इस बार दीपावली कब मनाई जाए
31 अक्टूम्बर या 1 नवम्बरभारत सरकार द्वारा कोलकाता से प्रकाशित राष्ट्रीय पंचांग छंनजपबंस ।सउंदंब एवं विभिन्न राज्य सरकारों द्वारा भी 31 अक्टूम्बर को दीपावली घोषित की है।
शास्त्राज्ञा है कि कार्तिकी अमावस्या जिस दिन प्रदोष व्यापिनी हो उस दिन लक्ष्मी पूजन करें। यदि दोनों दिन प्रदोषव्यापिनी हो तो दूसरे दिन करे।
इस बार दृक् और सौर गणित पद्धतियों से प्रदोषकाल व्यापिनी अमावस्या अर्थात् कर्मकाल व्यापिनी अमावस्या 31 अक्टूम्बर को ही है।
प्रदोष समये दीपदान उल्काप्रदर्शन लक्ष्मीपूजनानि कृत्वा भोजनं कार्यम्
अर्थात् जिस दिन अमावस्या को सायं देवताओं के लिए दीपदान करने, पितरों के निमित्त उल्का दिखाने, विधिवत् लक्ष्मीपूजन करके व्रती को भोजन का पूर्ण समय प्रदोष काल में मिल जावे उसी दिन लक्ष्मी पूजन आदि करें। यही कर्मकाल है। इतना कर्म करने के लिए पूरा प्रदोषकाल चाहिए। केवल प्रदोषस्पर्श से कार्य नहीं हो सकता।
प्रदोष काल का मान कितना है ?
1 सूर्यास्त के बाद तीन मुहूर्त अर्थात् छः घटी अर्थात् 144 मिनट का समय
2 सूर्यास्त से पूर्व व पश्चात् डेढ़ डेढ़ मुहूर्त यानि तीन तीन घटी अर्थात् 72-72 मिनट आगे पीछे
3 सूर्यास्त के बाद डेढ़ मुहूर्त अर्थात् तीन घटी अर्थात् 72 मिनट
इसमें उत्तर है प्रथम
कुछ विद्वान प्रदोष का स्पर्श मात्र मान रहे है, जबकि प्रदोष तो पूरा ही होना चाहिए
व्यापिनी का अर्थ व्यापकत्व- आच्छादन या विस्तृत में ग्रहण करना चाहिए।
प्रदोष एकदेश या प्रदोषस्पर्श मात्र क्यों ग्रहण किया जा रहा हैं
दिनद्वये प्रदोषव्याप्तौ साम्येन तदेकदेशस्पर्शे वा उत्तरा, यह वाक्य होलिका दहन के लिए है, न कि दीपावली के लिए
वैषम्येणैकदेशस्पर्शे तदाधिक्यवती पूर्वाऽपि ग्राह्या
प्रदोषव्याप्तौ प्रदोषेकदेशव्याप्तौ प्रदोष स्पर्शाभावे
स्पष्ट है कि प्रदोषकाल व्यापिनी यानि पूरे प्रदोषकाल में होनी चाहिए
कतिपय विद्वान दूसरे दिन सूर्यास्त के बाद एक घटी अमावस्या का मान देखकर भविष्यपुराण के इस वचन के आधार पर 1 नवम्बर को दीपावली का आदेश कर रहे है और दीपावली को सुखरात्रि मान रहे है
दण्डैक रजनीयोगे दर्शः स्यात्तु परेऽहनि।
तथा विहाय पूवेद्युः परेऽहनि सुखरात्रिका
यह वचन सुखरात्रि व्रत के लिए शास्त्रीय व्यवस्था है। हमें दीपावली सुखरात्रिका और सुखसुप्तिका का अंतर समझना चाहिए, यहां सुखरात्रिका दीपावली के अर्थ में नहीं है, श्लोक का मूल समझना होगा।
दिनांक अमावस्या प्रारंभ अमावस्या समाप्ति भीनमाल में सूर्योदय भीनमाल में सूर्यास्त मंुबई में सूर्योदय मुंबई में सूर्यास्त प्रदोष काल
भीनमाल प्रदोष काल
दर्श आरंभ दर्श समाप्ति
31 अक्टू 15.54 06.47 18.01 06.39 18.04 18.01 से 20.25
18.04 से 20.28 19.12
1 नव. 18.18 06.48 18.00 06.40 18.04 18.00 से 20.24 18.04 से 20.28 11.42
अमावस्या का कुल मान 26 घण्टे 24 मिनट आ रहा है, अहोरात्र या तिथि के आठवें भाग को याम या एक प्रहर कहते है। इस प्रकार अमावस्या के मान के 8 भाग करने पर 3 घंटे 18 मिनट प्राप्त होता है। इस प्रकार प्रथम भाग या पहले प्रहर को सिनीवाली अमावस्या कहते है, बीच के 5 प्रहर को दर्श कहते है और अन्तिम 2 प्रहर को कुहू अमावस्या कहा जाता है। और दीपावली पूजन दर्श अमावस्या में किया जाता है जो 1 नवम्बर को प्रातः 11.42 बजे तक ही दर्श अमावस्या प्राप्त हो रही है। अर्थात् 1 नवम्बर को प्रदोषकाल में दर्श अमावस्या नहीं है तो 31 अक्टूम्बर को ही दीपावली शास्त्र सम्मत है।
दीपावली के लिए धर्म सिंधु में कहा है
अथाश्विनामावास्यायां प्रातरभ्यंग प्रदोषे दीपदानलक्ष्मीपूजनादि विहितम्। तत्र सूर्योदयं व्याप्यास्तोत्तरं घटिकाधिकरात्रिव्यापिनी दर्शे सति न संदेहः।।
इसमें स्पष्ट लिखा है कि सूर्यास्त के बाद रात्रि में एक घटी से अधिक दर्श हो तो उस दिन दीपावली होने में कोई संदेह नहीं है।
राजमार्तण्ड में कहा है
दण्डैकरजनी प्रदोषसमये दर्शो यदा संस्पृशेत्।
कर्त्तव्या सुखरात्रिकात्र विधिना दर्शाद्यभावे तदा।
पूज्या चाब्जधरा सदैव च तिथिः सैवाहनि प्राप्यते।
कार्या भूतविमिश्रिता जगुरिति व्यासादिगर्गादयः।।
अर्थात् यदि रात्रि को प्रदोष के समय एक दण्ड (घटी) भी दर्श का स्पर्श हो रहा हो तो उस दिन रात्रि में दर्श आदि के अभाव में भी विधिपूर्वक सुखरात्रिका करें। लक्ष्मी की पूजा सदैव उसी दिन करनी चाहिए जिस दिन प्रदोषव्यापिनी तिथि (दर्श) की प्राप्ति होती हो। यह चतुर्दशी मिश्रिता अमावस्या में भी करनी चाहिए ऐसा व्यास गर्ग आदि ऋषियों का कथन है।
इस उर्द्धत कर तिथि निर्णय में कहा है
यदि चोत्तरत्र दिवैव दर्शः प्राप्यते समाप्यते, पूर्वदिने च प्रदोषे लभ्यते तदा चतुर्दशीविद्धापि ग्राह्येत्यर्थः।
ज्योतिःशास्त्रे- दण्डैकरजनीयोगे दर्शः स्याच्च परेऽहनि।
तदा विहाय पूर्वेद्युः परेऽह्नि सुखरात्रिका।
अमावस्या यदा रात्रौ दिवाभागे चतुर्दशी।
पूजनीया तदा लक्ष्मीर्विज्ञेया सुखरात्रिका।
इति वचनद्वयमुभयत्र प्रमाणं वेदितव्यम्
अर्थात् यदि दूसरे दिन दिवाभाग में ही दर्श मिले और समाप्त हो जाए व पहिले दिन के प्रदोष में दर्श मिल रहा हो तो चतुर्दशी विद्धा अमावस्या भी ग्राह्य है, ज्योतिः शास्त्र में कहा है, यदि दूसरे दिन की रात्रि में दर्श का एक दण्ड योग व्याप्ति हो, तो पहले दिन को छोड़कर दूसरे दिन सुखरात्रिका होती है।
रात्रि में अमावस्या हो और दिन में चतुर्दशी हो तो उसी रात्रि में लक्ष्मी पूजा करनी चाहिए, इस सुखरात्रिका कहते है। इन दोनों वचनों को प्रमाण माना जाना चाहिए।
शब्द कल्पद्रुम में दीपावली के अंगभूत श्राद्ध, उल्कादान व लक्ष्मीपूजा का कालनिर्णय
शब्दकल्पद्रुम (1828 ई) स्यार राजा राधाकांतदेव बहादुर द्वारा 7 खण्डों में निर्मित संस्कृत का महाशब्दकोश है। इसमें सुखरात्रि के विषय में श्राद्ध, उल्कादान और लक्ष्मीपूजा के काल को पृथक् पृथक् स्पष्टता से बताया है।
यद्येवं पूर्वदिन एव प्रदोषव्यापिन्यमावास्या तदा पूर्वदिन एवं श्राद्धमकृत्वापि उल्कादानं कर्त्तव्यम्। आचारात् पंचभूतोपाख्यानंच श्रोतव्यम्। उभयतः प्रदोषव्याप्तौ परदिन एव युग्मात्। उभयतः प्रदोषाप्राप्तावपि उल्कादानं परदिने पार्व्वणानुरोधात्।
अत्रैव पूर्वदिने लक्ष्मी रात्रौ पूज्या।
अमावस्या यदा रात्रौ दिवाभागे चतुर्दशी।
पूजनीया तदा लक्ष्मीर्विज्ञेया सुखरात्रिका।
इति वचनात्। लक्ष्मीपूजाविषयेऽप्येवं व्यवस्था। ततो गृहमध्ये उत्तराभिमुखो लक्ष्मीं पूजयेत्।
अर्थात् यदि पहले दिन प्रदोषव्यापिनी अमावस्या हो तो पहले दिन ही श्राद्ध न करके भी उल्कादान करें। आचार से पंचभूत व्याख्यान सुनना चाहिए। यदि दोनों दिन प्रदोष व्याप्त हो तो दूसरे दिन उल्कादान करंे। दोनों दिन प्रदोष में अमावस्या की प्राप्ति न हो तो भी पार्वण श्राद्ध के अनुरोध से दूसरे दिन उल्कादान करें। ऐसी स्थितियों में भी पहले दिन की रात्रि में ही लक्ष्मी पूजा करंे। क्योंकि कहा गया है, रात्रि में अमावस्या हो और दिन में चतुर्दशी हो तो उसी रात्रि में लक्ष्मी पूजा करनी चाहिए, इसे सुखरात्रिका कहते है। लक्ष्मी पूजा के विषय में यहीं व्यवस्था हैं
शब्दकल्पद्रुम, चौखम्बा संस्कृत ग्रंथमाला कार्तिककृत्यम्
अमावस्या यदा रात्रौ दिवाभागे चतुर्दशी।
पूजनीया तदा लक्ष्मीर्विज्ञेया सुखरात्रिका।
आचार्य रघुनाथ भट्ट सम्राटस्थापित ने अपने ग्रंथ कालतत्त्वविवेचनम् (1620 ई.) में इसी मत को प्रतिपादित किया है। यह ग्रंथ जयपुर राजगुरु कथाभट्ट के आचार्य नन्दकिशोर शर्मा के सम्पादन में काशी से 1932 में प्रकाशित हुआ है।
अमावस्या कर्त्तव्यदीपदानं च यद्यपि‘ कृत्वा तु पार्वणश्राद्धम्’ इत्यभिधाय ततोऽपराह्नसमये इत्यादिराजकर्त्तव्याभिधानमध्ये दीपमालाकुलेरम्ये विध्वस्तध्वान्तसंचये।
प्रदोषे दोषरहिते शस्ते दोषागमे शुभे
इन सभी प्रमाणों को देखते हुए 31 अक्टूम्बर को ही प्रदोष व्यापिनी अमावस्या होने से दीपावली मनाना शास्त्र सम्मत है।