Friday, 23 August 2019

ब्राम्हण का एकादश परिचय ...

ब्राम्हण का एकादश परिचय ....

1 गोत्र .....

गोत्र का अर्थ है कि वह कौन से ऋषिकुल का है या उसका जन्म किस ऋषिकुल से सम्बन्धित है । किसी व्यक्ति की वंश-परम्परा जहां से प्रारम्भ होती है, उस वंश का गोत्र भी वहीं से प्रचलित होता गया है।

हम सभी जानते हें की हम किसी न किसी ऋषि की ही संतान है, इस प्रकार से जो जिस ऋषि से प्रारम्भ हुआ वह उस ऋषि का वंशज कहा गया ।

विश्‍वामित्रो जमदग्निर्भरद्वाजोऽथ गौतम:।
अत्रिवर्सष्ठि: कश्यपइत्येतेसप्तर्षय:॥
सप्तानामृषी-णामगस्त्याष्टमानां
यदपत्यं तदोत्रामित्युच्यते॥

विश्वामित्र, जमदग्नि, भारद्वाज, गौतम, अत्रि, वशिष्ठ, कश्यप- इन सप्तऋषियों और आठवें ऋषि अगस्त्य की संतान गोत्र कहलाती है।

इस तरह आठ ऋषियों की वंश-परम्परा में जितने ऋषि (वेदमन्त्र द्रष्टा) आ गए वे सभी गोत्र कहलाते हैं। और आजकल ब्राह्मणों में जितने गोत्र मिलते हैं वह उन्हीं के अन्तर्गत है।

 सिर्फ भृगु, अंगिरा के वंशवाले ही उनके सिवाय और हैं जिन ऋषियों के नाम से भी गोत्र व्यवहार होता है।

इस प्रकार कुल दस ऋषि मूल में है। इस प्रकार देखा जाता है कि इन दसों के वंशज ऋषि लाखों हो गए होंगे और उतने ही गोत्र भी होने चाहिए।

गोत्र शब्द  एक अर्थ  में  गो अर्थात्  पृथ्वी का पर्याय भी है ओर 'त्र' का अर्थ रक्षा करने वाला भी हे। यहाँ गोत्र का अर्थ पृथ्वी की रक्षा करें वाले ऋषि से ही है।

गो शब्द इन्द्रियों का वाचक भी है, ऋषि- मुनि अपनी इन्द्रियों को वश में कर अन्य प्रजाजनों का मार्ग दर्शन करते थे, इसलिए वे गोत्रकारक कहलाए।

ऋषियों के गुरुकुल में जो शिष्य शिक्षा प्राप्त कर जहा कहीं भी जाते थे , वे अपने गुरु या आश्रम प्रमुख ऋषि का नाम बतलाते थे, जो बाद में उनके वंशधरो में स्वयं को उनके वही गोत्र कहने की परम्परा आविर्भूत हुई । जाति की तरह गोत्रों का भी अपना महत्‍व है ।।

2 -प्रवर .....

प्रवर का अर्थ हे 'श्रेष्ठ" । अपनी कुल परम्परा के पूर्वजों एवं महान ऋषियों को प्रवर कहते हें ।

 अपने कर्मो द्वारा ऋषिकुल में प्राप्‍त की गई श्रेष्‍ठता के अनुसार उन गोत्र प्रवर्तक मूल ऋषि के बाद होने वाले व्यक्ति, जो महान हो गए वे उस गोत्र के प्रवर कहलाते हें।

इसका अर्थ है कि आपके कुल में आपके गोत्रप्रवर्त्तक मूल ऋषि के अनन्तर तीन अथवा पाँच आदि अन्य ऋषि भी विशेष महान हुए थे l

प्रवर का अर्थ हुआ कि उन मन्त्रद्रष्टा ऋषियों में जो श्रेष्ठ हो।

 प्रवर का एक और भी अर्थ है। ..

यज्ञ के समय अधवर्यु या होता के द्वारा ऋषियों का नाम ले कर अग्नि की प्रार्थना की जाती है। उस प्रार्थना का अभिप्राय यह है कि जैसे अमुक-अमुक ऋषि लोग बड़े ही प्रतापी और योग्य थे। अतएव उनके हवन को देवताओं ने स्वीकार किया। उसी प्रकार, हे अग्निदेव, यह यजमान भी उन्हीं का वंशज होने के नाते हवन करने योग्य है।

 इस प्रकार जिन ऋषियों का नाम लिया जाता है वही प्रवर कहलाते हैं। यह प्रवर किसी गोत्र के एक, किसी के दो, किसी के तीन और किसी के पाँच तक होते हैं न तो चार प्रवर किसी गोत्र के होते हैं और न पाँच से अधिक।

 यही परम्परा चली आती हैं। ऐसा ही आपस्तंब आदि का वचन लिखा है। हाँ, यह अवश्य है कि किसी ऋषि के मत से सभी गोत्रों के तीन प्रवर होते हैं। जैसा कि :

त्रीन्वृणीते मंत्राकृतोवृणीते॥ 7॥

अथैकेषामेकं वृणीते द्वौवृणीते त्रीन्वृणीते न चतुरोवृणीते न
पंचातिवृणीते॥ 8॥

3 -वेद .....

वेदों का साक्षात्कार ऋषियों ने सभी के लाभ के लिए किया है , इनको सुनकर याद किया जाता है , इन वेदों के उपदेशक गोत्रकार ऋषियों के जिस भाग का अध्ययन, अध्यापन, प्रचार प्रसार, आदि किया, उसकी रक्षा का भार उसकी संतान पर पड़ता गया इससे उनके पूर्व पुरूष जिस वेद ज्ञाता थे तदनुसार वेदाभ्‍यासी कहलाते हैं।

प्रत्येक ब्राह्मण का अपना एक विशिष्ट वेद होता है , जिसे वह अध्ययन -अध्यापन करता है ।

आसान शब्दो मे गौत्र प्रवर्तक ऋषि जिस वेद को चिन्‍तन, व्‍याख्‍यादि के अध्‍ययन एवं वंशानुगत निरन्‍तरता पढ़ने की आज्ञा अपने वंशजों को देता है, उस ब्राम्हण वंश (गोत्र) का वही वेद माना जाता है।

वेद का अभिप्राय यह है कि उस गोत्र का ऋषि ने उसी वेद के पठन-पाठन या प्रचार में विशेष ध्यान दिया और उस गोत्रवाले प्रधानतया उसी वेद का अध्ययन और उसमें कहे गए कर्मों का अनुष्ठान करते आए।

इसीलिए किसी का गोत्र यजुर्वेद है तो किसी का सामवेद और किसी का ऋग्वेद है, तो किसी का अथर्ववेद। उत्तर के देशों में प्राय: साम और यजुर्वेद का ही प्रचार था। किसी-किसी का ही अथर्ववेद मिलता है।

 4..उपवेद ....

प्रत्येक वेद  से  सम्बद्ध ब्राम्हण को  विशिष्ट  उपवेद  का  भी  ज्ञान  होना  चाहिये  । वेदों की सहायता के लिए कलाकौशल का प्रचार कर संसार की सामाजिक उन्‍नति का मार्ग बतलाने वाले शास्‍त्र का नाम उपवेद है।

उपवेद उन सब विद्याओं को कहा जाता है, जो वेद के ही अन्तर्गत हों। यह वेद के ही आश्रित तथा वे

दों से ही निकले होते हैं। जैसे-

धनुर्वेद ... विश्वामित्र ने इसे यजुर्वेद से निकला था।

गन्धर्ववेद ... भरतमुनि ने इसे सामवेद से निकाला था।

आयुर्वेद .... धन्वंतरि ने इसे ऋग्वेद से इसे निकाला था।

स्थापत्य ....विश्वकर्मा ने अथर्ववेद से इसे निकला था।

हर गोत्र का अलग अलग उपवेद होता है

5...शाखा .....

वेदो के विस्तार के साथ ऋषियों ने प्रत्येक एक गोत्र के लिए एक वेद के अध्ययन की परंपरा डाली है , कालान्तर में जब एक व्यक्ति उसके गोत्र के लिए निर्धारित वेद पढने में असमर्थ हो जाता था तो ऋषियों ने वैदिक परम्परा को जीवित रखने के लिए शाखाओं का निर्माण किया।

इस प्रकार से प्रत्येक गोत्र के लिए अपने वेद की उस शाखा का पूर्ण अध्ययन करना आवश्यक कर दिया। इस प्रकार से उन्‍होने जिसका अध्‍ययन किया, वह उस वेद की शाखा के नाम से पहचाना गया।

प्रत्‍येक वेद में कई शाखायें होती हैं। जैसे --

ऋग्‍वेद की 21 शाखा...

 प्रयोग में 5 शाकल, वाष्कल,आश्वलायन, शांखायन और माण्डूकायन...

यजुर्वेद की 101 शाखा....

 प्रयोग में 5काठक,
कपिष्ठल,मैत्रियाणी,तैतीरीय,वाजसनेय...

सामवेद की 1000 शाखा...

सभी गायन , मन्त्र यांत्रिक प्रचलित विधान...

अथर्ववेद की 9 शाखा ....

पैपल, दान्त, प्रदान्त,  स्नात, सौल, ब्रह्मदाबल, शौनक, देवदर्शत और चरणविद्या...
है।

इस प्रकार चारों वेदों की 1131 शाखा होती है।

 प्रत्‍येक वेद की अथवा अपने ही वेद की समस्‍त शाखाओं को अल्‍पायु मानव नहीं पढ़ सकता, इसलिए महर्षियों ने 1 शाखा अवश्‍य पढ़ने का पूर्व में नियम बनाया था और अपने गौत्र में उत्‍पन्‍न होने वालों को आज्ञा दी कि वे अपने वेद की अमूक शाखा को अवश्‍य पढ़ा करें, इसलिए जिस गौत्र वालों को जिस शाखा के पढ़ने का आदेश दिया, उस गौत्र की वही शाखा हो गई।

जैसे पराशर गौत्र का शुक्‍ल यजुर्वेद है और यजुर्वेद की 101 शाखा है। वेद की इन सब शाखाओं को कोई भी व्‍यक्ति नहीं पढ़ सकता, इसलिए उसकी एक शाखा (माध्‍यन्दिनी) को प्रत्‍येक व्‍यक्ति 1-2 साल में पढ़ कर अपने ब्राम्हण होने का कर्तव्य पूर्ण कर सकता है ।।

6...सूत्र ....

व्यक्ति शाखा के अध्ययन में असमर्थ न हो , अतः उस गोत्र के परवर्ती ऋषियों ने उन शाखाओं को सूत्र रूप में विभाजित किया है, जिसके माध्यम से उस शाखा में प्रवाहमान ज्ञान व संस्कृति को कोई क्षति न हो और कुल के लोग संस्कारी हों !

वेदानुकूल स्‍मृतियों में ब्राह्मणों के कर्मो का वर्णन किया है, उन कर्मो की विधि बतलाने वाले ग्रन्‍थ ऋषियों ने सूत्र रूप में लिखे हैं और वे ग्रन्‍थ भिन्‍न-भिन्‍न गौत्रों के लिए निर्धारित वेदों के भिन्‍न-भिन्‍न सूत्र ग्रन्‍थ हैं। 

ऋषियों की शिक्षाओं को सूत्र कहा जाता है। प्रत्येक वेद का अपना सूत्र है। सामाजिक, नैतिक तथा शास्त्रानुकूल नियमों वाले सूत्रों को धर्म सूत्र कहते हैं,.ll
 आनुष्ठानिक वालों को श्रौत सूत्र तथा घरेलू विधिशास्त्रों की व्याख्या करने वालों को गॄह् सूत्र कहा जाता है।

सूत्र सामान्यतः पद्य या मिश्रित गद्य-पद्य में लिखे हुए हैं।

7...छन्द ....

प्रत्येक ब्राह्मण का अपना परम्परासम्मत छन्द होता है जिसका ज्ञान हर ब्राम्हण को होना चाहिए   ।
छंद वेदों के मंत्रों में प्रयुक्त कवित्त मापों को कहा जाता है। श्लोकों में मात्राओं की संख्या और उनके लघु-गुरु उच्चारणों के क्रमों के समूहों को छंद कहते हैं - वेदों में कम से कम 15 प्रकार के छंद प्रयुक्त हुए हैं, और हर गोत्र का एक परम्परागत छंद है ।

अत्यष्टि (ऋग्वेद 9.111.9)
अतिजगती(ऋग्वेद 5.87.1)
अतिशक्वरी
अनुष्टुप
अष्टि
उष्णिक्
एकपदा विराट (दशाक्षरा भी कहते हैं)
गायत्री(प्रसिद्ध गायत्री मंत्र)
जगती
त्रिषटुप
द्विपदा विराट
धृति
पंक्ति
प्रगाथ
प्रस्तार पंक्ति
बृहती
महाबृहती
विराट
शक्वरी

विशेष -- ...

वेद प्राचीन ज्ञान विज्ञान से युक्त ग्रन्थ है जिन्हें अपौरुषेय (किसी मानव/देवता ने नहीं लिखे) तथा अनादि माना जाता हैं, बल्कि अनादि सत्य का प्राकट्य है जिनकी वैधता शाश्वत है।

वेदों को श्रुति माना जाता है (श्रवण हेतु, जो मौखिक परंपरा का द्योतक है) लिखे हुए में मिलावट की जा सकती है लेकिन जो कंठस्थ है उसमें कोई कैसे मिलावट कर सकता है इसलिए ब्राम्हणो ने वेदों को श्रुति के रूप में पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ाया.ll

 जो ज्ञान शदियों से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तांतरित होता रहा , हर ब्राम्हण अपने बच्चों को ये जिम्मेदारी देता था कि वो अपने पूर्वजों की इस धरोहर का इस ज्ञान का वाहक बने और समाज और आने वाली पीढ़ी को ये ज्ञान दे ....

लेकिन हम इस पश्चिमीकरण के दौड़ में इस कदर अंधे हुए की हम अपनी जिम्मेदारियों को विस्मृत कर बैठे.ll

वेदों में वो सब कुछ है जो आज भी विज्ञान के लिए आश्चर्य का विषय है जरूरत है तो बस उन कंधों की जो इस जिम्मेदारी का भार उठा सके ।।

8..शिखा ....

अपनी कुल परम्परा के अनुरूप शिखा को दक्षिणावर्त अथवा वामावार्त्त रूप से बांधने  की परम्परा शिखा कहलाती है ।शिखा में जो ग्रंथि देता वह बाईं तरफ घुमा कर और कोई दाहिनी तरफ। प्राय: यही नियम था कि सामवेदियों की बाईं शिखा और यजुर्वेदियों की दाहिनी शिखा कही कही इसमे भी भेद मिलता है ।।
परम्परागत रूप से हर ब्राम्हण को शिखा धारण करनी चाहिए ( इसका अपना वैज्ञानिक लाभ है) लेकिन आज कल इसे धारण करने वाले को सिर्फ कर्मकांडी ही माना जाता है ना तो किसी को इसका लाभ पता है ना कोई रखना चाहता है ।।

9...पाद ..

अपने-अपने गोत्रानुसार लोग अपना पाद प्रक्षालन करते हैं । ये भी अपनी एक पहचान बनाने के लिए ही, बनाया गया एक नियम है । अपने -अपने गोत्र के अनुसार ब्राह्मण लोग पहले अपना बायाँ पैर धोते, तो किसी गोत्र के लोग पहले अपना दायाँ पैर धोते, इसे ही पाद कहते हैं ।सामवेदियों का बायाँ पाद और  इसी प्रकार यजुर्वेदियों की दाहिना पाद माना जाता है ।।

10...देवता ....

प्रत्येक वेद या शाखा का पठन, पाठन करने वाले किसी विशेष देव की आराधना करते है वही उनका कुल देवता (गणेश , विष्णु, शिव , दुर्गा ,सूर्य इत्यादि पञ्च देवों में से कोई एक) उनके आराध्‍य देव है । इसी प्रकार कुल के भी  संरक्षक  देवता या कुलदेवी होती हें । इनका ज्ञान कुल के वयोवृद्ध  अग्रजों (माता-पिता आदि ) के द्वारा अगली पीड़ी को दिया जाता  है । एक कुलीन ब्राह्मण को अपने तीनों प्रकार के देवताओं का बोध  तो अवश्य ही  होना चाहिए -

(1) इष्ट देवता अथवा इष्ट देवी ।
(2) कुल देवता अथवा कुल देवी ।
(2) ग्राम देवता अथवा ग्राम देवी ।

11...द्वार ....

यज्ञ मण्डप में अध्वर्यु (यज्ञकर्त्ता )  जिस दिशा अथवा द्वार से प्रवेश करता है अथवा जिस दिशा में बैठता है, वही उस गोत्र वालों की द्वार होता है।
यज्ञ मंडप तैयार करने की कुल 39 विधाएं है और हर गोत्र के ब्राम्हण के प्रवेश के लिए अलग द्वार होता है

गायत्री महाविज्ञान

गायत्री महाविज्ञान
〰〰🔸〰〰
गायत्री का शाप विमोचन और उत्कीलन का रहस्य
〰〰🔸〰〰🔸〰〰🔸〰〰🔸〰〰🔸〰〰
सर्वसुलभ समर्थ साधना गायत्री मन्त्र की महिमा गाते हुए शास्त्र और ऋषि- महर्षि थकते नहीं। इसकी प्रशंसा तथा महत्ता के सम्बन्ध में जितना कहा गया है, उतना शायद ही और किसी की प्रशंसा में कहा गया हो। प्राचीनकाल में बड़े- बड़े तपस्वियों ने प्रधान रूप से गायत्री की ही तपश्चर्याएँ करके अभीष्ट सिद्धियाँ प्राप्त की थीं। शाप और वरदान के लिए वे विविध विधियों से गायत्री का ही प्रयोग करते थे।

प्राचनीकाल में गायत्री गुरुमन्त्र था। आज भी गायत्री मन्त्र प्रसिद्ध है। अधिकांश मनुष्य उसे जानते हैं। अनेक मनुष्य किसी न किसी प्रकार उसको दुहराते या जपते रहते हैं अथवा किसी विशेष अवसर पर स्मरण कर लेते हैं। इतने पर भी देखा जाता है कि उससे कोई विशेष लाभ नहीं होता। गायत्री जानने वालों में कोई विशेष स्तर दिखाई नहीं देता। इस आधार पर यह आशंका होने लगती है कि कहीं गायत्री की प्रशंसा और महिमा में वर्णन करने वालों ने अत्युक्ति तो नहीं की? कई मनुष्य आरम्भ में उत्साह दिखाकर थोड़े ही दिनों में उसे छोड़ बैठते हैं। वे देखते हैं कि इतने दिन हमने गायत्री की उपासना की, पर लाभ कुछ न हुआ, फिर क्यों इसके लिए समय बरबाद किया जाए।

कारण यह है कि प्रत्येक कार्य एक नियत विधि- व्यवस्था द्वारा पूरा होता है। चाहे जैसे, चाहे जिस काम को चाहे जिस प्रकार करना आरम्भ कर दिया जाए, तो अभीष्ट परिणाम नहीं मिल सकता। मशीनों द्वारा बड़े- बड़े कार्य होते हैं, पर होते तभी हैं जब वे उचित रीति से चलायी जाएँ। यदि कोई अनाड़ी चलाने वाला, मशीन को यों ही अन्धाधुन्ध चालू कर दे तो लाभ होना तो दूर, उलटे कारखाने के लिए तथा चलाने वाले के लिए संकट उत्पन्न हो सकता है। मोटर तेज दौडऩे वाला वाहन है। उसके द्वारा एक- एक दिन में कई सौ मील की यात्रा सुखपूर्वक की जा सकती है। पर अगर कोई अनाड़ी आदमी ड्राइवर की जगह जा बैठे और चलाने की विधि तथा कल- पुर्जों के उपयोग की जानकारी न होते हुए भी उसे चलाना प्रारम्भ कर दे तो यात्रा तो दूर, उलटे ड्राइवर और मोटर यात्रा करने वालों के लिए अनिष्ट खड़ा हो जाएगा या यात्रा निष्फल होगी। ऐसी दशा में मोटर को कोसना, उसकी शक्ति पर अविश्वास कर बैठना उचित नहीं कहा जा सकता। अनाड़ी साधकों द्वारा की गयी उपासना भी यदि निष्फल हो, तो आश्चर्य की बात नहीं है।

जो वस्तु जितनी अधिक महत्त्वपूर्ण होती है, उसकी प्राप्ति उतनी ही कठिन भी होती है। सीप- घोंघे आसानी से मिल सकते हैं, उन्हें चाहे कोई बिन सकता है; पर जिन्हें मोती प्राप्त करने हैं, उन्हें समुद्र तल तक पहुँचना पड़ेगा और इस खतरे के काम को किसी से सीखना पड़ेगा। कोई अजनबी आदमी गोताखोरी को बच्चों का खेल समझकर या यों ही समुद्र तल में उतरने के लिए डुबकी लगाये, तो उसे अपनी नासमझी के कारण असफलता पर आश्चर्य नहीं करना चाहिए।

यों गायत्री में अन्य समस्त मन्त्रों की अपेक्षा एक खास विशेषता यह है कि नियत विधि से साधना न करने पर भी साधक की कुछ हानि नहीं होती। परिश्रम भी निष्फल नहीं जाता, कुछ न कुछ लाभ ही रहता है, पर उतना लाभ नहीं होता, जितना कि विधिपूर्वक साधना के द्वारा होना चाहिए। गायत्री की तान्त्रिक उपासना में तो अविधि साधना से हानि भी होती है, पर साधारण साधना में वैसा कोई खतरा नहीं है, तो भी परिश्रम का पूरा प्रतिफल न मिलना भी तो एक प्रकार की हानि ही है। इसलिए बुद्धिमान मनुष्य उतावली, अहमन्यता, उपेक्षा के शिकार नहीं होते और साधना मार्ग पर वैसी ही समझदारी से चलते हैं, जैसे हाथी नदी पार करते समय थाह ले- लेकर धीरे- धीरे आगे कदम बढ़ाता है।

प्रतिबन्ध क्या? क्यों?👉 कुछ औषधियाँ नियत मात्रा में लेकर नियत विधिपूर्वक तैयार करके रसायन बनायी जाएँ और नियत मात्रा में नियत अनुपात के साथ रोगी को सेवन करायी जाएँ, तो आश्चयर्जनक लाभ होता है; परन्तु उन्हीं औषधियों को चाहे जिस तरह, चाहे जितनी मात्रा में लेकर चाहे जैसा बना डाला जाए और चाहे जिस रोगी को, चाहे जितनी मात्रा में, चाहे जिस अनुपात में सेवन करा दिया जाए, तो निश्चय ही परिणाम अच्छा न होगा। वे औषधियाँ जो विधिपूर्वक प्रयुक्त होने पर अमृतोपम लाभ दिखाती थीं, अविधिपूर्वक प्रयुक्त होने पर निरर्थक सिद्ध होती हैं। ऐसी दशा में उन औषधियों को दोष देना न्याय संगत नहीं कहा जा सकता। गायत्री साधना भी यदि अविधिपूर्वक की गयी है, तो वैसा लाभ नहीं दिखा सकती जैसा कि विधिपूर्वक साधना से होना चाहिए।

पात्र- कुपात्र कोई भी गायत्री शक्ति का मनमाने प्रयोग न कर सके, इसलिए कलियुग से पूर्व ही गायत्री को कीलित कर दिया गया है। कीलित करने का अर्थ है- उसके प्रभाव को रोक देना। जैसे किसी गतिशील वस्तु को कहीं कील गाढक़र जड़ दिया जाय तो उसकी गति रुक जाती है, इसी तरह मन्त्रों को सूक्ष्म शक्ति से कीलित करने की व्यवस्था रही है। जो उसका उत्कीलन जानता है, वही लाभ उठा सकता है। बन्दूक का लाइसेन्स सरकार उन्हीं को देती है जो उसके पात्र हैं। परमाणु बम का रहस्य थोड़े- से लोगों तक सीमित रखा गया है, ताकि हर कोई उसका दुरुपयोग न कर डाले। कीमती खजाने की तिजोरियों में बढिय़ा चोर ताले लगे होते हैं ताकि अनधिकारी लोग उसे खोल न सकें। इसी आधार पर गायत्री को कीलित किया गया है कि हर कोई उससे अनुपयुक्त प्रयोजन सिद्ध न कर सके।

पुराणों में ऐसा उल्लेख मिलता है कि एक बार गायत्री को वसिष्ठ और विश्वामित्र जी ने शाप दिया कि ‘उसकी साधना निष्फल होगी’। इतनी बड़ी शक्ति के निष्फल होने से हाहाकार मच गया। तब देवताओं ने प्रार्थना की कि इन शापों का विमोचन होना चाहिए। अन्त में ऐसा मार्ग निकाला गया कि जो शाप- विमोचन की विधि पूरी करके गायत्री साधना करेगा, उसका प्रयत्न सफल होगा और शेष लोगों का श्रम निरर्थक जाएगा। इस पौराणिक उपाख्यान में एक भारी रहस्य छिपा हुआ है, जिसे न जानने वाले केवल ‘शापमुक्ताभव’ मन्त्रों को दुहराकर यह मान लेते हैं कि हमारी साधना शापमुक्त हो गयी।
(परम्परागत साधना में गायत्री मन्त्र- साधना करने वालों को उत्कीलन करने की सलाह दी गई है। उसमें साधक निर्धारित मन्त्र पढक़र ‘शापमुक्ताभव’ कहता है।)

वसिष्ठ का अर्थ है👉 ‘विशेष रूप से श्रेष्ठ गायत्री साधना में जिन्होंने विशेष रूप से श्रम किया है, जिसने सवा करोड़ जप किया होता है, उसे वसिष्ठ पदवी दी जाती है। रधुवंशियों के कुल गुरु सदा ऐसे ही वसिष्ठ पदवीधारी होते थे। रघु, अज, दिलीप, दशरथ, राम, लव- कुश आदि इन छ: पीढिय़ों के गुरु एक वसिष्ठ नहीं बल्कि अलग- अलग थे, पर उपासना के आधार पर इन सभी ने वसिष्ठ पदवी को पाया था। वसिष्ठ का शाप मोचन करने का तात्पर्य यह है कि इस प्रकार के वसिष्ठ से गायत्री साधना की शिक्षा लेनी चाहिए, उसे अपना पथ- प्रदर्शक नियुक्त करना चाहिए। कारण है कि अनुभवी व्यक्ति ही यह जान सकता है कि मार्ग में कहाँ क्या- क्या कठिनाइयाँ आती हैं और उनका निवारण कैसे किया जा सकता है?

जब पानी में तैरने की शिक्षा किसी नये व्यक्ति को दी जाती है, तो कोई कुशल तैराक उसके साथ रहता है, ताकि कदाचित् नौसिखिया डूबने लगे तो वह हाथ पकडक़र उसे खींच ले और उसे पार लगा दे तथा तैरते समय जो भूल हो रही हो, उसे समझाता- सुधारता चला जाए। यदि कोई शिक्षक तैराक न हो और तैरना सीखने के लिए बालक मचल रहे हों, तो कोई वृद्ध विनोदी पुरुष उन बालकों को समझाने के लिए ऐसा कह सकता है कि- ‘बच्चो! तालाब में न उतरना, इसमें तैराक गुरु का शाप है। बिना गुरु के शापमुक्त हुए तैरना सीखोगे, तो वह निष्फल होगा।’ इन शब्दों में अहंकार तो है, शाब्दिक अत्युक्ति भी इसे कह सकते हैं, पर तथ्य बिल्कुल सच्चा है। बिना शिक्षक की निगरानी के तैरना सीखने की कोशिश करना एक दुस्साहस ही है।

सवा करोड़ गायत्री जप की साधना करने वाले गायत्री उपासक वसिष्ठ की संरक्षकता प्राप्त कर लेना ही वसिष्ठ शाप- मोचन है। इससे साधक निर्भय, निधडक़ अपने मार्ग पर तेजी से बढ़ता चलता है। रास्ते की कठिनाइयों को वह संरक्षक दूर करता चलता है, जिससे नये साधक के मार्ग की बहुत- सी बाधाएँ अपने आप दूर हो जाती हैं और अभीष्ट उद्देश्य तक जल्दी ही पहुँच जाता है।

गायत्री को केवल वसिष्ठ का ही शाप नहीं, एक दूसरा शाप भी है, वह है विश्वामित्र का। इस रत्न- कोष पर दुहरे ताले जड़े हुए हैं ताकि अधिकारी लोग ही खोल सकें; ले भागू, जल्दबाज, अश्रद्धालु, हरामखोरों की दाल न गलने पाए। विश्वामित्र का अर्थ है- संसार की भलाई करने वाला, परमार्थी, उदार, सत्पुरुष, कर्त्तव्यनिष्ठ। गायत्री का शिक्षक केवल वसिष्ठ गुण वाला होना ही पर्याप्त नहीं है, वरन् उसे विश्वामित्र गुण वाला भी होना चाहिए। कठोर साधना और तपश्चर्या द्वारा बुरे स्वभाव के लोग भी सिद्धि प्राप्त कर लेते हैं। रावण वेदपाठी था, उसने बड़ी- बड़ी तपश्चर्याएँ करके आश्चर्यजनक सिद्धियाँ प्राप्त की थीं। इस प्रकार वह वसिष्ठ पदवीधारी तो कहा जा सकता है, पर विश्वामित्र नहीं; क्योंकि संसार की भलाई के, धर्माचार्य एवं परमार्थ के गुण उनमें नहीं थे। स्वार्थी, लालची तथा संकीर्ण मनोवृत्ति के लोग चाहे कितने ही बड़े सिद्ध क्यों न हों, शिक्षण किये जाने योग्य नहीं, यही दुहरा शाप विमोचन है। जिसने वसिष्ठ और विश्वामित्र गुण वाला पर्थ- प्रदर्शक, गायत्री- गुरु प्राप्त कर लिया, उसने दोनों शापों से गायत्री को छुड़ा लिया। उनकी साधना वैसा ही फल उपस्थित करेगी, जैसा कि शास्त्रों में वर्णित है।

यह कार्य सरल नहीं है, क्योंकि एक तो ऐसे व्यक्ति मुश्किल से मिलते हैं जो वसिष्ठ और विश्वामित्र के गुणों से सम्पन्न हों। यदि मिलें भी तो हर किसी का उत्तरदायित्व अपने ऊपर लेने को तैयार नहीं होते, क्योंकि उनकी शक्ति और सामर्थ्य सीमित होती है और उससे वे कुछ थोड़े ही लोगों की सेवा कर सकते हैं। यदि पहले से ही उतने लोगों का भार अपने ऊपर लिया हुआ है, तो अधिक की सेवा करना उनके लिए कठिन है। स्कूलों में एक अध्यापक प्राय: ३० की संख्या तक विद्यार्थी पढ़ा सकता है। यदि वह संख्या ६० हो जाय, तो न तो अध्यापक पढ़ा सकेगा, न बालक पढ़ सकेंगे, इसलिए ऐसे सुयोग्य शिक्षक सदा ही नहीं मिल सकते। लोभी, स्वार्थी और ठग गुरुओं की कमी नहीं, जो दो रुपया गुरु दक्षिणा लेने के लोभ से चाहे किसी के गले में कण्ठी बाँध देते हैं। ऐसे लोगों को पथ- प्रदर्शक नियुक्त करना एक प्रवञ्चना और विडम्बना मात्र है।

‘गायत्री दीक्षा’ गुरुमुख होकर ली जाती है, तभी फलदायक होती है। बारूद को जमीन पर चाहे जहाँ फैलाकर उसमें दियासलाई लगाई जाए, तो वह मामूली तरह से जल जायेगी, पर उसे बन्दूक में भरकर विधिपूर्वक प्रयुक्त किया जाए, तो उससे भयंकर शब्द के साथ एक प्राणघातक शक्ति पैदा होगी। छपे हुए कागज में पढक़र अथवा कहीं किसी से भी गायत्री सीख लेना ऐसा ही है, जैसा जमीन पर बिछाकर बारूद को जलाना और गुरुमुख होकर गायत्री दीक्षा लेना ऐसा है, जैसा बन्दूक के माध्यम से बारूद का उपयोग होना।

उपयुक्त मार्गदर्शक ‘गुरु- गायत्री’ की विधिपूर्वक साधना करना ही अपने परिश्रम को सफल बनाने का सीधा मार्ग है। इस मार्ग का पहला आधार ऐसे पथ- प्रदर्शक को खोज निकालना है, जो वसिष्ठ एवं विश्वामित्र गुण वाला हो और जिसके संरक्षण में शाप- विमोचन गायत्री साधना हो सके। ऐसे सुयोग्य संरक्षक सबसे पहले यह देखते हैं कि साधक की मनोभूमि, शक्ति, सामर्थ्य, रुचि कैसी है? उसी के अनुसार वे उसके लिए साधना- विधि चुनकर देते हैं। अपने आप विद्यार्थी यह निश्चय नहीं कर सकता कि मुझे किस क्रम से क्या- क्या पढऩा चाहिए? इसे तो अध्यापक ही जानता है कि वह विद्यार्थी किस कक्षा की योग्यता रखता है और इसे क्या पढ़ाया जाना चाहिए। जैसे अलग- अलग प्रकृति के एक रोग के रोगियों को भी औषधि अलग- अलग अनुपान तथा मात्रा का ध्यान रखकर दी जाती है, वैसे ही साधकों की आन्तरिक स्थिति के अनुसार उसके साधना- नियमों में हेर- फेर हो जाता है। इसका निर्णय साधक स्वयं नहीं कर सकता। यह कार्य तो सुयोग्य, अनुभवी और सूक्ष्मदर्शी पथ- प्रदर्शक ही कर सकता है।

आध्यात्मिक मार्ग पर आगे बढ़ाने के लिए श्रद्धा और विश्वास यह दो प्रधान अवलम्बन हैं। इन दोनों का आरम्भिक अभ्यास गुरु को माध्यम बनाकर किया जाता है। जैसे ईश्वर उपासना का प्रारम्भिक माध्यम किसी मूर्ति, चित्र या छवि को बनाया जाता है, वैसे ही श्रद्धा और विश्वास की उन्नति गुरु नामक व्यक्ति के ऊपर उन्हें दृढ़तापूर्वक जमाने से होती है। प्रेम तो स्त्री, भाई, मित्र आदि पर भी हो सकता है, पर श्रद्धायुक्त प्रेम का पात्र गुरु ही होता है। माता- पिता भी यदि वसिष्ठ- विश्वामित्र गुण वाले हों, तो वे सबसे उत्तम गुरु हो सकते हैं। गुरु परम हितचिन्तक, शिष्य की मनोभूमि से परिचित और उसकी कमजोरियों को समझने वाला होता है, इसलिए उसके दोषों को जानकर उन्हें धीरे- धीरे दूर करने का उपाय करता रहता है; पर उन दोषों के कारण वह न तो शिष्य से घृणा करता है और न विरोध। न ही उसको अपमानित, तिरस्कृत एवं बदनाम होने देता है, वरन् उन दोषों को बाल- चापल्य समझकर धीरे- धीरे उसकी रुचि दूसरी ओर मोडऩे का प्रयत्न करता रहता है, ताकि वे अपने आप छूट जाएँ। योग्य गुरु अपनी साधना द्वारा एकत्र की हुई आत्मशक्ति को धीरे- धीरे शिष्य के अन्तःकरण में वैसे ही प्रवेश कराता है, जैसे माता अपने पचाए हुए भोजन को स्तनों में दूध बनाकर अपने बालक को पिलाती रहती है। माता का दूध पीकर बालक पुष्ट होता है। गुरु का आत्मतेज पीकर शिष्य का आत्मबल बढ़ता है। इस आदान- प्रदान को आध्यात्मिक भाषा मे ‘शक्तिपात’ कहते हैं। ऐसे गुरु का प्राप्त होना पूर्व संचित शुभ संस्कारों का फल अथवा प्रभु की महती कृपा का चिह्न ही समझना चाहिए।

कितने ही व्यक्ति सोचते हैं कि हम अमुक समय एक व्यक्ति को गुरु बना चुके, अब हमें दूसरे पथ- प्रदर्शक की नियुक्ति का अधिकार नहीं रहा। उनका यह सोचना वैसा ही है, जैसे कोई विद्यार्थी यह कहे कि ‘अक्षर आरम्भ करते समय जिस अध्यापक को मैंने अध्यापक माना था, अब जीवन भर उसके अतिरिक्त न किसी से शिक्षा ग्रहण करूँगा और न किसी को अध्यापक मानूँगा।’ एक ही अध्यापक से संसार के सभी विषयों को जान लेने की आशा नहीं की जा सकती। फिर वह अध्यापक मर जाए, रोगी हो जाए, कहीं चला जाए, तो भी उसी से शिक्षा लेने का आग्रह करना किस प्रकार उचित कहा जा सकता है? फिर ऐसा भी हो सकता है कि कोई शिष्य प्राथमिक गुरु की अपेक्षा कहीं अधिक जानकार हो जाए और उसका जिज्ञासा क्षेत्र बहुत विस्तृत हो जाए, ऐसी दशा में भी उसकी जिज्ञासाओं का समाधान उस प्राथमिक शिक्षक द्वारा ही करने का आग्रह किया जाए, तो यह किस प्रकार सम्भव है?

प्रचीनकाल के इतिहास पर दृष्टिपात करने से उलझन का समाधान हो जाता है। महर्षि दत्तात्रेय ने चौबीस गुरु किये थे। राम और लक्ष्मण ने जहाँ वसिष्ठ से शिक्षा पायी थी, वहाँ विश्वामित्र से भी बहुत कुछ सीखा था। दोनों ही उनके गुरु थे। श्रीकृष्ण ने सन्दीपन ऋषि से भी विद्याएँ पढ़ी थीं और महर्षि दुर्वासा भी उनके गुरु थे। अर्जुन के गुरु द्रोणाचार्य भी थे और कृष्ण भी। इन्द्र के बृहस्पति भी थे और नारद भी। इस प्रकार अनेकों उदाहरण ऐसे मिलते हैं, जिनसे प्रकट होता है कि आवश्यकतानुसार एक गुरु अनेक शिष्यों की सेवा कर सकता है और एक शिष्य अनेक गुरुओं से ज्ञान प्राप्त कर सकता है। इसमें कोई ऐसा सीमा बन्धन नहीं, जिसके कारण एक के उपरान्त किसी दूसरे से प्रकाश प्राप्त करने में प्रतिबन्ध हो। वैसे भी एक व्यक्ति के कई पुरोहित होते हैं- ग्राम्य पुरोहित, तीर्थ पुरोहित, कुल पुरोहित, राष्ट्र पुरोहित, दीक्षा पुरोहित आदि। जिसे गायत्री साधना का पथ- प्रदर्शक नियुक्त किया जाता है, वह साधना पुरोहित या ब्रह्म पुरोहित है। ये सभी पुरोहित अपने- अपने क्षेत्र, अवसर और कार्य में पूछने योग्य तथा पूजने योग्य हैं। वे एक- दूसरे के विरोधी नहीं, वरन् पूरक हैं।

चौबीस अक्षरों का गायत्री मन्त्र सर्व प्रसिद्ध है, उसे आजकल शिक्षित वर्ग के सभी लोग जानते हैं। फिर भी उपासना करनी है, साधनाजन्य लाभों को लेना है, तो गुरुमुख होकर गायत्री दीक्षा लेनी चाहिए। वसिष्ठ और विश्वामित्र का शाप- विमोचन करके, कीलित गायत्री का उत्कीलन करके साधना करनी चाहिए। गुरुमुख होकर गायत्री दीक्षा लेना एक संस्कार है। उसमें उस दिन गुरु- शिष्य दोनों को उपवास रखना पड़ता है। शिष्य चन्दन, अक्षत, धूप, दीप, पुष्प, नैवेद्य, अन्न, वस्त्र, पात्र, दक्षिणा आदि से गुरु का पूजन करता है। गुरु शिष्य को मन्त्र देता है और पथ- प्रदर्शन का भार अपने ऊपर लेता है। इस ग्रन्थि- बन्धन के उपरान्त अपने उपयुक्त साधना निश्चित कराके जो शिष्य श्रद्धापूर्वक आगे बढ़ते हैं, वे भगवती की कृपा से अपने अभीष्ट उद्देश्य को प्राप्त कर लेते हैं।

जब से गायत्री की दीक्षा ले ली जाय, तब से लेकर जब तक पूर्ण सिद्धि प्राप्त न हो जाय, तब तक साधना गुरु को अपनी साधना के समय समीप रखना चाहिए। गुरु का प्रत्यक्ष रूप से सदा साथ रहना तो संभव नहीं हो सकता, पर उनका चित्र शीशे में मढ़वाकर पूजा के स्थान पर रखा जा सकता है और गायत्री, सन्ध्या, जप, अनुष्ठान या कोई और साधना आरम्भ करने से पूर्व उस चित्र का पूजन धूप, अक्षत, नैवेद्य, पुष्प, चन्दन आदि से कर लेना चाहिए। जहाँ चित्र उपलब्ध न हो, वहाँ एक नारियल को गुरु के प्रतीक रूप में स्थापित कर लेना चाहिए। एकलव्य भील की कथा प्रसिद्ध है कि उसने द्रोणाचार्य की मिट्टी की मूर्ति स्थापित करके उसी को गुरु माना था और उसी से पूछकर बाण- विद्या सीखता था। अन्त में वह इतना सफल धनुर्धारी हुआ कि पाण्डवों तक को उसकी विशेषता देखकर आश्चर्यचकित होना पड़ा था। चित्र या नारियल के माध्यम से गुरु पूजा करके तब जो भी गायत्री साधना आरम्भ की जायेगी, वह शापमुक्त तथा उत्कीलित होगी।

श्रावणी उपाकर्म--इन्द्रियों की पवित्रता का पुण्य पर्व....!!

श्रावणी उपाकर्म--इन्द्रियों की पवित्रता का पुण्य पर्व....!!!
〰〰🌼〰〰🌼〰〰🌼〰〰🌼〰〰🌼〰〰
उपाकर्म का अर्थ है प्रारंभ करना। उपाकरण का अर्थ है आरंभ करने के लिए निमंत्रण या निकट लाना। वैदिक काल में यह वेदों के अध्ययन के लिए विद्यार्थियों का गुरु के पास एकत्रित होने का काल था। इसके आयोजन काल के बारे में धर्मगंथों में लिखा गया है कि - जब वनस्पतियां उत्पन्न होती हैं, श्रावण मास के श्रवण व चंद्र के मिलन (पूर्णिमा) या हस्त नक्षत्र में श्रावण पंचमी को उपाकर्म होता है। इस अध्ययन सत्र का समापन, उत्सर्जन या उत्सर्ग कहलाता था। यह सत्र माघ शुक्ल प्रतिपदा या पौष पूर्णिमा तक चलता था। श्रावण शुक्ल पूर्णिमा के शुभ दिन रक्षाबंधन के साथ ही श्रावणी उपाकर्म का पवित्र संयोग बनता है। विशेषकर यह पुण्य दिन ब्राह्मण समुदाय के लिए बहुत महत्व रखता है। जीवन की वैज्ञानिक प्रक्रिया:- जीवन के विज्ञान की यह एक सहज, किन्तु अति महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया है । जन्मदात्री माँ चाहती है कि हर अण्डा विकसित हो । इसके लिए वह उसे अपने उदर की ऊर्जा से ऊर्जित करती है, अण्डे को सेती है । माँ की छाती की गर्मी पाकर उस संकीर्ण खोल में बंद जीव पुष्ट होने लगता है । उसके अंदर उस संकीर्णता को तोड़कर विराट् प्रकृति, विराट् विश्व के साक्षात्कार का संकल्प उभरता है । उसे फिर उस सुरक्षित संकीर्ण खोल को तोड़कर बाहर निकलने में भय नहीं लगता । वह दूसरा-नया जन्म ले लेता है । यह प्रक्रिया प्रकृति की सहज प्रक्रिया है, किन्तु पुरुषार्थसाध्य है । पोषक और पोषित; दोनों को इसके अंतर्गत प्रबल पुरुषार्थ करना पड़ता है । इसीलिए युगऋषि ने लिखा है- 'मनुष्य जन्म तो सहजता से हो जाता है, किन्तु मनुष्यता विकसित करने के लिए कठोर पुरुषार्थ करना पड़ता है ।' जैसे अण्डा माता की छाती की ऊष्मा से पकता है, वैसे ही मनुष्यता गुरु-अनुशासन में वेदमाता की गर्मी (शुद्ध ज्ञान की ऊर्जा) से धीरे-धीरे परिपक्व होती है । परिपक्व होने पर साधक अपने संकल्प से उस संकीर्णता के घेरे को तोड़ डालता है । तब उसे अपने तथा जन्मदात्री माता के स्वरूप का बोध होता है । तब वह भी माँ की तरह विराट् आकाश में उड़ने की चेष्टा करता है । तब माँ ऊँची उड़ानें भरने के उसके प्रयासों को शुद्ध-सही बनाती है । यही मर्म है- 'पावमानी द्विजानाम्' का । जो संकीर्णता के खोल में बंद है, उसे माँ विकसित करने के लिए अपनी ऊर्जा तो देती रहती है, किन्तु नया जन्म लेने के पहले उसके लिए अपने अन्य कौशलों का प्रयोग नहीं कर सकती । जिसने दूसरा जन्म ले लिया, वह 'द्विज' । नये दुर्लभ जन्म की प्रक्रिया को पूरा करने की प्रवृत्ति-साधना है 'द्विजत्व' । जब द्विज के चिंतन, चरित्र, व्यवहार पवित्र हो जाते हैं, तो वह ब्रह्म के अनुशासन में सिद्ध ब्राह्मण हो जाता है । जब उसकी कामनाएँ ब्रह्म के अनुरूप ही हो जाती हैं, तो ब्राह्मी चेतना-आदिशक्ति उसके लिए कामधेनु बन जाती है । जिसकी कामनाएँ-प्रवृत्तियों अनगढ़ हैं, उन्हें पूरा करने से तो संसार में अनगढ़ता ही बढ़ेगी । इसलिए माता सुगढ़-शुद्ध कामना वालों के लिए ही कामधेनु का रूप धारण करती है । भारतीय संस्कृति में द्विजत्व और ब्राह्मणत्व का संबंध किसी जाति या वर्ग विशेष में जन्म लेने से नहीं है, बल्कि वह साधना की उच्च कक्षा से जुड़े सम्बोधन हैं । इसीलिए संस्कारों से द्विजत्व की प्राप्ति की बात कही जाती रही है । संगीत के द्वार सभी के लिए खुले हैं, किन्तु संगीताचार्य अपनी बारीकियाँ उन्हीं के सामने खोलते हैं, जिनकी संगीत साधना उच्च स्तरीय हो गई है । खेल सभी खेल सकते हैं, किन्तु खेल प्रशिक्षक खेल तकनीक की बारीकियाँ उसी को समझाता है, जिनके कौशल और दमखम की साधना उच्च स्तरीय है । जिसकी साधना विकसित नहीं हुई है, उसे आगे की बात बताने से बतलाने वाले का प्रयास निरर्थक तो जाता ही है, कई बार उसका विपरीत प्रभाव भी भोगना पड़ जाता है । तिथि:- श्रावण पूण्रिमा में यदि ग्रहण या संक्रांति हो तो श्रावणी उपाकर्म श्रावण शुक्ल पंचमी को करना चाहिये।'भद्रायां ग्रहणं वापि पोर्णिमास्या यदा भवेत। उपाकृतिस्तु पंचम्याम कार्या वाजसेनयिभ:' संक्रांति व पूर्णिमा युति या ग्रहण पूर्णिमा युति में वाजसेनी आदि सभी शाखा के ब्राह्मणों को उपाकर्म (श्रावणी) पंचमी को कर लेनी चाहिये। शास्त्र सम्मत श्रावण उपाकर्म भद्रा दोष, ग्रहण युक्त पूर्णिमा, संक्राति युक्त पूर्णिमा में नहीं किया जाता तब उससे पूर्व श्रावण शुक्ल पंचमी नागपंचमी में श्रावणी स्नान उपाकर्म करने के शास्त्रोक्त निर्देश हैं। हेमाद्रिकल्प, स्कंद पुराण, स्मृति महार्णव, निर्णय सिंधु, धर्म सिंधु आदि योतिष व धर्म के निर्णय ग्रंथों में इसके प्रमाण हैं। कुछ ग्रंथों के प्रमाण इस प्रकार हैं- 'श्रावण शुक्लया: पूर्णिमायां ग्रहणं संक्रांति वा भवेतदा। यजुर्वेदिभि: श्रावण शुक्ल पंचम्यामुपाकर्म कर्तव्यं॥' अर्थात श्रावण पूण्रिमा में यदि ग्रहण या संक्रांति हो तो श्रावणी उपाकर्म श्रावण शुक्ल पंचमी को करना चाहिये। एक अन्य श्लोक के उल्लेख के अनुसार भद्रा में दो कार्य नहीं करना चाहिये एक श्रावणी अर्थात उपाकर्म, रक्षाबंधन, श्रवण पूजन आदि और दूसरा फाल्गुनि होलिका दहन। भद्रा में श्रावणी करने से राजा की मृत्यु होती है तथा फाल्गुनी करने से नगर ग्राम में आग लगती है तथा उपद्रव होते हैं। श्रावणी अर्थात उपाकर्म रक्षाबंधन, श्रवण पूजन भद्रा के उपरांत ही की जा सकती है। लेकिन ग्रहण युक्त पूर्णिमा भी श्रावणी उपाकर्म में निषिध्द है|ब्राह्मणों का यह अतिमहत्वपूर्ण कर्म हैं| श्रावणी पर्व:- श्रावणी पर्व द्विजत्व की साधना को जीवन्त, प्रखर बनाने का पर्व है । जो इस पर्व के प्राण-प्रवाह के साथ जुड़ते हैं, उनका द्विजत्व-ब्राह्मणत्व जाग्रत् होता जाता है तथा वे आदिशक्ति, गुरुसत्ता के विशिष्ठ अनुदानों के प्रामाणिक पात्र बन जाते हैं । द्विजत्व की साधना को इस पर्व के साथ विशेष कारण से जोड़ा गया है । युगऋषि ने श्रावणी पर्व के सम्बन्ध में लिखा है कि यह वह पर्व है जब ब्रह्म का 'एकोहं बहुस्यामि' का संकल्प फलित हुआ । पौराणिक उपाख्यान सबको पता है । भगवान की नाभि से कमलनाल निकली, उसमें से कमल पुष्प विकसित हुआ । उस पर स्रष्टा ब्रह्मा प्रकट हुए, उन्होंने सृष्टि की रचना की । युगऋषि इस अंलकारिक आख्यान का मर्म स्पष्ट करते हुए लिखते हैं- ''संकल्पशक्ति क्रिया में परिणित होती है और उसी का स्थूल रूप वैभव एवं घटनाक्रम बनकर सामने आता है । नाभि (संकल्प) में से अन्तरंग बहिरंग बनकर विकसित होने वाली कर्म-वल्लरी को ही पौराणिक अलंकरण में कमलबेल कहा गया है । पुष्प इसी बेल का परिपक्व परिणाम है । सृष्टि का सृजन हुआ, इसमें दो तत्व प्रयुक्त हुए-१ ज्ञान, २ कर्म । इन दोनों के संयोग से सूक्ष्म चेतना, संकल्प शक्ति स्थूल वैभव में परिणत हो गई और संसार का विशाल कलेवर बनकर खड़ा हो गया । उसमें ऋद्धि-सिद्धियों का आनन्द-उल्लास भर गया । यही कमल-पुष्प की पखुड़ियाँ हैं । इसका मूल है ज्ञान और कर्म, जो ब्रह्म की इच्छा और प्रत्यावर्तन प्रक्रिया द्वारा सम्भव हुआ । ज्ञान और कर्म के आधार पर ही मनुष्य की गरिमा का विकास हुआ है ।'' मनुष्य की महान गरिमा के अनुरूप जीवन जीने के अभ्यास को द्विजत्व की साधना कहा गया है । द्विजत्व की साधना सहज नहीं है । मन की कमजोरियों और परिस्थितियों की विषमताओं के कारण प्रयास करने पर भी साधकों से चूकें हो जाती हैं । समय-समय पर आत्म समीक्षा द्वारा उन भूल-चूकों को चिन्हित करके उन्हें ठीक करना, अपने अन्दर सन्निहित महान सम्भावनाओं को जाग्रत्-साकार करने के प्रयास करना जरूरी होता है । इस सदाशयतापूर्ण संकल्प को पूरा करने के लिए श्रावणी पर्व-ब्राह्मी संकल्प के फलित होने वाले पर्व से श्रेष्ठ और कौन-सा समय हो सकता है? इसलिए ऋषियों ने द्विजत्व के परिमार्जन-विकास के लिए श्रावणी पर्व को ही चुना है । विधि :- श्रावणी उपाकर्म के तीन पक्ष है- प्रायश्चित्त संकल्प, संस्कार और स्वाध्याय। सर्वप्रथम होता है- प्रायश्चित्त रूप में हेमाद्रि स्नान संकल्प। गुरु के सान्निध्य में ब्रह्मचारी गोदुग्ध, दही, घृत, गोबर और गोमूत्र तथा पवित्र कुशा से स्नानकर वर्षभर में जाने-अनजाने में हुए पापकर्मों का प्रायश्चित्त कर जीवन को सकारात्मकता से भरते हैं। स्नान के बाद ऋषिपूजन, सूर्योपस्थान एवं यज्ञोपवीत पूजन तथा नवीन यज्ञोपवीत धारण करते हैं। यज्ञोपवीत या जनेऊ आत्म संयम का संस्कार है। आज के दिन जिनका यज्ञोपवित संस्कार हो चुका होता है, वह पुराना यज्ञोपवित उतारकर नया धारण करते हैं और पुराने यज्ञोपवित का पूजन भी करते हैं । इस संस्कार से व्यक्ति का दूसरा जन्म हुआ माना जाता है। इसका अर्थ यह है कि जो व्यक्ति आत्म संयमी है, वही संस्कार से दूसरा जन्म पाता है और द्विज कहलाता है। उपाकर्म का तीसरा पक्ष स्वाध्याय का है। इसकी शुरुआत सावित्री, ब्रह्मा, श्रद्धा, मेधा, प्रज्ञा, स्मृति, सदसस्पति, अनुमति, छंद और ऋषि को घृत की आहुति से होती है। जौ के आटे में दही मिलाकर ऋग्वेद के मंत्रों से आहुतियां दी जाती हैं। इस यज्ञ के बाद वेद-वेदांग का अध्ययन आरंभ होता है। इस सत्र का अवकाश समापन से होता है। इस प्रकार वैदिक परंपरा में वैदिक शिक्षा साढ़े पांच या साढ़े छह मास तक चलती है। वर्तमान में श्रावणी पूर्णिमा के दिन ही उपाकर्म और उत्सर्ग दोनों विधान कर दिए जाते हैं। प्रतीक रूप में किया जाने वाला यह विधान हमें स्वाध्याय और सुसंस्कारों के विकास के लिए प्रेरित करता है। यह जीवन शोधन की एक अति महत्वपूर्ण मनोवैज्ञानिक-आध्यात्मिक प्रक्रिया है । उसे पूरी गम्भीरता के साथ किया जाना चाहिए । श्रावणी पर्व वैदिक काल से शरीर, मन और इन्द्रियों की पवित्रता का पुण्य पर्व माना जाता है । इस पर्व पर की जाने वाली सभी क्रियाओं का यह मूल भाव है कि बीते समय में मनुष्य से हुए ज्ञात-अज्ञात बुरे कर्म का प्रायश्चित करना और भविष्य में अच्छे कार्य करने की प्रेरणा देना। द्विज और द्विजत्व:- द्विज सम्बोधन यहाँ किसी जाति-वर्ग विशेष के लिए नहीं है, यह एक गुणवाचक सम्बोधन है । जीवन साधना की उच्चतम कक्षा के सफल साधक का पर्याय है । द्विज का अर्थ होता है-दुबारा जन्म लेने वाला । संस्कृत साहित्य में पक्षियों को भी द्विज कहा जाता है । माँ जन्म देती है अण्डे को । माँ के गर्भ से जन्म ले लेने की प्रक्रिया पूरी हो जाने पर भी बच्चे का स्वरूप जन्मदात्री के स्वरूप के अनुरूप नहीं होता । परन्तु अण्डे के अंदर जो जीव है, उसमें जन्मदात्री के अनुरूप विकसित होने की सभी संभावनाएँ होती हैं । प्रकृति के अनुशासन का पालन किये जाने पर उसका समुचित विकास हो जाता है और वह अण्डे में बँधी अपनी संकीर्ण सीमा को तोड़कर अपने नये स्वरूप में प्रकट हो जाता है । इस प्रक्रिया को उसका दूसरा जन्म कहना हर तरह से उचित है । यह प्रक्रिया पूरी होने पर ही उसे प्रकृति की विराटता का बोध होता है । तभी माँ उसे उड़ने का प्रशिक्षण देती है । ऋषियों ने अनुभव किया कि मनुष्य स्रष्टा की अद्भुत कृति है । उसमें दिव्य शक्तियों, क्षमताओं के विकास की अनंत सँभावनाएँ हैं । सामान्य रूप से तो माँ के गर्भ से जन्म लेने के बाद भी वह पशुओं जैसी आहार, निद्रा, भय, मैथुन की संकीर्ण प्रवृत्तियों के घेरे में ही कैद रहता है । मनुष्य की अंतःचेतना जब पुष्ट होकर संकीर्णता के उस अण्डे जैसे घेरे को तोड़कर बाहर आने का पुरुषार्थ करती है, तब उसका दूसरा जन्म होता है । तभी माता (आदिशक्ति) उसे सदाशयता और सत्पुरुषार्थ (सद्ज्ञान एवं सत्कर्म) के पंख फैलाकर जीवन की ऊँचाइयों में उड़ने का प्रशिक्षण देती है । तैयारी करें:- जो साधक वास्तव में इसका यथेष्ट लाभ उठाना चाहते हैं, उन्हें इसके लिए कम से कम एक दिन पूर्व से विचार मंथन करना चाहिए । गुरुदीक्षा के समय अथवा अगले चरण के साधना प्रयोगों में जो नियम-अनुशासन स्वीकार किये गये थे, उन पर ध्यान दिया जाना चाहिए । भूलों को समझे और स्वीकार किए बिना उनका शोधन संभव नहीं । आत्मसाधना में समीक्षा के बाद ही शोधन, निर्माण एवं विकास के कदम बढ़ाये जा सकते हैं । जो भुल-चूकें हुई हों, उन्हें गुुरुसत्ता के सामने सच्चे मन से स्वीकार किया जाना चाहिए । क्षति पूर्ति के लिए अपने र्कत्तव्य निश्चित करके गुुरुसत्ता से उसमें समुचित सहायता की प्रार्थना करनी चाहिए । श्रावणी उपाकर्म के सामूहिक क्रम में जो शामिल हों, उन्हें सामूहिक कर्मकाण्ड का लाभ तभी मिलेगा, जब वे उसके लिए व्यक्तिगत मंथन कर चुके होंगे । उसके बाद शिखा सिंचन उच्च विचार-ज्ञान साधना को तेजस्वी बनने के लिए किया जाता है । यज्ञोपवीत परिवर्तन यज्ञीय कर्म अनुशासन को अधिक प्रखर-प्रामाणिक बनाने के लिए किया जाता है । ब्रह्मा का, वेद का और ऋषियों का आवाहन, पूजन उनकी साक्षी में संकल्प करने तथा उनके सहयोग से आगे बढ़ते रहने के भाव से किया जाता है । रक्षाबंधन प्रगति के श्रेष्ठ संकल्पों को पूरा करने के भाव से किया-कराया जाता है । प्रकृति के अनुदानों के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने के साथ उसके ऋण से यथाशक्ति उऋण होने के भाव से वृक्षारोपण करने का नियम है । श्रावणी पर हर दीक्षित साधक को साधना का परिमार्जन करने के साथ उसको श्रेष्ठतर स्तरों पर ले जाने के संकल्प करने चाहिए । ऐसा करने वाले साधक ही इष्ट, गुरु या मातृसत्ता के उच्च स्तरीय अनुदानों को प्राप्त करने की पात्रता अर्जित कर सकते हैं । यदि सामूहिक पर्व क्रम में शामिल होने का सुयोग न बने तथा विशेष कर्मकाण्डों का करना-कराना संभव न हो, तो भी अपने साधना स्थल पर भावनापूर्वक पर्व के आवश्यक उपचारों द्वारा श्रावणी के प्राण-प्रवाह से जुड़कर उसका पर्याप्त लाभ प्राप्त किया जा सकता है । इसके लिए सभी को एक दिन पहले से ही जागरूकतापूर्वक प्रयास करने-कराने चाहिए । भूलों के सुधार तथा विकास के लिए निर्धारित नियमों को लिखकर पूजा स्थल पर रख लेना चाहिए । उपासना के समय उन पर दृष्टि पड़ने से होने वाली भूलों, विसंगतियों से बचना संभव होता है । हमारे सार्थक प्रयास हमें उच्च स्तरीय प्रगति का अधिकारी बना सकते हैं|