे प्रतिमास शिवरात्रि आती है, परन्तु सबसे बड़ी शिवरात्रि को महाशिवरात्रि कहते है। सूर्य के मकर राशि में प्रवेश के बाद महाशिवरात्रि का आगमन होता है। भगवान शिव पंचमुखी होकर 10 भुजाओं से युक्त है एवं पृथ्वी, आकाश और पाताल तीनों लोकांे के एक मात्र स्वामी है। शिव का ज्योतिर्मय रूप भौतिकी शिव के नाम से जाना जाता है जिसकी हम सभी आराधना करते है। ज्योतिर्मय शिव पंचतत्वों से निर्मित है। भौतिकी शिव का वैदिक रीति से अभिषेक एवं स्तुति आदि से स्तवन किया जाता है। तत्वों के आधार पर शिव परिवार के वाहन सुनिश्चित है। शिव स्वयं पंचतत्व मिश्रित जल प्रधान है। इनका वाहन नंदी आकाश तत्व की प्रधानता लिए हुए है। शिव दर्शन करने के पूर्व नंदीदेव के सींगों के बीच में से शिव दर्शन करते है। क्योंकि शिव ज्योतिर्मय भी है और सीधे दर्शन करने पर उनका तेज सहन नहीं किया जा सकता है। नंदी देव आकाश तत्व होने से वे शिव के तेज को सहन करने की पूर्ण क्षमता रखते है। माता गौरी अग्नि तत्व की प्रधानता लिए हुए है। इनका वाहन सिंह भी अग्नितत्व है। स्वामी कार्तिकेय वायु तत्व है जिनका वाहन मयूर भी वायुतत्व है। गणेश पृथ्वी तत्व एवं इनका वाहन मूषक भी पृथ्वी तत्व है।
भगवान शिव को शंख से जल, केतकी का पुष्प तथा कंकु नहीं चढ़ाना चाहिए। परन्तु शिवरात्रि को अर्धरात्रि के समय सूखा कंकु चढ़ाया जा सकता है। हरतालिका को केतकी का पुष्प।
शिव जी के विभिन्न द्रव्यों से अभिषेक के फल
जल से वृष्टि होती है।
कुशोदक से व्याधि शान्ति होती है।
इक्षुरस से श्री की प्राप्ति
दुध से पुत्र प्राप्ति
जलधारा से ज्वर शान्ति
वंश वृद्धि के लिए घृतधारा
शर्करा युक्त दुध से जड़बुद्धि का विकास
सरसों के तेल से शत्रु नाश
मधु से राज्य प्राप्ति
शिव नीलकण्ठ क्यों बनें
भगवान आशुतोष को महादेव के नाम से जाना जाता है। क्योंकि वे देवों के देव है। तथा यह नाम उन्हें वैसे ही प्राप्त नहीं हुआ होगा। इसके लिए कोई न कोई कारण अवश्य रहा होगा। उन्हीं श्रृंखला में एक कारण यह भी रहा होगा कि समुद्र मंथन से उत्पन्न हलाहल नाम का विष पान शिवजी ने ही किया था। इस सम्बन्ध निम्न उदाहरण दृष्टव्य हैं।
एक बार राजदरबार में शिवजी के विषपान करते हुए चित्र को देखकर राजा भोज के दिमाग में कालिदास से प्रश्न करने की सुझी और उन्होंने कालिदास से पूछा, किम् कारणमपिवत हर हलाहलं ? (महादेव ने विष पान क्यों किया ?) कवि ने विचार किया कि अवश्य ही राजेन्द्र को आशुतोष नीलकण्ठ के चित्र को देखकर कोई विनोद सूझा हैं, अन्यथा क्या उन्हें शिव द्वारा विषपान का कारण ज्ञात नहीं ! महाकवि कालिदास ने मां शारदा का स्मरण किया व इस प्रकार निवेदन किया,
वृषभो प्रपलायते प्रतिदिनं सिंहावलोकादभया पश्यन्
मŸामयूरमन्तिक चरं, भूषा भुजंग व्रजः कृŸिां कृन्तति
मूषकोऽपि रजनौ भिक्षान्तमाक्षयन
दुखेनेतिदिगम्बरः स्मरहरो हलाहलं पीतवान।
अर्थात् पार्वती के वाहन सिंह के भय से अपना वाहन प्रतिदिन कांपता प्रलाप करता रहता हैं, अपने स्वयं के आभूषण भुजंग को अपने पुत्र कार्तिकेय का वाहन मयूर को देखकर बार-बार उधर लपकता हैं अथवा मयूर को देखकर भुजंग भयाक्रांत हो भागता है, गणेश का वाहन मूषक भिक्षा से प्राप्त अन्न को काटता कुतरता रहता है, इससे रात्रि में नींद नहीं आती, इसी दुःख के कारण दिगम्बर हो रहने पर भी दुखी कामरी महादेव ने विष पीकर आत्महत्या करनी चाही थी। सारी सभा धन्य! धन्य!! के शब्दों से गूंज उठी परन्तु राजा भोज के श्रृंगार रस से परिपूर्ण तृप्ति नहीं हुई, उनके मुख मण्डल पर मुस्कराहट फैली फिर भी बोले, अप्यन्श्व ? अर्थात् क्या कोई और भी कारण हैं ? महाकवि के अधरों पर भी मुस्कान उभरी। उन्होंने राजा को नत मस्तक करके एक छन्द और पढ़ा
अŸाुं वाच्छति वाहनं गणपतेराखुं क्षुधार्तः फणी तज्व
कौंचपतेः शिखी, च गिरिजा सिंहोऽपि नागाननम्।
गौरी जह्नु सुता मसूयति कलानाथं कपालाऽनिलो
निर्विष्णः सपपौ कुटुम्ब कहलादी शोऽपि हलाहलम्।
अर्थात् हे राजन्! अपने पुत्र गणेश के वाहन चूहे को स्वयं का प्रिय भूषण सर्प निगल लेना चाहता है और अपने उसी अंलकार भुजंग को दूसरे पुत्र कार्तिकेय का वाहन मोर, मार डालना चाहता हैं, अपनी पत्नी का वाहन सिंह अपने पुत्र गजानन को हाथी समझकर उसका अन्त करने के लिए व्याकुल रहता है। पार्वती अपने पति के सिर चढ़ी गंगा को देख कर सौतिया डाह से जलती रहती है और जटाजूट पर लटका चन्द्रमा बेचारा तृतीय नैत्र की ज्वाला से दग्ध तनमना होकर निस्तेज बन रहा हैं, हे राजा! अपने कुटुम्ब के भीतर ऐसा भीषण कलह देख कर ही ईश्वर कहलाने वाले शिव को भी विष पीना पड़ा था।
महराजा भोज ने महाकवि को अपने गले से लगाकर बहुमूल्य मणिमाल उनको उपहार में पहना दी।