संस्कृत ज्ञान विज्ञान की भाषा
संस्कृत हज़ारों वर्ष से इस देश की राष्ट्रभाषा रही हैं। यहाँ का समस्त साहित्य संस्कृतमय है, यहां के निवासी की क्रिया कलाप की यही भाषा है। इस देश की सभ्यता एवं संस्कृति की पवित्रधारा इसी भाषा में निरंतर बहती रही हो। वह भाषा इस देश में कदापि मृत नहीं हो सकती।
अंग्रेजी शिक्षण व्यवस्था से सदा के लिए इस सम्पूर्णवैज्ञानिक भाषा की उपेक्षा की गयी। जेसे अपने बेटे द्वारा माँ का परित्याग हुआ हो। फिर भी इस देश में समय समय पर भारत माँ के सपूत ने जन्म लिया और इसके महत्व को समझाया और आज तो यह हो गया है कि पूरे विश्व ने इसको मान लिया।
अंग्रेजी शिक्षण व्यवस्था से सदा के लिए इस सम्पूर्णवैज्ञानिक भाषा की उपेक्षा की गयी। जेसे अपने बेटे द्वारा माँ का परित्याग हुआ हो। फिर भी इस देश में समय समय पर भारत माँ के सपूत ने जन्म लिया और इसके महत्व को समझाया और आज तो यह हो गया है कि पूरे विश्व ने इसको मान लिया।
संसार की समस्त प्राचीनतम भाषाओं में संस्कृत का सर्वोच्चस्थान है। विश्व-साहित्य की प्रथम पुस्तक ऋग्वेद संस्कृत में ही रची गई है। संपूर्ण भारतीय संस्कृति, परंपरा और महत्वपूर्ण राज इसमें निहित है। अमरभाषा या देववाणी संस्कृत को जाने बिना भारतीय संस्कृति की महत्ता को जाना नहीं जा सकता।
देश-विदेश के कई बड़े विद्वान संस्कृत के अनुपम और विपुलसाहित्य को देखकर चकित रह गए हैं। कई विशेषज्ञों ने वैज्ञानिक रीति से इसका अध्ययन किया और गहरी गवेषणा की है। समस्त भारतीय भाषाओं को जोड़ने वाली कड़ी यदि कोई भाषा है तो वह संस्कृत ही है।
संस्कृत साहित्य का महत्व
संस्कृत साहित्य का महत्व
विश्वभर की समस्त प्राचीन भाषाओं में संस्कृत का सर्वप्रथमऔर उच्च स्थान है। विश्व-साहित्य की पहली पुस्तक ऋग्वेद इसी भाषा का देदीप्यमान रत्न है। संस्कृत का अध्ययन किये बिना भारतीय संस्कृति का पूर्ण ज्ञान कभी सम्भव नहीं है।
अनेक प्राचीन एवं अर्वाचीन भाषाओं की यह जननी है। आज भी भारत की समस्त भाषाएँ इसी वात्सल्यमयी जननी के स्तन्यामृत से पुष्टि पा रही हैं।
ऋग्वेदसंहिता : सबसे पुराना ग्रंथ
ऋग्वेदसंहिता के कतिपय मंडलों की भाषा संस्कृतवाणी का सर्व प्राचीन उपलब्ध स्वरूप है। ऋग्वेद संहिता इस भाषा का पुरातनतम ग्रंथ है। यहाँ यह भी स्मरण रखना चाहिए कि ऋग्वेद संहिता केवल संस्कृत भाषा का प्राचीनतम ग्रंथ नहीं है - अपितु वह आर्य जाति की संपूर्ण ग्रंथराशि में भी प्राचीनतम ग्रंथ है। ऋग्वेदकाल से लेकर आज तक उस भाषा की अखंड परंपरा चली आ रही है। ऋक्संहिता केवल भारतीय की ही अमूल्य निधि नहीं है - वह समग्र आर्यजाति की, समस्तविश्ववाङ्मय की सर्वाधिक महत्वपूर्ण विरासत है।
ऋग्वेदसंहिता के कतिपय मंडलों की भाषा संस्कृतवाणी का सर्व प्राचीन उपलब्ध स्वरूप है। ऋग्वेद संहिता इस भाषा का पुरातनतम ग्रंथ है। यहाँ यह भी स्मरण रखना चाहिए कि ऋग्वेद संहिता केवल संस्कृत भाषा का प्राचीनतम ग्रंथ नहीं है - अपितु वह आर्य जाति की संपूर्ण ग्रंथराशि में भी प्राचीनतम ग्रंथ है। ऋग्वेदकाल से लेकर आज तक उस भाषा की अखंड परंपरा चली आ रही है। ऋक्संहिता केवल भारतीय की ही अमूल्य निधि नहीं है - वह समग्र आर्यजाति की, समस्तविश्ववाङ्मय की सर्वाधिक महत्वपूर्ण विरासत है।
भारत के वैदिक ऋषियों और विद्वानों ने अपने वैदिकवाङ्मय को मौखिक और श्रुतिपरंपरा द्वारा प्राचीनतम रूप मेंअत्यंत सावधानी के साथ सुरक्षित और अधिकृत बनाए रखा। किसी प्रकार के ध्वनिपरक, मात्रापरक यहाँ तक कि स्वर (ऐक्सेंट) परक परिवर्तन से पूर्णत: बचाते रहने का नि:स्वार्थभाव में वैदिक वेदपाठी सहस्रब्दियों तक अथक प्रयास करते रहे। "वेद" शब्द से मंत्रभाग (संहिताभाग) और "ब्राह्मण" का बोध माना जाता था। "ब्राह्मण" भाग के तीन अंश - (1) ब्राह्मण, (2) आरण्यक और (3) उपनिषद् कहे गए हैं। लिपिकला के विकास से पूर्व मौखिक परंपरा द्वारा वेदपाठियों ने इनका संरक्षण किया। बहुत सा वैदिक वाङ्मय धीरे-धीरे लुप्त हो गया है। पर आज भी जितना उपलब्ध है उसका महत्व असीम है। भारतीय दृष्टि से वेद को अपौरुषेय माना गया है। कहा जाता है, मंत्रद्रष्टा ऋषियों ने मंत्रों का साक्षात्कार किया। आधुनिक जगत् इसे स्वीकार नहीं करता। फिर भी यह माना जाता है कि वेदव्यास ने वैदिक मंत्रों का संकलन करते हुए संहिताओं के रूप में उन्हें प्रतिष्ठित किया।अत: संपूर्ण भारतीय संस्कृति वेदव्यास की युग-युग तक ऋणी बनी रहेगी।
वेद, वेदांग, उपवेद
यहाँ साहित्य शब्द का प्रयोग "वाङ्मय" के लिए है। ऊपर वेदसंहिताओं का उल्लेख हुआ है। वेद चार हैं-ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद। इनकी अनेक शाखाएँ थीं जिनमें बहुत सी लुप्त हो चुकी हैं और कुछ सुरक्षित बच गई हैं जिनके संहिताग्रंथ हमें आज उपलब्ध हैं। इन्हीं की शाखाओं से संबद्ध ब्राह्मण, अरण्यक और उपनिषद् नामक ग्रंथों का विशाल वाङ्मय प्राप्त है। वेदांगों में सर्वप्रमुख कल्पसूत्र हैं जिनके अवांतर वर्गों के रूप में और सूत्र, गृह्यसूत्र और धर्मसूत्र (शुल्बसूत्र भी है) का भी व्यापक साहित्य बचा हुआ है। इन्हीं की व्याख्या के रूप में समयानुसार धर्मसंहिताओं और स्मृतिग्रंथों का जो प्रचुरवाङ्मय बना, मनुस्मृति का उनमें प्रमुख स्थान है। वेदांगों मेंशिक्षा-प्रातिशाख्य, व्याकरण, निरुक्त, ज्योतिष, छंद शास्त्रसे संबद्ध ग्रंथों का वैदिकोत्तर काल से निर्माण होता रहा है।अब तक इन सबका विशाल साहित्य उपलब्ध है। आजज्योतिष की तीन शाखाएँ-गणित, सिद्धांत और फलित विकसित हो चुकी हैं और भारतीय गणितज्ञों की विश्व कीबहुत सी मौलिक देन हैं। पाणिनि और उनसे पूर्वकालीन तथा परवर्ती वैयाकरणों द्वारा जाने कितने व्याकरणों की रचना हुई जिनमें पाणिनि का व्याकरण-संप्रदाय 2500 वर्षों से प्रतिष्ठित माना गया और आज विश्व भर में उसकी महिमामान्य हो चुकी है। पाणिनीय व्याकरण को त्रिमुनि व्याकरण भी कहते हैं, क्योकि पाणिनि, कात्यायन और पतञ्जलि इन तीन मुनियों के सत्प्रयास से यह व्याकरण पूर्णता को प्राप्त किया। यास्क का निरुक्त पाणिनि से पूर्वकाल का ग्रंथ है और उससे भी पहले निरुक्तिविद्या के अनेक आचार्य प्रसिद्ध होचुके थे। शिक्षा प्रातिशाख्य ग्रंथों में कदाचित् ध्वनिविज्ञान, शास्त्र आदि का जितना प्राचीन और वैज्ञानिक विवेचन भारतकी संस्कृत भाषा में हुआ है- वह अतुलनीय और आश्चर्यकारी है। उपवेद के रूप में चिकित्साविज्ञान के रूप में आयुर्वेदविद्या का वैदिकाल से ही प्रचार था और उसके पंडिताग्रंथ (चरकसंहिता, सुश्रुतसंहिता आदि) प्राचीनभारतीय मनीषा के वैज्ञानिक अध्ययन की विस्मयकारी निधि है। इस विद्या के भी विशाल वाङ्मय का कालांतर में निर्माण हुआ। इसी प्रकार धनुर्वेद और राजनीति, गांधर्ववेद आदि को उपवेद कहा गया है तथा इनके विषय को लेकर ग्रंथ के रूप में अथवा प्रसंगतिर्गत सन्दर्भों में पर्याप्त विचार मिलता है।
दर्शनशास्त्र
दर्शनशास्त्र
वेद, वेदांग, उपवेद आदि के अतिरिक्त संस्कृत वाङ्मय मेंदर्शनशास्त्र का वाङ्मय भी अत्यंत विशाल है। पूर्वमीमांसा, उत्तर मीमांसा, सांख्य, योग, वैशेषिक और न्याय-इन छह प्रमुख आस्तिक दर्शनों के अतिरिक्त पचासों से अधिक आस्तिक-नास्तिक दर्शनों के नाम तथा उनके वाङ्मय उपलब्ध हैं जिनमें आत्मा, परमात्मा, जीवन, जगत्पदार्थमीमांसा, तत्वमीमांसा आदि के सन्दर्भ में अत्यंतप्रौढ़ विचार हुआ है। आस्तिक षड्दर्शनों के प्रवर्तक आचार्यों केरूप में व्यास, जैमिनि, कपिल, पतंजलि, कणाद, गौतम आदि के नाम संस्कृत साहित्य में अमर हैं। अन्य आस्तिक दर्शनों में शैव, वैष्णव, तांत्रिक आदि सैकड़ों दर्शन आते हैं।आस्तिकेतर दर्शनों में बौद्धदर्शनों, जैनदर्शनों आदि केसंस्कृत ग्रंथ बड़े ही प्रौढ़ और मौलिक हैं। इनमें गंभीर विवेचन हुआ है तथा उनकी विपुल ग्रंथराशि आज भी उपलब्ध है। चार्वाक, लोकायतिक, गार्हपत्य आदि नास्तिक दर्शनों का उल्लेख भी मिलता है। वेदप्रामण्य को माननेवाले आस्तिक और तदितर नास्तिक के आचार्यों और मनीषियों ने अत्यंत प्रचुर मात्रा में दार्शनिक वाङ्मय का निर्माण किया है। दर्शनसूत्र के टीकाकार के रूप में परमादृत शंकराचार्य का नामसंस्कृत साहित्य में अमर है।
लौकिक साहित्य
कौटिल्य का अर्थशास्त्र, वात्स्यायन का कामसूत्र, भरत का नाट्य शास्त्र आदि संस्कृत के कुछ ऐसे अमूल्य ग्रंथरत्न हैं - जिनका समस्त संसार के प्राचीन वाङ्मय में स्थान है। श्रीमद्भगवद्गीता का संसार में कहा जाता है - बाईबिल के बाद सर्वाधिक प्रचार है तथा विश्व की उत्कृष्टतम कृतियों में उसका उच्च और अन्यतम स्थान है।
वैदिक वाङ्मय के अनंतर सांस्कृतिक दृष्टिसे वाल्मीकिके रामायण और व्यास के महाभारत की भारत मेंसर्वोच्च प्रतिष्ठा मानी गई है। महाभारत का आज उपलब्धस्वरूप एक लाख पद्यों का है। प्राचीन भारत की पौराणिकगाथाओं, समाजशास्त्रीय मान्यताओं, दार्शनिक आध्यात्मिक दृष्टियों, मिथकों, भारतीय ऐतिहासिक जीवनचित्रों आदि केसाथ-साथ पौराणिक इतिहास, भूगोल और परंपरा का महाभारत महाकोश है। वाल्मीकि रामायण आद्य लौकिक महाकाव्य है। उसकी गणना आज भी विश्व के उच्चतम काव्यों में की जाती है। इनके अतिरिक्त अष्टादश पुराणों और उपपुराणादिकों का महाविशाल वाङ्मय है जिनमें पौराणिकया मिथकीय पद्धति से केवल आर्यों का ही नहीं, भारत की समस्त जनता और जातियों का सांस्कृतिक इतिहास अनुबद्ध है। इन पुराणकार मनीषियों ने भारत और भारत के बाहर से आयात सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक ऐक्य की प्रतिष्ठा का सहस्राब्दियों तक सफल प्रयास करते हुए भारतीय संस्कृति को एकसूत्रता में आबद्ध किया है।
संस्कृत के लोकसाहित्य के आदिकवि वाल्मीकि के बाद गद्य-पद्य के लाखों श्रव्यकाव्यों और दृश्यकाव्यरूप नाटकों की रचना होती चली जिनमें अधिकांश लुप्त या नष्ट हो गए। पर जो स्वल्पांश आज उपलब्ध है, सारा विश्व उसका महत्व स्वीकार करता है। कवि कालिदासके अभिज्ञानशाकुन्तलम् नाटक को विश्व के सर्वश्रेष्ठ नाटकों में स्थान प्राप्त है।अश्वघोष, भास, भवभूति, बाणभट्ट, भारवि, माघ, श्रीहर्ष, शूद्रक, विशाखदत्त आदि कवि और नाटककारों को अपनेअपने क्षेत्रों में अत्यंत उच्च स्थान प्राप्त है। सर्जनात्मक
संस्कृत भाषा का व्याकरण अत्यन्त परिमार्जित एवंवैज्ञानिक है। बहुत प्राचीन काल से ही अनेक व्याकरणाचार्योंने संस्कृत व्याकरण पर बहुत कुछ लिखा है।किन्तु पाणिनि का संस्कृत व्याकरण पर किया गया कार्य सबसे प्रसिद्ध है। उनका अष्टाध्यायी किसी भी भाषा के व्याकरण का सबसे प्राचीन ग्रन्थ है।
ध्वनि-तन्त्र और लिपि
संस्कृत भाषा का व्याकरण अत्यन्त परिमार्जित एवंवैज्ञानिक है। बहुत प्राचीन काल से ही अनेक व्याकरणाचार्योंने संस्कृत व्याकरण पर बहुत कुछ लिखा है।किन्तु पाणिनि का संस्कृत व्याकरण पर किया गया कार्य सबसे प्रसिद्ध है। उनका अष्टाध्यायी किसी भी भाषा के व्याकरण का सबसे प्राचीन ग्रन्थ है।
ध्वनि-तन्त्र और लिपि
ऐसी भाषा है जिसमें आकृति और ध्वनि का आपस में संबंध होता है। उदाहरण के लिए अंग्रेजी में अगर आप ‘son’ या ‘sun’ का उच्चारण करें, तो ये दोनों एक जैसे सुनाई देंगे, बस वर्तनी में ये अलग हैं। आप जो लिखते हैं, वह मानदंड नहीं है, मानदंड तो ध्वनि है क्योंकि आधुनिक विज्ञान यह साबित कर चुका है कि पूरा अस्तित्व ऊर्जा की गूंज है। जहां कहीं भी कंपन है, वहां ध्वनि तो होनी ही है। इसलिए एक तरह से देखा जाय तो पूरा अस्तित्व ध्वनि है। जब आप को यह अनुभव होता है कि एक खास ध्वनि एक खास आकृति के साथ जुड़ी हुई है, तो यही ध्वनि उस आकृति के लिए नाम बन जाती है। अब ध्वनि और आकृति आपस में जुड़ गईं। अगर आप ध्वनि का उच्चारण करते हैं, तो दरअसल, आप आकृति की ही चर्चा कर रहे हैं, न सिर्फ अपनी समझ में, न केवल मनोवैज्ञानिक रूपसे, बल्कि अस्तित्वगत रूप से भी आप आकृति को ध्वनि से जोड़ रहे हैं। अगर ध्वनि पर आपको महारत हासिल है, तो आकृति पर भी आपको महारत हासिल होगी। तो संस्कृतभाषा हमारे अस्तित्व की रूपरेखा है। जो कुछ भी आकृति में है, हमने उसे ध्वनि में परिवर्तित कर दिंया। आजकल इस मामले में बहुत ज्यादा विकृति आ गई है। यह एक चुनौती है कि मौजूदा दौर में इस भाषा को संरक्षित कैसे रखा जाए।इसकी वजह यह है कि इसके लिए जरूरी ज्ञान, समझ और जागरूकता की काफी कमी है।
यही वजह है कि जब लोगों को संस्कृत भाषा पढ़ाई जाती है, तो उसे रटाया जाता है। लोग शब्दों का बार बार उच्चारण करते हैं। इससे कोई अंतर नहीं पड़ता कि उन्हें इसका मतलब समझ आता है या नहीं, लेकिन ध्वनि महत्वपूर्ण है, अर्थ नहीं।
यही वजह है कि जब लोगों को संस्कृत भाषा पढ़ाई जाती है, तो उसे रटाया जाता है। लोग शब्दों का बार बार उच्चारण करते हैं। इससे कोई अंतर नहीं पड़ता कि उन्हें इसका मतलब समझ आता है या नहीं, लेकिन ध्वनि महत्वपूर्ण है, अर्थ नहीं।
संस्कृत भारत की कई लिपियों में लिखी जाती रही है, लेकिन आधुनिक युग में देवनागरी लिपि के साथ इसका विशेष संबंध है। देवनागरी लिपि वास्तव में संस्कृत के लिये ही बनी है, इसलिये इसमें हरेक चिह्न के लिये एक और केवल एक ही ध्वनि है। देवनागरी में १३ स्वर और ३४ व्यंजन हैं। देवनागरी से रोमन लिपि में लिप्यन्तरण के लिये दो पद्धतियाँ अधिकप्रचलित हैं : IAST और ITRANS. शून्य, एक या अधिकव्यंजनों और एक स्वर के मेल से एक अक्षर बनता है।
संस्कृत भाषा भारतीय संस्कृति का आधार स्तम्भ है। संसारकी समृद्धतम भाषा ‘संस्कृत’ के रूप में सबसे उन्नतमानवीय समाज और विज्ञान की स्थापना की गयी। इस देवभाषा के अध्ययन मनन मात्र से ही मनुष्य में सूक्ष्म विचारशीलता और मौलिक चिंतन जन्म लेता है। सनातन संस्कृति के सभी प्रमुख साहित्यिक और वैज्ञानिक शास्त्र संस्कृत भाषा में ही है
ऑर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और कम्पयूटर क्षेत्र में भी संस्कृत के प्रयोग की सम्भावनाओं पर फ्रांस, अमेरिका, जापान, ऑस्ट्रेलिया, जर्मनी, इंग्लैंड आदि विभिन्न देशों में शोध जारी है। वानस्पतिक सौंदर्य प्रसाधन (हर्बल कॉस्मैटिक्स) एवंआयुर्वेद चिकित्सा पद्धति के तेजी से बढ़ते प्रचलन से संस्कृत की उपयोगिता और बढ़ गयी है क्योंकि आयुर्वेद पद्धतियों का ज्ञान सिर्फ संस्कृत में ही लिपिबद्ध है।
अपनी सुस्पष्ट और छंदात्मक उच्चारण प्रणाली के चलते संस्कृत भाषा को ‘स्पीच थेरेपी टूल’ (भाषण चिकित्साउपकरण) के रूप में मान्यता मिल रही है। जर्मन शिक्षाविद्पॉल मॉस के अनुसार “संस्कृत से सेरेब्रेल कॉर्टेक्स सक्रिय होता है। अतएव किसी बालक के लिए उँगलियों और जुबान की कठोरता से मुक्ति पाने के लिए देवनागरी लिपि व संस्कृत बोली ही सर्वोत्तम मार्ग है। वर्तमान यूरोपीय भाषाएँ बोलते समय जीभ और मुँह के कई हिस्सों का और लिखते समय उँगलियों की कई हलचलों का इस्तेमाल नहीं किया जाता है”.
अपनी सुस्पष्ट और छंदात्मक उच्चारण प्रणाली के चलते संस्कृत भाषा को ‘स्पीच थेरेपी टूल’ (भाषण चिकित्साउपकरण) के रूप में मान्यता मिल रही है। जर्मन शिक्षाविद्पॉल मॉस के अनुसार “संस्कृत से सेरेब्रेल कॉर्टेक्स सक्रिय होता है। अतएव किसी बालक के लिए उँगलियों और जुबान की कठोरता से मुक्ति पाने के लिए देवनागरी लिपि व संस्कृत बोली ही सर्वोत्तम मार्ग है। वर्तमान यूरोपीय भाषाएँ बोलते समय जीभ और मुँह के कई हिस्सों का और लिखते समय उँगलियों की कई हलचलों का इस्तेमाल नहीं किया जाता है”.
वैज्ञानिक कई दिनों तक ऐसी भाषा/लिपि के विकास में थे, जिसका संगणकीय प्रणाली में उपयोग कर, उसका संसार की किसी भी आठ भाषाओं मे उसी क्षण रूपांतर हो जाए।अंततोगत्वा ‘संस्कृत’ ही एकमात्र ऐसी भाषा नजर आई। फोर्ब्स पत्रिका 1985 के अंक के अनुसार दुनिया में अनुवाद के उद्देश्य के लिए उपलब्ध सबसे अच्छी भाषा संस्कृत है।
वर्तमान में ऑक्सफोर्ड, कैम्ब्रिज और कोलम्बिया जैसे 200 से भी ज्यादा लब्ध-प्रतिष्ठित विदेशी विश्वविद्यालयों में संस्कृत पढ़ायी जा रही है। नासा के पास 60,000 ताड़ के पत्तेकी पांडुलिपियों है जो वे अध्ययन का उपयोग कर रहे हैं माना जाता है कि रूसी, जर्मन, जापानी, अमेरिकी सक्रिय रूप से हमारी पवित्र पुस्तकों से नई चीजों पर शोध कर रहे हैं और उन्हें वापस दुनिया के सामने अपने नाम से रख रहे हैं।
लंदन और आयरलैण्ड में वहां की शिक्षा में शामिल होने वालीसंस्कृत अपनी ही जमीन पर तीसरी भाषा के स्थान पर स्वीकार की गई है। भारत की वर्तमान एवं भावी पीढ़ी अत्यंत संवेदनशील है। उन्हें संस्कृत की महानता समझने और समझाने की जरूरत है। अगर स्मृति तीव्र करना हो तो, ब्लडसर्कुलेशन संतुलित करना हो तो और जीभ की मांसपेशियों काव्यायाम कराना हो तो, सभी स्थितियों में संस्कृत शब्दों काउच्चारण करना चाहिए।
दुनिया के 17 देशों में एक या अधिक संस्कृत विश्वविद्यालयसंस्कृत के बारे में अध्ययन और नई प्रौद्योगिकी प्राप्त करने के लिए है। जो हैं भी वहाँ संस्कृत केवल साहित्य और कर्मकाण्ड तक सीमित है विज्ञान के रूप में नहीं। भारत को विश्वगुरु और विश्व में सिरमौर बनाने के लिए संस्कृत केपुनरुत्थान की आवश्यकता है। क्योंकि संस्कृत हमारी विरासत है और उस पर हमारा ही जन्म-सिद्ध अधिकार है।
नासा के वैज्ञानिक रिक ब्रिग्स ने 1985 में भारत से संस्कृत के एक हजार प्रकांड विद्वानों को बुलाया था। उन्हें नासा मेंनौकरी का प्रस्ताव दिया था। उन्होंने बताया कि संस्कृत ऐसी प्राकृतिक भाषा है, जिसमें सूत्र के रूप में कंप्यूटर के जरिए कोई भी संदेश कम से कम शब्दों में भेजा जा सकता है। विदेशी उपयोग में अपनी भाषा की मदद देने से उन विद्वानोंने इन्कार कर दिया था।
नासा के वैज्ञानिकों की मानें तो जब वह स्पेस ट्रैवलर्स को मैसेज भेजते थे तो उनके वाक्य उलटे हो जाते थे। इस वजह से मेसेज का अर्थ ही बदल जाता था। उन्होंने दुनिया के कई भाषा में प्रयोग किया लेकिन हर बार यही समस्या आई।आखिर में उन्होंने संस्कृत में मेसेज भेजा क्योंकि संस्कृत के वाक्य उलटे हो जाने पर भी अपना अर्थ नहीं बदलते हैं। यह रोचक जानकारी हाल ही में एक समारोह में दिल्ली सरकार के प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान के निदेशक डॉ. जीतराम भट्ट ने दी।
संस्कृत भाषा वर्तमान में “उन्नत किर्लियन फोटोग्राफी” तकनीक में इस्तेमाल की जा रही है। (वर्तमान में, उन्नतकिर्लियन फोटोग्राफी तकनीक सिर्फ रूस और संयुक्त राज्यअमेरिका में ही मौजूद हैं। भारत के पास आज “सरलकिर्लियन फोटोग्राफी” भी नहीं है.
भारतीय वैज्ञानिकों को नव अनुसंधान की प्रेरणा संस्कृत सेमिली. जगदीशचन्द्र बसु, चंद्रशेखर वेंकट रमण ,आचार्यप्रफुल्लचन्द्र राय, डॉ. मेघनाद साहा जैसे विश्वविख्यातवैज्ञानिकों को संस्कृत भाषा से अत्यधिक प्रेम था औरवैज्ञानिक खोजों के लिए वे संस्कृत को ही आधार मानते थे। इनके अनुसार संस्कृत का प्रत्येक शब्द वैज्ञानिकों कोअनुसंधान के लिए प्रेरित करता है। प्राचीन ऋषि-महर्षियों नेविज्ञान में जितनी उन्नति की थी, वर्तमान में उसका कोई मुकाबला नहीं कर सकता। महर्षियों का सम्पूर्ण ज्ञान एवं सारसंस्कृत भाषा में निहित है। आचार्य प्रफुल्लचन्द्र राय विज्ञान के लिए संस्कृत शिक्षा को आवश्यक मानते थे। जगदीशचन्द्रबसु ने अपने अनुसंधानों के स्रोत संस्कृत में खोजे थे। डॉ. साहा अपने घर के बच्चों की शिक्षा संस्कृत में ही कराते थे और एक वैज्ञानिक होने के बावजूद काफी समय तक वे स्वयंबच्चों को संस्कृत पढ़ाते थे।
आधुनिक विज्ञान सृष्टि के रहस्यों को सुलझाने में बौना पड़ रहा है। अलौकिक शक्तियों से सम्पन्न मंत्र-विज्ञान की महिमा से आज का विज्ञान भी अनभिज्ञ है। उड़न तश्तरियाँ कहाँ से आती हैं और कहाँ गायब हो जाती हैं इस प्रकार की कई बातें हैं जो आज भी विज्ञान के लिए रहस्य बनी हुई हैं। प्राचीनसंस्कृत ग्रंथों से ऐसे कई रहस्यों को सुलझाया जा सकता है।
आर्यभट्ट का शून्य सिद्धांत, कणाद ऋषि का परमाणुसिद्धांत और भास्कराचार्य का सूर्य सिद्धांत न होता तो शायद विज्ञान आज इस शिखर पर न होता। विमान विज्ञान, नौका विज्ञान से संबंधित कई महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त हमारे ग्रंथों से प्राप्त हुए हैं। इस प्रकार के और भी अनगिनत सूत्र हमारे ग्रंथों में समाये हुए हैं, जिनसे आधुनिक विज्ञान कोअनुसंधान के क्षेत्र में महत्वपूर्ण दिशानिर्देश मिल सकते हैं।आज अगर विज्ञान के साथ संस्कृत का समन्वय कर दियाजाय तो अनुसंधान के क्षेत्र में बहुत उन्नति हो सकती है।हिन्दू धर्म के प्राचीन महान ग्रंथों के अलावा बौद्ध, जैन आदिधर्मों के अनेक मूल धार्मिक ग्रंथ भी संस्कृत में ही हैं। संस्कारीजीवन की नींवः संस्कृत वर्तमान समय में भौतिक सुख-सुविधाओं का अम्बार होने के बावजूद भी मानव-समाजअवसाद, तनाव, चिंता और अनेक प्रकार की बीमारियों सेग्रस्त है क्योंकि केवल भौतिक उन्नति से मानव का सर्वांगीणविकास सम्भव नहीं है, इसके लिए आध्यात्मिक उन्नतिअत्यंत जरूरी है। जिस समय संस्कृत का बोलबाला था उस समय मानव-जीवन ज्यादा संस्कारित था। यदि समाज को फिर से वैसा संस्कारित करना हो तो हमें फिर से सनातन धर्मके प्राचीन संस्कृत ग्रंथों का सहारा लेना ही पड़ेगा।
संस्कृत के बारे में आज की पीढ़ी के लिए आश्चर्यजनक तथ्य ————-
कंप्यूटर में इस्तेमाल के लिए सबसे अच्छी भाषा।
संदर्भ: फोर्ब्स पत्रिका 1987
संदर्भ: फोर्ब्स पत्रिका 1987
सबसे अच्छे प्रकार का कैलेंडर जो इस्तेमाल किया जा रहा है, हिंदू कैलेंडर है (जिसमें नया साल सौर प्रणाली के भूवैज्ञानिकपरिवर्तन के साथ शुरू होता है)
संदर्भ: जर्मन स्टेट यूनिवर्सिटी
दवा के लिए सबसे उपयोगी भाषा अर्थात संस्कृत में बातकरने से व्यक्ति स्वस्थ और बीपी, मधुमेह, कोलेस्ट्रॉल आदिजैसे रोग से मुक्त हो जाएगा। संस्कृत में बात करने से मानवशरीर का तंत्रिका तंत्र सक्रिय रहता है जिससे कि व्यक्ति काशरीर सकारात्मक आवेश(Positive Charges) के साथ सक्रियहो जाता है।
संदर्भ: अमेरीकन हिन्दू यूनिवर्सिटी (शोध के बाद)
संस्कृत वह भाषा है जो अपनी पुस्तकों वेद, उपनिषदों, श्रुति, स्मृति, पुराणों, महाभारत, रामायण आदि में सबसे उन्नतप्रौद्योगिकी(Technology) रखती है।
संदर्भ: रशियन स्टेट यूनिवर्सिटी, नासा आदि
(असत्यापित रिपोर्ट का कहना है कि रूसी, जर्मन, जापानी, अमेरिकी सक्रिय रूप से हमारी पवित्र पुस्तकों से नई चीजों परशोध कर रहे हैं और उन्हें वापस दुनिया के सामने अपने नामसे रख रहे हैं। दुनिया के 17 देशों में एक या अधिक संस्कृतविश्वविद्यालय संस्कृत के बारे में अध्ययन और नईप्रौद्योगिकी प्राप्तकरने के लिए है।
दुनिया की सभी भाषाओं की माँ संस्कृत है। सभी भाषाएँ (97%) प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से इस भाषा से प्रभावित है।
संदर्भ: यूएनओ
संदर्भ: यूएनओ
दुनिया में अनुवाद के उद्देश्य के लिए उपलब्ध सबसे अच्छीभाषा संस्कृत है।
संदर्भ: फोर्ब्स पत्रिका 1985
संदर्भ: फोर्ब्स पत्रिका 1985
लेकिन यहाँ यह बात अवश्य सोचने की है,की आज जहाँ पूरेविश्व में संस्कृत पर शोध चल रहे हैं,रिसर्च हो रहीं हैं वहीँहमारे देश संस्कृत को मृत भाषा बताने में बाज नहीं आ रहे हैं .