Friday, 23 August 2019

ब्राम्हण का एकादश परिचय ...

ब्राम्हण का एकादश परिचय ....

1 गोत्र .....

गोत्र का अर्थ है कि वह कौन से ऋषिकुल का है या उसका जन्म किस ऋषिकुल से सम्बन्धित है । किसी व्यक्ति की वंश-परम्परा जहां से प्रारम्भ होती है, उस वंश का गोत्र भी वहीं से प्रचलित होता गया है।

हम सभी जानते हें की हम किसी न किसी ऋषि की ही संतान है, इस प्रकार से जो जिस ऋषि से प्रारम्भ हुआ वह उस ऋषि का वंशज कहा गया ।

विश्‍वामित्रो जमदग्निर्भरद्वाजोऽथ गौतम:।
अत्रिवर्सष्ठि: कश्यपइत्येतेसप्तर्षय:॥
सप्तानामृषी-णामगस्त्याष्टमानां
यदपत्यं तदोत्रामित्युच्यते॥

विश्वामित्र, जमदग्नि, भारद्वाज, गौतम, अत्रि, वशिष्ठ, कश्यप- इन सप्तऋषियों और आठवें ऋषि अगस्त्य की संतान गोत्र कहलाती है।

इस तरह आठ ऋषियों की वंश-परम्परा में जितने ऋषि (वेदमन्त्र द्रष्टा) आ गए वे सभी गोत्र कहलाते हैं। और आजकल ब्राह्मणों में जितने गोत्र मिलते हैं वह उन्हीं के अन्तर्गत है।

 सिर्फ भृगु, अंगिरा के वंशवाले ही उनके सिवाय और हैं जिन ऋषियों के नाम से भी गोत्र व्यवहार होता है।

इस प्रकार कुल दस ऋषि मूल में है। इस प्रकार देखा जाता है कि इन दसों के वंशज ऋषि लाखों हो गए होंगे और उतने ही गोत्र भी होने चाहिए।

गोत्र शब्द  एक अर्थ  में  गो अर्थात्  पृथ्वी का पर्याय भी है ओर 'त्र' का अर्थ रक्षा करने वाला भी हे। यहाँ गोत्र का अर्थ पृथ्वी की रक्षा करें वाले ऋषि से ही है।

गो शब्द इन्द्रियों का वाचक भी है, ऋषि- मुनि अपनी इन्द्रियों को वश में कर अन्य प्रजाजनों का मार्ग दर्शन करते थे, इसलिए वे गोत्रकारक कहलाए।

ऋषियों के गुरुकुल में जो शिष्य शिक्षा प्राप्त कर जहा कहीं भी जाते थे , वे अपने गुरु या आश्रम प्रमुख ऋषि का नाम बतलाते थे, जो बाद में उनके वंशधरो में स्वयं को उनके वही गोत्र कहने की परम्परा आविर्भूत हुई । जाति की तरह गोत्रों का भी अपना महत्‍व है ।।

2 -प्रवर .....

प्रवर का अर्थ हे 'श्रेष्ठ" । अपनी कुल परम्परा के पूर्वजों एवं महान ऋषियों को प्रवर कहते हें ।

 अपने कर्मो द्वारा ऋषिकुल में प्राप्‍त की गई श्रेष्‍ठता के अनुसार उन गोत्र प्रवर्तक मूल ऋषि के बाद होने वाले व्यक्ति, जो महान हो गए वे उस गोत्र के प्रवर कहलाते हें।

इसका अर्थ है कि आपके कुल में आपके गोत्रप्रवर्त्तक मूल ऋषि के अनन्तर तीन अथवा पाँच आदि अन्य ऋषि भी विशेष महान हुए थे l

प्रवर का अर्थ हुआ कि उन मन्त्रद्रष्टा ऋषियों में जो श्रेष्ठ हो।

 प्रवर का एक और भी अर्थ है। ..

यज्ञ के समय अधवर्यु या होता के द्वारा ऋषियों का नाम ले कर अग्नि की प्रार्थना की जाती है। उस प्रार्थना का अभिप्राय यह है कि जैसे अमुक-अमुक ऋषि लोग बड़े ही प्रतापी और योग्य थे। अतएव उनके हवन को देवताओं ने स्वीकार किया। उसी प्रकार, हे अग्निदेव, यह यजमान भी उन्हीं का वंशज होने के नाते हवन करने योग्य है।

 इस प्रकार जिन ऋषियों का नाम लिया जाता है वही प्रवर कहलाते हैं। यह प्रवर किसी गोत्र के एक, किसी के दो, किसी के तीन और किसी के पाँच तक होते हैं न तो चार प्रवर किसी गोत्र के होते हैं और न पाँच से अधिक।

 यही परम्परा चली आती हैं। ऐसा ही आपस्तंब आदि का वचन लिखा है। हाँ, यह अवश्य है कि किसी ऋषि के मत से सभी गोत्रों के तीन प्रवर होते हैं। जैसा कि :

त्रीन्वृणीते मंत्राकृतोवृणीते॥ 7॥

अथैकेषामेकं वृणीते द्वौवृणीते त्रीन्वृणीते न चतुरोवृणीते न
पंचातिवृणीते॥ 8॥

3 -वेद .....

वेदों का साक्षात्कार ऋषियों ने सभी के लाभ के लिए किया है , इनको सुनकर याद किया जाता है , इन वेदों के उपदेशक गोत्रकार ऋषियों के जिस भाग का अध्ययन, अध्यापन, प्रचार प्रसार, आदि किया, उसकी रक्षा का भार उसकी संतान पर पड़ता गया इससे उनके पूर्व पुरूष जिस वेद ज्ञाता थे तदनुसार वेदाभ्‍यासी कहलाते हैं।

प्रत्येक ब्राह्मण का अपना एक विशिष्ट वेद होता है , जिसे वह अध्ययन -अध्यापन करता है ।

आसान शब्दो मे गौत्र प्रवर्तक ऋषि जिस वेद को चिन्‍तन, व्‍याख्‍यादि के अध्‍ययन एवं वंशानुगत निरन्‍तरता पढ़ने की आज्ञा अपने वंशजों को देता है, उस ब्राम्हण वंश (गोत्र) का वही वेद माना जाता है।

वेद का अभिप्राय यह है कि उस गोत्र का ऋषि ने उसी वेद के पठन-पाठन या प्रचार में विशेष ध्यान दिया और उस गोत्रवाले प्रधानतया उसी वेद का अध्ययन और उसमें कहे गए कर्मों का अनुष्ठान करते आए।

इसीलिए किसी का गोत्र यजुर्वेद है तो किसी का सामवेद और किसी का ऋग्वेद है, तो किसी का अथर्ववेद। उत्तर के देशों में प्राय: साम और यजुर्वेद का ही प्रचार था। किसी-किसी का ही अथर्ववेद मिलता है।

 4..उपवेद ....

प्रत्येक वेद  से  सम्बद्ध ब्राम्हण को  विशिष्ट  उपवेद  का  भी  ज्ञान  होना  चाहिये  । वेदों की सहायता के लिए कलाकौशल का प्रचार कर संसार की सामाजिक उन्‍नति का मार्ग बतलाने वाले शास्‍त्र का नाम उपवेद है।

उपवेद उन सब विद्याओं को कहा जाता है, जो वेद के ही अन्तर्गत हों। यह वेद के ही आश्रित तथा वे

दों से ही निकले होते हैं। जैसे-

धनुर्वेद ... विश्वामित्र ने इसे यजुर्वेद से निकला था।

गन्धर्ववेद ... भरतमुनि ने इसे सामवेद से निकाला था।

आयुर्वेद .... धन्वंतरि ने इसे ऋग्वेद से इसे निकाला था।

स्थापत्य ....विश्वकर्मा ने अथर्ववेद से इसे निकला था।

हर गोत्र का अलग अलग उपवेद होता है

5...शाखा .....

वेदो के विस्तार के साथ ऋषियों ने प्रत्येक एक गोत्र के लिए एक वेद के अध्ययन की परंपरा डाली है , कालान्तर में जब एक व्यक्ति उसके गोत्र के लिए निर्धारित वेद पढने में असमर्थ हो जाता था तो ऋषियों ने वैदिक परम्परा को जीवित रखने के लिए शाखाओं का निर्माण किया।

इस प्रकार से प्रत्येक गोत्र के लिए अपने वेद की उस शाखा का पूर्ण अध्ययन करना आवश्यक कर दिया। इस प्रकार से उन्‍होने जिसका अध्‍ययन किया, वह उस वेद की शाखा के नाम से पहचाना गया।

प्रत्‍येक वेद में कई शाखायें होती हैं। जैसे --

ऋग्‍वेद की 21 शाखा...

 प्रयोग में 5 शाकल, वाष्कल,आश्वलायन, शांखायन और माण्डूकायन...

यजुर्वेद की 101 शाखा....

 प्रयोग में 5काठक,
कपिष्ठल,मैत्रियाणी,तैतीरीय,वाजसनेय...

सामवेद की 1000 शाखा...

सभी गायन , मन्त्र यांत्रिक प्रचलित विधान...

अथर्ववेद की 9 शाखा ....

पैपल, दान्त, प्रदान्त,  स्नात, सौल, ब्रह्मदाबल, शौनक, देवदर्शत और चरणविद्या...
है।

इस प्रकार चारों वेदों की 1131 शाखा होती है।

 प्रत्‍येक वेद की अथवा अपने ही वेद की समस्‍त शाखाओं को अल्‍पायु मानव नहीं पढ़ सकता, इसलिए महर्षियों ने 1 शाखा अवश्‍य पढ़ने का पूर्व में नियम बनाया था और अपने गौत्र में उत्‍पन्‍न होने वालों को आज्ञा दी कि वे अपने वेद की अमूक शाखा को अवश्‍य पढ़ा करें, इसलिए जिस गौत्र वालों को जिस शाखा के पढ़ने का आदेश दिया, उस गौत्र की वही शाखा हो गई।

जैसे पराशर गौत्र का शुक्‍ल यजुर्वेद है और यजुर्वेद की 101 शाखा है। वेद की इन सब शाखाओं को कोई भी व्‍यक्ति नहीं पढ़ सकता, इसलिए उसकी एक शाखा (माध्‍यन्दिनी) को प्रत्‍येक व्‍यक्ति 1-2 साल में पढ़ कर अपने ब्राम्हण होने का कर्तव्य पूर्ण कर सकता है ।।

6...सूत्र ....

व्यक्ति शाखा के अध्ययन में असमर्थ न हो , अतः उस गोत्र के परवर्ती ऋषियों ने उन शाखाओं को सूत्र रूप में विभाजित किया है, जिसके माध्यम से उस शाखा में प्रवाहमान ज्ञान व संस्कृति को कोई क्षति न हो और कुल के लोग संस्कारी हों !

वेदानुकूल स्‍मृतियों में ब्राह्मणों के कर्मो का वर्णन किया है, उन कर्मो की विधि बतलाने वाले ग्रन्‍थ ऋषियों ने सूत्र रूप में लिखे हैं और वे ग्रन्‍थ भिन्‍न-भिन्‍न गौत्रों के लिए निर्धारित वेदों के भिन्‍न-भिन्‍न सूत्र ग्रन्‍थ हैं। 

ऋषियों की शिक्षाओं को सूत्र कहा जाता है। प्रत्येक वेद का अपना सूत्र है। सामाजिक, नैतिक तथा शास्त्रानुकूल नियमों वाले सूत्रों को धर्म सूत्र कहते हैं,.ll
 आनुष्ठानिक वालों को श्रौत सूत्र तथा घरेलू विधिशास्त्रों की व्याख्या करने वालों को गॄह् सूत्र कहा जाता है।

सूत्र सामान्यतः पद्य या मिश्रित गद्य-पद्य में लिखे हुए हैं।

7...छन्द ....

प्रत्येक ब्राह्मण का अपना परम्परासम्मत छन्द होता है जिसका ज्ञान हर ब्राम्हण को होना चाहिए   ।
छंद वेदों के मंत्रों में प्रयुक्त कवित्त मापों को कहा जाता है। श्लोकों में मात्राओं की संख्या और उनके लघु-गुरु उच्चारणों के क्रमों के समूहों को छंद कहते हैं - वेदों में कम से कम 15 प्रकार के छंद प्रयुक्त हुए हैं, और हर गोत्र का एक परम्परागत छंद है ।

अत्यष्टि (ऋग्वेद 9.111.9)
अतिजगती(ऋग्वेद 5.87.1)
अतिशक्वरी
अनुष्टुप
अष्टि
उष्णिक्
एकपदा विराट (दशाक्षरा भी कहते हैं)
गायत्री(प्रसिद्ध गायत्री मंत्र)
जगती
त्रिषटुप
द्विपदा विराट
धृति
पंक्ति
प्रगाथ
प्रस्तार पंक्ति
बृहती
महाबृहती
विराट
शक्वरी

विशेष -- ...

वेद प्राचीन ज्ञान विज्ञान से युक्त ग्रन्थ है जिन्हें अपौरुषेय (किसी मानव/देवता ने नहीं लिखे) तथा अनादि माना जाता हैं, बल्कि अनादि सत्य का प्राकट्य है जिनकी वैधता शाश्वत है।

वेदों को श्रुति माना जाता है (श्रवण हेतु, जो मौखिक परंपरा का द्योतक है) लिखे हुए में मिलावट की जा सकती है लेकिन जो कंठस्थ है उसमें कोई कैसे मिलावट कर सकता है इसलिए ब्राम्हणो ने वेदों को श्रुति के रूप में पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ाया.ll

 जो ज्ञान शदियों से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तांतरित होता रहा , हर ब्राम्हण अपने बच्चों को ये जिम्मेदारी देता था कि वो अपने पूर्वजों की इस धरोहर का इस ज्ञान का वाहक बने और समाज और आने वाली पीढ़ी को ये ज्ञान दे ....

लेकिन हम इस पश्चिमीकरण के दौड़ में इस कदर अंधे हुए की हम अपनी जिम्मेदारियों को विस्मृत कर बैठे.ll

वेदों में वो सब कुछ है जो आज भी विज्ञान के लिए आश्चर्य का विषय है जरूरत है तो बस उन कंधों की जो इस जिम्मेदारी का भार उठा सके ।।

8..शिखा ....

अपनी कुल परम्परा के अनुरूप शिखा को दक्षिणावर्त अथवा वामावार्त्त रूप से बांधने  की परम्परा शिखा कहलाती है ।शिखा में जो ग्रंथि देता वह बाईं तरफ घुमा कर और कोई दाहिनी तरफ। प्राय: यही नियम था कि सामवेदियों की बाईं शिखा और यजुर्वेदियों की दाहिनी शिखा कही कही इसमे भी भेद मिलता है ।।
परम्परागत रूप से हर ब्राम्हण को शिखा धारण करनी चाहिए ( इसका अपना वैज्ञानिक लाभ है) लेकिन आज कल इसे धारण करने वाले को सिर्फ कर्मकांडी ही माना जाता है ना तो किसी को इसका लाभ पता है ना कोई रखना चाहता है ।।

9...पाद ..

अपने-अपने गोत्रानुसार लोग अपना पाद प्रक्षालन करते हैं । ये भी अपनी एक पहचान बनाने के लिए ही, बनाया गया एक नियम है । अपने -अपने गोत्र के अनुसार ब्राह्मण लोग पहले अपना बायाँ पैर धोते, तो किसी गोत्र के लोग पहले अपना दायाँ पैर धोते, इसे ही पाद कहते हैं ।सामवेदियों का बायाँ पाद और  इसी प्रकार यजुर्वेदियों की दाहिना पाद माना जाता है ।।

10...देवता ....

प्रत्येक वेद या शाखा का पठन, पाठन करने वाले किसी विशेष देव की आराधना करते है वही उनका कुल देवता (गणेश , विष्णु, शिव , दुर्गा ,सूर्य इत्यादि पञ्च देवों में से कोई एक) उनके आराध्‍य देव है । इसी प्रकार कुल के भी  संरक्षक  देवता या कुलदेवी होती हें । इनका ज्ञान कुल के वयोवृद्ध  अग्रजों (माता-पिता आदि ) के द्वारा अगली पीड़ी को दिया जाता  है । एक कुलीन ब्राह्मण को अपने तीनों प्रकार के देवताओं का बोध  तो अवश्य ही  होना चाहिए -

(1) इष्ट देवता अथवा इष्ट देवी ।
(2) कुल देवता अथवा कुल देवी ।
(2) ग्राम देवता अथवा ग्राम देवी ।

11...द्वार ....

यज्ञ मण्डप में अध्वर्यु (यज्ञकर्त्ता )  जिस दिशा अथवा द्वार से प्रवेश करता है अथवा जिस दिशा में बैठता है, वही उस गोत्र वालों की द्वार होता है।
यज्ञ मंडप तैयार करने की कुल 39 विधाएं है और हर गोत्र के ब्राम्हण के प्रवेश के लिए अलग द्वार होता है

गायत्री महाविज्ञान

गायत्री महाविज्ञान
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गायत्री का शाप विमोचन और उत्कीलन का रहस्य
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सर्वसुलभ समर्थ साधना गायत्री मन्त्र की महिमा गाते हुए शास्त्र और ऋषि- महर्षि थकते नहीं। इसकी प्रशंसा तथा महत्ता के सम्बन्ध में जितना कहा गया है, उतना शायद ही और किसी की प्रशंसा में कहा गया हो। प्राचीनकाल में बड़े- बड़े तपस्वियों ने प्रधान रूप से गायत्री की ही तपश्चर्याएँ करके अभीष्ट सिद्धियाँ प्राप्त की थीं। शाप और वरदान के लिए वे विविध विधियों से गायत्री का ही प्रयोग करते थे।

प्राचनीकाल में गायत्री गुरुमन्त्र था। आज भी गायत्री मन्त्र प्रसिद्ध है। अधिकांश मनुष्य उसे जानते हैं। अनेक मनुष्य किसी न किसी प्रकार उसको दुहराते या जपते रहते हैं अथवा किसी विशेष अवसर पर स्मरण कर लेते हैं। इतने पर भी देखा जाता है कि उससे कोई विशेष लाभ नहीं होता। गायत्री जानने वालों में कोई विशेष स्तर दिखाई नहीं देता। इस आधार पर यह आशंका होने लगती है कि कहीं गायत्री की प्रशंसा और महिमा में वर्णन करने वालों ने अत्युक्ति तो नहीं की? कई मनुष्य आरम्भ में उत्साह दिखाकर थोड़े ही दिनों में उसे छोड़ बैठते हैं। वे देखते हैं कि इतने दिन हमने गायत्री की उपासना की, पर लाभ कुछ न हुआ, फिर क्यों इसके लिए समय बरबाद किया जाए।

कारण यह है कि प्रत्येक कार्य एक नियत विधि- व्यवस्था द्वारा पूरा होता है। चाहे जैसे, चाहे जिस काम को चाहे जिस प्रकार करना आरम्भ कर दिया जाए, तो अभीष्ट परिणाम नहीं मिल सकता। मशीनों द्वारा बड़े- बड़े कार्य होते हैं, पर होते तभी हैं जब वे उचित रीति से चलायी जाएँ। यदि कोई अनाड़ी चलाने वाला, मशीन को यों ही अन्धाधुन्ध चालू कर दे तो लाभ होना तो दूर, उलटे कारखाने के लिए तथा चलाने वाले के लिए संकट उत्पन्न हो सकता है। मोटर तेज दौडऩे वाला वाहन है। उसके द्वारा एक- एक दिन में कई सौ मील की यात्रा सुखपूर्वक की जा सकती है। पर अगर कोई अनाड़ी आदमी ड्राइवर की जगह जा बैठे और चलाने की विधि तथा कल- पुर्जों के उपयोग की जानकारी न होते हुए भी उसे चलाना प्रारम्भ कर दे तो यात्रा तो दूर, उलटे ड्राइवर और मोटर यात्रा करने वालों के लिए अनिष्ट खड़ा हो जाएगा या यात्रा निष्फल होगी। ऐसी दशा में मोटर को कोसना, उसकी शक्ति पर अविश्वास कर बैठना उचित नहीं कहा जा सकता। अनाड़ी साधकों द्वारा की गयी उपासना भी यदि निष्फल हो, तो आश्चर्य की बात नहीं है।

जो वस्तु जितनी अधिक महत्त्वपूर्ण होती है, उसकी प्राप्ति उतनी ही कठिन भी होती है। सीप- घोंघे आसानी से मिल सकते हैं, उन्हें चाहे कोई बिन सकता है; पर जिन्हें मोती प्राप्त करने हैं, उन्हें समुद्र तल तक पहुँचना पड़ेगा और इस खतरे के काम को किसी से सीखना पड़ेगा। कोई अजनबी आदमी गोताखोरी को बच्चों का खेल समझकर या यों ही समुद्र तल में उतरने के लिए डुबकी लगाये, तो उसे अपनी नासमझी के कारण असफलता पर आश्चर्य नहीं करना चाहिए।

यों गायत्री में अन्य समस्त मन्त्रों की अपेक्षा एक खास विशेषता यह है कि नियत विधि से साधना न करने पर भी साधक की कुछ हानि नहीं होती। परिश्रम भी निष्फल नहीं जाता, कुछ न कुछ लाभ ही रहता है, पर उतना लाभ नहीं होता, जितना कि विधिपूर्वक साधना के द्वारा होना चाहिए। गायत्री की तान्त्रिक उपासना में तो अविधि साधना से हानि भी होती है, पर साधारण साधना में वैसा कोई खतरा नहीं है, तो भी परिश्रम का पूरा प्रतिफल न मिलना भी तो एक प्रकार की हानि ही है। इसलिए बुद्धिमान मनुष्य उतावली, अहमन्यता, उपेक्षा के शिकार नहीं होते और साधना मार्ग पर वैसी ही समझदारी से चलते हैं, जैसे हाथी नदी पार करते समय थाह ले- लेकर धीरे- धीरे आगे कदम बढ़ाता है।

प्रतिबन्ध क्या? क्यों?👉 कुछ औषधियाँ नियत मात्रा में लेकर नियत विधिपूर्वक तैयार करके रसायन बनायी जाएँ और नियत मात्रा में नियत अनुपात के साथ रोगी को सेवन करायी जाएँ, तो आश्चयर्जनक लाभ होता है; परन्तु उन्हीं औषधियों को चाहे जिस तरह, चाहे जितनी मात्रा में लेकर चाहे जैसा बना डाला जाए और चाहे जिस रोगी को, चाहे जितनी मात्रा में, चाहे जिस अनुपात में सेवन करा दिया जाए, तो निश्चय ही परिणाम अच्छा न होगा। वे औषधियाँ जो विधिपूर्वक प्रयुक्त होने पर अमृतोपम लाभ दिखाती थीं, अविधिपूर्वक प्रयुक्त होने पर निरर्थक सिद्ध होती हैं। ऐसी दशा में उन औषधियों को दोष देना न्याय संगत नहीं कहा जा सकता। गायत्री साधना भी यदि अविधिपूर्वक की गयी है, तो वैसा लाभ नहीं दिखा सकती जैसा कि विधिपूर्वक साधना से होना चाहिए।

पात्र- कुपात्र कोई भी गायत्री शक्ति का मनमाने प्रयोग न कर सके, इसलिए कलियुग से पूर्व ही गायत्री को कीलित कर दिया गया है। कीलित करने का अर्थ है- उसके प्रभाव को रोक देना। जैसे किसी गतिशील वस्तु को कहीं कील गाढक़र जड़ दिया जाय तो उसकी गति रुक जाती है, इसी तरह मन्त्रों को सूक्ष्म शक्ति से कीलित करने की व्यवस्था रही है। जो उसका उत्कीलन जानता है, वही लाभ उठा सकता है। बन्दूक का लाइसेन्स सरकार उन्हीं को देती है जो उसके पात्र हैं। परमाणु बम का रहस्य थोड़े- से लोगों तक सीमित रखा गया है, ताकि हर कोई उसका दुरुपयोग न कर डाले। कीमती खजाने की तिजोरियों में बढिय़ा चोर ताले लगे होते हैं ताकि अनधिकारी लोग उसे खोल न सकें। इसी आधार पर गायत्री को कीलित किया गया है कि हर कोई उससे अनुपयुक्त प्रयोजन सिद्ध न कर सके।

पुराणों में ऐसा उल्लेख मिलता है कि एक बार गायत्री को वसिष्ठ और विश्वामित्र जी ने शाप दिया कि ‘उसकी साधना निष्फल होगी’। इतनी बड़ी शक्ति के निष्फल होने से हाहाकार मच गया। तब देवताओं ने प्रार्थना की कि इन शापों का विमोचन होना चाहिए। अन्त में ऐसा मार्ग निकाला गया कि जो शाप- विमोचन की विधि पूरी करके गायत्री साधना करेगा, उसका प्रयत्न सफल होगा और शेष लोगों का श्रम निरर्थक जाएगा। इस पौराणिक उपाख्यान में एक भारी रहस्य छिपा हुआ है, जिसे न जानने वाले केवल ‘शापमुक्ताभव’ मन्त्रों को दुहराकर यह मान लेते हैं कि हमारी साधना शापमुक्त हो गयी।
(परम्परागत साधना में गायत्री मन्त्र- साधना करने वालों को उत्कीलन करने की सलाह दी गई है। उसमें साधक निर्धारित मन्त्र पढक़र ‘शापमुक्ताभव’ कहता है।)

वसिष्ठ का अर्थ है👉 ‘विशेष रूप से श्रेष्ठ गायत्री साधना में जिन्होंने विशेष रूप से श्रम किया है, जिसने सवा करोड़ जप किया होता है, उसे वसिष्ठ पदवी दी जाती है। रधुवंशियों के कुल गुरु सदा ऐसे ही वसिष्ठ पदवीधारी होते थे। रघु, अज, दिलीप, दशरथ, राम, लव- कुश आदि इन छ: पीढिय़ों के गुरु एक वसिष्ठ नहीं बल्कि अलग- अलग थे, पर उपासना के आधार पर इन सभी ने वसिष्ठ पदवी को पाया था। वसिष्ठ का शाप मोचन करने का तात्पर्य यह है कि इस प्रकार के वसिष्ठ से गायत्री साधना की शिक्षा लेनी चाहिए, उसे अपना पथ- प्रदर्शक नियुक्त करना चाहिए। कारण है कि अनुभवी व्यक्ति ही यह जान सकता है कि मार्ग में कहाँ क्या- क्या कठिनाइयाँ आती हैं और उनका निवारण कैसे किया जा सकता है?

जब पानी में तैरने की शिक्षा किसी नये व्यक्ति को दी जाती है, तो कोई कुशल तैराक उसके साथ रहता है, ताकि कदाचित् नौसिखिया डूबने लगे तो वह हाथ पकडक़र उसे खींच ले और उसे पार लगा दे तथा तैरते समय जो भूल हो रही हो, उसे समझाता- सुधारता चला जाए। यदि कोई शिक्षक तैराक न हो और तैरना सीखने के लिए बालक मचल रहे हों, तो कोई वृद्ध विनोदी पुरुष उन बालकों को समझाने के लिए ऐसा कह सकता है कि- ‘बच्चो! तालाब में न उतरना, इसमें तैराक गुरु का शाप है। बिना गुरु के शापमुक्त हुए तैरना सीखोगे, तो वह निष्फल होगा।’ इन शब्दों में अहंकार तो है, शाब्दिक अत्युक्ति भी इसे कह सकते हैं, पर तथ्य बिल्कुल सच्चा है। बिना शिक्षक की निगरानी के तैरना सीखने की कोशिश करना एक दुस्साहस ही है।

सवा करोड़ गायत्री जप की साधना करने वाले गायत्री उपासक वसिष्ठ की संरक्षकता प्राप्त कर लेना ही वसिष्ठ शाप- मोचन है। इससे साधक निर्भय, निधडक़ अपने मार्ग पर तेजी से बढ़ता चलता है। रास्ते की कठिनाइयों को वह संरक्षक दूर करता चलता है, जिससे नये साधक के मार्ग की बहुत- सी बाधाएँ अपने आप दूर हो जाती हैं और अभीष्ट उद्देश्य तक जल्दी ही पहुँच जाता है।

गायत्री को केवल वसिष्ठ का ही शाप नहीं, एक दूसरा शाप भी है, वह है विश्वामित्र का। इस रत्न- कोष पर दुहरे ताले जड़े हुए हैं ताकि अधिकारी लोग ही खोल सकें; ले भागू, जल्दबाज, अश्रद्धालु, हरामखोरों की दाल न गलने पाए। विश्वामित्र का अर्थ है- संसार की भलाई करने वाला, परमार्थी, उदार, सत्पुरुष, कर्त्तव्यनिष्ठ। गायत्री का शिक्षक केवल वसिष्ठ गुण वाला होना ही पर्याप्त नहीं है, वरन् उसे विश्वामित्र गुण वाला भी होना चाहिए। कठोर साधना और तपश्चर्या द्वारा बुरे स्वभाव के लोग भी सिद्धि प्राप्त कर लेते हैं। रावण वेदपाठी था, उसने बड़ी- बड़ी तपश्चर्याएँ करके आश्चर्यजनक सिद्धियाँ प्राप्त की थीं। इस प्रकार वह वसिष्ठ पदवीधारी तो कहा जा सकता है, पर विश्वामित्र नहीं; क्योंकि संसार की भलाई के, धर्माचार्य एवं परमार्थ के गुण उनमें नहीं थे। स्वार्थी, लालची तथा संकीर्ण मनोवृत्ति के लोग चाहे कितने ही बड़े सिद्ध क्यों न हों, शिक्षण किये जाने योग्य नहीं, यही दुहरा शाप विमोचन है। जिसने वसिष्ठ और विश्वामित्र गुण वाला पर्थ- प्रदर्शक, गायत्री- गुरु प्राप्त कर लिया, उसने दोनों शापों से गायत्री को छुड़ा लिया। उनकी साधना वैसा ही फल उपस्थित करेगी, जैसा कि शास्त्रों में वर्णित है।

यह कार्य सरल नहीं है, क्योंकि एक तो ऐसे व्यक्ति मुश्किल से मिलते हैं जो वसिष्ठ और विश्वामित्र के गुणों से सम्पन्न हों। यदि मिलें भी तो हर किसी का उत्तरदायित्व अपने ऊपर लेने को तैयार नहीं होते, क्योंकि उनकी शक्ति और सामर्थ्य सीमित होती है और उससे वे कुछ थोड़े ही लोगों की सेवा कर सकते हैं। यदि पहले से ही उतने लोगों का भार अपने ऊपर लिया हुआ है, तो अधिक की सेवा करना उनके लिए कठिन है। स्कूलों में एक अध्यापक प्राय: ३० की संख्या तक विद्यार्थी पढ़ा सकता है। यदि वह संख्या ६० हो जाय, तो न तो अध्यापक पढ़ा सकेगा, न बालक पढ़ सकेंगे, इसलिए ऐसे सुयोग्य शिक्षक सदा ही नहीं मिल सकते। लोभी, स्वार्थी और ठग गुरुओं की कमी नहीं, जो दो रुपया गुरु दक्षिणा लेने के लोभ से चाहे किसी के गले में कण्ठी बाँध देते हैं। ऐसे लोगों को पथ- प्रदर्शक नियुक्त करना एक प्रवञ्चना और विडम्बना मात्र है।

‘गायत्री दीक्षा’ गुरुमुख होकर ली जाती है, तभी फलदायक होती है। बारूद को जमीन पर चाहे जहाँ फैलाकर उसमें दियासलाई लगाई जाए, तो वह मामूली तरह से जल जायेगी, पर उसे बन्दूक में भरकर विधिपूर्वक प्रयुक्त किया जाए, तो उससे भयंकर शब्द के साथ एक प्राणघातक शक्ति पैदा होगी। छपे हुए कागज में पढक़र अथवा कहीं किसी से भी गायत्री सीख लेना ऐसा ही है, जैसा जमीन पर बिछाकर बारूद को जलाना और गुरुमुख होकर गायत्री दीक्षा लेना ऐसा है, जैसा बन्दूक के माध्यम से बारूद का उपयोग होना।

उपयुक्त मार्गदर्शक ‘गुरु- गायत्री’ की विधिपूर्वक साधना करना ही अपने परिश्रम को सफल बनाने का सीधा मार्ग है। इस मार्ग का पहला आधार ऐसे पथ- प्रदर्शक को खोज निकालना है, जो वसिष्ठ एवं विश्वामित्र गुण वाला हो और जिसके संरक्षण में शाप- विमोचन गायत्री साधना हो सके। ऐसे सुयोग्य संरक्षक सबसे पहले यह देखते हैं कि साधक की मनोभूमि, शक्ति, सामर्थ्य, रुचि कैसी है? उसी के अनुसार वे उसके लिए साधना- विधि चुनकर देते हैं। अपने आप विद्यार्थी यह निश्चय नहीं कर सकता कि मुझे किस क्रम से क्या- क्या पढऩा चाहिए? इसे तो अध्यापक ही जानता है कि वह विद्यार्थी किस कक्षा की योग्यता रखता है और इसे क्या पढ़ाया जाना चाहिए। जैसे अलग- अलग प्रकृति के एक रोग के रोगियों को भी औषधि अलग- अलग अनुपान तथा मात्रा का ध्यान रखकर दी जाती है, वैसे ही साधकों की आन्तरिक स्थिति के अनुसार उसके साधना- नियमों में हेर- फेर हो जाता है। इसका निर्णय साधक स्वयं नहीं कर सकता। यह कार्य तो सुयोग्य, अनुभवी और सूक्ष्मदर्शी पथ- प्रदर्शक ही कर सकता है।

आध्यात्मिक मार्ग पर आगे बढ़ाने के लिए श्रद्धा और विश्वास यह दो प्रधान अवलम्बन हैं। इन दोनों का आरम्भिक अभ्यास गुरु को माध्यम बनाकर किया जाता है। जैसे ईश्वर उपासना का प्रारम्भिक माध्यम किसी मूर्ति, चित्र या छवि को बनाया जाता है, वैसे ही श्रद्धा और विश्वास की उन्नति गुरु नामक व्यक्ति के ऊपर उन्हें दृढ़तापूर्वक जमाने से होती है। प्रेम तो स्त्री, भाई, मित्र आदि पर भी हो सकता है, पर श्रद्धायुक्त प्रेम का पात्र गुरु ही होता है। माता- पिता भी यदि वसिष्ठ- विश्वामित्र गुण वाले हों, तो वे सबसे उत्तम गुरु हो सकते हैं। गुरु परम हितचिन्तक, शिष्य की मनोभूमि से परिचित और उसकी कमजोरियों को समझने वाला होता है, इसलिए उसके दोषों को जानकर उन्हें धीरे- धीरे दूर करने का उपाय करता रहता है; पर उन दोषों के कारण वह न तो शिष्य से घृणा करता है और न विरोध। न ही उसको अपमानित, तिरस्कृत एवं बदनाम होने देता है, वरन् उन दोषों को बाल- चापल्य समझकर धीरे- धीरे उसकी रुचि दूसरी ओर मोडऩे का प्रयत्न करता रहता है, ताकि वे अपने आप छूट जाएँ। योग्य गुरु अपनी साधना द्वारा एकत्र की हुई आत्मशक्ति को धीरे- धीरे शिष्य के अन्तःकरण में वैसे ही प्रवेश कराता है, जैसे माता अपने पचाए हुए भोजन को स्तनों में दूध बनाकर अपने बालक को पिलाती रहती है। माता का दूध पीकर बालक पुष्ट होता है। गुरु का आत्मतेज पीकर शिष्य का आत्मबल बढ़ता है। इस आदान- प्रदान को आध्यात्मिक भाषा मे ‘शक्तिपात’ कहते हैं। ऐसे गुरु का प्राप्त होना पूर्व संचित शुभ संस्कारों का फल अथवा प्रभु की महती कृपा का चिह्न ही समझना चाहिए।

कितने ही व्यक्ति सोचते हैं कि हम अमुक समय एक व्यक्ति को गुरु बना चुके, अब हमें दूसरे पथ- प्रदर्शक की नियुक्ति का अधिकार नहीं रहा। उनका यह सोचना वैसा ही है, जैसे कोई विद्यार्थी यह कहे कि ‘अक्षर आरम्भ करते समय जिस अध्यापक को मैंने अध्यापक माना था, अब जीवन भर उसके अतिरिक्त न किसी से शिक्षा ग्रहण करूँगा और न किसी को अध्यापक मानूँगा।’ एक ही अध्यापक से संसार के सभी विषयों को जान लेने की आशा नहीं की जा सकती। फिर वह अध्यापक मर जाए, रोगी हो जाए, कहीं चला जाए, तो भी उसी से शिक्षा लेने का आग्रह करना किस प्रकार उचित कहा जा सकता है? फिर ऐसा भी हो सकता है कि कोई शिष्य प्राथमिक गुरु की अपेक्षा कहीं अधिक जानकार हो जाए और उसका जिज्ञासा क्षेत्र बहुत विस्तृत हो जाए, ऐसी दशा में भी उसकी जिज्ञासाओं का समाधान उस प्राथमिक शिक्षक द्वारा ही करने का आग्रह किया जाए, तो यह किस प्रकार सम्भव है?

प्रचीनकाल के इतिहास पर दृष्टिपात करने से उलझन का समाधान हो जाता है। महर्षि दत्तात्रेय ने चौबीस गुरु किये थे। राम और लक्ष्मण ने जहाँ वसिष्ठ से शिक्षा पायी थी, वहाँ विश्वामित्र से भी बहुत कुछ सीखा था। दोनों ही उनके गुरु थे। श्रीकृष्ण ने सन्दीपन ऋषि से भी विद्याएँ पढ़ी थीं और महर्षि दुर्वासा भी उनके गुरु थे। अर्जुन के गुरु द्रोणाचार्य भी थे और कृष्ण भी। इन्द्र के बृहस्पति भी थे और नारद भी। इस प्रकार अनेकों उदाहरण ऐसे मिलते हैं, जिनसे प्रकट होता है कि आवश्यकतानुसार एक गुरु अनेक शिष्यों की सेवा कर सकता है और एक शिष्य अनेक गुरुओं से ज्ञान प्राप्त कर सकता है। इसमें कोई ऐसा सीमा बन्धन नहीं, जिसके कारण एक के उपरान्त किसी दूसरे से प्रकाश प्राप्त करने में प्रतिबन्ध हो। वैसे भी एक व्यक्ति के कई पुरोहित होते हैं- ग्राम्य पुरोहित, तीर्थ पुरोहित, कुल पुरोहित, राष्ट्र पुरोहित, दीक्षा पुरोहित आदि। जिसे गायत्री साधना का पथ- प्रदर्शक नियुक्त किया जाता है, वह साधना पुरोहित या ब्रह्म पुरोहित है। ये सभी पुरोहित अपने- अपने क्षेत्र, अवसर और कार्य में पूछने योग्य तथा पूजने योग्य हैं। वे एक- दूसरे के विरोधी नहीं, वरन् पूरक हैं।

चौबीस अक्षरों का गायत्री मन्त्र सर्व प्रसिद्ध है, उसे आजकल शिक्षित वर्ग के सभी लोग जानते हैं। फिर भी उपासना करनी है, साधनाजन्य लाभों को लेना है, तो गुरुमुख होकर गायत्री दीक्षा लेनी चाहिए। वसिष्ठ और विश्वामित्र का शाप- विमोचन करके, कीलित गायत्री का उत्कीलन करके साधना करनी चाहिए। गुरुमुख होकर गायत्री दीक्षा लेना एक संस्कार है। उसमें उस दिन गुरु- शिष्य दोनों को उपवास रखना पड़ता है। शिष्य चन्दन, अक्षत, धूप, दीप, पुष्प, नैवेद्य, अन्न, वस्त्र, पात्र, दक्षिणा आदि से गुरु का पूजन करता है। गुरु शिष्य को मन्त्र देता है और पथ- प्रदर्शन का भार अपने ऊपर लेता है। इस ग्रन्थि- बन्धन के उपरान्त अपने उपयुक्त साधना निश्चित कराके जो शिष्य श्रद्धापूर्वक आगे बढ़ते हैं, वे भगवती की कृपा से अपने अभीष्ट उद्देश्य को प्राप्त कर लेते हैं।

जब से गायत्री की दीक्षा ले ली जाय, तब से लेकर जब तक पूर्ण सिद्धि प्राप्त न हो जाय, तब तक साधना गुरु को अपनी साधना के समय समीप रखना चाहिए। गुरु का प्रत्यक्ष रूप से सदा साथ रहना तो संभव नहीं हो सकता, पर उनका चित्र शीशे में मढ़वाकर पूजा के स्थान पर रखा जा सकता है और गायत्री, सन्ध्या, जप, अनुष्ठान या कोई और साधना आरम्भ करने से पूर्व उस चित्र का पूजन धूप, अक्षत, नैवेद्य, पुष्प, चन्दन आदि से कर लेना चाहिए। जहाँ चित्र उपलब्ध न हो, वहाँ एक नारियल को गुरु के प्रतीक रूप में स्थापित कर लेना चाहिए। एकलव्य भील की कथा प्रसिद्ध है कि उसने द्रोणाचार्य की मिट्टी की मूर्ति स्थापित करके उसी को गुरु माना था और उसी से पूछकर बाण- विद्या सीखता था। अन्त में वह इतना सफल धनुर्धारी हुआ कि पाण्डवों तक को उसकी विशेषता देखकर आश्चर्यचकित होना पड़ा था। चित्र या नारियल के माध्यम से गुरु पूजा करके तब जो भी गायत्री साधना आरम्भ की जायेगी, वह शापमुक्त तथा उत्कीलित होगी।

श्रावणी उपाकर्म--इन्द्रियों की पवित्रता का पुण्य पर्व....!!

श्रावणी उपाकर्म--इन्द्रियों की पवित्रता का पुण्य पर्व....!!!
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उपाकर्म का अर्थ है प्रारंभ करना। उपाकरण का अर्थ है आरंभ करने के लिए निमंत्रण या निकट लाना। वैदिक काल में यह वेदों के अध्ययन के लिए विद्यार्थियों का गुरु के पास एकत्रित होने का काल था। इसके आयोजन काल के बारे में धर्मगंथों में लिखा गया है कि - जब वनस्पतियां उत्पन्न होती हैं, श्रावण मास के श्रवण व चंद्र के मिलन (पूर्णिमा) या हस्त नक्षत्र में श्रावण पंचमी को उपाकर्म होता है। इस अध्ययन सत्र का समापन, उत्सर्जन या उत्सर्ग कहलाता था। यह सत्र माघ शुक्ल प्रतिपदा या पौष पूर्णिमा तक चलता था। श्रावण शुक्ल पूर्णिमा के शुभ दिन रक्षाबंधन के साथ ही श्रावणी उपाकर्म का पवित्र संयोग बनता है। विशेषकर यह पुण्य दिन ब्राह्मण समुदाय के लिए बहुत महत्व रखता है। जीवन की वैज्ञानिक प्रक्रिया:- जीवन के विज्ञान की यह एक सहज, किन्तु अति महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया है । जन्मदात्री माँ चाहती है कि हर अण्डा विकसित हो । इसके लिए वह उसे अपने उदर की ऊर्जा से ऊर्जित करती है, अण्डे को सेती है । माँ की छाती की गर्मी पाकर उस संकीर्ण खोल में बंद जीव पुष्ट होने लगता है । उसके अंदर उस संकीर्णता को तोड़कर विराट् प्रकृति, विराट् विश्व के साक्षात्कार का संकल्प उभरता है । उसे फिर उस सुरक्षित संकीर्ण खोल को तोड़कर बाहर निकलने में भय नहीं लगता । वह दूसरा-नया जन्म ले लेता है । यह प्रक्रिया प्रकृति की सहज प्रक्रिया है, किन्तु पुरुषार्थसाध्य है । पोषक और पोषित; दोनों को इसके अंतर्गत प्रबल पुरुषार्थ करना पड़ता है । इसीलिए युगऋषि ने लिखा है- 'मनुष्य जन्म तो सहजता से हो जाता है, किन्तु मनुष्यता विकसित करने के लिए कठोर पुरुषार्थ करना पड़ता है ।' जैसे अण्डा माता की छाती की ऊष्मा से पकता है, वैसे ही मनुष्यता गुरु-अनुशासन में वेदमाता की गर्मी (शुद्ध ज्ञान की ऊर्जा) से धीरे-धीरे परिपक्व होती है । परिपक्व होने पर साधक अपने संकल्प से उस संकीर्णता के घेरे को तोड़ डालता है । तब उसे अपने तथा जन्मदात्री माता के स्वरूप का बोध होता है । तब वह भी माँ की तरह विराट् आकाश में उड़ने की चेष्टा करता है । तब माँ ऊँची उड़ानें भरने के उसके प्रयासों को शुद्ध-सही बनाती है । यही मर्म है- 'पावमानी द्विजानाम्' का । जो संकीर्णता के खोल में बंद है, उसे माँ विकसित करने के लिए अपनी ऊर्जा तो देती रहती है, किन्तु नया जन्म लेने के पहले उसके लिए अपने अन्य कौशलों का प्रयोग नहीं कर सकती । जिसने दूसरा जन्म ले लिया, वह 'द्विज' । नये दुर्लभ जन्म की प्रक्रिया को पूरा करने की प्रवृत्ति-साधना है 'द्विजत्व' । जब द्विज के चिंतन, चरित्र, व्यवहार पवित्र हो जाते हैं, तो वह ब्रह्म के अनुशासन में सिद्ध ब्राह्मण हो जाता है । जब उसकी कामनाएँ ब्रह्म के अनुरूप ही हो जाती हैं, तो ब्राह्मी चेतना-आदिशक्ति उसके लिए कामधेनु बन जाती है । जिसकी कामनाएँ-प्रवृत्तियों अनगढ़ हैं, उन्हें पूरा करने से तो संसार में अनगढ़ता ही बढ़ेगी । इसलिए माता सुगढ़-शुद्ध कामना वालों के लिए ही कामधेनु का रूप धारण करती है । भारतीय संस्कृति में द्विजत्व और ब्राह्मणत्व का संबंध किसी जाति या वर्ग विशेष में जन्म लेने से नहीं है, बल्कि वह साधना की उच्च कक्षा से जुड़े सम्बोधन हैं । इसीलिए संस्कारों से द्विजत्व की प्राप्ति की बात कही जाती रही है । संगीत के द्वार सभी के लिए खुले हैं, किन्तु संगीताचार्य अपनी बारीकियाँ उन्हीं के सामने खोलते हैं, जिनकी संगीत साधना उच्च स्तरीय हो गई है । खेल सभी खेल सकते हैं, किन्तु खेल प्रशिक्षक खेल तकनीक की बारीकियाँ उसी को समझाता है, जिनके कौशल और दमखम की साधना उच्च स्तरीय है । जिसकी साधना विकसित नहीं हुई है, उसे आगे की बात बताने से बतलाने वाले का प्रयास निरर्थक तो जाता ही है, कई बार उसका विपरीत प्रभाव भी भोगना पड़ जाता है । तिथि:- श्रावण पूण्रिमा में यदि ग्रहण या संक्रांति हो तो श्रावणी उपाकर्म श्रावण शुक्ल पंचमी को करना चाहिये।'भद्रायां ग्रहणं वापि पोर्णिमास्या यदा भवेत। उपाकृतिस्तु पंचम्याम कार्या वाजसेनयिभ:' संक्रांति व पूर्णिमा युति या ग्रहण पूर्णिमा युति में वाजसेनी आदि सभी शाखा के ब्राह्मणों को उपाकर्म (श्रावणी) पंचमी को कर लेनी चाहिये। शास्त्र सम्मत श्रावण उपाकर्म भद्रा दोष, ग्रहण युक्त पूर्णिमा, संक्राति युक्त पूर्णिमा में नहीं किया जाता तब उससे पूर्व श्रावण शुक्ल पंचमी नागपंचमी में श्रावणी स्नान उपाकर्म करने के शास्त्रोक्त निर्देश हैं। हेमाद्रिकल्प, स्कंद पुराण, स्मृति महार्णव, निर्णय सिंधु, धर्म सिंधु आदि योतिष व धर्म के निर्णय ग्रंथों में इसके प्रमाण हैं। कुछ ग्रंथों के प्रमाण इस प्रकार हैं- 'श्रावण शुक्लया: पूर्णिमायां ग्रहणं संक्रांति वा भवेतदा। यजुर्वेदिभि: श्रावण शुक्ल पंचम्यामुपाकर्म कर्तव्यं॥' अर्थात श्रावण पूण्रिमा में यदि ग्रहण या संक्रांति हो तो श्रावणी उपाकर्म श्रावण शुक्ल पंचमी को करना चाहिये। एक अन्य श्लोक के उल्लेख के अनुसार भद्रा में दो कार्य नहीं करना चाहिये एक श्रावणी अर्थात उपाकर्म, रक्षाबंधन, श्रवण पूजन आदि और दूसरा फाल्गुनि होलिका दहन। भद्रा में श्रावणी करने से राजा की मृत्यु होती है तथा फाल्गुनी करने से नगर ग्राम में आग लगती है तथा उपद्रव होते हैं। श्रावणी अर्थात उपाकर्म रक्षाबंधन, श्रवण पूजन भद्रा के उपरांत ही की जा सकती है। लेकिन ग्रहण युक्त पूर्णिमा भी श्रावणी उपाकर्म में निषिध्द है|ब्राह्मणों का यह अतिमहत्वपूर्ण कर्म हैं| श्रावणी पर्व:- श्रावणी पर्व द्विजत्व की साधना को जीवन्त, प्रखर बनाने का पर्व है । जो इस पर्व के प्राण-प्रवाह के साथ जुड़ते हैं, उनका द्विजत्व-ब्राह्मणत्व जाग्रत् होता जाता है तथा वे आदिशक्ति, गुरुसत्ता के विशिष्ठ अनुदानों के प्रामाणिक पात्र बन जाते हैं । द्विजत्व की साधना को इस पर्व के साथ विशेष कारण से जोड़ा गया है । युगऋषि ने श्रावणी पर्व के सम्बन्ध में लिखा है कि यह वह पर्व है जब ब्रह्म का 'एकोहं बहुस्यामि' का संकल्प फलित हुआ । पौराणिक उपाख्यान सबको पता है । भगवान की नाभि से कमलनाल निकली, उसमें से कमल पुष्प विकसित हुआ । उस पर स्रष्टा ब्रह्मा प्रकट हुए, उन्होंने सृष्टि की रचना की । युगऋषि इस अंलकारिक आख्यान का मर्म स्पष्ट करते हुए लिखते हैं- ''संकल्पशक्ति क्रिया में परिणित होती है और उसी का स्थूल रूप वैभव एवं घटनाक्रम बनकर सामने आता है । नाभि (संकल्प) में से अन्तरंग बहिरंग बनकर विकसित होने वाली कर्म-वल्लरी को ही पौराणिक अलंकरण में कमलबेल कहा गया है । पुष्प इसी बेल का परिपक्व परिणाम है । सृष्टि का सृजन हुआ, इसमें दो तत्व प्रयुक्त हुए-१ ज्ञान, २ कर्म । इन दोनों के संयोग से सूक्ष्म चेतना, संकल्प शक्ति स्थूल वैभव में परिणत हो गई और संसार का विशाल कलेवर बनकर खड़ा हो गया । उसमें ऋद्धि-सिद्धियों का आनन्द-उल्लास भर गया । यही कमल-पुष्प की पखुड़ियाँ हैं । इसका मूल है ज्ञान और कर्म, जो ब्रह्म की इच्छा और प्रत्यावर्तन प्रक्रिया द्वारा सम्भव हुआ । ज्ञान और कर्म के आधार पर ही मनुष्य की गरिमा का विकास हुआ है ।'' मनुष्य की महान गरिमा के अनुरूप जीवन जीने के अभ्यास को द्विजत्व की साधना कहा गया है । द्विजत्व की साधना सहज नहीं है । मन की कमजोरियों और परिस्थितियों की विषमताओं के कारण प्रयास करने पर भी साधकों से चूकें हो जाती हैं । समय-समय पर आत्म समीक्षा द्वारा उन भूल-चूकों को चिन्हित करके उन्हें ठीक करना, अपने अन्दर सन्निहित महान सम्भावनाओं को जाग्रत्-साकार करने के प्रयास करना जरूरी होता है । इस सदाशयतापूर्ण संकल्प को पूरा करने के लिए श्रावणी पर्व-ब्राह्मी संकल्प के फलित होने वाले पर्व से श्रेष्ठ और कौन-सा समय हो सकता है? इसलिए ऋषियों ने द्विजत्व के परिमार्जन-विकास के लिए श्रावणी पर्व को ही चुना है । विधि :- श्रावणी उपाकर्म के तीन पक्ष है- प्रायश्चित्त संकल्प, संस्कार और स्वाध्याय। सर्वप्रथम होता है- प्रायश्चित्त रूप में हेमाद्रि स्नान संकल्प। गुरु के सान्निध्य में ब्रह्मचारी गोदुग्ध, दही, घृत, गोबर और गोमूत्र तथा पवित्र कुशा से स्नानकर वर्षभर में जाने-अनजाने में हुए पापकर्मों का प्रायश्चित्त कर जीवन को सकारात्मकता से भरते हैं। स्नान के बाद ऋषिपूजन, सूर्योपस्थान एवं यज्ञोपवीत पूजन तथा नवीन यज्ञोपवीत धारण करते हैं। यज्ञोपवीत या जनेऊ आत्म संयम का संस्कार है। आज के दिन जिनका यज्ञोपवित संस्कार हो चुका होता है, वह पुराना यज्ञोपवित उतारकर नया धारण करते हैं और पुराने यज्ञोपवित का पूजन भी करते हैं । इस संस्कार से व्यक्ति का दूसरा जन्म हुआ माना जाता है। इसका अर्थ यह है कि जो व्यक्ति आत्म संयमी है, वही संस्कार से दूसरा जन्म पाता है और द्विज कहलाता है। उपाकर्म का तीसरा पक्ष स्वाध्याय का है। इसकी शुरुआत सावित्री, ब्रह्मा, श्रद्धा, मेधा, प्रज्ञा, स्मृति, सदसस्पति, अनुमति, छंद और ऋषि को घृत की आहुति से होती है। जौ के आटे में दही मिलाकर ऋग्वेद के मंत्रों से आहुतियां दी जाती हैं। इस यज्ञ के बाद वेद-वेदांग का अध्ययन आरंभ होता है। इस सत्र का अवकाश समापन से होता है। इस प्रकार वैदिक परंपरा में वैदिक शिक्षा साढ़े पांच या साढ़े छह मास तक चलती है। वर्तमान में श्रावणी पूर्णिमा के दिन ही उपाकर्म और उत्सर्ग दोनों विधान कर दिए जाते हैं। प्रतीक रूप में किया जाने वाला यह विधान हमें स्वाध्याय और सुसंस्कारों के विकास के लिए प्रेरित करता है। यह जीवन शोधन की एक अति महत्वपूर्ण मनोवैज्ञानिक-आध्यात्मिक प्रक्रिया है । उसे पूरी गम्भीरता के साथ किया जाना चाहिए । श्रावणी पर्व वैदिक काल से शरीर, मन और इन्द्रियों की पवित्रता का पुण्य पर्व माना जाता है । इस पर्व पर की जाने वाली सभी क्रियाओं का यह मूल भाव है कि बीते समय में मनुष्य से हुए ज्ञात-अज्ञात बुरे कर्म का प्रायश्चित करना और भविष्य में अच्छे कार्य करने की प्रेरणा देना। द्विज और द्विजत्व:- द्विज सम्बोधन यहाँ किसी जाति-वर्ग विशेष के लिए नहीं है, यह एक गुणवाचक सम्बोधन है । जीवन साधना की उच्चतम कक्षा के सफल साधक का पर्याय है । द्विज का अर्थ होता है-दुबारा जन्म लेने वाला । संस्कृत साहित्य में पक्षियों को भी द्विज कहा जाता है । माँ जन्म देती है अण्डे को । माँ के गर्भ से जन्म ले लेने की प्रक्रिया पूरी हो जाने पर भी बच्चे का स्वरूप जन्मदात्री के स्वरूप के अनुरूप नहीं होता । परन्तु अण्डे के अंदर जो जीव है, उसमें जन्मदात्री के अनुरूप विकसित होने की सभी संभावनाएँ होती हैं । प्रकृति के अनुशासन का पालन किये जाने पर उसका समुचित विकास हो जाता है और वह अण्डे में बँधी अपनी संकीर्ण सीमा को तोड़कर अपने नये स्वरूप में प्रकट हो जाता है । इस प्रक्रिया को उसका दूसरा जन्म कहना हर तरह से उचित है । यह प्रक्रिया पूरी होने पर ही उसे प्रकृति की विराटता का बोध होता है । तभी माँ उसे उड़ने का प्रशिक्षण देती है । ऋषियों ने अनुभव किया कि मनुष्य स्रष्टा की अद्भुत कृति है । उसमें दिव्य शक्तियों, क्षमताओं के विकास की अनंत सँभावनाएँ हैं । सामान्य रूप से तो माँ के गर्भ से जन्म लेने के बाद भी वह पशुओं जैसी आहार, निद्रा, भय, मैथुन की संकीर्ण प्रवृत्तियों के घेरे में ही कैद रहता है । मनुष्य की अंतःचेतना जब पुष्ट होकर संकीर्णता के उस अण्डे जैसे घेरे को तोड़कर बाहर आने का पुरुषार्थ करती है, तब उसका दूसरा जन्म होता है । तभी माता (आदिशक्ति) उसे सदाशयता और सत्पुरुषार्थ (सद्ज्ञान एवं सत्कर्म) के पंख फैलाकर जीवन की ऊँचाइयों में उड़ने का प्रशिक्षण देती है । तैयारी करें:- जो साधक वास्तव में इसका यथेष्ट लाभ उठाना चाहते हैं, उन्हें इसके लिए कम से कम एक दिन पूर्व से विचार मंथन करना चाहिए । गुरुदीक्षा के समय अथवा अगले चरण के साधना प्रयोगों में जो नियम-अनुशासन स्वीकार किये गये थे, उन पर ध्यान दिया जाना चाहिए । भूलों को समझे और स्वीकार किए बिना उनका शोधन संभव नहीं । आत्मसाधना में समीक्षा के बाद ही शोधन, निर्माण एवं विकास के कदम बढ़ाये जा सकते हैं । जो भुल-चूकें हुई हों, उन्हें गुुरुसत्ता के सामने सच्चे मन से स्वीकार किया जाना चाहिए । क्षति पूर्ति के लिए अपने र्कत्तव्य निश्चित करके गुुरुसत्ता से उसमें समुचित सहायता की प्रार्थना करनी चाहिए । श्रावणी उपाकर्म के सामूहिक क्रम में जो शामिल हों, उन्हें सामूहिक कर्मकाण्ड का लाभ तभी मिलेगा, जब वे उसके लिए व्यक्तिगत मंथन कर चुके होंगे । उसके बाद शिखा सिंचन उच्च विचार-ज्ञान साधना को तेजस्वी बनने के लिए किया जाता है । यज्ञोपवीत परिवर्तन यज्ञीय कर्म अनुशासन को अधिक प्रखर-प्रामाणिक बनाने के लिए किया जाता है । ब्रह्मा का, वेद का और ऋषियों का आवाहन, पूजन उनकी साक्षी में संकल्प करने तथा उनके सहयोग से आगे बढ़ते रहने के भाव से किया जाता है । रक्षाबंधन प्रगति के श्रेष्ठ संकल्पों को पूरा करने के भाव से किया-कराया जाता है । प्रकृति के अनुदानों के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने के साथ उसके ऋण से यथाशक्ति उऋण होने के भाव से वृक्षारोपण करने का नियम है । श्रावणी पर हर दीक्षित साधक को साधना का परिमार्जन करने के साथ उसको श्रेष्ठतर स्तरों पर ले जाने के संकल्प करने चाहिए । ऐसा करने वाले साधक ही इष्ट, गुरु या मातृसत्ता के उच्च स्तरीय अनुदानों को प्राप्त करने की पात्रता अर्जित कर सकते हैं । यदि सामूहिक पर्व क्रम में शामिल होने का सुयोग न बने तथा विशेष कर्मकाण्डों का करना-कराना संभव न हो, तो भी अपने साधना स्थल पर भावनापूर्वक पर्व के आवश्यक उपचारों द्वारा श्रावणी के प्राण-प्रवाह से जुड़कर उसका पर्याप्त लाभ प्राप्त किया जा सकता है । इसके लिए सभी को एक दिन पहले से ही जागरूकतापूर्वक प्रयास करने-कराने चाहिए । भूलों के सुधार तथा विकास के लिए निर्धारित नियमों को लिखकर पूजा स्थल पर रख लेना चाहिए । उपासना के समय उन पर दृष्टि पड़ने से होने वाली भूलों, विसंगतियों से बचना संभव होता है । हमारे सार्थक प्रयास हमें उच्च स्तरीय प्रगति का अधिकारी बना सकते हैं|

Sunday, 20 January 2019

संस्कृत ज्ञान विज्ञान की भाषा

संस्कृत ज्ञान विज्ञान की भाषा
संस्कृत हज़ारों वर्ष से इस देश की राष्ट्रभाषा रही हैं। यहाँ का समस्त साहित्य संस्कृतमय है, यहां के निवासी की क्रिया कलाप की यही भाषा है। इस देश की सभ्यता एवं संस्कृति की पवित्रधारा इसी भाषा में निरंतर बहती रही हो। वह भाषा इस देश में कदापि मृत नहीं हो सकती।
अंग्रेजी शिक्षण व्यवस्था से सदा के लिए इस सम्पूर्णवैज्ञानिक भाषा की उपेक्षा की गयी। जेसे अपने बेटे द्वारा माँ का परित्याग हुआ हो। फिर भी इस देश में समय समय पर भारत माँ के सपूत ने जन्म लिया और इसके महत्व को समझाया और आज तो यह हो गया है कि पूरे विश्व ने इसको मान लिया।
संसार की समस्त प्राचीनतम भाषाओं में संस्कृत का सर्वोच्चस्थान है। विश्व-साहित्य की प्रथम पुस्तक ऋग्वेद संस्कृत में ही रची गई है। संपूर्ण भारतीय संस्कृति, परंपरा और महत्वपूर्ण राज इसमें निहित है। अमरभाषा या देववाणी संस्कृत को जाने बिना भारतीय संस्कृति की महत्ता को जाना नहीं जा सकता।
देश-विदेश के कई बड़े विद्वान संस्कृत के अनुपम और विपुलसाहित्य को देखकर चकित रह गए हैं। कई विशेषज्ञों ने वैज्ञानिक रीति से इसका अध्ययन किया और गहरी गवेषणा की है। समस्त भारतीय भाषाओं को जोड़ने वाली कड़ी यदि कोई भाषा है तो वह संस्कृत ही है।
संस्कृत साहित्य का महत्व
विश्वभर की समस्त प्राचीन भाषाओं में संस्कृत का सर्वप्रथमऔर उच्च स्थान है। विश्व-साहित्य की पहली पुस्तक ऋग्वेद इसी भाषा का देदीप्यमान रत्न है। संस्कृत का अध्ययन किये बिना भारतीय संस्कृति का पूर्ण ज्ञान कभी सम्भव नहीं है।
अनेक प्राचीन एवं अर्वाचीन भाषाओं की यह जननी है। आज भी भारत की समस्त भाषाएँ इसी वात्सल्यमयी जननी के स्तन्यामृत से पुष्टि पा रही हैं।
ऋग्वेदसंहिता : सबसे पुराना ग्रंथ
ऋग्वेदसंहिता के कतिपय मंडलों की भाषा संस्कृतवाणी का सर्व प्राचीन उपलब्ध स्वरूप है। ऋग्वेद संहिता इस भाषा का पुरातनतम ग्रंथ है। यहाँ यह भी स्मरण रखना चाहिए कि ऋग्वेद संहिता केवल संस्कृत भाषा का प्राचीनतम ग्रंथ नहीं है - अपितु वह आर्य जाति की संपूर्ण ग्रंथराशि में भी प्राचीनतम ग्रंथ है। ऋग्वेदकाल से लेकर आज तक उस भाषा की अखंड परंपरा चली आ रही है। ऋक्संहिता केवल भारतीय की ही अमूल्य निधि नहीं है - वह समग्र आर्यजाति की, समस्तविश्ववाङ्मय की सर्वाधिक महत्वपूर्ण विरासत है।
भारत के वैदिक ऋषियों और विद्वानों ने अपने वैदिकवाङ्मय को मौखिक और श्रुतिपरंपरा द्वारा प्राचीनतम रूप मेंअत्यंत सावधानी के साथ सुरक्षित और अधिकृत बनाए रखा। किसी प्रकार के ध्वनिपरक, मात्रापरक यहाँ तक कि स्वर (ऐक्सेंट) परक परिवर्तन से पूर्णत: बचाते रहने का नि:स्वार्थभाव में वैदिक वेदपाठी सहस्रब्दियों तक अथक प्रयास करते रहे। "वेद" शब्द से मंत्रभाग (संहिताभाग) और "ब्राह्मण" का बोध माना जाता था। "ब्राह्मण" भाग के तीन अंश - (1) ब्राह्मण, (2) आरण्यक और (3) उपनिषद् कहे गए हैं। लिपिकला के विकास से पूर्व मौखिक परंपरा द्वारा वेदपाठियों ने इनका संरक्षण किया। बहुत सा वैदिक वाङ्मय धीरे-धीरे लुप्त हो गया है। पर आज भी जितना उपलब्ध है उसका महत्व असीम है। भारतीय दृष्टि से वेद को अपौरुषेय माना गया है। कहा जाता है, मंत्रद्रष्टा ऋषियों ने मंत्रों का साक्षात्कार किया। आधुनिक जगत् इसे स्वीकार नहीं करता। फिर भी यह माना जाता है कि वेदव्यास ने वैदिक मंत्रों का संकलन करते हुए संहिताओं के रूप में उन्हें प्रतिष्ठित किया।अत: संपूर्ण भारतीय संस्कृति वेदव्यास की युग-युग तक ऋणी बनी रहेगी।
वेद, वेदांग, उपवेद
यहाँ साहित्य शब्द का प्रयोग "वाङ्मय" के लिए है। ऊपर वेदसंहिताओं का उल्लेख हुआ है। वेद चार हैं-ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद। इनकी अनेक शाखाएँ थीं जिनमें बहुत सी लुप्त हो चुकी हैं और कुछ सुरक्षित बच गई हैं जिनके संहिताग्रंथ हमें आज उपलब्ध हैं। इन्हीं की शाखाओं से संबद्ध ब्राह्मण, अरण्यक और उपनिषद् नामक ग्रंथों का विशाल वाङ्मय प्राप्त है। वेदांगों में सर्वप्रमुख कल्पसूत्र हैं जिनके अवांतर वर्गों के रूप में और सूत्र, गृह्यसूत्र और धर्मसूत्र (शुल्बसूत्र भी है) का भी व्यापक साहित्य बचा हुआ है। इन्हीं की व्याख्या के रूप में समयानुसार धर्मसंहिताओं और स्मृतिग्रंथों का जो प्रचुरवाङ्मय बना, मनुस्मृति का उनमें प्रमुख स्थान है। वेदांगों मेंशिक्षा-प्रातिशाख्य, व्याकरण, निरुक्त, ज्योतिष, छंद शास्त्रसे संबद्ध ग्रंथों का वैदिकोत्तर काल से निर्माण होता रहा है।अब तक इन सबका विशाल साहित्य उपलब्ध है। आजज्योतिष की तीन शाखाएँ-गणित, सिद्धांत और फलित विकसित हो चुकी हैं और भारतीय गणितज्ञों की विश्व कीबहुत सी मौलिक देन हैं। पाणिनि और उनसे पूर्वकालीन तथा परवर्ती वैयाकरणों द्वारा जाने कितने व्याकरणों की रचना हुई जिनमें पाणिनि का व्याकरण-संप्रदाय 2500 वर्षों से प्रतिष्ठित माना गया और आज विश्व भर में उसकी महिमामान्य हो चुकी है। पाणिनीय व्याकरण को त्रिमुनि व्याकरण भी कहते हैं, क्योकि पाणिनि, कात्यायन और पतञ्जलि इन तीन मुनियों के सत्प्रयास से यह व्याकरण पूर्णता को प्राप्त किया। यास्क का निरुक्त पाणिनि से पूर्वकाल का ग्रंथ है और उससे भी पहले निरुक्तिविद्या के अनेक आचार्य प्रसिद्ध होचुके थे। शिक्षा प्रातिशाख्य ग्रंथों में कदाचित् ध्वनिविज्ञान, शास्त्र आदि का जितना प्राचीन और वैज्ञानिक विवेचन भारतकी संस्कृत भाषा में हुआ है- वह अतुलनीय और आश्चर्यकारी है। उपवेद के रूप में चिकित्साविज्ञान के रूप में आयुर्वेदविद्या का वैदिकाल से ही प्रचार था और उसके पंडिताग्रंथ (चरकसंहिता, सुश्रुतसंहिता आदि) प्राचीनभारतीय मनीषा के वैज्ञानिक अध्ययन की विस्मयकारी निधि है। इस विद्या के भी विशाल वाङ्मय का कालांतर में निर्माण हुआ। इसी प्रकार धनुर्वेद और राजनीति, गांधर्ववेद आदि को उपवेद कहा गया है तथा इनके विषय को लेकर ग्रंथ के रूप में अथवा प्रसंगतिर्गत सन्दर्भों में पर्याप्त विचार मिलता है।
दर्शनशास्त्र
वेद, वेदांग, उपवेद आदि के अतिरिक्त संस्कृत वाङ्मय मेंदर्शनशास्त्र का वाङ्मय भी अत्यंत विशाल है। पूर्वमीमांसा, उत्तर मीमांसा, सांख्य, योग, वैशेषिक और न्याय-इन छह प्रमुख आस्तिक दर्शनों के अतिरिक्त पचासों से अधिक आस्तिक-नास्तिक दर्शनों के नाम तथा उनके वाङ्मय उपलब्ध हैं जिनमें आत्मा, परमात्मा, जीवन, जगत्पदार्थमीमांसा, तत्वमीमांसा आदि के सन्दर्भ में अत्यंतप्रौढ़ विचार हुआ है। आस्तिक षड्दर्शनों के प्रवर्तक आचार्यों केरूप में व्यास, जैमिनि, कपिल, पतंजलि, कणाद, गौतम आदि के नाम संस्कृत साहित्य में अमर हैं। अन्य आस्तिक दर्शनों में शैव, वैष्णव, तांत्रिक आदि सैकड़ों दर्शन आते हैं।आस्तिकेतर दर्शनों में बौद्धदर्शनों, जैनदर्शनों आदि केसंस्कृत ग्रंथ बड़े ही प्रौढ़ और मौलिक हैं। इनमें गंभीर विवेचन हुआ है तथा उनकी विपुल ग्रंथराशि आज भी उपलब्ध है। चार्वाक, लोकायतिक, गार्हपत्य आदि नास्तिक दर्शनों का उल्लेख भी मिलता है। वेदप्रामण्य को माननेवाले आस्तिक और तदितर नास्तिक के आचार्यों और मनीषियों ने अत्यंत प्रचुर मात्रा में दार्शनिक वाङ्मय का निर्माण किया है। दर्शनसूत्र के टीकाकार के रूप में परमादृत शंकराचार्य का नामसंस्कृत साहित्य में अमर है।
लौकिक साहित्य
कौटिल्य का अर्थशास्त्र, वात्स्यायन का कामसूत्र, भरत का नाट्य शास्त्र आदि संस्कृत के कुछ ऐसे अमूल्य ग्रंथरत्न हैं - जिनका समस्त संसार के प्राचीन वाङ्मय में स्थान है। श्रीमद्भगवद्गीता का संसार में कहा जाता है - बाईबिल के बाद सर्वाधिक प्रचार है तथा विश्व की उत्कृष्टतम कृतियों में उसका उच्च और अन्यतम स्थान है।
वैदिक वाङ्मय के अनंतर सांस्कृतिक दृष्टिसे वाल्मीकिके रामायण और व्यास के महाभारत की भारत मेंसर्वोच्च प्रतिष्ठा मानी गई है। महाभारत का आज उपलब्धस्वरूप एक लाख पद्यों का है। प्राचीन भारत की पौराणिकगाथाओं, समाजशास्त्रीय मान्यताओं, दार्शनिक आध्यात्मिक दृष्टियों, मिथकों, भारतीय ऐतिहासिक जीवनचित्रों आदि केसाथ-साथ पौराणिक इतिहास, भूगोल और परंपरा का महाभारत महाकोश है। वाल्मीकि रामायण आद्य लौकिक महाकाव्य है। उसकी गणना आज भी विश्व के उच्चतम काव्यों में की जाती है। इनके अतिरिक्त अष्टादश पुराणों और उपपुराणादिकों का महाविशाल वाङ्मय है जिनमें पौराणिकया मिथकीय पद्धति से केवल आर्यों का ही नहीं, भारत की समस्त जनता और जातियों का सांस्कृतिक इतिहास अनुबद्ध है। इन पुराणकार मनीषियों ने भारत और भारत के बाहर से आयात सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक ऐक्य की प्रतिष्ठा का सहस्राब्दियों तक सफल प्रयास करते हुए भारतीय संस्कृति को एकसूत्रता में आबद्ध किया है।
संस्कृत के लोकसाहित्य के आदिकवि वाल्मीकि के बाद गद्य-पद्य के लाखों श्रव्यकाव्यों और दृश्यकाव्यरूप नाटकों की रचना होती चली जिनमें अधिकांश लुप्त या नष्ट हो गए। पर जो स्वल्पांश आज उपलब्ध है, सारा विश्व उसका महत्व स्वीकार करता है। कवि कालिदासके अभिज्ञानशाकुन्तलम् नाटक को विश्व के सर्वश्रेष्ठ नाटकों में स्थान प्राप्त है।अश्वघोष, भास, भवभूति, बाणभट्ट, भारवि, माघ, श्रीहर्ष, शूद्रक, विशाखदत्त आदि कवि और नाटककारों को अपनेअपने क्षेत्रों में अत्यंत उच्च स्थान प्राप्त है। सर्जनात्मक
संस्कृत भाषा का व्याकरण अत्यन्त परिमार्जित एवंवैज्ञानिक है। बहुत प्राचीन काल से ही अनेक व्याकरणाचार्योंने संस्कृत व्याकरण पर बहुत कुछ लिखा है।किन्तु पाणिनि का संस्कृत व्याकरण पर किया गया कार्य सबसे प्रसिद्ध है। उनका अष्टाध्यायी किसी भी भाषा के व्याकरण का सबसे प्राचीन ग्रन्थ है।
ध्वनि-तन्त्र और लिपि
ऐसी भाषा है जिसमें आकृति और ध्वनि का आपस में संबंध होता है। उदाहरण के लिए अंग्रेजी में अगर आप ‘son’ या ‘sun’ का उच्चारण करें, तो ये दोनों एक जैसे सुनाई देंगे, बस वर्तनी में ये अलग हैं। आप जो लिखते हैं, वह मानदंड नहीं है, मानदंड तो ध्वनि है क्योंकि आधुनिक विज्ञान यह साबित कर चुका है कि पूरा अस्तित्व ऊर्जा की गूंज है। जहां कहीं भी कंपन है, वहां ध्वनि तो होनी ही है। इसलिए एक तरह से देखा जाय तो पूरा अस्तित्व ध्वनि है। जब आप को यह अनुभव होता है कि एक खास ध्वनि एक खास आकृति के साथ जुड़ी हुई है, तो यही ध्वनि उस आकृति के लिए नाम बन जाती है। अब ध्वनि और आकृति आपस में जुड़ गईं। अगर आप ध्वनि का उच्चारण करते हैं, तो दरअसल, आप आकृति की ही चर्चा कर रहे हैं, न सिर्फ अपनी समझ में, न केवल मनोवैज्ञानिक रूपसे, बल्कि अस्तित्वगत रूप से भी आप आकृति को ध्वनि से जोड़ रहे हैं। अगर ध्वनि पर आपको महारत हासिल है, तो आकृति पर भी आपको महारत हासिल होगी। तो संस्कृतभाषा हमारे अस्तित्व की रूपरेखा है। जो कुछ भी आकृति में है, हमने उसे ध्वनि में परिवर्तित कर दिंया। आजकल इस मामले में बहुत ज्यादा विकृति आ गई है। यह एक चुनौती है कि मौजूदा दौर में इस भाषा को संरक्षित कैसे रखा जाए।इसकी वजह यह है कि इसके लिए जरूरी ज्ञान, समझ और जागरूकता की काफी कमी है।
यही वजह है कि जब लोगों को संस्कृत भाषा पढ़ाई जाती है, तो उसे रटाया जाता है। लोग शब्दों का बार बार उच्चारण करते हैं। इससे कोई अंतर नहीं पड़ता कि उन्हें इसका मतलब समझ आता है या नहीं, लेकिन ध्वनि महत्वपूर्ण है, अर्थ नहीं।
संस्कृत भारत की कई लिपियों में लिखी जाती रही है, लेकिन आधुनिक युग में देवनागरी लिपि के साथ इसका विशेष संबंध है। देवनागरी लिपि वास्तव में संस्कृत के लिये ही बनी है, इसलिये इसमें हरेक चिह्न के लिये एक और केवल एक ही ध्वनि है। देवनागरी में १३ स्वर और ३४ व्यंजन हैं। देवनागरी से रोमन लिपि में लिप्यन्तरण के लिये दो पद्धतियाँ अधिकप्रचलित हैं : IAST और ITRANS. शून्य, एक या अधिकव्यंजनों और एक स्वर के मेल से एक अक्षर बनता है।
संस्कृत भाषा भारतीय संस्कृति का आधार स्तम्भ है। संसारकी समृद्धतम भाषा ‘संस्कृत’ के रूप में सबसे उन्नतमानवीय समाज और विज्ञान की स्थापना की गयी। इस देवभाषा के अध्ययन मनन मात्र से ही मनुष्य में सूक्ष्म विचारशीलता और मौलिक चिंतन जन्म लेता है। सनातन संस्कृति के सभी प्रमुख साहित्यिक और वैज्ञानिक शास्त्र संस्कृत भाषा में ही है
ऑर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और कम्पयूटर क्षेत्र में भी संस्कृत के प्रयोग की सम्भावनाओं पर फ्रांस, अमेरिका, जापान, ऑस्ट्रेलिया, जर्मनी, इंग्लैंड आदि विभिन्न देशों में शोध जारी है। वानस्पतिक सौंदर्य प्रसाधन (हर्बल कॉस्मैटिक्स) एवंआयुर्वेद चिकित्सा पद्धति के तेजी से बढ़ते प्रचलन से संस्कृत की उपयोगिता और बढ़ गयी है क्योंकि आयुर्वेद पद्धतियों का ज्ञान सिर्फ संस्कृत में ही लिपिबद्ध है।
अपनी सुस्पष्ट और छंदात्मक उच्चारण प्रणाली के चलते संस्कृत भाषा को ‘स्पीच थेरेपी टूल’ (भाषण चिकित्साउपकरण) के रूप में मान्यता मिल रही है। जर्मन शिक्षाविद्पॉल मॉस के अनुसार “संस्कृत से सेरेब्रेल कॉर्टेक्स सक्रिय होता है। अतएव किसी बालक के लिए उँगलियों और जुबान की कठोरता से मुक्ति पाने के लिए देवनागरी लिपि व संस्कृत बोली ही सर्वोत्तम मार्ग है। वर्तमान यूरोपीय भाषाएँ बोलते समय जीभ और मुँह के कई हिस्सों का और लिखते समय उँगलियों की कई हलचलों का इस्तेमाल नहीं किया जाता है”.
वैज्ञानिक कई दिनों तक ऐसी भाषा/लिपि के विकास में थे, जिसका संगणकीय प्रणाली में उपयोग कर, उसका संसार की किसी भी आठ भाषाओं मे उसी क्षण रूपांतर हो जाए।अंततोगत्वा ‘संस्कृत’ ही एकमात्र ऐसी भाषा नजर आई। फोर्ब्स पत्रिका 1985 के अंक के अनुसार दुनिया में अनुवाद के उद्देश्य के लिए उपलब्ध सबसे अच्छी भाषा संस्कृत है।
वर्तमान में ऑक्सफोर्ड, कैम्ब्रिज और कोलम्बिया जैसे 200 से भी ज्यादा लब्ध-प्रतिष्ठित विदेशी विश्वविद्यालयों में संस्कृत पढ़ायी जा रही है। नासा के पास 60,000 ताड़ के पत्तेकी पांडुलिपियों है जो वे अध्ययन का उपयोग कर रहे हैं माना जाता है कि रूसी, जर्मन, जापानी, अमेरिकी सक्रिय रूप से हमारी पवित्र पुस्तकों से नई चीजों पर शोध कर रहे हैं और उन्हें वापस दुनिया के सामने अपने नाम से रख रहे हैं।
लंदन और आयरलैण्ड में वहां की शिक्षा में शामिल होने वालीसंस्कृत अपनी ही जमीन पर तीसरी भाषा के स्थान पर स्वीकार की गई है। भारत की वर्तमान एवं भावी पीढ़ी अत्यंत संवेदनशील है। उन्हें संस्कृत की महानता समझने और समझाने की जरूरत है। अगर स्मृति तीव्र करना हो तो, ब्लडसर्कुलेशन संतुलित करना हो तो और जीभ की मांसपेशियों काव्यायाम कराना हो तो, सभी स्थितियों में संस्कृत शब्दों काउच्चारण करना चाहिए।
दुनिया के 17 देशों में एक या अधिक संस्कृत विश्वविद्यालयसंस्कृत के बारे में अध्ययन और नई प्रौद्योगिकी प्राप्त करने के लिए है। जो हैं भी वहाँ संस्कृत केवल साहित्य और कर्मकाण्ड तक सीमित है विज्ञान के रूप में नहीं। भारत को विश्वगुरु और विश्व में सिरमौर बनाने के लिए संस्कृत केपुनरुत्थान की आवश्यकता है। क्योंकि संस्कृत हमारी विरासत है और उस पर हमारा ही जन्म-सिद्ध अधिकार है।
नासा के वैज्ञानिक रिक ब्रिग्स ने 1985 में भारत से संस्कृत के एक हजार प्रकांड विद्वानों को बुलाया था। उन्हें नासा मेंनौकरी का प्रस्ताव दिया था। उन्होंने बताया कि संस्कृत ऐसी प्राकृतिक भाषा है, जिसमें सूत्र के रूप में कंप्यूटर के जरिए कोई भी संदेश कम से कम शब्दों में भेजा जा सकता है। विदेशी उपयोग में अपनी भाषा की मदद देने से उन विद्वानोंने इन्कार कर दिया था।
नासा के वैज्ञानिकों की मानें तो जब वह स्पेस ट्रैवलर्स को मैसेज भेजते थे तो उनके वाक्य उलटे हो जाते थे। इस वजह से मेसेज का अर्थ ही बदल जाता था। उन्होंने दुनिया के कई भाषा में प्रयोग किया लेकिन हर बार यही समस्या आई।आखिर में उन्होंने संस्कृत में मेसेज भेजा क्योंकि संस्कृत के वाक्य उलटे हो जाने पर भी अपना अर्थ नहीं बदलते हैं। यह रोचक जानकारी हाल ही में एक समारोह में दिल्ली सरकार के प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान के निदेशक डॉ. जीतराम भट्ट ने दी।
संस्कृत भाषा वर्तमान में “उन्नत किर्लियन फोटोग्राफी” तकनीक में इस्तेमाल की जा रही है। (वर्तमान में, उन्नतकिर्लियन फोटोग्राफी तकनीक सिर्फ रूस और संयुक्त राज्यअमेरिका में ही मौजूद हैं। भारत के पास आज “सरलकिर्लियन फोटोग्राफी” भी नहीं है.
भारतीय वैज्ञानिकों को नव अनुसंधान की प्रेरणा संस्कृत सेमिली. जगदीशचन्द्र बसु, चंद्रशेखर वेंकट रमण ,आचार्यप्रफुल्लचन्द्र राय, डॉ. मेघनाद साहा जैसे विश्वविख्यातवैज्ञानिकों को संस्कृत भाषा से अत्यधिक प्रेम था औरवैज्ञानिक खोजों के लिए वे संस्कृत को ही आधार मानते थे। इनके अनुसार संस्कृत का प्रत्येक शब्द वैज्ञानिकों कोअनुसंधान के लिए प्रेरित करता है। प्राचीन ऋषि-महर्षियों नेविज्ञान में जितनी उन्नति की थी, वर्तमान में उसका कोई मुकाबला नहीं कर सकता। महर्षियों का सम्पूर्ण ज्ञान एवं सारसंस्कृत भाषा में निहित है। आचार्य प्रफुल्लचन्द्र राय विज्ञान के लिए संस्कृत शिक्षा को आवश्यक मानते थे। जगदीशचन्द्रबसु ने अपने अनुसंधानों के स्रोत संस्कृत में खोजे थे। डॉ. साहा अपने घर के बच्चों की शिक्षा संस्कृत में ही कराते थे और एक वैज्ञानिक होने के बावजूद काफी समय तक वे स्वयंबच्चों को संस्कृत पढ़ाते थे।
आधुनिक विज्ञान सृष्टि के रहस्यों को सुलझाने में बौना पड़ रहा है। अलौकिक शक्तियों से सम्पन्न मंत्र-विज्ञान की महिमा से आज का विज्ञान भी अनभिज्ञ है। उड़न तश्तरियाँ कहाँ से आती हैं और कहाँ गायब हो जाती हैं इस प्रकार की कई बातें हैं जो आज भी विज्ञान के लिए रहस्य बनी हुई हैं। प्राचीनसंस्कृत ग्रंथों से ऐसे कई रहस्यों को सुलझाया जा सकता है।
आर्यभट्ट का शून्य सिद्धांत, कणाद ऋषि का परमाणुसिद्धांत और भास्कराचार्य का सूर्य सिद्धांत न होता तो शायद विज्ञान आज इस शिखर पर न होता। विमान विज्ञान, नौका विज्ञान से संबंधित कई महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त हमारे ग्रंथों से प्राप्त हुए हैं। इस प्रकार के और भी अनगिनत सूत्र हमारे ग्रंथों में समाये हुए हैं, जिनसे आधुनिक विज्ञान कोअनुसंधान के क्षेत्र में महत्वपूर्ण दिशानिर्देश मिल सकते हैं।आज अगर विज्ञान के साथ संस्कृत का समन्वय कर दियाजाय तो अनुसंधान के क्षेत्र में बहुत उन्नति हो सकती है।हिन्दू धर्म के प्राचीन महान ग्रंथों के अलावा बौद्ध, जैन आदिधर्मों के अनेक मूल धार्मिक ग्रंथ भी संस्कृत में ही हैं। संस्कारीजीवन की नींवः संस्कृत वर्तमान समय में भौतिक सुख-सुविधाओं का अम्बार होने के बावजूद भी मानव-समाजअवसाद, तनाव, चिंता और अनेक प्रकार की बीमारियों सेग्रस्त है क्योंकि केवल भौतिक उन्नति से मानव का सर्वांगीणविकास सम्भव नहीं है, इसके लिए आध्यात्मिक उन्नतिअत्यंत जरूरी है। जिस समय संस्कृत का बोलबाला था उस समय मानव-जीवन ज्यादा संस्कारित था। यदि समाज को फिर से वैसा संस्कारित करना हो तो हमें फिर से सनातन धर्मके प्राचीन संस्कृत ग्रंथों का सहारा लेना ही पड़ेगा।
संस्कृत के बारे में आज की पीढ़ी के लिए आश्चर्यजनक तथ्य ————-
कंप्यूटर में इस्तेमाल के लिए सबसे अच्छी भाषा।
संदर्भ: फोर्ब्स पत्रिका 1987
सबसे अच्छे प्रकार का कैलेंडर जो इस्तेमाल किया जा रहा है, हिंदू कैलेंडर है (जिसमें नया साल सौर प्रणाली के भूवैज्ञानिकपरिवर्तन के साथ शुरू होता है)
संदर्भ: जर्मन स्टेट यूनिवर्सिटी
दवा के लिए सबसे उपयोगी भाषा अर्थात संस्कृत में बातकरने से व्यक्ति स्वस्थ और बीपी, मधुमेह, कोलेस्ट्रॉल आदिजैसे रोग से मुक्त हो जाएगा। संस्कृत में बात करने से मानवशरीर का तंत्रिका तंत्र सक्रिय रहता है जिससे कि व्यक्ति काशरीर सकारात्मक आवेश(Positive Charges) के साथ सक्रियहो जाता है।
संदर्भ: अमेरीकन हिन्दू यूनिवर्सिटी (शोध के बाद)
संस्कृत वह भाषा है जो अपनी पुस्तकों वेद, उपनिषदों, श्रुति, स्मृति, पुराणों, महाभारत, रामायण आदि में सबसे उन्नतप्रौद्योगिकी(Technology) रखती है।
संदर्भ: रशियन स्टेट यूनिवर्सिटी, नासा आदि
(असत्यापित रिपोर्ट का कहना है कि रूसी, जर्मन, जापानी, अमेरिकी सक्रिय रूप से हमारी पवित्र पुस्तकों से नई चीजों परशोध कर रहे हैं और उन्हें वापस दुनिया के सामने अपने नामसे रख रहे हैं। दुनिया के 17 देशों में एक या अधिक संस्कृतविश्वविद्यालय संस्कृत के बारे में अध्ययन और नईप्रौद्योगिकी प्राप्तकरने के लिए है।
दुनिया की सभी भाषाओं की माँ संस्कृत है। सभी भाषाएँ (97%) प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से इस भाषा से प्रभावित है।
संदर्भ: यूएनओ
दुनिया में अनुवाद के उद्देश्य के लिए उपलब्ध सबसे अच्छीभाषा संस्कृत है।
संदर्भ: फोर्ब्स पत्रिका 1985
लेकिन यहाँ यह बात अवश्य सोचने की है,की आज जहाँ पूरेविश्व में संस्कृत पर शोध चल रहे हैं,रिसर्च हो रहीं हैं वहीँहमारे देश संस्कृत को मृत भाषा बताने में बाज नहीं आ रहे हैं .

Monday, 7 January 2019

वेदव्यासों द्वारा वेद मन्त्रों का संकलन-

वेदव्यासों द्वारा वेद मन्त्रों का संकलन-
28 वेदव्यास हुए थे, अर्थात् 28 बार वेदों का संकलन हुआ। कई बार वेद लुप्त भी हुए हैं। उनका हयग्रीव, वराह तथा मत्स्य अवतारों द्वारा उद्धार हुआ है।
ऋक् वेद की सभी 21 संहितायें ऋक् वेद हैं। उनमें अभी 3 उपलब्ध हैं-शाकल्य, वाष्कल, शांख्यायन। इसी प्रकार यजुर्वेद की सभी 101 शाखायें यजुर्वेद हैं। शुक्ल की 2 तथा कृष्ण की 4 शाखा उपलब्ध हैं-काण्व, माध्यन्दिन, तैत्तिरीय, मैत्रायणी, काठक, कपिष्ठल। सामवेद की आकाश में 1000 तथा शब्द रूप में 13 शाखा हैं जिनमें 3 उपलब्ध हैं-कौथुमी, जैमिनीय, राणायनीय। अथर्ववेद की आकाश में 50 तथा शब्द रूप में 9 शाखा हैं जिनमें 2 उपलब्ध हैं-शौनक, पैप्पलाद।
वेद मन्त्र समझने लायक, भाषा, व्याकरण, छन्द, निरुक्त, ज्योतिष, कल्प, शिक्षा का जब तक विकास नहीं हो तब तक किसी भी मनुष्य को तथाकथित ईश्वर वेद नहीं दे सकता। इसमें प्रत्येक मन्त्र में ऋषि के उल्लेख से ही स्पष्ट है कि भिन्न भिन्न स्थान और काल के ऋषियों को मन्त्र का दर्शन हुआ था। इनका संकलन 28 बार 28 व्यासों द्वारा हुआ है।
ब्रह्म के कई स्तर हैं। परात्पर में निर्विशेष या सविशेष द्वारा कोई मन्त्र नहीं दिया जा सकता। ईश्वर रूप सभी प्राणियों के हृदय में रह कर नियन्त्रण करता है (गीता, 18/61)। उसकी प्रेरणा से अनुभव हो सकता है। वह परा वाणी के स्तर पर होगा। उसको पश्यन्ती, मध्यमा तथा वैखरी के स्तर पर व्यक्त करना मनुष्य ऋषि का काम है। अव्यक्त परा वाक् को व्यक्त वाणी के मन्त्र में प्रकट करने से वह शाश्वत होता है जैसा ईशावास्योपनिषद (काण्व संहिता, अध्याय 40) में लिखा है-
स पर्यगात् शुक्रं अकायं अस्नाविरं, शुद्धं अपापविद्धं कविः मनीषी परिभूः स्वयम्भूः याथातथ्यतो अर्थान् व्यदधात् शाश्वतीभ्यः समाभ्यः।
मनुष्य ऋषियों द्वारा अलग अलग मन्त्र का दर्शन होने पर भी 3 प्रकार से वेद अपौरुषेय है-
(1) मन्त्र दर्शन के समय ऋषि अपने व्यक्तित्व से स्वतन्त्र था।
(2) यह किसी एक व्यक्ति का मत नहीं है। भिन्न भिन्न ऋषियों के मन्त्रों के संकलन रूप में औसत है।
(3) 5 प्रकार के ज्ञानेन्द्रिय द्वारा प्राप्त ज्ञान के अतिरिक्त इसमें 2 प्रकार के अतीन्द्रिय ज्ञान भी हैं। इनके माध्यम के रूप में 5 सत् प्राण तथा 2 अतिरिक्त असत् प्राण (परोरजा, ऋषि) वेद में वर्णित हैं।

स्वस्तिक से वास्तु दोष निवारण

स्वस्तिक से वास्तु दोष निवारण
वास्तु शास्त्र में चार दिशाएँ होती हैं। स्वस्तिक
चारों दिशाओं का बोध कराता है। पूर्व, दक्षिण, पश्चिम, उत्तर।
चारों दिशाओं के देव पूर्व के इंद्र, दक्षिण के यम, पश्चिम के वरुण,
उत्तर के कुबेर। स्वस्तिक की भुजाएँ चारों उप दिशाओं
का बोध कराती हैं। ईशान, अग्नि, नेऋत्य, वायव्य।
स्वस्तिक के आकार में आठों दिशाएँ गर्भित हैं। वैदिक हिन्दू धर्म के
अनुकूल स्वस्तिक को गणपति का स्वरूप माना है। स्वस्तिक
की चारों दिशाएँ से चार युग, सतयुग, त्रेता, द्वापर, कलयुग
की जानकारी मिलती है। चार
वर्ण ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र। चार आश्रम ब्रह्मचर्य,
गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यास। चार पुरुषार्थ धर्म, अर्थ, काम और
मोक्ष। चार वेद इत्यादि अनंत जानकारी का बोधक है।
स्वस्तिक की चार भुजाओं में जिन धर्म के मूल
सिद्धांतों का बोध होता है। समवसरण में भगवान का दर्शन चतुर्थ
दिशाओं से समान रूप से होता है। चार घातिया कर्म
ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय,
मोहनीय, अंतराय। चार अनंत चतुष्टय अनंतदर्शन,
अनंतज्ञान, अनंतसुख, अनंत वीर्य। उपवन भूमि में
चारों दिशाओं में क्रमशः अशोक, सप्तच्छद, चंपक और आम्रवन होते
हैं। चार अनुयोग- प्रथमानुयोग, चरणानुयोग, करणानुयोग, द्रव्यानुयोग।
चार निक्षेप- नाम, स्थापना, द्रव्य, भाव। चार कषाय- क्रोध, मान, माया,
लोभ। मुख्य चार प्राण- इंद्रिय, बल, आयु, श्वासोच्छवास। चार
संज्ञा- आहार, निद्रा, मैथुन, परिग्रह। चार दर्शन- चक्षु,
अचक्षु, अवधि, केवल। चार आराधना- दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप।
चार गतियाँ- देव, मनुष्य, तिर्यन्च, नरक।
प्राचीन काल में जिन वास्तु नियमों को विद्वानो ने लिख गए
हैं उनका महत्त्व आज भी कम
नहीं हुआ है। परन्तु कई कारणों से इन
नियमों को पालन न करने की सूरत में घर में
किसी न किसी तरह का वास्तु दोष आ
ही जाता है। इन वास्तु दोषों के निवारण के उपाय
किसी प्रशिक्षित वास्तु विशेषज्ञ से कराने चाहिए। लेकिन
फौरी तौर पर एक स्वस्तिक प्रयोग बता रहें हैं जिससे
वास्तु की समस्या का कुछ हद तक निवारण
हो सकता है।
वास्तु दोष को दूर करने के लिए बनाया गया स्वस्तिक 6 इंच से कम
नहीं होना चाहिए। घर के मुख्य़ द्वार के दोनों ओर
ज़मीन से 4 से 5 फुट ऊपर सिन्दूर से यह स्वस्तिक
बनाऐं। घर में जहां भी वास्तु दोष है और उसे दूर
करना संभव न हो तो वहां पर भी इस तरह
का स्वस्तिक बना दें। जिस
भी दिशा की शांति करानी हो उस
दिशा में 6" x 6" का तांबे का स्वस्तिक यंत्र पूजन कर
लगा देना चाहिए। इस यंत्र के साथ उस
दिशा स्वामी का रत्न भी यंत्र के साथ लगा दें।
नींव पूजन के समय भी इस तरह के यंत्र
आठों दिशाओं व ब्रह्म स्थान पर दिशा स्वामियों के रत्न के साथ
लगा कर गृहस्वामी के हाथ के बराबर गड्ढा खोद कर,
चावल बिछा कर, दबा देना चाहिए। पृथ्वी में इन अभिमंत्रित
रत्न जड़े स्वस्तिक यंत्र की स्थापना से इनका प्रभाव
काफ़ी बड़े क्षेत्र पर होने लगता है।
दिशा स्वामियों की स्थिति इस प्रकार है- ब्रह्म स्थान-
माणिक, पूर्व-हीरा, आग्नेय-मूंगा, दक्षिण-
नीलम, नैऋत्य-पुखराज, पश्चिम-पन्ना, वायव्य-गोमेद,
उत्तर-मोती, इशान-स्फटिक।
विधि :-- शरीर
की बाहरी शुद्धि करके शुद्ध
वस्त्रों को धारण करके ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हुए (जिस
दिन स्वस्तिक बनाएँ) पवित्र भावनाओं से नौ अंगुल का स्वस्तिक 90
डिग्री के एंगल में सभी भुजाओं को बराबर
रखते हुए बनाएँ। केसर से, कुमकुम से, सिन्दूर और तेल के मिश्रण
से अनामिका अंगुली से ब्रह्म मुहूर्त में विधिवत बनाने
पर उस घर के वातावरण में कुछ समय के लिए अच्छा परिवर्तन
महसूस किया जा सकता है। भवन या फ्लैट के मुख्य द्वार पर एवं
हर रूम के द्वार पर अंकित करने से सकारात्मक ऊर्जाओं का आगमन
होता है।
स्वस्तिक चिह्न लगभग हर समाज में आदर से पूजा जाता है
क्योंकि स्वस्तिक के चिह्न की बनावट
ऐसी होती है, कि वह दसों दिशाओं से
सकारात्मक एनर्जी को अपनी तरफ
खींचता है। इसीलिए
किसी भी शुभ काम की शुरुआत
से पहले पूजन कर स्वस्तिक का चिह्न बनाया जाता है। ऐसे
ही शुभ कार्यो में आम की पत्तियों को आपने
लोगों को अक्सर घर के दरवाज़े पर बांधते हुए देखा होगा क्योंकि आम
की पत्ती,
इसकी लकड़ी, फल को ज्योतिष
की दृष्टी से भी बहुत शुभ
माना जाता है। आम की लकड़ी और
स्वस्तिक दोनों का संगम आम
की लकड़ी का स्वस्तिक उपयोग किया जाए
तो इसका बहुत ही शुभ प्रभाव पड़ता है।
यदि किसी घर में किसी भी तरह
वास्तुदोष हो तो जिस कोण में वास्तु दोष है उसमें आम
की लकड़ी से बना स्वस्तिक लगाने से
वास्तुदोष में कमी आती है क्योंकि आम
की लकड़ी में सकारात्मक ऊर्जा को अवशोषित
करती है। यदि इसे घर के प्रवेश द्वार पर लगाया जाए
तो घर के सुख समृद्धि में वृद्धि होती है। इसके
अलावा पूजा के स्थान पर भी इसे लगाये जाने का अपने
आप में विशेष प्रभाव बनता है।

गुरूत्वाकर्षण सिद्धान्त ( Law Of Gravitation ) :-

गुरूत्वाकर्षण सिद्धान्त ( Law Of Gravitation ) :-
वेद और वैदिक आर्ष ग्रन्थों में गुरूत्वाकर्षण के नियम को समझाने के लिये पर्याप्त सूत्र हैं । परन्तु जिनको न जानकर हमारे आजकल के युवा वर्ग केवल पाश्चात्य वैज्ञानिकों के पीछे ही श्रद्धाभाव रखते हैं । जबकि यह करोड़ों वर्ष पहले वेदों में सूक्ष्म ज्ञान के रूप में ईश्वर ने हमारे लिये पहले ही वर्णन कर दिया है ।
हम अनेकों प्रमाण देते हैं कि हमारे ऋषियों ने जो बात पहले ही वेदों से अपनी तपश्चर्या से जान ली थी
आधारशक्ति :- बृहत् जाबाल उपनिषद् में गुरूत्वाकर्षण सिद्धान्त को आधारशक्ति नाम से कहा गया है ।
इसके दो भाग किये गये हैं :-
(१) ऊर्ध्वशक्ति या ऊर्ध्वग :- ऊपर की ओर खिंचकर जाना । जैसे अग्नि का ऊपर की ओर जाना ।
(२) अधःशक्ति या निम्नग :- नीचे की ओर खिंचकर जाना । जैसे जल का नीचे की ओर जाना या पत्थर आदि का नीचे आना ।
आर्ष ग्रन्थों से प्रमाण देते हैं :-
(१) यह बृहत् उपनिषद् के सूत्र हैं :-
अग्नीषोमात्मकं जगत् । ( बृ० उप० २.४ )
आधारशक्त्यावधृतः कालाग्निरयम् ऊर्ध्वगः । तथैव निम्नगः सोमः । ( बृ० उप० २.८ )
अर्थात :- सारा संसार अग्नि और सोम का समन्वय है । अग्नि की ऊर्ध्वगति है और सोम की अधोःशक्ति । इन दोनो शक्तियों के आकर्षण से ही संसार रुका हुआ है ।
(२) १५० ई० पूर्व महर्षि पतञ्जली ने व्याकरण महाभाष्य में भी गुरूत्वाकर्षण के सिद्धान्त का उल्लेख करते हुए लिखा :-
लोष्ठः क्षिप्तो बाहुवेगं गत्वा नैव तिर्यक् गच्छति नोर्ध्वमारोहति ।
पृथिवीविकारः पृथिवीमेव गच्छति आन्तर्यतः । ( महाभाष्य :- स्थानेन्तरतमः, १/१/४९ सूत्र पर )
अर्थात् :- पृथिवी की आकर्षण शक्ति इस प्रकार की है कि यदि मिट्टी का ढेला ऊपर फेंका जाता है तो वह बहुवेग को पूरा करने पर, न टेढ़ा जाता है और न ऊपर चढ़ता है । वह पृथिवी का विकार है, इसलिये पृथिवी पर ही आ जाता है ।
(३) भास्कराचार्य द्वितीय पूर्व ने अपने सिद्धान्तशिरोमणि में यह कहा :-
आकृष्टिशक्तिश्च महि तया यत्
खस्थं गुरूं स्वाभिमुखं स्वशक्त्या ।
आकृष्यते तत् पततीव भाति
समे समन्तात् क्व पतत्वियं खे ।। ( सिद्धान्त० भुवन० १६ )
अर्थात :- पृथिवी में आकर्षण शक्ति है जिसके कारण वह ऊपर की भारी वस्तु को अपनी ओर खींच लेती है । वह वस्तु पृथिवी पर गिरती हुई सी लगती है । पृथिवी स्वयं सूर्य आदि के आकर्षण से रुकी हुई है,अतः वह निराधार आकाश में स्थित है तथा अपने स्थान से हटती नहीं है और न गिरती है । वह अपनी कील पर घूमती है।
(४) वराहमिहिर ने अपने ग्रन्थ पञ्चसिद्धान्तिका में कहा :-
पंचभमहाभूतमयस्तारा गण पंजरे महीगोलः ।
खेयस्कान्तान्तःस्थो लोह इवावस्थितो वृत्तः ।। ( पंच०पृ०३१ )
अर्थात :- तारासमूहरूपी पंजर में गोल पृथिवी इसी प्रकार रुकी हुई है जैसे दो बड़े चुम्बकों के बीच में लोहा ।
(५) आचार्य श्रीपति ने अपने ग्रन्थ सिद्धान्तशेखर में कहा है :-
उष्णत्वमर्कशिखिनोः शिशिरत्वमिन्दौ,.. निर्हतुरेवमवनेः स्थितिरन्तरिक्षे ।। ( सिद्धान्त० १५/२१ )
नभस्ययस्कान्तमहामणीनां मध्ये स्थितो लोहगुणो यथास्ते ।
आधारशून्यो पि तथैव सर्वधारो धरित्र्या ध्रुवमेव गोलः ।। ( सिद्धान्त० १५/२२ )
अर्थात :- पृथिवी की अन्तरिक्ष में स्थिति उसी प्रकार स्वाभाविक है, जैसे सूर्य्य में गर्मी, चन्द्र में शीतलता और वायु में गतिशीलता । दो बड़े चुम्बकों के बीच में लोहे का गोला स्थिर रहता है, उसी प्रकार पृथिवी भी अपनी धुरी पर रुकी हुई है ।
(६) ऋषि पिप्पलाद ( लगभग ६००० वर्ष पूर्व ) ने प्रश्न उपनिषद् में कहा :-
पायूपस्थे - अपानम् । ( प्रश्न उप० ३.४ )
पृथिव्यां या देवता सैषा पुरुषस्यापानमवष्टभ्य० । ( प्रश्न उप० ३.८ )
तथा पृथिव्याम् अभिमानिनी या देवता ... सैषा पुरुषस्य अपानवृत्तिम् आकृष्य.... अपकर्षेन अनुग्रहं कुर्वती वर्तते । अन्यथा हि शरीरं गुरुत्वात् पतेत् सावकाशे वा उद्गच्छेत् । ( शांकर भाष्य, प्रश्न० ३.८ )
अर्थात :- अपान वायु के द्वारा ही मल मूत्र नीचे आता है । पृथिवी अपने आकर्षण शक्ति के द्वारा ही मनुष्य को रोके हुए है, अन्यथा वह आकाश में उड़ जाता ।
(७) यह ऋग्वेद के मन्त्र हैं :-
यदा ते हर्य्यता हरी वावृधाते दिवेदिवे ।
आदित्ते विश्वा भुवनानि येमिरे ।। ( ऋ० अ० ६/ अ० १ / व० ६ / म० ३ )
अर्थात :- सब लोकों का सूर्य्य के साथ आकर्षण और सूर्य्य आदि लोकों का परमेश्वर के साथ आकर्षण है । इन्द्र जो वायु , इसमें ईश्वर के रचे आकर्षण, प्रकाश और बल आदि बड़े गुण हैं । उनसे सब लोकों का दिन दिन और क्षण क्षण के प्रति धारण, आकर्षण और प्रकाश होता है । इस हेतु से सब लोक अपनी अपनी कक्षा में चलते रहते हैं, इधर उधर विचल भी नहीं सकते ।
यदा सूर्य्यममुं दिवि शुक्रं ज्योतिरधारयः ।
आदित्ते विश्वा भुवनानी येमिरे ।।३।। ( ऋ० अ० ६/ अ० १ / व० ६ / म० ५ )
अर्थात :- हे परमेश्वर ! जब उन सूर्य्यादि लोकों को आपने रचा और आपके ही प्रकाश से प्रकाशित हो रहे हैं और आप अपने सामर्थ्य से उनका धारण कर रहे हैं , इसी कारण सूर्य्य और पृथिवी आदि लोकों और अपने स्वरूप को धारण कर रहे हैं । इन सूर्य्य आदि लोकों का सब लोकों के साथ आकर्षण से धारण होता है । इससे यह सिद्ध हुआ कि परमेश्वर सब लोकों का आकर्षण और धारण कर रहा है।

ऋगवेद में π का मान ३२ अंक तक शुद्ध है।*

देश में एक ऐसा वर्ग बन गया है जो कि संस्कृत भाषा से तो शून्य हैं परंतु उनकी छद्म धारणा यह बन गयी है कि संस्कृत भाषा में जो कुछ भी लिखा है वे सब पूजा पाठ के मंत्र ही होंगे जबकि वास्तविकता इससे भिन्न है।
देखते हैं -
*"चतुरस्रं मण्डलं चिकीर्षन्न् अक्षयार्धं मध्यात्प्राचीमभ्यापातयेत्।*
*यदतिशिष्यते तस्य सह तृतीयेन मण्डलं परिलिखेत्।"*
बौधायन ने उक्त श्लोक को लिखा है !
इसका अर्थ है -
यदि वर्ग की भुजा 2a हो
तो वृत्त की त्रिज्या r = [a+1/3(√2a – a)] = [1+1/3(√2 – 1)] a
ये क्या है ?
अरे ये तो कोई गणित या विज्ञान का सूत्र लगता है
शायद ईसा के जन्म से पूर्व पिंगल के छंद शास्त्र में एक श्लोक प्रकट हुआ था।हालायुध ने अपने ग्रंथ मृतसंजीवनी मे , जो पिंगल के छन्द शास्त्र पर भाष्य है ,
इस श्लोक का उल्लेख किया है -
*परे पूर्णमिति।*
*उपरिष्टादेकं चतुरस्रकोष्ठं लिखित्वा तस्याधस्तात् उभयतोर्धनिष्क्रान्तं कोष्ठद्वयं लिखेत्।*
*तस्याप्यधस्तात् त्रयं तस्याप्यधस्तात् चतुष्टयं यावदभिमतं स्थानमिति मेरुप्रस्तारः।*
*तस्य प्रथमे कोष्ठे एकसंख्यां व्यवस्थाप्य लक्षणमिदं प्रवर्तयेत्।*
*तत्र परे कोष्ठे यत् वृत्तसंख्याजातं तत् पूर्वकोष्ठयोः पूर्णं निवेशयेत्।*
शायद ही किसी आधुनिक शिक्षा में maths मे B. Sc. किये हुए भारतीय छात्र ने इसका नाम भी सुना हो , जबकि यह "मेरु प्रस्तार" है।
परंतु जब ये पाश्चात्य जगत से "पास्कल त्रिभुज" के नाम से भारत आया तो उन कथित सेकुलर भारतीयों को शर्म इस बात पर आने लगी कि भारत में ऐसे सिद्धांत क्यों नहीं दिये जाते।
*"चतुराधिकं शतमष्टगुणं द्वाषष्टिस्तथा सहस्राणाम्।*
*अयुतद्वयस्य विष्कम्भस्यासन्नो वृत्तपरिणाहः॥"*
ये भी कोई पूजा का मंत्र ही लगता है लेकिन ये किसी गोले के व्यास व परिध का अनुपात है। जब पाश्चात्य जगत से ये आया तो संक्षिप्त रुप लेकर आया ऐसा π जिसे 22/7 के रुप में डिकोड किया जाता है।
उक्त श्लोक को डिकोड करेंगे अंकों में तो कुछ इस तरह होगा-
(१०० + ४) * ८ + ६२०००/२०००० = ३.१४१६
*ऋगवेद में π का मान ३२ अंक तक शुद्ध है।*
*गोपीभाग्य मधुव्रातः श्रुंगशोदधि संधिगः |*
*खलजीवितखाताव गलहाला रसंधरः ||*
इस श्लोक को डीकोड करने पर ३२ अंको तक π का मान 3.1415926535897932384626433832792… आता है।
#चक्रीय_चतुर्भुज का क्षेत्रफल:
ब्राह्मस्फुटसिद्धान्त के गणिताध्याय के क्षेत्रव्यवहार के श्लोक १२.२१ में निम्नलिखित श्लोक वर्णित है-
*स्थूल-फलम् त्रि-चतुर्-भुज-बाहु-प्रतिबाहु-योग-दल-घातस् ।*
*भुज-योग-अर्ध-चतुष्टय-भुज-ऊन-घातात् पदम् सूक्ष्मम् ॥*
अर्थ:
त्रिभुज और चतुर्भुज का स्थूल (लगभग) क्षेत्रफल उसकी आमने-सामने की भुजाओं के योग के आधे के गुणनफल के बराबर होता है तथा सूक्ष्म (exact) क्षेत्रफल भुजाओं के योग के आधे में से भुजाओं की लम्बाई क्रमशः घटाकर और उनका गुणा करके वर्गमूल लेने से प्राप्त होता है।

#ब्रह्मगुप्त_प्रमेय:
चक्रीय चतुर्भुज के विकर्ण यदि लम्बवत हों तो उनके कटान बिन्दु से किसी भुजा पर डाला गया लम्ब सामने की भुजा को समद्विभाजित करता है।
ब्रह्मगुप्त ने श्लोक में कुछ इस प्रकार अभिव्यक्त किया है-
*त्रि-भ्जे भुजौ तु भूमिस् तद्-लम्बस् लम्बक-अधरम् खण्डम् ।*
*ऊर्ध्वम् अवलम्ब-खण्डम् लम्बक-योग-अर्धम् अधर-ऊनम् ॥*
(ब्राह्मस्फुटसिद्धान्त, गणिताध्याय, क्षेत्रव्यवहार १२.३१)
#वर्ग_समीकरण का व्यापक सूत्र:
ब्रह्मगुप्त का सूत्र इस प्रकार है-
*वर्गचतुर्गुणितानां रुपाणां मध्यवर्गसहितानाम् ।*
*मूलं मध्येनोनं वर्गद्विगुणोद्धृतं मध्यः ॥*
ब्राह्मस्फुट-सिद्धांत - 18.44
अर्थात :
व्यक्त रुप (c) के साथ अव्यक्त वर्ग के चतुर्गुणित गुणांक (4ac) को अव्यक्त मध्य के गुणांक के वर्ग (b²) से सहित करें या जोड़ें। इसका वर्गमूल प्राप्त करें तथा इसमें से मध्य अर्थात b को घटावें।
पुनः इस संख्या को अज्ञात ञ वर्ग के गुणांक (a) के द्विगुणित संख्या से भाग देवें।
प्राप्त संख्या ही अज्ञात "त्र" राशि का मान है।
श्रीधराचार्य ने इस बहुमूल्य सूत्र को भास्कराचार्य का नाम लेकर अविकल रुप से उद्धृत किया —
*चतुराहतवर्गसमैः रुपैः पक्षद्वयं गुणयेत् ।*
*अव्यक्तवर्गरूपैर्युक्तौ पक्षौ ततो मूलम् ॥* -- भास्करीय बीजगणित, अव्यक्त-वर्गादि-समीकरण, पृ. - 221
अर्थात :-
प्रथम अव्यक्त वर्ग के चतुर्गुणित रूप या गुणांक (4a) से दोनों पक्षों के गुणांको को गुणित करके द्वितीय अव्यक्त गुणांक (b) के वर्गतुल्य रूप दोनों पक्षों में जोड़ें। पुनः द्वितीय पक्ष का वर्गमूल प्राप्त करें।

#आर्यभट्ट की ज्या (Sine) सारणी:
आर्यभटीय का निम्नांकित श्लोक ही आर्यभट की ज्या-सारणी को निरूपित करता है:
*मखि भखि फखि धखि णखि ञखि ङखि हस्झ स्ककि किष्ग श्घकि किघ्व ।*
*घ्लकि किग्र हक्य धकि किच स्ग झश ङ्व क्ल प्त फ छ कला-अर्ध-ज्यास् ॥*
#माधव की ज्या सारणी:
निम्नांकित श्लोक में माधव की ज्या सारणी दिखायी गयी है। जो चन्द्रकान्त राजू द्वारा लिखित *'कल्चरल फाउण्डेशन्स आफ मैथमेटिक्स'* नामक पुस्तक से लिया गया है।
*श्रेष्ठं नाम वरिष्ठानां हिमाद्रिर्वेदभावनः।*
*तपनो भानुसूक्तज्ञो मध्यमं विद्धि दोहनं।।*
*धिगाज्यो नाशनं कष्टं छत्रभोगाशयाम्बिका।*
*म्रिगाहारो नरेशोऽयं वीरोरनजयोत्सुकः।।*
*मूलं विशुद्धं नालस्य गानेषु विरला नराः।*
*अशुद्धिगुप्ताचोरश्रीः शंकुकर्णो नगेश्वरः।।*
*तनुजो गर्भजो मित्रं श्रीमानत्र सुखी सखे!।*
*शशी रात्रौ हिमाहारो वेगल्पः पथि सिन्धुरः।।*
*छायालयो गजो नीलो निर्मलो नास्ति सत्कुले।*
*रात्रौ दर्पणमभ्राङ्गं नागस्तुङ्गनखो बली।।*
*धीरो युवा कथालोलः पूज्यो नारीजरैर्भगः।*
*कन्यागारे नागवल्ली देवो विश्वस्थली भृगुः।।*
*तत्परादिकलान्तास्तु महाज्या माधवोदिताः।*
*स्वस्वपूर्वविशुद्धे तु शिष्टास्तत्खण्डमौर्विकाः।।*
(२.९.५)
#संख्या_रेखा की परिकल्पना (कॉन्सेप्ट्)
*"एकप्रभृत्यापरार्धसंख्यास्वरूपपरिज्ञानाय रेखाध्यारोपणं कृत्वा एकेयं रेखा दशेयं, शतेयं, सहस्रेयं इति ग्राहयति, अवगमयति, संख्यास्वरूम, केवलं, न तु संख्याया: रेखातत्त्वमेव।"*
Brhadaranyaka Aankarabhasya (4.4.25)
जिसका अर्थ है-
1 unit, 10 units, 100 units, 1000 units etc. up to parardha can be located in a number line. Now by using the number line one can do operations like addition, subtraction and so on.
ये तो कुछ नमूना हैं , जो ये दर्शाने के लिये दिया गया है कि संस्कृत ग्रंथो में केवल पूजा पाठ या आरती के मंत्र नहीं है बल्कि तमाम विज्ञान भरा पड़ा है।
दुर्भाग्य से कालांतर में व विदेशी आक्रांताओं के चलते संस्कृत का ह्रास होने के कारण हमारे पूर्वजों के ज्ञान का भावी पीढ़ी द्वारा विस्तार नहीं हो पाया और बहुत से ग्रंथ आक्रांताओं द्वारा नष्ट भ्रष्ट कर दिए गए ।
*वन्दे संस्कृत मातरम्* 🙏🏼