Sunday, 20 January 2019

संस्कृत ज्ञान विज्ञान की भाषा

संस्कृत ज्ञान विज्ञान की भाषा
संस्कृत हज़ारों वर्ष से इस देश की राष्ट्रभाषा रही हैं। यहाँ का समस्त साहित्य संस्कृतमय है, यहां के निवासी की क्रिया कलाप की यही भाषा है। इस देश की सभ्यता एवं संस्कृति की पवित्रधारा इसी भाषा में निरंतर बहती रही हो। वह भाषा इस देश में कदापि मृत नहीं हो सकती।
अंग्रेजी शिक्षण व्यवस्था से सदा के लिए इस सम्पूर्णवैज्ञानिक भाषा की उपेक्षा की गयी। जेसे अपने बेटे द्वारा माँ का परित्याग हुआ हो। फिर भी इस देश में समय समय पर भारत माँ के सपूत ने जन्म लिया और इसके महत्व को समझाया और आज तो यह हो गया है कि पूरे विश्व ने इसको मान लिया।
संसार की समस्त प्राचीनतम भाषाओं में संस्कृत का सर्वोच्चस्थान है। विश्व-साहित्य की प्रथम पुस्तक ऋग्वेद संस्कृत में ही रची गई है। संपूर्ण भारतीय संस्कृति, परंपरा और महत्वपूर्ण राज इसमें निहित है। अमरभाषा या देववाणी संस्कृत को जाने बिना भारतीय संस्कृति की महत्ता को जाना नहीं जा सकता।
देश-विदेश के कई बड़े विद्वान संस्कृत के अनुपम और विपुलसाहित्य को देखकर चकित रह गए हैं। कई विशेषज्ञों ने वैज्ञानिक रीति से इसका अध्ययन किया और गहरी गवेषणा की है। समस्त भारतीय भाषाओं को जोड़ने वाली कड़ी यदि कोई भाषा है तो वह संस्कृत ही है।
संस्कृत साहित्य का महत्व
विश्वभर की समस्त प्राचीन भाषाओं में संस्कृत का सर्वप्रथमऔर उच्च स्थान है। विश्व-साहित्य की पहली पुस्तक ऋग्वेद इसी भाषा का देदीप्यमान रत्न है। संस्कृत का अध्ययन किये बिना भारतीय संस्कृति का पूर्ण ज्ञान कभी सम्भव नहीं है।
अनेक प्राचीन एवं अर्वाचीन भाषाओं की यह जननी है। आज भी भारत की समस्त भाषाएँ इसी वात्सल्यमयी जननी के स्तन्यामृत से पुष्टि पा रही हैं।
ऋग्वेदसंहिता : सबसे पुराना ग्रंथ
ऋग्वेदसंहिता के कतिपय मंडलों की भाषा संस्कृतवाणी का सर्व प्राचीन उपलब्ध स्वरूप है। ऋग्वेद संहिता इस भाषा का पुरातनतम ग्रंथ है। यहाँ यह भी स्मरण रखना चाहिए कि ऋग्वेद संहिता केवल संस्कृत भाषा का प्राचीनतम ग्रंथ नहीं है - अपितु वह आर्य जाति की संपूर्ण ग्रंथराशि में भी प्राचीनतम ग्रंथ है। ऋग्वेदकाल से लेकर आज तक उस भाषा की अखंड परंपरा चली आ रही है। ऋक्संहिता केवल भारतीय की ही अमूल्य निधि नहीं है - वह समग्र आर्यजाति की, समस्तविश्ववाङ्मय की सर्वाधिक महत्वपूर्ण विरासत है।
भारत के वैदिक ऋषियों और विद्वानों ने अपने वैदिकवाङ्मय को मौखिक और श्रुतिपरंपरा द्वारा प्राचीनतम रूप मेंअत्यंत सावधानी के साथ सुरक्षित और अधिकृत बनाए रखा। किसी प्रकार के ध्वनिपरक, मात्रापरक यहाँ तक कि स्वर (ऐक्सेंट) परक परिवर्तन से पूर्णत: बचाते रहने का नि:स्वार्थभाव में वैदिक वेदपाठी सहस्रब्दियों तक अथक प्रयास करते रहे। "वेद" शब्द से मंत्रभाग (संहिताभाग) और "ब्राह्मण" का बोध माना जाता था। "ब्राह्मण" भाग के तीन अंश - (1) ब्राह्मण, (2) आरण्यक और (3) उपनिषद् कहे गए हैं। लिपिकला के विकास से पूर्व मौखिक परंपरा द्वारा वेदपाठियों ने इनका संरक्षण किया। बहुत सा वैदिक वाङ्मय धीरे-धीरे लुप्त हो गया है। पर आज भी जितना उपलब्ध है उसका महत्व असीम है। भारतीय दृष्टि से वेद को अपौरुषेय माना गया है। कहा जाता है, मंत्रद्रष्टा ऋषियों ने मंत्रों का साक्षात्कार किया। आधुनिक जगत् इसे स्वीकार नहीं करता। फिर भी यह माना जाता है कि वेदव्यास ने वैदिक मंत्रों का संकलन करते हुए संहिताओं के रूप में उन्हें प्रतिष्ठित किया।अत: संपूर्ण भारतीय संस्कृति वेदव्यास की युग-युग तक ऋणी बनी रहेगी।
वेद, वेदांग, उपवेद
यहाँ साहित्य शब्द का प्रयोग "वाङ्मय" के लिए है। ऊपर वेदसंहिताओं का उल्लेख हुआ है। वेद चार हैं-ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद। इनकी अनेक शाखाएँ थीं जिनमें बहुत सी लुप्त हो चुकी हैं और कुछ सुरक्षित बच गई हैं जिनके संहिताग्रंथ हमें आज उपलब्ध हैं। इन्हीं की शाखाओं से संबद्ध ब्राह्मण, अरण्यक और उपनिषद् नामक ग्रंथों का विशाल वाङ्मय प्राप्त है। वेदांगों में सर्वप्रमुख कल्पसूत्र हैं जिनके अवांतर वर्गों के रूप में और सूत्र, गृह्यसूत्र और धर्मसूत्र (शुल्बसूत्र भी है) का भी व्यापक साहित्य बचा हुआ है। इन्हीं की व्याख्या के रूप में समयानुसार धर्मसंहिताओं और स्मृतिग्रंथों का जो प्रचुरवाङ्मय बना, मनुस्मृति का उनमें प्रमुख स्थान है। वेदांगों मेंशिक्षा-प्रातिशाख्य, व्याकरण, निरुक्त, ज्योतिष, छंद शास्त्रसे संबद्ध ग्रंथों का वैदिकोत्तर काल से निर्माण होता रहा है।अब तक इन सबका विशाल साहित्य उपलब्ध है। आजज्योतिष की तीन शाखाएँ-गणित, सिद्धांत और फलित विकसित हो चुकी हैं और भारतीय गणितज्ञों की विश्व कीबहुत सी मौलिक देन हैं। पाणिनि और उनसे पूर्वकालीन तथा परवर्ती वैयाकरणों द्वारा जाने कितने व्याकरणों की रचना हुई जिनमें पाणिनि का व्याकरण-संप्रदाय 2500 वर्षों से प्रतिष्ठित माना गया और आज विश्व भर में उसकी महिमामान्य हो चुकी है। पाणिनीय व्याकरण को त्रिमुनि व्याकरण भी कहते हैं, क्योकि पाणिनि, कात्यायन और पतञ्जलि इन तीन मुनियों के सत्प्रयास से यह व्याकरण पूर्णता को प्राप्त किया। यास्क का निरुक्त पाणिनि से पूर्वकाल का ग्रंथ है और उससे भी पहले निरुक्तिविद्या के अनेक आचार्य प्रसिद्ध होचुके थे। शिक्षा प्रातिशाख्य ग्रंथों में कदाचित् ध्वनिविज्ञान, शास्त्र आदि का जितना प्राचीन और वैज्ञानिक विवेचन भारतकी संस्कृत भाषा में हुआ है- वह अतुलनीय और आश्चर्यकारी है। उपवेद के रूप में चिकित्साविज्ञान के रूप में आयुर्वेदविद्या का वैदिकाल से ही प्रचार था और उसके पंडिताग्रंथ (चरकसंहिता, सुश्रुतसंहिता आदि) प्राचीनभारतीय मनीषा के वैज्ञानिक अध्ययन की विस्मयकारी निधि है। इस विद्या के भी विशाल वाङ्मय का कालांतर में निर्माण हुआ। इसी प्रकार धनुर्वेद और राजनीति, गांधर्ववेद आदि को उपवेद कहा गया है तथा इनके विषय को लेकर ग्रंथ के रूप में अथवा प्रसंगतिर्गत सन्दर्भों में पर्याप्त विचार मिलता है।
दर्शनशास्त्र
वेद, वेदांग, उपवेद आदि के अतिरिक्त संस्कृत वाङ्मय मेंदर्शनशास्त्र का वाङ्मय भी अत्यंत विशाल है। पूर्वमीमांसा, उत्तर मीमांसा, सांख्य, योग, वैशेषिक और न्याय-इन छह प्रमुख आस्तिक दर्शनों के अतिरिक्त पचासों से अधिक आस्तिक-नास्तिक दर्शनों के नाम तथा उनके वाङ्मय उपलब्ध हैं जिनमें आत्मा, परमात्मा, जीवन, जगत्पदार्थमीमांसा, तत्वमीमांसा आदि के सन्दर्भ में अत्यंतप्रौढ़ विचार हुआ है। आस्तिक षड्दर्शनों के प्रवर्तक आचार्यों केरूप में व्यास, जैमिनि, कपिल, पतंजलि, कणाद, गौतम आदि के नाम संस्कृत साहित्य में अमर हैं। अन्य आस्तिक दर्शनों में शैव, वैष्णव, तांत्रिक आदि सैकड़ों दर्शन आते हैं।आस्तिकेतर दर्शनों में बौद्धदर्शनों, जैनदर्शनों आदि केसंस्कृत ग्रंथ बड़े ही प्रौढ़ और मौलिक हैं। इनमें गंभीर विवेचन हुआ है तथा उनकी विपुल ग्रंथराशि आज भी उपलब्ध है। चार्वाक, लोकायतिक, गार्हपत्य आदि नास्तिक दर्शनों का उल्लेख भी मिलता है। वेदप्रामण्य को माननेवाले आस्तिक और तदितर नास्तिक के आचार्यों और मनीषियों ने अत्यंत प्रचुर मात्रा में दार्शनिक वाङ्मय का निर्माण किया है। दर्शनसूत्र के टीकाकार के रूप में परमादृत शंकराचार्य का नामसंस्कृत साहित्य में अमर है।
लौकिक साहित्य
कौटिल्य का अर्थशास्त्र, वात्स्यायन का कामसूत्र, भरत का नाट्य शास्त्र आदि संस्कृत के कुछ ऐसे अमूल्य ग्रंथरत्न हैं - जिनका समस्त संसार के प्राचीन वाङ्मय में स्थान है। श्रीमद्भगवद्गीता का संसार में कहा जाता है - बाईबिल के बाद सर्वाधिक प्रचार है तथा विश्व की उत्कृष्टतम कृतियों में उसका उच्च और अन्यतम स्थान है।
वैदिक वाङ्मय के अनंतर सांस्कृतिक दृष्टिसे वाल्मीकिके रामायण और व्यास के महाभारत की भारत मेंसर्वोच्च प्रतिष्ठा मानी गई है। महाभारत का आज उपलब्धस्वरूप एक लाख पद्यों का है। प्राचीन भारत की पौराणिकगाथाओं, समाजशास्त्रीय मान्यताओं, दार्शनिक आध्यात्मिक दृष्टियों, मिथकों, भारतीय ऐतिहासिक जीवनचित्रों आदि केसाथ-साथ पौराणिक इतिहास, भूगोल और परंपरा का महाभारत महाकोश है। वाल्मीकि रामायण आद्य लौकिक महाकाव्य है। उसकी गणना आज भी विश्व के उच्चतम काव्यों में की जाती है। इनके अतिरिक्त अष्टादश पुराणों और उपपुराणादिकों का महाविशाल वाङ्मय है जिनमें पौराणिकया मिथकीय पद्धति से केवल आर्यों का ही नहीं, भारत की समस्त जनता और जातियों का सांस्कृतिक इतिहास अनुबद्ध है। इन पुराणकार मनीषियों ने भारत और भारत के बाहर से आयात सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक ऐक्य की प्रतिष्ठा का सहस्राब्दियों तक सफल प्रयास करते हुए भारतीय संस्कृति को एकसूत्रता में आबद्ध किया है।
संस्कृत के लोकसाहित्य के आदिकवि वाल्मीकि के बाद गद्य-पद्य के लाखों श्रव्यकाव्यों और दृश्यकाव्यरूप नाटकों की रचना होती चली जिनमें अधिकांश लुप्त या नष्ट हो गए। पर जो स्वल्पांश आज उपलब्ध है, सारा विश्व उसका महत्व स्वीकार करता है। कवि कालिदासके अभिज्ञानशाकुन्तलम् नाटक को विश्व के सर्वश्रेष्ठ नाटकों में स्थान प्राप्त है।अश्वघोष, भास, भवभूति, बाणभट्ट, भारवि, माघ, श्रीहर्ष, शूद्रक, विशाखदत्त आदि कवि और नाटककारों को अपनेअपने क्षेत्रों में अत्यंत उच्च स्थान प्राप्त है। सर्जनात्मक
संस्कृत भाषा का व्याकरण अत्यन्त परिमार्जित एवंवैज्ञानिक है। बहुत प्राचीन काल से ही अनेक व्याकरणाचार्योंने संस्कृत व्याकरण पर बहुत कुछ लिखा है।किन्तु पाणिनि का संस्कृत व्याकरण पर किया गया कार्य सबसे प्रसिद्ध है। उनका अष्टाध्यायी किसी भी भाषा के व्याकरण का सबसे प्राचीन ग्रन्थ है।
ध्वनि-तन्त्र और लिपि
ऐसी भाषा है जिसमें आकृति और ध्वनि का आपस में संबंध होता है। उदाहरण के लिए अंग्रेजी में अगर आप ‘son’ या ‘sun’ का उच्चारण करें, तो ये दोनों एक जैसे सुनाई देंगे, बस वर्तनी में ये अलग हैं। आप जो लिखते हैं, वह मानदंड नहीं है, मानदंड तो ध्वनि है क्योंकि आधुनिक विज्ञान यह साबित कर चुका है कि पूरा अस्तित्व ऊर्जा की गूंज है। जहां कहीं भी कंपन है, वहां ध्वनि तो होनी ही है। इसलिए एक तरह से देखा जाय तो पूरा अस्तित्व ध्वनि है। जब आप को यह अनुभव होता है कि एक खास ध्वनि एक खास आकृति के साथ जुड़ी हुई है, तो यही ध्वनि उस आकृति के लिए नाम बन जाती है। अब ध्वनि और आकृति आपस में जुड़ गईं। अगर आप ध्वनि का उच्चारण करते हैं, तो दरअसल, आप आकृति की ही चर्चा कर रहे हैं, न सिर्फ अपनी समझ में, न केवल मनोवैज्ञानिक रूपसे, बल्कि अस्तित्वगत रूप से भी आप आकृति को ध्वनि से जोड़ रहे हैं। अगर ध्वनि पर आपको महारत हासिल है, तो आकृति पर भी आपको महारत हासिल होगी। तो संस्कृतभाषा हमारे अस्तित्व की रूपरेखा है। जो कुछ भी आकृति में है, हमने उसे ध्वनि में परिवर्तित कर दिंया। आजकल इस मामले में बहुत ज्यादा विकृति आ गई है। यह एक चुनौती है कि मौजूदा दौर में इस भाषा को संरक्षित कैसे रखा जाए।इसकी वजह यह है कि इसके लिए जरूरी ज्ञान, समझ और जागरूकता की काफी कमी है।
यही वजह है कि जब लोगों को संस्कृत भाषा पढ़ाई जाती है, तो उसे रटाया जाता है। लोग शब्दों का बार बार उच्चारण करते हैं। इससे कोई अंतर नहीं पड़ता कि उन्हें इसका मतलब समझ आता है या नहीं, लेकिन ध्वनि महत्वपूर्ण है, अर्थ नहीं।
संस्कृत भारत की कई लिपियों में लिखी जाती रही है, लेकिन आधुनिक युग में देवनागरी लिपि के साथ इसका विशेष संबंध है। देवनागरी लिपि वास्तव में संस्कृत के लिये ही बनी है, इसलिये इसमें हरेक चिह्न के लिये एक और केवल एक ही ध्वनि है। देवनागरी में १३ स्वर और ३४ व्यंजन हैं। देवनागरी से रोमन लिपि में लिप्यन्तरण के लिये दो पद्धतियाँ अधिकप्रचलित हैं : IAST और ITRANS. शून्य, एक या अधिकव्यंजनों और एक स्वर के मेल से एक अक्षर बनता है।
संस्कृत भाषा भारतीय संस्कृति का आधार स्तम्भ है। संसारकी समृद्धतम भाषा ‘संस्कृत’ के रूप में सबसे उन्नतमानवीय समाज और विज्ञान की स्थापना की गयी। इस देवभाषा के अध्ययन मनन मात्र से ही मनुष्य में सूक्ष्म विचारशीलता और मौलिक चिंतन जन्म लेता है। सनातन संस्कृति के सभी प्रमुख साहित्यिक और वैज्ञानिक शास्त्र संस्कृत भाषा में ही है
ऑर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और कम्पयूटर क्षेत्र में भी संस्कृत के प्रयोग की सम्भावनाओं पर फ्रांस, अमेरिका, जापान, ऑस्ट्रेलिया, जर्मनी, इंग्लैंड आदि विभिन्न देशों में शोध जारी है। वानस्पतिक सौंदर्य प्रसाधन (हर्बल कॉस्मैटिक्स) एवंआयुर्वेद चिकित्सा पद्धति के तेजी से बढ़ते प्रचलन से संस्कृत की उपयोगिता और बढ़ गयी है क्योंकि आयुर्वेद पद्धतियों का ज्ञान सिर्फ संस्कृत में ही लिपिबद्ध है।
अपनी सुस्पष्ट और छंदात्मक उच्चारण प्रणाली के चलते संस्कृत भाषा को ‘स्पीच थेरेपी टूल’ (भाषण चिकित्साउपकरण) के रूप में मान्यता मिल रही है। जर्मन शिक्षाविद्पॉल मॉस के अनुसार “संस्कृत से सेरेब्रेल कॉर्टेक्स सक्रिय होता है। अतएव किसी बालक के लिए उँगलियों और जुबान की कठोरता से मुक्ति पाने के लिए देवनागरी लिपि व संस्कृत बोली ही सर्वोत्तम मार्ग है। वर्तमान यूरोपीय भाषाएँ बोलते समय जीभ और मुँह के कई हिस्सों का और लिखते समय उँगलियों की कई हलचलों का इस्तेमाल नहीं किया जाता है”.
वैज्ञानिक कई दिनों तक ऐसी भाषा/लिपि के विकास में थे, जिसका संगणकीय प्रणाली में उपयोग कर, उसका संसार की किसी भी आठ भाषाओं मे उसी क्षण रूपांतर हो जाए।अंततोगत्वा ‘संस्कृत’ ही एकमात्र ऐसी भाषा नजर आई। फोर्ब्स पत्रिका 1985 के अंक के अनुसार दुनिया में अनुवाद के उद्देश्य के लिए उपलब्ध सबसे अच्छी भाषा संस्कृत है।
वर्तमान में ऑक्सफोर्ड, कैम्ब्रिज और कोलम्बिया जैसे 200 से भी ज्यादा लब्ध-प्रतिष्ठित विदेशी विश्वविद्यालयों में संस्कृत पढ़ायी जा रही है। नासा के पास 60,000 ताड़ के पत्तेकी पांडुलिपियों है जो वे अध्ययन का उपयोग कर रहे हैं माना जाता है कि रूसी, जर्मन, जापानी, अमेरिकी सक्रिय रूप से हमारी पवित्र पुस्तकों से नई चीजों पर शोध कर रहे हैं और उन्हें वापस दुनिया के सामने अपने नाम से रख रहे हैं।
लंदन और आयरलैण्ड में वहां की शिक्षा में शामिल होने वालीसंस्कृत अपनी ही जमीन पर तीसरी भाषा के स्थान पर स्वीकार की गई है। भारत की वर्तमान एवं भावी पीढ़ी अत्यंत संवेदनशील है। उन्हें संस्कृत की महानता समझने और समझाने की जरूरत है। अगर स्मृति तीव्र करना हो तो, ब्लडसर्कुलेशन संतुलित करना हो तो और जीभ की मांसपेशियों काव्यायाम कराना हो तो, सभी स्थितियों में संस्कृत शब्दों काउच्चारण करना चाहिए।
दुनिया के 17 देशों में एक या अधिक संस्कृत विश्वविद्यालयसंस्कृत के बारे में अध्ययन और नई प्रौद्योगिकी प्राप्त करने के लिए है। जो हैं भी वहाँ संस्कृत केवल साहित्य और कर्मकाण्ड तक सीमित है विज्ञान के रूप में नहीं। भारत को विश्वगुरु और विश्व में सिरमौर बनाने के लिए संस्कृत केपुनरुत्थान की आवश्यकता है। क्योंकि संस्कृत हमारी विरासत है और उस पर हमारा ही जन्म-सिद्ध अधिकार है।
नासा के वैज्ञानिक रिक ब्रिग्स ने 1985 में भारत से संस्कृत के एक हजार प्रकांड विद्वानों को बुलाया था। उन्हें नासा मेंनौकरी का प्रस्ताव दिया था। उन्होंने बताया कि संस्कृत ऐसी प्राकृतिक भाषा है, जिसमें सूत्र के रूप में कंप्यूटर के जरिए कोई भी संदेश कम से कम शब्दों में भेजा जा सकता है। विदेशी उपयोग में अपनी भाषा की मदद देने से उन विद्वानोंने इन्कार कर दिया था।
नासा के वैज्ञानिकों की मानें तो जब वह स्पेस ट्रैवलर्स को मैसेज भेजते थे तो उनके वाक्य उलटे हो जाते थे। इस वजह से मेसेज का अर्थ ही बदल जाता था। उन्होंने दुनिया के कई भाषा में प्रयोग किया लेकिन हर बार यही समस्या आई।आखिर में उन्होंने संस्कृत में मेसेज भेजा क्योंकि संस्कृत के वाक्य उलटे हो जाने पर भी अपना अर्थ नहीं बदलते हैं। यह रोचक जानकारी हाल ही में एक समारोह में दिल्ली सरकार के प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान के निदेशक डॉ. जीतराम भट्ट ने दी।
संस्कृत भाषा वर्तमान में “उन्नत किर्लियन फोटोग्राफी” तकनीक में इस्तेमाल की जा रही है। (वर्तमान में, उन्नतकिर्लियन फोटोग्राफी तकनीक सिर्फ रूस और संयुक्त राज्यअमेरिका में ही मौजूद हैं। भारत के पास आज “सरलकिर्लियन फोटोग्राफी” भी नहीं है.
भारतीय वैज्ञानिकों को नव अनुसंधान की प्रेरणा संस्कृत सेमिली. जगदीशचन्द्र बसु, चंद्रशेखर वेंकट रमण ,आचार्यप्रफुल्लचन्द्र राय, डॉ. मेघनाद साहा जैसे विश्वविख्यातवैज्ञानिकों को संस्कृत भाषा से अत्यधिक प्रेम था औरवैज्ञानिक खोजों के लिए वे संस्कृत को ही आधार मानते थे। इनके अनुसार संस्कृत का प्रत्येक शब्द वैज्ञानिकों कोअनुसंधान के लिए प्रेरित करता है। प्राचीन ऋषि-महर्षियों नेविज्ञान में जितनी उन्नति की थी, वर्तमान में उसका कोई मुकाबला नहीं कर सकता। महर्षियों का सम्पूर्ण ज्ञान एवं सारसंस्कृत भाषा में निहित है। आचार्य प्रफुल्लचन्द्र राय विज्ञान के लिए संस्कृत शिक्षा को आवश्यक मानते थे। जगदीशचन्द्रबसु ने अपने अनुसंधानों के स्रोत संस्कृत में खोजे थे। डॉ. साहा अपने घर के बच्चों की शिक्षा संस्कृत में ही कराते थे और एक वैज्ञानिक होने के बावजूद काफी समय तक वे स्वयंबच्चों को संस्कृत पढ़ाते थे।
आधुनिक विज्ञान सृष्टि के रहस्यों को सुलझाने में बौना पड़ रहा है। अलौकिक शक्तियों से सम्पन्न मंत्र-विज्ञान की महिमा से आज का विज्ञान भी अनभिज्ञ है। उड़न तश्तरियाँ कहाँ से आती हैं और कहाँ गायब हो जाती हैं इस प्रकार की कई बातें हैं जो आज भी विज्ञान के लिए रहस्य बनी हुई हैं। प्राचीनसंस्कृत ग्रंथों से ऐसे कई रहस्यों को सुलझाया जा सकता है।
आर्यभट्ट का शून्य सिद्धांत, कणाद ऋषि का परमाणुसिद्धांत और भास्कराचार्य का सूर्य सिद्धांत न होता तो शायद विज्ञान आज इस शिखर पर न होता। विमान विज्ञान, नौका विज्ञान से संबंधित कई महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त हमारे ग्रंथों से प्राप्त हुए हैं। इस प्रकार के और भी अनगिनत सूत्र हमारे ग्रंथों में समाये हुए हैं, जिनसे आधुनिक विज्ञान कोअनुसंधान के क्षेत्र में महत्वपूर्ण दिशानिर्देश मिल सकते हैं।आज अगर विज्ञान के साथ संस्कृत का समन्वय कर दियाजाय तो अनुसंधान के क्षेत्र में बहुत उन्नति हो सकती है।हिन्दू धर्म के प्राचीन महान ग्रंथों के अलावा बौद्ध, जैन आदिधर्मों के अनेक मूल धार्मिक ग्रंथ भी संस्कृत में ही हैं। संस्कारीजीवन की नींवः संस्कृत वर्तमान समय में भौतिक सुख-सुविधाओं का अम्बार होने के बावजूद भी मानव-समाजअवसाद, तनाव, चिंता और अनेक प्रकार की बीमारियों सेग्रस्त है क्योंकि केवल भौतिक उन्नति से मानव का सर्वांगीणविकास सम्भव नहीं है, इसके लिए आध्यात्मिक उन्नतिअत्यंत जरूरी है। जिस समय संस्कृत का बोलबाला था उस समय मानव-जीवन ज्यादा संस्कारित था। यदि समाज को फिर से वैसा संस्कारित करना हो तो हमें फिर से सनातन धर्मके प्राचीन संस्कृत ग्रंथों का सहारा लेना ही पड़ेगा।
संस्कृत के बारे में आज की पीढ़ी के लिए आश्चर्यजनक तथ्य ————-
कंप्यूटर में इस्तेमाल के लिए सबसे अच्छी भाषा।
संदर्भ: फोर्ब्स पत्रिका 1987
सबसे अच्छे प्रकार का कैलेंडर जो इस्तेमाल किया जा रहा है, हिंदू कैलेंडर है (जिसमें नया साल सौर प्रणाली के भूवैज्ञानिकपरिवर्तन के साथ शुरू होता है)
संदर्भ: जर्मन स्टेट यूनिवर्सिटी
दवा के लिए सबसे उपयोगी भाषा अर्थात संस्कृत में बातकरने से व्यक्ति स्वस्थ और बीपी, मधुमेह, कोलेस्ट्रॉल आदिजैसे रोग से मुक्त हो जाएगा। संस्कृत में बात करने से मानवशरीर का तंत्रिका तंत्र सक्रिय रहता है जिससे कि व्यक्ति काशरीर सकारात्मक आवेश(Positive Charges) के साथ सक्रियहो जाता है।
संदर्भ: अमेरीकन हिन्दू यूनिवर्सिटी (शोध के बाद)
संस्कृत वह भाषा है जो अपनी पुस्तकों वेद, उपनिषदों, श्रुति, स्मृति, पुराणों, महाभारत, रामायण आदि में सबसे उन्नतप्रौद्योगिकी(Technology) रखती है।
संदर्भ: रशियन स्टेट यूनिवर्सिटी, नासा आदि
(असत्यापित रिपोर्ट का कहना है कि रूसी, जर्मन, जापानी, अमेरिकी सक्रिय रूप से हमारी पवित्र पुस्तकों से नई चीजों परशोध कर रहे हैं और उन्हें वापस दुनिया के सामने अपने नामसे रख रहे हैं। दुनिया के 17 देशों में एक या अधिक संस्कृतविश्वविद्यालय संस्कृत के बारे में अध्ययन और नईप्रौद्योगिकी प्राप्तकरने के लिए है।
दुनिया की सभी भाषाओं की माँ संस्कृत है। सभी भाषाएँ (97%) प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से इस भाषा से प्रभावित है।
संदर्भ: यूएनओ
दुनिया में अनुवाद के उद्देश्य के लिए उपलब्ध सबसे अच्छीभाषा संस्कृत है।
संदर्भ: फोर्ब्स पत्रिका 1985
लेकिन यहाँ यह बात अवश्य सोचने की है,की आज जहाँ पूरेविश्व में संस्कृत पर शोध चल रहे हैं,रिसर्च हो रहीं हैं वहीँहमारे देश संस्कृत को मृत भाषा बताने में बाज नहीं आ रहे हैं .

Monday, 7 January 2019

वेदव्यासों द्वारा वेद मन्त्रों का संकलन-

वेदव्यासों द्वारा वेद मन्त्रों का संकलन-
28 वेदव्यास हुए थे, अर्थात् 28 बार वेदों का संकलन हुआ। कई बार वेद लुप्त भी हुए हैं। उनका हयग्रीव, वराह तथा मत्स्य अवतारों द्वारा उद्धार हुआ है।
ऋक् वेद की सभी 21 संहितायें ऋक् वेद हैं। उनमें अभी 3 उपलब्ध हैं-शाकल्य, वाष्कल, शांख्यायन। इसी प्रकार यजुर्वेद की सभी 101 शाखायें यजुर्वेद हैं। शुक्ल की 2 तथा कृष्ण की 4 शाखा उपलब्ध हैं-काण्व, माध्यन्दिन, तैत्तिरीय, मैत्रायणी, काठक, कपिष्ठल। सामवेद की आकाश में 1000 तथा शब्द रूप में 13 शाखा हैं जिनमें 3 उपलब्ध हैं-कौथुमी, जैमिनीय, राणायनीय। अथर्ववेद की आकाश में 50 तथा शब्द रूप में 9 शाखा हैं जिनमें 2 उपलब्ध हैं-शौनक, पैप्पलाद।
वेद मन्त्र समझने लायक, भाषा, व्याकरण, छन्द, निरुक्त, ज्योतिष, कल्प, शिक्षा का जब तक विकास नहीं हो तब तक किसी भी मनुष्य को तथाकथित ईश्वर वेद नहीं दे सकता। इसमें प्रत्येक मन्त्र में ऋषि के उल्लेख से ही स्पष्ट है कि भिन्न भिन्न स्थान और काल के ऋषियों को मन्त्र का दर्शन हुआ था। इनका संकलन 28 बार 28 व्यासों द्वारा हुआ है।
ब्रह्म के कई स्तर हैं। परात्पर में निर्विशेष या सविशेष द्वारा कोई मन्त्र नहीं दिया जा सकता। ईश्वर रूप सभी प्राणियों के हृदय में रह कर नियन्त्रण करता है (गीता, 18/61)। उसकी प्रेरणा से अनुभव हो सकता है। वह परा वाणी के स्तर पर होगा। उसको पश्यन्ती, मध्यमा तथा वैखरी के स्तर पर व्यक्त करना मनुष्य ऋषि का काम है। अव्यक्त परा वाक् को व्यक्त वाणी के मन्त्र में प्रकट करने से वह शाश्वत होता है जैसा ईशावास्योपनिषद (काण्व संहिता, अध्याय 40) में लिखा है-
स पर्यगात् शुक्रं अकायं अस्नाविरं, शुद्धं अपापविद्धं कविः मनीषी परिभूः स्वयम्भूः याथातथ्यतो अर्थान् व्यदधात् शाश्वतीभ्यः समाभ्यः।
मनुष्य ऋषियों द्वारा अलग अलग मन्त्र का दर्शन होने पर भी 3 प्रकार से वेद अपौरुषेय है-
(1) मन्त्र दर्शन के समय ऋषि अपने व्यक्तित्व से स्वतन्त्र था।
(2) यह किसी एक व्यक्ति का मत नहीं है। भिन्न भिन्न ऋषियों के मन्त्रों के संकलन रूप में औसत है।
(3) 5 प्रकार के ज्ञानेन्द्रिय द्वारा प्राप्त ज्ञान के अतिरिक्त इसमें 2 प्रकार के अतीन्द्रिय ज्ञान भी हैं। इनके माध्यम के रूप में 5 सत् प्राण तथा 2 अतिरिक्त असत् प्राण (परोरजा, ऋषि) वेद में वर्णित हैं।

स्वस्तिक से वास्तु दोष निवारण

स्वस्तिक से वास्तु दोष निवारण
वास्तु शास्त्र में चार दिशाएँ होती हैं। स्वस्तिक
चारों दिशाओं का बोध कराता है। पूर्व, दक्षिण, पश्चिम, उत्तर।
चारों दिशाओं के देव पूर्व के इंद्र, दक्षिण के यम, पश्चिम के वरुण,
उत्तर के कुबेर। स्वस्तिक की भुजाएँ चारों उप दिशाओं
का बोध कराती हैं। ईशान, अग्नि, नेऋत्य, वायव्य।
स्वस्तिक के आकार में आठों दिशाएँ गर्भित हैं। वैदिक हिन्दू धर्म के
अनुकूल स्वस्तिक को गणपति का स्वरूप माना है। स्वस्तिक
की चारों दिशाएँ से चार युग, सतयुग, त्रेता, द्वापर, कलयुग
की जानकारी मिलती है। चार
वर्ण ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र। चार आश्रम ब्रह्मचर्य,
गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यास। चार पुरुषार्थ धर्म, अर्थ, काम और
मोक्ष। चार वेद इत्यादि अनंत जानकारी का बोधक है।
स्वस्तिक की चार भुजाओं में जिन धर्म के मूल
सिद्धांतों का बोध होता है। समवसरण में भगवान का दर्शन चतुर्थ
दिशाओं से समान रूप से होता है। चार घातिया कर्म
ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय,
मोहनीय, अंतराय। चार अनंत चतुष्टय अनंतदर्शन,
अनंतज्ञान, अनंतसुख, अनंत वीर्य। उपवन भूमि में
चारों दिशाओं में क्रमशः अशोक, सप्तच्छद, चंपक और आम्रवन होते
हैं। चार अनुयोग- प्रथमानुयोग, चरणानुयोग, करणानुयोग, द्रव्यानुयोग।
चार निक्षेप- नाम, स्थापना, द्रव्य, भाव। चार कषाय- क्रोध, मान, माया,
लोभ। मुख्य चार प्राण- इंद्रिय, बल, आयु, श्वासोच्छवास। चार
संज्ञा- आहार, निद्रा, मैथुन, परिग्रह। चार दर्शन- चक्षु,
अचक्षु, अवधि, केवल। चार आराधना- दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप।
चार गतियाँ- देव, मनुष्य, तिर्यन्च, नरक।
प्राचीन काल में जिन वास्तु नियमों को विद्वानो ने लिख गए
हैं उनका महत्त्व आज भी कम
नहीं हुआ है। परन्तु कई कारणों से इन
नियमों को पालन न करने की सूरत में घर में
किसी न किसी तरह का वास्तु दोष आ
ही जाता है। इन वास्तु दोषों के निवारण के उपाय
किसी प्रशिक्षित वास्तु विशेषज्ञ से कराने चाहिए। लेकिन
फौरी तौर पर एक स्वस्तिक प्रयोग बता रहें हैं जिससे
वास्तु की समस्या का कुछ हद तक निवारण
हो सकता है।
वास्तु दोष को दूर करने के लिए बनाया गया स्वस्तिक 6 इंच से कम
नहीं होना चाहिए। घर के मुख्य़ द्वार के दोनों ओर
ज़मीन से 4 से 5 फुट ऊपर सिन्दूर से यह स्वस्तिक
बनाऐं। घर में जहां भी वास्तु दोष है और उसे दूर
करना संभव न हो तो वहां पर भी इस तरह
का स्वस्तिक बना दें। जिस
भी दिशा की शांति करानी हो उस
दिशा में 6" x 6" का तांबे का स्वस्तिक यंत्र पूजन कर
लगा देना चाहिए। इस यंत्र के साथ उस
दिशा स्वामी का रत्न भी यंत्र के साथ लगा दें।
नींव पूजन के समय भी इस तरह के यंत्र
आठों दिशाओं व ब्रह्म स्थान पर दिशा स्वामियों के रत्न के साथ
लगा कर गृहस्वामी के हाथ के बराबर गड्ढा खोद कर,
चावल बिछा कर, दबा देना चाहिए। पृथ्वी में इन अभिमंत्रित
रत्न जड़े स्वस्तिक यंत्र की स्थापना से इनका प्रभाव
काफ़ी बड़े क्षेत्र पर होने लगता है।
दिशा स्वामियों की स्थिति इस प्रकार है- ब्रह्म स्थान-
माणिक, पूर्व-हीरा, आग्नेय-मूंगा, दक्षिण-
नीलम, नैऋत्य-पुखराज, पश्चिम-पन्ना, वायव्य-गोमेद,
उत्तर-मोती, इशान-स्फटिक।
विधि :-- शरीर
की बाहरी शुद्धि करके शुद्ध
वस्त्रों को धारण करके ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हुए (जिस
दिन स्वस्तिक बनाएँ) पवित्र भावनाओं से नौ अंगुल का स्वस्तिक 90
डिग्री के एंगल में सभी भुजाओं को बराबर
रखते हुए बनाएँ। केसर से, कुमकुम से, सिन्दूर और तेल के मिश्रण
से अनामिका अंगुली से ब्रह्म मुहूर्त में विधिवत बनाने
पर उस घर के वातावरण में कुछ समय के लिए अच्छा परिवर्तन
महसूस किया जा सकता है। भवन या फ्लैट के मुख्य द्वार पर एवं
हर रूम के द्वार पर अंकित करने से सकारात्मक ऊर्जाओं का आगमन
होता है।
स्वस्तिक चिह्न लगभग हर समाज में आदर से पूजा जाता है
क्योंकि स्वस्तिक के चिह्न की बनावट
ऐसी होती है, कि वह दसों दिशाओं से
सकारात्मक एनर्जी को अपनी तरफ
खींचता है। इसीलिए
किसी भी शुभ काम की शुरुआत
से पहले पूजन कर स्वस्तिक का चिह्न बनाया जाता है। ऐसे
ही शुभ कार्यो में आम की पत्तियों को आपने
लोगों को अक्सर घर के दरवाज़े पर बांधते हुए देखा होगा क्योंकि आम
की पत्ती,
इसकी लकड़ी, फल को ज्योतिष
की दृष्टी से भी बहुत शुभ
माना जाता है। आम की लकड़ी और
स्वस्तिक दोनों का संगम आम
की लकड़ी का स्वस्तिक उपयोग किया जाए
तो इसका बहुत ही शुभ प्रभाव पड़ता है।
यदि किसी घर में किसी भी तरह
वास्तुदोष हो तो जिस कोण में वास्तु दोष है उसमें आम
की लकड़ी से बना स्वस्तिक लगाने से
वास्तुदोष में कमी आती है क्योंकि आम
की लकड़ी में सकारात्मक ऊर्जा को अवशोषित
करती है। यदि इसे घर के प्रवेश द्वार पर लगाया जाए
तो घर के सुख समृद्धि में वृद्धि होती है। इसके
अलावा पूजा के स्थान पर भी इसे लगाये जाने का अपने
आप में विशेष प्रभाव बनता है।

गुरूत्वाकर्षण सिद्धान्त ( Law Of Gravitation ) :-

गुरूत्वाकर्षण सिद्धान्त ( Law Of Gravitation ) :-
वेद और वैदिक आर्ष ग्रन्थों में गुरूत्वाकर्षण के नियम को समझाने के लिये पर्याप्त सूत्र हैं । परन्तु जिनको न जानकर हमारे आजकल के युवा वर्ग केवल पाश्चात्य वैज्ञानिकों के पीछे ही श्रद्धाभाव रखते हैं । जबकि यह करोड़ों वर्ष पहले वेदों में सूक्ष्म ज्ञान के रूप में ईश्वर ने हमारे लिये पहले ही वर्णन कर दिया है ।
हम अनेकों प्रमाण देते हैं कि हमारे ऋषियों ने जो बात पहले ही वेदों से अपनी तपश्चर्या से जान ली थी
आधारशक्ति :- बृहत् जाबाल उपनिषद् में गुरूत्वाकर्षण सिद्धान्त को आधारशक्ति नाम से कहा गया है ।
इसके दो भाग किये गये हैं :-
(१) ऊर्ध्वशक्ति या ऊर्ध्वग :- ऊपर की ओर खिंचकर जाना । जैसे अग्नि का ऊपर की ओर जाना ।
(२) अधःशक्ति या निम्नग :- नीचे की ओर खिंचकर जाना । जैसे जल का नीचे की ओर जाना या पत्थर आदि का नीचे आना ।
आर्ष ग्रन्थों से प्रमाण देते हैं :-
(१) यह बृहत् उपनिषद् के सूत्र हैं :-
अग्नीषोमात्मकं जगत् । ( बृ० उप० २.४ )
आधारशक्त्यावधृतः कालाग्निरयम् ऊर्ध्वगः । तथैव निम्नगः सोमः । ( बृ० उप० २.८ )
अर्थात :- सारा संसार अग्नि और सोम का समन्वय है । अग्नि की ऊर्ध्वगति है और सोम की अधोःशक्ति । इन दोनो शक्तियों के आकर्षण से ही संसार रुका हुआ है ।
(२) १५० ई० पूर्व महर्षि पतञ्जली ने व्याकरण महाभाष्य में भी गुरूत्वाकर्षण के सिद्धान्त का उल्लेख करते हुए लिखा :-
लोष्ठः क्षिप्तो बाहुवेगं गत्वा नैव तिर्यक् गच्छति नोर्ध्वमारोहति ।
पृथिवीविकारः पृथिवीमेव गच्छति आन्तर्यतः । ( महाभाष्य :- स्थानेन्तरतमः, १/१/४९ सूत्र पर )
अर्थात् :- पृथिवी की आकर्षण शक्ति इस प्रकार की है कि यदि मिट्टी का ढेला ऊपर फेंका जाता है तो वह बहुवेग को पूरा करने पर, न टेढ़ा जाता है और न ऊपर चढ़ता है । वह पृथिवी का विकार है, इसलिये पृथिवी पर ही आ जाता है ।
(३) भास्कराचार्य द्वितीय पूर्व ने अपने सिद्धान्तशिरोमणि में यह कहा :-
आकृष्टिशक्तिश्च महि तया यत्
खस्थं गुरूं स्वाभिमुखं स्वशक्त्या ।
आकृष्यते तत् पततीव भाति
समे समन्तात् क्व पतत्वियं खे ।। ( सिद्धान्त० भुवन० १६ )
अर्थात :- पृथिवी में आकर्षण शक्ति है जिसके कारण वह ऊपर की भारी वस्तु को अपनी ओर खींच लेती है । वह वस्तु पृथिवी पर गिरती हुई सी लगती है । पृथिवी स्वयं सूर्य आदि के आकर्षण से रुकी हुई है,अतः वह निराधार आकाश में स्थित है तथा अपने स्थान से हटती नहीं है और न गिरती है । वह अपनी कील पर घूमती है।
(४) वराहमिहिर ने अपने ग्रन्थ पञ्चसिद्धान्तिका में कहा :-
पंचभमहाभूतमयस्तारा गण पंजरे महीगोलः ।
खेयस्कान्तान्तःस्थो लोह इवावस्थितो वृत्तः ।। ( पंच०पृ०३१ )
अर्थात :- तारासमूहरूपी पंजर में गोल पृथिवी इसी प्रकार रुकी हुई है जैसे दो बड़े चुम्बकों के बीच में लोहा ।
(५) आचार्य श्रीपति ने अपने ग्रन्थ सिद्धान्तशेखर में कहा है :-
उष्णत्वमर्कशिखिनोः शिशिरत्वमिन्दौ,.. निर्हतुरेवमवनेः स्थितिरन्तरिक्षे ।। ( सिद्धान्त० १५/२१ )
नभस्ययस्कान्तमहामणीनां मध्ये स्थितो लोहगुणो यथास्ते ।
आधारशून्यो पि तथैव सर्वधारो धरित्र्या ध्रुवमेव गोलः ।। ( सिद्धान्त० १५/२२ )
अर्थात :- पृथिवी की अन्तरिक्ष में स्थिति उसी प्रकार स्वाभाविक है, जैसे सूर्य्य में गर्मी, चन्द्र में शीतलता और वायु में गतिशीलता । दो बड़े चुम्बकों के बीच में लोहे का गोला स्थिर रहता है, उसी प्रकार पृथिवी भी अपनी धुरी पर रुकी हुई है ।
(६) ऋषि पिप्पलाद ( लगभग ६००० वर्ष पूर्व ) ने प्रश्न उपनिषद् में कहा :-
पायूपस्थे - अपानम् । ( प्रश्न उप० ३.४ )
पृथिव्यां या देवता सैषा पुरुषस्यापानमवष्टभ्य० । ( प्रश्न उप० ३.८ )
तथा पृथिव्याम् अभिमानिनी या देवता ... सैषा पुरुषस्य अपानवृत्तिम् आकृष्य.... अपकर्षेन अनुग्रहं कुर्वती वर्तते । अन्यथा हि शरीरं गुरुत्वात् पतेत् सावकाशे वा उद्गच्छेत् । ( शांकर भाष्य, प्रश्न० ३.८ )
अर्थात :- अपान वायु के द्वारा ही मल मूत्र नीचे आता है । पृथिवी अपने आकर्षण शक्ति के द्वारा ही मनुष्य को रोके हुए है, अन्यथा वह आकाश में उड़ जाता ।
(७) यह ऋग्वेद के मन्त्र हैं :-
यदा ते हर्य्यता हरी वावृधाते दिवेदिवे ।
आदित्ते विश्वा भुवनानि येमिरे ।। ( ऋ० अ० ६/ अ० १ / व० ६ / म० ३ )
अर्थात :- सब लोकों का सूर्य्य के साथ आकर्षण और सूर्य्य आदि लोकों का परमेश्वर के साथ आकर्षण है । इन्द्र जो वायु , इसमें ईश्वर के रचे आकर्षण, प्रकाश और बल आदि बड़े गुण हैं । उनसे सब लोकों का दिन दिन और क्षण क्षण के प्रति धारण, आकर्षण और प्रकाश होता है । इस हेतु से सब लोक अपनी अपनी कक्षा में चलते रहते हैं, इधर उधर विचल भी नहीं सकते ।
यदा सूर्य्यममुं दिवि शुक्रं ज्योतिरधारयः ।
आदित्ते विश्वा भुवनानी येमिरे ।।३।। ( ऋ० अ० ६/ अ० १ / व० ६ / म० ५ )
अर्थात :- हे परमेश्वर ! जब उन सूर्य्यादि लोकों को आपने रचा और आपके ही प्रकाश से प्रकाशित हो रहे हैं और आप अपने सामर्थ्य से उनका धारण कर रहे हैं , इसी कारण सूर्य्य और पृथिवी आदि लोकों और अपने स्वरूप को धारण कर रहे हैं । इन सूर्य्य आदि लोकों का सब लोकों के साथ आकर्षण से धारण होता है । इससे यह सिद्ध हुआ कि परमेश्वर सब लोकों का आकर्षण और धारण कर रहा है।

ऋगवेद में π का मान ३२ अंक तक शुद्ध है।*

देश में एक ऐसा वर्ग बन गया है जो कि संस्कृत भाषा से तो शून्य हैं परंतु उनकी छद्म धारणा यह बन गयी है कि संस्कृत भाषा में जो कुछ भी लिखा है वे सब पूजा पाठ के मंत्र ही होंगे जबकि वास्तविकता इससे भिन्न है।
देखते हैं -
*"चतुरस्रं मण्डलं चिकीर्षन्न् अक्षयार्धं मध्यात्प्राचीमभ्यापातयेत्।*
*यदतिशिष्यते तस्य सह तृतीयेन मण्डलं परिलिखेत्।"*
बौधायन ने उक्त श्लोक को लिखा है !
इसका अर्थ है -
यदि वर्ग की भुजा 2a हो
तो वृत्त की त्रिज्या r = [a+1/3(√2a – a)] = [1+1/3(√2 – 1)] a
ये क्या है ?
अरे ये तो कोई गणित या विज्ञान का सूत्र लगता है
शायद ईसा के जन्म से पूर्व पिंगल के छंद शास्त्र में एक श्लोक प्रकट हुआ था।हालायुध ने अपने ग्रंथ मृतसंजीवनी मे , जो पिंगल के छन्द शास्त्र पर भाष्य है ,
इस श्लोक का उल्लेख किया है -
*परे पूर्णमिति।*
*उपरिष्टादेकं चतुरस्रकोष्ठं लिखित्वा तस्याधस्तात् उभयतोर्धनिष्क्रान्तं कोष्ठद्वयं लिखेत्।*
*तस्याप्यधस्तात् त्रयं तस्याप्यधस्तात् चतुष्टयं यावदभिमतं स्थानमिति मेरुप्रस्तारः।*
*तस्य प्रथमे कोष्ठे एकसंख्यां व्यवस्थाप्य लक्षणमिदं प्रवर्तयेत्।*
*तत्र परे कोष्ठे यत् वृत्तसंख्याजातं तत् पूर्वकोष्ठयोः पूर्णं निवेशयेत्।*
शायद ही किसी आधुनिक शिक्षा में maths मे B. Sc. किये हुए भारतीय छात्र ने इसका नाम भी सुना हो , जबकि यह "मेरु प्रस्तार" है।
परंतु जब ये पाश्चात्य जगत से "पास्कल त्रिभुज" के नाम से भारत आया तो उन कथित सेकुलर भारतीयों को शर्म इस बात पर आने लगी कि भारत में ऐसे सिद्धांत क्यों नहीं दिये जाते।
*"चतुराधिकं शतमष्टगुणं द्वाषष्टिस्तथा सहस्राणाम्।*
*अयुतद्वयस्य विष्कम्भस्यासन्नो वृत्तपरिणाहः॥"*
ये भी कोई पूजा का मंत्र ही लगता है लेकिन ये किसी गोले के व्यास व परिध का अनुपात है। जब पाश्चात्य जगत से ये आया तो संक्षिप्त रुप लेकर आया ऐसा π जिसे 22/7 के रुप में डिकोड किया जाता है।
उक्त श्लोक को डिकोड करेंगे अंकों में तो कुछ इस तरह होगा-
(१०० + ४) * ८ + ६२०००/२०००० = ३.१४१६
*ऋगवेद में π का मान ३२ अंक तक शुद्ध है।*
*गोपीभाग्य मधुव्रातः श्रुंगशोदधि संधिगः |*
*खलजीवितखाताव गलहाला रसंधरः ||*
इस श्लोक को डीकोड करने पर ३२ अंको तक π का मान 3.1415926535897932384626433832792… आता है।
#चक्रीय_चतुर्भुज का क्षेत्रफल:
ब्राह्मस्फुटसिद्धान्त के गणिताध्याय के क्षेत्रव्यवहार के श्लोक १२.२१ में निम्नलिखित श्लोक वर्णित है-
*स्थूल-फलम् त्रि-चतुर्-भुज-बाहु-प्रतिबाहु-योग-दल-घातस् ।*
*भुज-योग-अर्ध-चतुष्टय-भुज-ऊन-घातात् पदम् सूक्ष्मम् ॥*
अर्थ:
त्रिभुज और चतुर्भुज का स्थूल (लगभग) क्षेत्रफल उसकी आमने-सामने की भुजाओं के योग के आधे के गुणनफल के बराबर होता है तथा सूक्ष्म (exact) क्षेत्रफल भुजाओं के योग के आधे में से भुजाओं की लम्बाई क्रमशः घटाकर और उनका गुणा करके वर्गमूल लेने से प्राप्त होता है।

#ब्रह्मगुप्त_प्रमेय:
चक्रीय चतुर्भुज के विकर्ण यदि लम्बवत हों तो उनके कटान बिन्दु से किसी भुजा पर डाला गया लम्ब सामने की भुजा को समद्विभाजित करता है।
ब्रह्मगुप्त ने श्लोक में कुछ इस प्रकार अभिव्यक्त किया है-
*त्रि-भ्जे भुजौ तु भूमिस् तद्-लम्बस् लम्बक-अधरम् खण्डम् ।*
*ऊर्ध्वम् अवलम्ब-खण्डम् लम्बक-योग-अर्धम् अधर-ऊनम् ॥*
(ब्राह्मस्फुटसिद्धान्त, गणिताध्याय, क्षेत्रव्यवहार १२.३१)
#वर्ग_समीकरण का व्यापक सूत्र:
ब्रह्मगुप्त का सूत्र इस प्रकार है-
*वर्गचतुर्गुणितानां रुपाणां मध्यवर्गसहितानाम् ।*
*मूलं मध्येनोनं वर्गद्विगुणोद्धृतं मध्यः ॥*
ब्राह्मस्फुट-सिद्धांत - 18.44
अर्थात :
व्यक्त रुप (c) के साथ अव्यक्त वर्ग के चतुर्गुणित गुणांक (4ac) को अव्यक्त मध्य के गुणांक के वर्ग (b²) से सहित करें या जोड़ें। इसका वर्गमूल प्राप्त करें तथा इसमें से मध्य अर्थात b को घटावें।
पुनः इस संख्या को अज्ञात ञ वर्ग के गुणांक (a) के द्विगुणित संख्या से भाग देवें।
प्राप्त संख्या ही अज्ञात "त्र" राशि का मान है।
श्रीधराचार्य ने इस बहुमूल्य सूत्र को भास्कराचार्य का नाम लेकर अविकल रुप से उद्धृत किया —
*चतुराहतवर्गसमैः रुपैः पक्षद्वयं गुणयेत् ।*
*अव्यक्तवर्गरूपैर्युक्तौ पक्षौ ततो मूलम् ॥* -- भास्करीय बीजगणित, अव्यक्त-वर्गादि-समीकरण, पृ. - 221
अर्थात :-
प्रथम अव्यक्त वर्ग के चतुर्गुणित रूप या गुणांक (4a) से दोनों पक्षों के गुणांको को गुणित करके द्वितीय अव्यक्त गुणांक (b) के वर्गतुल्य रूप दोनों पक्षों में जोड़ें। पुनः द्वितीय पक्ष का वर्गमूल प्राप्त करें।

#आर्यभट्ट की ज्या (Sine) सारणी:
आर्यभटीय का निम्नांकित श्लोक ही आर्यभट की ज्या-सारणी को निरूपित करता है:
*मखि भखि फखि धखि णखि ञखि ङखि हस्झ स्ककि किष्ग श्घकि किघ्व ।*
*घ्लकि किग्र हक्य धकि किच स्ग झश ङ्व क्ल प्त फ छ कला-अर्ध-ज्यास् ॥*
#माधव की ज्या सारणी:
निम्नांकित श्लोक में माधव की ज्या सारणी दिखायी गयी है। जो चन्द्रकान्त राजू द्वारा लिखित *'कल्चरल फाउण्डेशन्स आफ मैथमेटिक्स'* नामक पुस्तक से लिया गया है।
*श्रेष्ठं नाम वरिष्ठानां हिमाद्रिर्वेदभावनः।*
*तपनो भानुसूक्तज्ञो मध्यमं विद्धि दोहनं।।*
*धिगाज्यो नाशनं कष्टं छत्रभोगाशयाम्बिका।*
*म्रिगाहारो नरेशोऽयं वीरोरनजयोत्सुकः।।*
*मूलं विशुद्धं नालस्य गानेषु विरला नराः।*
*अशुद्धिगुप्ताचोरश्रीः शंकुकर्णो नगेश्वरः।।*
*तनुजो गर्भजो मित्रं श्रीमानत्र सुखी सखे!।*
*शशी रात्रौ हिमाहारो वेगल्पः पथि सिन्धुरः।।*
*छायालयो गजो नीलो निर्मलो नास्ति सत्कुले।*
*रात्रौ दर्पणमभ्राङ्गं नागस्तुङ्गनखो बली।।*
*धीरो युवा कथालोलः पूज्यो नारीजरैर्भगः।*
*कन्यागारे नागवल्ली देवो विश्वस्थली भृगुः।।*
*तत्परादिकलान्तास्तु महाज्या माधवोदिताः।*
*स्वस्वपूर्वविशुद्धे तु शिष्टास्तत्खण्डमौर्विकाः।।*
(२.९.५)
#संख्या_रेखा की परिकल्पना (कॉन्सेप्ट्)
*"एकप्रभृत्यापरार्धसंख्यास्वरूपपरिज्ञानाय रेखाध्यारोपणं कृत्वा एकेयं रेखा दशेयं, शतेयं, सहस्रेयं इति ग्राहयति, अवगमयति, संख्यास्वरूम, केवलं, न तु संख्याया: रेखातत्त्वमेव।"*
Brhadaranyaka Aankarabhasya (4.4.25)
जिसका अर्थ है-
1 unit, 10 units, 100 units, 1000 units etc. up to parardha can be located in a number line. Now by using the number line one can do operations like addition, subtraction and so on.
ये तो कुछ नमूना हैं , जो ये दर्शाने के लिये दिया गया है कि संस्कृत ग्रंथो में केवल पूजा पाठ या आरती के मंत्र नहीं है बल्कि तमाम विज्ञान भरा पड़ा है।
दुर्भाग्य से कालांतर में व विदेशी आक्रांताओं के चलते संस्कृत का ह्रास होने के कारण हमारे पूर्वजों के ज्ञान का भावी पीढ़ी द्वारा विस्तार नहीं हो पाया और बहुत से ग्रंथ आक्रांताओं द्वारा नष्ट भ्रष्ट कर दिए गए ।
*वन्दे संस्कृत मातरम्* 🙏🏼

पंचक विशेष-

पंचक विशेष-
भारतीय ज्योतिष में पंचक को अशुभ माना गया है। इसके अंतर्गत धनिष्ठा, शतभिषा, उत्तरा भाद्रपद, पूर्वा भाद्रपद व रेवती नक्षत्र आते हैं। पंचक के दौरान कुछ विशेष काम वर्जित किये गए है।
पंचक के प्रकार
रोग पंचक
रविवार को शुरू होने वाला पंचक रोग पंचक कहलाता है। इसके प्रभाव से ये पांच दिन शारीरिक और मानसिक परेशानियों वाले होते हैं। इस पंचक में किसी भी तरह के शुभ काम नहीं करने चाहिए। हर तरह के मांगलिक कार्यों में ये पंचक अशुभ माना गया है।
2👉 राज पंचक
सोमवार को शुरू होने वाला पंचक राज पंचक कहलाता है। ये पंचक शुभ माना जाता है। इसके प्रभाव से इन पांच दिनों में सरकारी कामों में सफलता मिलती है। राज पंचक में संपत्ति से जुड़े काम करना भी शुभ रहता है।*
3👉 अग्नि पंचक
मंगलवार को शुरू होने वाला पंचक अग्नि पंचक कहलाता है। इन पांच दिनों में कोर्ट कचहरी और विवाद आदि के फैसले, अपना हक प्राप्त करने वाले काम किए जा सकते हैं। इस पंचक में अग्नि का भय होता है। इस पंचक में किसी भी तरह का निर्माण कार्य, औजार और मशीनरी कामों की शुरुआत करना अशुभ माना गया है। इनसे नुकसान हो सकता है।*
4👉 मृत्यु पंचक
शनिवार को शुरू होने वाला पंचक मृत्यु पंचक कहलाता है। नाम से ही पता चलता है कि अशुभ दिन से शुरू होने वाला ये पंचक मृत्यु के बराबर परेशानी देने वाला होता है। इन पांच दिनों में किसी भी तरह के जोखिम भरे काम नहीं करना चाहिए। इसके प्रभाव से विवाद, चोट, दुर्घटना आदि होने का खतरा रहता है।
5👉 चोर पंचक
शुक्रवार को शुरू होने वाला पंचक चोर पंचक कहलाता है। विद्वानों के अनुसार, इस पंचक में यात्रा करने की मनाही है। इस पंचक में लेन-देन, व्यापार और किसी भी तरह के सौदे भी नहीं करने चाहिए। मना किए गए कार्य करने से धन हानि हो सकती है।
6👉 इसके अलावा बुधवार और गुरुवार को शुरू होने वाले पंचक में ऊपर दी गई बातों का पालन करना जरूरी नहीं माना गया है। इन दो दिनों में शुरू होने वाले दिनों में पंचक के पांच कामों के अलावा किसी भी तरह के शुभ काम किए जा सकते हैं।
पंचक में वर्जित कर्म
1👉 पंचक में चारपाई बनवाना भी अच्छा नहीं माना जाता। विद्वानों के अनुसार ऐसा करने से कोई बड़ा संकट खड़ा हो सकता है।
2👉 पंचक के दौरान जिस समय घनिष्ठा नक्षत्र हो उस समय घास, लकड़ी आदि जलने वाली वस्तुएं इकट्ठी नहीं करना चाहिए, इससे आग लगने का भय हैं।
3👉 पंचक के दौरान दक्षिण दिशा में यात्रा नही करनी चाहिए, क्योंकि दक्षिण दिशा, यम की दिशा मानी गई है। इन नक्षत्रों में दक्षिण दिशा की यात्रा करना हानिकारक माना गया है।
4👉 पंचक के दौरान जब रेवती नक्षत्र चल रहा हो, उस समय घर की छत नहीं बनाना चाहिए, ऐसा विद्वानों का कहना है। इससे धन हानि और घर में क्लेश होता है।
5👉 पंचक में शव का अंतिम संस्कार करने से पहले किसी योग्य पंडित की सलाह अवश्य लेनी चाहिए। यदि ऐसा न हो पाए तो शव के साथ पांच पुतले आटे या कुश (एक प्रकार की घास) से बनाकर अर्थी पर रखना चाहिए और इन पांचों का भी शव की तरह पूर्ण विधि-विधान से अंतिम संस्कार करना चाहिए, तो पंचक दोष समाप्त हो जाता है। ऐसा गरुड़ पुराण में लिखा है।
पंचक में करने योग्य शुभ कार्य
पंचक में आने वाले नक्षत्रों में शुभ कार्य हो भी किये जा सकते हैं। पंचक में आने वाला उत्तराभाद्रपद नक्षत्र वार के साथ मिलकर सर्वार्थसिद्धि योग बनाता है, वहीं धनिष्ठा, शतभिषा, पूर्वा भाद्रपद व रेवती नक्षत्र यात्रा, व्यापार, मुंडन आदि शुभ कार्यों में श्रेष्ठ माने गए हैं।
मेरे अनुसार, पंचक को भले ही अशुभ माना जाता है, लेकिन इस दौरान सगाई, विवाह आदि शुभ कार्य भी किए जाते हैं।
पंचक में आने वाले तीन नक्षत्र पूर्वा भाद्रपद, उत्तरा भाद्रपद व रेवती रविवार को होने से आनंद आदि 28 योगों में से 3 शुभ योग बनाते हैं, ये शुभ योग इस प्रकार हैं- चर, स्थिर व प्रवर्ध। इन शुभ योगों से सफलता व धन लाभ का विचार किया जाता है।
मुहूर्त चिंतामणि ग्रंथ के अनुसार पंचक के नक्षत्रों का शुभ फल
1👉 धनिष्ठा और शतभिषा नक्षत्र चल संज्ञक माने जाते हैं। इनमें चलित काम करना शुभ माना गया है जैसे- यात्रा करना, वाहन खरीदना, मशीनरी संबंधित काम शुरू करना शुभ माना गया है।
2👉 उत्तराभाद्रपद नक्षत्र स्थिर संज्ञक नक्षत्र माना गया है। इसमें स्थिरता वाले काम करने चाहिए जैसे- बीज बोना, गृह प्रवेश, शांति पूजन और जमीन से जुड़े स्थिर कार्य करने में सफलता मिलती है।
3👉 रेवती नक्षत्र मैत्री संज्ञक होने से इस नक्षत्र में कपड़े, व्यापार से संबंधित सौदे करना, किसी विवाद का निपटारा करना, गहने खरीदना आदि काम शुभ माने गए हैं।
पंचक के नक्षत्रों का संभावित अशुभ प्रभाव
1👉 धनिष्ठा नक्षत्र में आग लगने का भय रहता है।
2👉 शतभिषा नक्षत्र में वाद-विवाद होने के योग बनते हैं।
3👉 पूर्वाभाद्रपद रोग कारक नक्षत्र है यानी इस नक्षत्र में बीमारी होने की संभावना सबसे अधिक होती है।
4👉 उत्तरा भाद्रपद में धन हानि के योग बनते हहै।
5👉 रेवती नक्षत्र में नुकसान व मानसिक तनाव होने की संभावना होती है।