पुरातन काल में भृगु नामक एक ऋषि हुए थे, जिन्होंने ब्रह्मविद्या को प्राप्त किया था । यह उनकी खोज की कहानी है । उनके पिता वरुण थे, जो पूर्ण ज्ञानी थे । एक बार भृगु पिता के पास गया और उनसे बोला, “पिताजी, मुझे ब्रह्मोपदेश करिए ।” पिता जैसे पहेलियों में बोले, “अन्न, प्राण, चक्षु, श्रोत्र, मन, वाणी (इन के द्वारा ही यह विद्या प्राप्त होगी) ।” आगे वे बोले, “जिससे यह सब प्राणी उत्पन्न होते है, जिससे उत्पन्न होकर जीते हैं, जिससे ये (इस लोक से) प्रयाण करते हैं और जिसमें (मरणोपरान्त) प्रवेश करते हैं, उसको जानने की इच्छा (=प्रयत्न) कर क्योंकि वही ब्रह्म है ।”
Wednesday, 5 April 2023
भृगु
भृगु ने तप आरम्भ किया । उस तप से उसने जाना कि अन्न ही वह वस्तु है जिससे प्राणी उत्पन्न होते हैं, जीते हैं, जिसके बिना वे मृत्यु को प्राप्त करते हैं और, मरणोपरान्त, अन्न में ही समाविष्ट हो जाते हैं । उन्होंने पिता को अपनी खोज का परिणाम बताया । पिता ने कहा कि ठीक है, परन्तु यह अन्तिम उत्तर नहीं है । उन्होंने भृगु को और तप करने को कहा ।
भृगु ने पुनः घोर तपस्या की और जाना कि पिता ने जो पहला विचित्र वाक्य कहा था, उसी में पुनः उत्तर छुपा है, क्योंकि प्राण ही तो वह वस्तु है जिससे यह सब प्राणी उत्पन्न होते हैं, जिससे उत्पन्न होकर जीते हैं, जिसके निकल जाने पर इस लोक से वे प्रयाण कर देते हैं और उसी में विलीन हो जाते हैं । परन्तु पिता फिर भी सन्तुष्ट नहीं हुए और उससे और तप करने को कहा ।
अब की बार भृगु को ब्रह्म के रूप में मन ज्ञात हुआ, जिससे भी सब प्राणी उत्पन्न होते हैं, जिसकी सहायता से जीते हैं, जिसके न रहने पर मरते हैं, और अन्तकाल में उसी में विलीन हो जाते हैं । परन्तु इस उत्तर से भी पिता सन्तुष्ट नहीं हुए । तब भृगु को ब्रह्म के रूप में विज्ञान जान पड़ा, जिससे भी सब उपर्युक्त कार्य होते हैं । जब पिता ने और आगे ढूढ़ने की प्रेरणा दी, तो भृगु को आनन्द-रूपी ब्रह्म जान पड़ा । अब की बार वरुण सन्तुष्ट हुए । इन दोनों के तप से जानी गई यह विद्या भार्गवी-वारुणी विद्या कहलाई ।
भृगु की खोज के विभिन्न चरणों को देखकर, सम्भवतः आप अब तक जान गए हों कि वह वास्तव में क्या ढूढ़ रहा था और क्या पा रहा था । वस्तुतः, भृगु ने ध्यान-रूपी तप से शरीर के पंच कोशों का रहस्य ढूढ़ निकाला । ये पंच कोश हैं – अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनन्दमय कोश । ये जैसे शरीर की स्थूल से सूक्ष्मतर परते हैं, जो एक के अन्दर एक बैठी हैं ।
अन्नमय कोश स्थूल शरीर है, जो कि पंच महाभूतों का बना हुआ है । इसी को हम अधिकतर अनुभव करते हैं – भूख-प्यास, चोट, बल, आदि, स्थूल शरीर के लक्षण होते हैं ।
प्राणमय कोश में श्वास-निःश्वास ही नहीं, अपितु शरीर की सभी चेष्टाएं सम्मिलित हैं । प्राणों से ही रक्त को गति मिलती है और आंतों से शरीर में रस बहता है । ध्यान करते समय, पहले भौतिक शरीर के किसी अंश के बाद, हमें अपने प्राणों पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए । बृहदारण्यक में कहा गया है कि सभी इन्द्रियां, और मन भी, पाप-युक्त हो सकती हैं, परन्तु प्राण पाप से परे रहता है । प्राणों पर ध्यान लगाने से, हमारा मस्तिष्क पवित्र हो जाता है ।
और अन्दर जाने पर, योगी को मन का रूप स्पष्ट होता है – वह मन जो इन्द्रियों से बाह्य विषयों का ग्रहण करता है और फिर शरीर में चेष्टा उत्पन्न करने का संकल्प-विकल्प करता है ।
मनोमय कोश से भी सूक्ष्मतर होता है विज्ञानमय कोश, जो कि बुद्धि का पर्याय है । यहां हमारे गहन विचार स्थित होते हैं । जब हम किसी विचार में लीन होते हैं, तो अपने शरीर की सुध-बुध भूल जाते हैं, हमारा शरीर शिथिल पड़ जाता है, हमें अपने आस-पास की सुध भी नहीं रहती, हम किसी और ही संसार में होते हैं । वह विज्ञानमय कोश होता है । योगी भी इसमें प्रवेश करके शरीर और इन्द्रियों को भूल जाता है ।
इस कोश के अन्दर स्थित होता है आनन्दमय कोश । यह वह कोश है जहां आत्मा अपने को देखने लगता है, परमात्मा की झलक पाने लगता है । जैसे-जैसे वह इसमें प्रवेश करता जाता है, वैसे-वैसे प्रकृति का अंकुश उसपर से उठता जाता है, और वह अपने स्वरूप में प्रतिष्ठित होने लगता है । इस अवस्था में जिस आनन्द की अनुभूति उसे होती है, वह वर्णनातीत है, क्योंकि वर्णन में तो शारीरिक और मानसिक सुख-दुःख ही आते हैं । योगदर्शन में इसी स्थिति को आनन्दा समाधि कहा गया है, जिसके आगे अस्मिता समाधि में वह अपने में स्थित हो जाता है । यहीं पहुंच कर ब्रह्मलोक के द्वार खुलने लगते हैं और मोक्ष-मार्ग प्रशस्त होता है ।
गायत्री यो न जानाति वृथा तस्य परिश्रमः ।
गायत्री यो न जानाति वृथा तस्य परिश्रमः ।
छन्दोगपरिशिष्टे - "सर्वेषामेव वेदानां गुद्योपनिषदां तथा । सारभूता तु गायत्री निर्गता ब्रह्मणो मुखात् ॥"
बृहद्यमोऽपि - "न तथा वेदजपतः पापं निर्दहति द्विजः । यथा सावित्रीजपतः सर्वपापैः प्रमुच्यते ।। "
कूर्मपुराणे- "गायत्री चैव वेदांश्च तुलया समतोलयत् । वेदा एकत्र साङ्गास्तु गायत्री चैकतः स्मृता" ।।
नागदेवोऽपि - "गायन्तं त्रायते यस्माद् गायत्री तेन चोच्यते" ।।
अन्यत्रापि गायत्र्या माहात्म्यं श्रूयते यथाऽस्त्रसंग्रहे-
"गायत्री परदेवतेति गदिता ब्रह्मैव चिद्रूपिणी ।। "
गायत्री जपादौ फलमुक्तं वृद्धपराशरस्मृतौ "गायत्रीजपकृद्भच्या सर्वपापैः प्रमुच्यते ।। "
भविष्यपुराणे- "सर्वपापानि नश्यन्ति गायत्री जपतो नृप" ॥
आग्नेये- "ऐहिकामुष्मिकं सर्वं गायत्री जपतो भवेत्" ।।
पद्मपुराणे "ब्रह्महत्यादिपापानि गुरूणि च लघूनि च नाशयत्यचिरेणैव गायत्री जापको द्विजः ॥"
श्रीमच्छंकराचार्यविरचितायां गायत्रीपुरश्चरणपद्धतौ-
"तत्र तावत्सावित्रीशब्देन पर देवतेति चोच्यते
तदुक्तं भारद्वाजीये-सूते जगदादि सा सावित्री सर्वजगत्प्रसवादिकर्त्री सैव गायत्रीत्युच्यते | सेव सेव्यत्वेन शब्दब्रह्मेत्युच्यते
उक्तं च नारायणोपनिषदि
"गायत्री छंदसां मातेदं ब्रह्म जुषस्व मे ।।"
भगवद्गीतासु च -
"गायत्री छन्दसामहम्" इति ।।
*व्रत या उपवास कितने प्रकार के होते हैं.?
*व्रत या उपवास कितने प्रकार के होते हैं.???*
व्रत रखने के नियम दुनिया को हिंदू धर्म की देन है। व्रत रखना एक पवित्र कर्म है और यदि इसे नियम पूर्वक नहीं किया जाता है तो न तो इसका कोई महत्व है और न ही लाभ बल्कि इससे नुकसान भी हो सकते हैं। आप व्रत बिल्कुल भी नहीं रखते हैं तो भी आपको इस कर्म का भुगतान करना ही होगा। राजा भोज के राजमार्तण्ड में 24 व्रतों का उल्लेख है।
1.नित्य व्रत
उसे कहते हैं जिसमें ईश्वर भक्ति या आचरणों पर बल दिया जाता है, जैसे सत्य बोलना, पवित्र रहना, इंद्रियों का निग्रह करना, क्रोध न करना, अश्लील भाषण न करना और परनिंदा न करना, प्रतिदिन ईश्वर भक्ति का संकल्प लेना आदि नित्य व्रत हैं। इनका पालन नहीं करते से मानव दोषी माना जाता है।

2.नैमिक्तिक व्रत
उसे कहते हैं जिसमें किसी प्रकार के पाप हो जाने या दुखों से छुटकारा पाने का विधान होता है। अन्य किसी प्रकार के निमित्त के उपस्थित होने पर चांद्रायण प्रभृति, तिथि विशेष में जो ऐसे व्रत किए जाते हैं वे नैमिक्तिक व्रत हैं।

3.काम्य व्रत
किसी कामना की पूर्ति के लिए किए जाते हैं, जैसे पुत्र प्राप्ति के लिए, धन- समृद्धि के लिए या अन्य सुखों की प्राप्ति के लिए किए जाने वाले व्रत काम्य व्रत हैं।

व्रतों का वार्षिक चक्र






1.साप्ताहिक व्रत
सप्ताह में एक दिन व्रत रखना चाहिए। यह सबसे उत्तम है।

2.पाक्षिक व्रत
15-15 दिन के दो पक्ष होते हैं कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष। प्रत्येक पक्ष में चतुर्थी, एकादशी, त्रयोदशी, अमावस्या और पूर्णिमा के व्रत महतवपूर्ण होते हैं। उक्त में से किसी भी एक व्रत को करना चाहिए।

3.त्रैमासिक
वैसे त्रैमासिक व्रतों में प्रमुख है नवरात्रि के व्रत। हिंदू माह अनुसार माघ, चैत्र, आषाढ और अश्विन मान में नवरात्रि आती है। उक्त प्रत्येक माह की प्रतिपदा यानी एकम् से नवमी तक का समय नवरात्रि का होता है। इन नौ दिनों तक व्रत और उपवास रखने से सभी तरह के क्लेश समाप्त हो जाते हैं।

4.छह मासिक व्रत
चैत्र माह की नवरात्रि को बड़ी नवरात्रि और अश्विन माह की नवरात्रि को छोटी नवरात्रि कहते हैं। उक्त दोंनों के बीच छह माह का अंतर होता है। इसके अलावा

5.वार्षिक व्रत
वार्षिक व्रतों में पूरे श्रावण मास में व्रत रखने का विधान है। इसके अलवा जो लोग चतुर्मास करते हैं उन्हें जिंदगी में किसी भी प्रकार का रोग और शोक नहीं होता है। इससे यह सिद्ध हुआ की व्रतों में 'श्रावण माह' महत्वपूर्ण होता है। सोमवार नहीं पूरे श्रावण माह में व्रत रखने से हर तरह के शारीरिक और मानसिक कलेश मिट जाते हैं।

उपवास के प्रकार
1.प्रात: उपवास, 2.अद्धोपवास, 3.एकाहारोपवास, 4.रसोपवास, 5.फलोपवास, 6.दुग्धोपवास, 7.तक्रोपवास, 8.पूर्णोपवास, 9.साप्ताहिक उपवास, 10.लघु उपवास, 11.कठोर उपवास, 12.टूटे उपवास, 13.दीर्घ उपवास। बताए गए हैं, लेकिन हम यहां वर्ष में जो व्रत होते हैं उसके बारे में बता रहे हैं।

1.प्रात: उपवास
इस उपवास में सिर्फ सुबह का नाश्ता नहीं करना होता है और पूरे दिन और रात में सिर्फ 2 बार ही भोजन करना होता है।

2.अद्धोपवास
इस उपवास को शाम का उपवास भी कहा जाता है और इस उपवास में सिर्फ पूरे दिन में एक ही बार भोजन करना होता है। इस उपवास के दौरान रात का भोजन नहीं खाया जाता।

3.एकाहारोपवास
एकाहारोपवास में एक समय के भोजन में सिर्फ एक ही चीज खाई जाती है, जैसे सुबह के समय अगर रोटी खाई जाए तो शाम को सिर्फ सब्जी खाई जाती है। दूसरे दिन सुबह को एक तरह का कोई फल और शाम को सिर्फ दूध आदि।

4.रसोपवास
इस उपवास में अन्न तथा फल जैसे ज्यादा भारी पदार्थ नहीं खाए जाते, सिर्फ रसदार फलों के रस अथवा साग-सब्जियों के जूस पर ही रहा जाता है। दूध पीना भी मना होता है, क्योंकि दूध की गणना भी ठोस पदार्थों में की जा सकती है।

5.फलोपवास
कुछ दिनों तक सिर्फ रसदार फलों या भाजी आदि पर रहना फलोपवास कहलाता है। अगर फल बिलकुल ही अनुकूल न पड़ते हो तो सिर्फ पकी हुई साग-सब्जियां खानी चाहिए।

6.दुग्धोपवास
दुग्धोपवास को 'दुग्ध कल्प' के नाम से भी जाना जाता है। इस उपवास में सिर्फ कुछ दिनों तक दिन में 4-5 बार सिर्फ दूध ही पीना होता है।

7.तक्रोपवास
तक्रोपवास को 'मठाकल्प' भी कहा जाता है। इस उपवास में जो मठा लिया जाए, उसमें घी कम होना चाहिए और वो खट्टा भी कम ही होना चाहिए। इस उपवास को कम से कम 2 महीने तक आराम से किया जा सकता है।

8.पूर्णोपवास
बिलकुल साफ-सुथरे ताजे पानी के अलावा किसी और चीज को बिलकुल न खाना पूर्णोपवास कहलाता है। इस उपवास में उपवास से संबंधित बहुत सारे नियमों का पालन करना होता है।

9. साप्ताहिक उपवास
पूरे सप्ताह में सिर्फ एक पूर्णोपवास नियम से करना साप्ताहिक उपवास कहलाता है।

10. लघु उपवास
3 से लेकर 7 दिनों तक के पूर्णोपवास को लघु उपवास कहते हैं।

11. कठोर उपवास
जिन लोगों को बहुत भयानक रोग होते हैं यह उपवास उनके लिए बहुत लाभकारी होता है। इस उपवास में पूर्णोपवास के सारे नियमों को सख्ती से निभाना पड़ता है।

12. टूटे उपवास
इस उपवास में 2 से 7 दिनों तक पूर्णोपवास करने के बाद कुछ दिनों तक हल्के प्राकृतिक भोजन पर रहकर दोबारा उतने ही दिनों का उपवास करना होता है। उपवास रखने का और हल्का भोजन करने का यह क्रम तब तक चलता रहता है, जब तक कि इस उपवास को करने का मकसद पूरा न हो जाए।

13. दीर्घ उपवास
दीर्घ उपवास में पूर्णोपवास बहुत दिनों तक करना होता है जिसके लिए कोई निश्चित समय पहले से ही निर्धारित नहीं होता। इसमें 21 से लेकर 50-60 दिन भी लग सकते हैं। अक्सर यह उपवास तभी तोड़ा जाता है, जब स्वाभाविक भूख लगने लगती है अथवा शरीर के सारे जहरीले पदार्थ पचने के बाद जब शरीर के जरूरी अवयवों के पचने की नौबत आ जाने की संभावना हो जाती है।

क्यों पढ़ाई जानी चाहिए बच्चों को संस्कृत?
क्यों पढ़ाई जानी चाहिए बच्चों को संस्कृत?
आयरलैंड के डबलिन में जॉन स्कॉटस सीनियर स्कूल के संस्कृत शिक्षक रटगर कोर्टेनहोस्र्ट का सम्बोधन जो भारतीय धरोहर पत्रिका में वर्ष 2015 में प्रकाशित हुआ है -
सबसे पहले हम यह विचार करते हैं कि संस्कृत क्यों पढ़ाई जाए? आयरलैंड में संस्कृत को पाठ्यक्रम में शामिल करने वाले हम पहले विद्यालय हैं। ग्रेट ब्रिटेन और विश्व के अन्य हिस्सों में जॉन स्काट्टस के 80 विद्यालय चलते जहां संस्कृत को पाठ्यक्रम में शामिल किया गया है। दूसरा सवाल है कि संस्कृत पढ़ाई कैसे जाती है? आपने ध्यान दिया होगा कि आपका बच्चा विद्यालय से घर लौटते समय कार में बैठे हुए मस्ती में संस्कृत व्याकरण पर आधारित गाने गाता होगा। मैं आपको बताना चाहूंगा कि भारत में अध्ययन करने के समय से लेकर आज तक संस्कृत पढ़ाने को लेकर हमारा क्या दृष्टिकोण रहा है। लेकिन पहला सवाल है संस्कृत क्यों? इसका उत्तर देने से पहले हमें संस्कृत के गुणों पर ध्यान देना होगा। अपनी आवाज की सुमधुरता, उच्चारण की शुद्धता और रचना के सभी आयामों में संपूर्णता के कारण यह सभी भाषाओं से श्रेष्ठ है। यही कारण है कि अन्य भाषाओं की भांति मौलिक रूप से कभी भी इसमें पूरा परिवर्तन नहीं हुआ। मनुष्य के इतिहास की सबसे पूर्ण भाषा होने के कारण इसमें परिवर्तन की कभी कोई आवश्यकता ही नहीं पड़ी।
यदि हम शेक्सपीयर की अंग्रेजी को देखें तो हमें पता चलेगा कि वह हमारे लिए आज कितनी अलग और कठिन है जबकि वह मात्र 500 वर्ष पुरानी अंग्रेजी है। हमें शेक्सपीयर और किंग जेम्स बाइबिल की अंग्रेजी को समझने के लिए काफी मशक्कत करनी पड़ती है। इससे थोड़ा और पीछे चले जाएं तो केवल सात सौ साल पुरानी कैसर की पुस्तक पिलिग्रिम्स प्रोग्रेस में अंग्रेजी का कुछ भी ओर-छोर पता नहीं चलेगा। हम उस भाषा को आज अंग्रेजी की बजाय एंग्लो-सेक्शन कहते हैं। अंग्रेजी तो तब पैदा भी नहीं हुई थी।
सारी भाषाएं बिना किसी पहचान के बदलती रहती हैं। वे बदलती हैं क्योंकि वे दोषयुक्त हैं। आने वाले परिवर्तन वास्तव में विकृतियां हैं। विशाल रेडवुड वृक्ष के जीवनकाल की भांति ये 7-8 सौ वर्षों में पैदा होती हैं और मर जाती हैं, क्योंकि इतनी विकृतियों के बाद उनमें कोई जीवंतता नहीं बची होती। आश्चर्यजनक रूप से संस्कृत इसका एकमात्र अपवाद है। यह अमर भाषा है। इसके गठन का संपूर्ण और सुविचारित होना ही इसकी निरंतरता का कारण है। इसके व्याकरण और शब्द-रचना की पहुंच से एक भी शब्द छूट नहीं पाया है। इसका अर्थ यह है कि हरेक शब्द के मूल का पता लगाया जा सकता है। इसका अर्थ यह नहीं है कि इसमें नए शब्द नहीं रचे जा सकते। जिसप्रकार हम अंग्रेजी में ग्रीक और लैटिन के पुराने विचारों का उपयोग करके नए शब्द गढ़ते हैं, जैसे कि टेली (दूर) विजन (दर्शन) और कम्प्यूट (गणना) अर आदि। इसी प्रकार संस्कृत में छोटे शब्दों और हिस्सों से बड़े जटिल शब्दों की रचना की जाती है। तो एक मौलिक और अपरिवर्तनीय भाषा को जानने का क्या लाभ है? जैसे कि एक सदा साथ रहने वाले दोस्त का क्या लाभ है? वह विश्वसनीय होता है।
पिछली कुछ शताब्दियों में विश्व को संस्कृत के असाधारण गुणों का पता चला है और इसलिए अनेक देशों के विश्वविद्यालय में आपको संस्कृत विभाग मिलेगा। चाहे आप हवाई जाएं या कैंब्रिज या हार्वर्ड और यहां तक कि ट्रिनिटी विश्वविद्यालय, डबलिन, सभी में एक संस्कृत विभाग है। हो सकता है कि आपका बच्चा इनमें से किसी एक विश्वविद्यालय में संस्कृत विभाग का प्रोफेसर बने। हालांकि भारत इसका आदि देश है लेकिन आज संस्कृत की वैश्विक पूछ बढ़ी है। इस भाषा में उपलब्ध ज्ञान ने पश्चिम को आकर्षित किया है। चाहे वह आयुर्वेद हो या फिर योग, ध्यान की तकनीकि हों या फिर हिंदुत्व, बौद्ध जैसे अनेक व्यावहारिक दर्शन, इनका हम अपने यहां उपयोग कर रहे हैं। इनसे स्थानीय परंपराओं और पंथों के साथ विवाद समाप्त करके समायोजन और जागरूकता फैलाते हैं।
संस्कृत में उच्चारण की शुद्धता अतुलनीय है। संस्कृत की शुद्धता अक्षरों के वास्तविक आवाज की संरचना और निश्चितता पर आधारित है। हरेक वर्ण के उच्चारण का स्थान निश्चित (मुख, नाक और गले में) और अपरिवर्तनीय है। इसलिए संस्कृत में अक्षरों को कभी भी समाप्त न होने वाला बताया गया है। इसलिए उच्चारण के स्थान और इसके लिए मानसिक और शारीरिक सिद्धता का पूर्ण नियोजन किया गया है। इस वर्णन को देखने के बाद हम विचार करें कि अंग्रेजी के अक्षरों ए, बी, सी, डी, ई, एफ, जी आदि में क्या कोई संरचना है सिवाय इसके कि यह ए से शुरू होती है।
आप कह सकते हैं कि ठीक है लेकिन हमारे बच्चे को एक और विषय और एक और लिपि क्यों पढऩा चाहिए। आज के पश्चिम जगत में उसे इससे किस प्रकार का लाभ पहुंच सकता है? पहली बात है कि संस्कृत के गुण आपके बच्चे में आ जाएंगे। वह शुद्ध, सुंदर और विश्वसनीय बन जाएगा। संस्कृत स्वयं ही आपके बच्चे या इसे पढऩे वाले किसी को भी अपनी अलौकिक शुद्धता के कारण ध्यान देना सिखा देगी। जब शुद्धता होती है तो आप आगे बढ़ता महसूस करते हैं। यह आपको प्रसन्न करता है। ध्यान की यह शुद्धता जीवन के सभी विषयों, क्षेत्रों और गतिविधियों चाहे आप विद्यालय में हो या उसके बाहर, में आपकी सहायता करती है। इससे आपका बच्चा अन्य बच्चों से प्रतियोगिताओं में आगे हो जाएगा। वे अधिक सहजता, सरलता और संपूर्णता में बातों को ग्रहण कर पाएंगे। इस कारण संबंधों, कार्यक्षेत्र और खेल, जीवन के हरेक क्षेत्र में वे बेहतर प्रदर्शन कर पाएंगे और अधिक संतुष्टी हासिल कर पाएंगे। आप जब पूरा प्राप्त करेंगे तो आप भरपूर आनंद भी उठा पाएंगे।
संस्कृत के अध्ययन से अन्य भाषाओं को भी सरलता से सीखा जा सकता है, क्योंकि सभी भाषाएं एक दूसरे से कुछ न कुछ लेती हैं। संस्कृत व्याकरण आयरिश, ग्रीक, लैटिन और अंग्रेजी में परिलक्षित होती है। इन सभी में संपूर्ण संस्कृत व्याकरण का कुछ हिस्सा है। कुछ में व्याकरण कुछ अधिक विकसित हो गया है, लेकिन उनमें भी संस्कृत व्याकरण का कुछ हिस्सा पाया जाता है और जो अपने आप में परिपूर्ण होता है।
संस्कृत हमें सिखाती है कि भाषा व्यवस्थित होती है और नियमों का पूरी तरह पालन करती है जिन्हें प्रयोग करने पर हमारे बच्चे भी विकसित होते हैं। इसका अर्थ है कि वे अस्वाभाविक रूप से शुद्ध, निश्चित और भाषा में साफ अंतर्दृष्टि वाले हो जाते हैं। सभी भाषाओं की माता संस्कृत से वे अच्छी तरह बोलना सीख जाते हैं। जो अच्छे से बोलना जानते हैं, वे दुनिया पर राज करते हैं। यदि आपके बच्चे एक चैतन्य भाषा में अभिव्यक्त करना सीख पाएंगे तो वे अगली पीढ़ी का नेतृत्व कर पाएंगे।
वेदों और गीता के रूप में संस्कृत का साहित्य दुनिया का सबसे व्यापक साहित्य है। विलियम बटलर यीट्स द्वारा किया गया उपनिषदों के भाष्य ने दुनिया के लोगों को वैश्विक धर्म की अनुभूति कराई है। इन पुस्तकों को सीधा पढऩा उनके अनुवादों को पढऩे से कहीं बेहतर होगा क्योंकि अनुवाद मूल से बेहतर नहीं होता। आज मजहबी विचारों को कम समझने और अपरिपक्व मजहबी विचारों के कारण पूरी दुनिया में मजहबी मतांधता और कट्टरता बढ़ रही है, ऐसे में वैश्विक धर्म के बारे में एक साफ जानकारी का होना आवश्यक है।
वैश्विक, समन्वयकारी और सीधी-सरल सच्चाइयों को अभिव्यक्त करने में संस्कृत आपके बच्चे की सहायता कर सकती है। परिणामस्वरूप आप अपने अभिभावकत्व का सही ढंग से निर्वहन कर पाएंगे और दुनिया अधिक सौहाद्र्रपूर्ण, मानवीय और एकात्म समाज के रूप में इसका लाभ उठाएगी। संस्कृत की तुलना एक चौबीस घंटे साथ रहने वाले शिक्षक से कर सकते हैं। शेष भाषाएं कुछ ही समय साथ देती हैं। मुझ पर संस्कृत का पहला प्रभाव एक यथार्थवादी आत्मविश्वास के रूप में दिखा। दूसरे, मैं अधिक सूक्ष्मता से और सावधानीपूर्वक बोलने लगा हूँ। मेरी एकाग्रता और ग्राह्यता बढ़ गई है। हमने संस्कृत पाठ्यक्रम को पिछले वर्ष सितम्बर में शुरू किया है और इससे हमारे छात्रों के चेहरे पर मुस्कान ला दिया है। यह एक सुखद परिवर्तन है। मैं पूरी तरह आश्वस्त हूँ कि आपके बच्चों को हम एक संपूर्ण, सुगठित और आनंददायी पाठ्यक्रम उपलब्ध करा पा रहे हैं।
हम अपने 500 वर्ष के पुनर्जागरण के चक्र को देखें। अंतिम यूरोपीय पुनर्जागरण में तीन चीजों का विकास हुआ – कला, संगीत और विज्ञान, जिससे हमने आज की दुनिया का निर्माण किया है। आज हम नए प्रेरक समय में हैं और नए पुनर्जागरण की शुरुआत हो रही है। यह पुनर्जागरण भी तीन बातों पर आधारित है – अर्थ-व्यवस्था, कानून और भाषा। भाषा को और अधिक वैश्विक होना होगा ताकि हम सेकेंडों में एक-दूसरे से संपर्क कर सकें। अमेरिका के स्पेस कार्यक्रम नासा आईटी और आर्टिफीशियल इंटेलीजेंस के विकास के लिए संस्कृत की ओर ही देख रही है।
जॉन स्कॉट्टस के छात्रों का अनुभव है कि संस्कृत उनके मस्तिष्क को तेज, साफ और उर्वर बनाती है। यह उन्हें शांत और खुश करती है। यह हमें बड़ा सोचने के लिए प्रेरित करती है। यह हमारी जिह्वा को साफ और लचीली बनाती है जिससे हम किसी भी भाषा का उच्चारण कर सकंते हैं। अंत में मैं नासा के रिक ब्रिग की एक बात उद्धरित करना चाहुंगा। संस्कृत पूरे ग्रह की भाषा बन सकती है यदि इसे उत्साहवर्धक और आनंददायी तरीके से पढ़ाया जाए।
संस्कृत एक ऐसी भाषा है जिसको गाली देने वाले कभी उसे पढ़ते नहीं हैं,और स्वयं को तार्किक,चिंतक,बुद्धिजीवी कहते हैं,, ख़ैर आप लोग मार्कण्डेय पुराण में मदालसा के द्वारा अपने बच्चों को सुनाई गई लोरी सुनिए:--
शुद्धोसि बुद्धोसि निरंजनोऽसि,संसारमाया परिवर्जितोऽसि
संसारस्वप्नं त्यज मोहनिद्रामदालसोल्लपमुवाच पुत्रम्॥
पुत्र यह संसार परिवर्तनशील और स्वप्न के सामान है इसलिये
मॊहनिद्रा का त्याग कर क्योकि तू शुद्ध ,बुद्ध और निरंजन है।
शुद्धो sसिं रे तात न तेsस्ति नाम कृतं हि ते कल्पनयाधुनैव ।
पंचात्मकम देहमिदं न तेsस्ति नैवास्य त्वं रोदिषि कस्य हेतो: ॥
हे लाल! तू तो शुद्ध आत्मा है, तेरा कोई नाम नहीं है। यह कल्पित नाम तो तुझे अभी मिला है। वह शरीर भी पाँच भूतों का बना हुआ है। न यह तेरा है, न तू इसका है। फिर किसलिये रो रहा है?
न वा भवान् रोदिति वै स्वजन्मा शब्दोsयमासाद्य महीश सूनुम् ।
विकल्प्यमाना विविधा गुणास्ते-sगुणाश्च भौता: सकलेन्द्रियेषु ॥
अथवा तू नहीं रोता है, यह शब्द तो राजकुमार के पास पहुँचकर अपने आप ही प्रकट होता है। तेरी संपूर्ण इन्द्रियों में जो भाँति भाँति के गुण-अवगुणों की कल्पना होती है, वे भी पाञ्चभौतिक ही है?
भूतानि भूतै: परि दुर्बलानि वृद्धिम समायान्ति यथेह पुंस: ।
अन्नाम्बुदानादिभिरेव कस्य न तेsस्ति वृद्धिर्न च तेsस्ति हानि: ॥
जैसे इस जगत में अत्यंत दुर्बल भूत, अन्य भूतों के सहयोग से वृद्धि को प्राप्त होते है, उसी प्रकार अन्न और जल आदि भौतिक पदार्थों को देने से पुरुष के पाञ्चभौतिक शरीर की ही पुष्टि होती है । इससे तुझ शुद्ध आत्मा को न तो वृद्धि होती है और न हानि ही होती है।
त्वं कञ्चुके शीर्यमाणे निजेsस्मिं- स्तस्मिश्च देहे मूढ़तां मा व्रजेथा:
शुभाशुभै: कर्मभिर्दहमेत- न्मदादि मूढै: कंचुकस्ते पिनद्ध: ॥
तू अपने उस चोले तथा इस देहरुपि चोले के जीर्ण शीर्ण होने पर मोह न करना। शुभाशुभ कर्मो के अनुसार यह देह प्राप्त हुआ है। तेरा यह चोला मद आदि से बंधा हुआ है, तू तो सर्वथा इससे मुक्त है ।
तातेति किंचित् तनयेति किंचि- दम्बेती किंचिद्दवितेति किंचित्
ममेति किंचिन्न ममेति किंचित् त्वं भूतसंग बहु मानयेथा: ॥
कोई जीव पिता के रूप में प्रसिद्ध है, कोई पुत्र कहलाता है, किसी को माता और किसी को प्यारी स्त्री कहते है, कोई "यह मेरा है" कहकर अपनाया जाता है और कोई "मेरा नहीं है", इस भाव से पराया माना जाता है। इस प्रकार ये भूतसमुदाय के ही नाना रूप है, ऐसा तुझे मानना चाहिये ।
दु:खानि दु:खापगमाय भोगान् सुखाय जानाति विमूढ़चेता: ।
तान्येव दु:खानि पुन: सुखानि जानाति विद्वानविमूढ़चेता: ॥
यद्यपि समस्त भोग दु:खरूप है तथापि मूढ़चित्तमानव उन्हे दु:ख दूर करने वाला तथा सुख की प्राप्ति करानेवाला समझता है, किन्तु जो विद्वान है, जिनका चित्त मोह से आच्छन्न नहीं हुआ है, वे उन भोगजनित सुखों को भी दु:ख ही मानते है।
हासोsस्थिर्सदर्शनमक्षि युग्म- मत्युज्ज्वलं यत्कलुषम वसाया: ।
कुचादि पीनं पिशितं पनं तत् स्थानं रते: किं नरकं न योषित् ॥
स्त्रियों की हँसी क्या है, हड्डियों का प्रदर्शन । जिसे हम अत्यंत सुंदर नेत्र कहते है, वह मज्जा की कलुषता है और मोटे मोटे कुच आदि घने मांस की ग्रंथियाँ है, अतः पुरुष स्त्री के जिन अङ्गों पर कामुक हो अनुराग करता है, क्या वह नरक की जीती जागती मूर्ति नहीं है?
यानं क्षितौ यानगतश्च देहो देहेsपि चान्य: पुरुषो निविष्ट: ।
ममत्वमुर्व्यां न तथा यथा स्वे देहेsतिमात्रं च विमूढ़तैषा ॥
पृथ्वी पर सवारी चलती है, सवारी पर यह शरीर रहता है और इस शरीर में भी एक दूसरा पुरुष बैठा रहता है, किन्तु पृथ्वी और सवारी में वैसी अधिक ममता नहीं देखी जाती, जैसी कि अपने देह में दृष्टिगोचर होती है। यही मूर्खता है ।
धन्योs सि रे यो वसुधामशत्रु- रेकश्चिरम पालयितासि पुत्र ।
तत्पालनादस्तु सुखोपभोगों धर्मात फलं प्राप्स्यसि चामरत्वम ॥
धरामरान पर्वसु तर्पयेथा: समीहितम बंधुषु पूरयेथा: ।
हितं परस्मै हृदि चिन्तयेथा मनः परस्त्रीषु निवर्तयेथा: ॥
सदा मुरारिम हृदि चिन्तयेथा- स्तद्धयानतोs न्त:षडरीञ्जयेथा: ।
मायां प्रबोधेन निवारयेथा ह्यनित्यतामेव विचिंतयेथा: ॥
अर्थागमाय क्षितिपाञ्जयेथा यशोsर्जनायार्थमपि व्ययेथा:।
परापवादश्रवणाद्विभीथा विपत्समुद्राज्जनमुध्दरेथाः॥
बेटा ! तू धन्य है, जो शत्रुरहित होकर अकेला ही चिरकाल तक इस पृथ्वी का पालन करता रहेगा। पृथ्वी के पालन से तुझे सुखभोगकी प्राप्ति हो और धर्म के फलस्वरूप तुझे अमरत्व मिले। पर्वों के दिन सब को भोजन द्वारा तृप्त करना, बंधु-बांधवों की इच्छा पूर्ण करना, अपने हृदय में दूसरों की भलाई का ध्यान रखना और परायी स्त्रियों की ओर कभी मन को न जाने देना । अपने मन में सदा भगवान का चिंतन करना, उनके ध्यान से अंतःकरण के काम-क्रोध आदि छहों शत्रुओं को जीतना, ज्ञान के द्वारा माया का निवारण करना और जगत की अनित्यता का विचार करते रहना । धन की आय के लिए राजाओं पर विजय प्राप्त करना, यश के लिए धन का सद्व्यय करना, परायी निंदा सुनने से डरते रहना तथा विपत्ति के समुद्र में पड़े हुए लोगों का उद्धार करना ं
आओ संस्कृत की ओर लौटे ॐ
संस्कृत
संस्कृत में 1700 धातुएं, 70 प्रत्यय और 80 उपसर्ग हैं, इनके योग से जो शब्द बनते हैं, उनकी संख्या 27 लाख 20 हजार होती है। यदि दो शब्दों से बने सामासिक शब्दों को जोड़ते हैं तो उनकी संख्या लगभग 769 करोड़ हो जाती है।
संस्कृत इंडो-यूरोपियन लैंग्वेज की सबसे #प्राचीन_भाषा है और सबसे वैज्ञानिक_भाषा भी है। इसके सकारात्मक तरंगों के कारण ही ज्यादातर श्लोक संस्कृत में हैं। #भारत में संस्कृत से लोगों का जुड़ाव खत्म हो रहा है लेकिन विदेशों में इसके प्रति रुझाान बढ़ रहा है।
ब्रह्मांड में सर्वत्र गति है। गति के होने से ध्वनि प्रकट होती है । ध्वनि से शब्द परिलक्षित होते हैं और शब्दों से भाषा का निर्माण होता है। आज अनेकों भाषायें प्रचलित हैं । किन्तु इनका काल निश्चित है कोई सौ वर्ष, कोई पाँच सौ तो कोई हजार वर्ष पहले जन्मी। साथ ही इन भिन्न भिन्न भाषाओं का जब भी जन्म हुआ, उस समय अन्य भाषाओं का अस्तित्व था। अतः पूर्व से ही भाषा का ज्ञान होने के कारण एक नयी भाषा को जन्म देना अधिक कठिन कार्य नहीं है। किन्तु फिर भी साधारण मनुष्यों द्वारा साधारण रीति से बिना किसी वैज्ञानिक आधार के निर्माण की गयी सभी भाषाओं मे भाषागत दोष दिखते हैं । ये सभी भाषाए पूर्ण शुद्धता,स्पष्टता एवं वैज्ञानिकता की कसौटी पर खरी नहीं उतरती। क्योंकि ये सिर्फ और सिर्फ एक दूसरे की बातों को समझने के साधन मात्र के उद्देश्य से बिना किसी सूक्ष्म वैज्ञानिकीय चिंतन के बनाई गयी। किन्तु मनुष्य उत्पत्ति के आरंभिक काल में, धरती पर किसी भी भाषा का अस्तित्व न था।
तो सोचिए किस प्रकार भाषा का निर्माण संभव हुआ होगा?
शब्दों का आधार #ध्वनि है, तब ध्वनि थी तो स्वाभाविक है #शब्द भी थे। किन्तु व्यक्त नहीं हुये थे, अर्थात उनका ज्ञान नहीं था।
प्राचीन ऋषियों ने मनुष्य जीवन की आत्मिक एवं लौकिक उन्नति व विकास में शब्दो के महत्व और शब्दों की अमरता का गंभीर आकलन किया । उन्होने एकाग्रचित्त हो ध्वानपूर्वक, बार बार मुख से अलग प्रकार की ध्वनियाँ उच्चारित की और ये जानने में प्रयासरत रहे कि मुख-विवर के किस सूक्ष्म अंग से ,कैसे और कहाँ से ध्वनि जन्म ले रही है। तत्पश्चात निरंतर अथक प्रयासों के फलस्वरूप उन्होने परिपूर्ण, पूर्ण शुद्ध,स्पष्ट एवं अनुनाद क्षमता से युक्त ध्वनियों को ही भाषा के रूप में चुना । सूर्य के एक ओर से 9 रश्मिया निकलती हैं और सूर्य के चारो ओर से 9 भिन्न भिन्न रश्मियों के निकलने से कुल निकली 36 रश्मियों की ध्वनियों पर संस्कृत के 36 #स्वर बने और इन 36 रश्मियो के पृथ्वी के आठ वसुओ से टकराने से 72 प्रकार की #ध्वनि उत्पन्न होती हैं । जिनसे संस्कृत के 72 व्यंजन बने। इस प्रकार ब्रह्माण्ड से निकलने वाली कुल 108 ध्वनियों पर संस्कृत की #वर्णमाला आधारित है। ब्रह्मांड की इन ध्वनियों के रहस्य का ज्ञान वेदों से मिलता है। इन ध्वनियों को नासा ने भी स्वीकार किया है जिससे स्पष्ट हो जाता है कि प्राचीन ऋषि मुनियों को उन ध्वनियों का ज्ञान था और उन्ही ध्वनियों के आधार पर उन्होने पूर्णशुद्ध भाषा को अभिव्यक्त किया। अतः प्राचीनतम #आर्यभाषा जो #ब्रह्मांडीय_संगीत थी उसका नाम "संस्कृत" पड़ा। संस्कृत – संस् + कृत् अर्थात
#श्वासों_से_निर्मित अथवा साँसो से बनी एवं स्वयं से कृत , जो कि ऋषियों के ध्यान लगाने व परस्पर संपर्क से अभिव्यक्त हुयी।
कालांतर में #पाणिनी ने नियमित #व्याकरण के द्वारा संस्कृत को परिष्कृत एवं सर्वम्य प्रयोग में आने योग्य रूप प्रदान किया। #पाणिनीय_व्याकरण ही संस्कृत का प्राचीनतम व सर्वश्रेष्ठ व्याकरण है। दिव्य व दैवीय गुणों से युक्त, अतिपरिष्कृत, परमार्जित, सर्वाधिक व्यवस्थित, अलंकृत सौन्दर्य से युक्त , पूर्ण समृद्ध व सम्पन्न , पूर्णवैज्ञानिक #देववाणी संस्कृत – मनुष्य की आत्मचेतना को जागृत करने वाली, सात्विकता में वृद्धि , बुद्धि व आत्मबलप्रदान करने वाली सम्पूर्ण विश्व की सर्वश्रेष्ठ भाषा है। अन्य सभी भाषाओ में त्रुटि होती है पर इस भाषा में कोई त्रुटि नहीं है। इसके उच्चारण की शुद्धता को इतना सुरक्षित रखा गया कि सहस्त्रों वर्षो से लेकर आज तक वैदिक मन्त्रों की ध्वनियों व मात्राओं में कोई पाठभेद नहीं हुआ और ऐसा सिर्फ हम ही नहीं कह रहे बल्कि विश्व के आधुनिक विद्वानों और भाषाविदों ने भी एक स्वर में संस्कृत को पूर्णवैज्ञानिक एवं सर्वश्रेष्ठ माना है।
संस्कृत की सर्वोत्तम शब्द-विन्यास युक्ति के, गणित के, कंप्यूटर आदि के स्तर पर नासा व अन्य वैज्ञानिक व भाषाविद संस्थाओं ने भी इस भाषा को एकमात्र वैज्ञानिक भाषा मानते हुये इसका अध्ययन आरंभ कराया है और भविष्य में भाषा-क्रांति के माध्यम से आने वाला समय संस्कृत का बताया है। अतः अंग्रेजी बोलने में बड़ा गौरव अनुभव करने वाले, अंग्रेजी में गिटपिट करके गुब्बारे की तरह फूल जाने वाले कुछ महाशय जो संस्कृत में दोष गिनाते हैं उन्हें कुँए से निकलकर संस्कृत की वैज्ञानिकता का एवं संस्कृत के विषय में विश्व के सभी विद्वानों का मत जानना चाहिए।

काफी शर्म की बात है कि भारत की भूमि पर ऐसे लोग हैं जिन्हें अमृतमयी वाणी संस्कृत में दोष और विदेशी भाषाओं में गुण ही गुण नजर आते हैं वो भी तब जब विदेशी भाषा वाले संस्कृत को सर्वश्रेष्ठ मान रहे हैं ।
अतः जब हम अपने बच्चों को कई विषय पढ़ा सकते हैं तो संस्कृत पढ़ाने में संकोच नहीं करना चाहिए। देश विदेश में हुये कई शोधो के अनुसार संस्कृत मस्तिष्क को काफी तीव्र करती है जिससे अन्य भाषाओं व विषयों को समझने में काफी सरलता होती है , साथ ही यह सत्वगुण में वृद्धि करते हुये नैतिक बल व चरित्र को भी सात्विक बनाती है। अतः सभी को यथायोग्य संस्कृत का अध्ययन करना चाहिए।
आज दुनिया भर में लगभग 6900 भाषाओं का प्रयोग किया जाता है। लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि इन भाषाओं की जननी कौन है?
नहीं?
कोई बात नहीं आज हम आपको दुनिया की सबसे पुरानी भाषा के बारे में विस्तृत जानकारी देने जा रहे हैं।
दुनिया की सबसे पुरानी भाषा है :- संस्कृत भाषा।

संस्कृत भाषा के विभिन्न स्वरों एवं व्यंजनों के विशिष्ट उच्चारण स्थान होने के साथ प्रत्येक स्वर एवं व्यंजन का उच्चारण व्यक्ति के सात ऊर्जा चक्रों में से एक या एक से अधिक चक्रों को निम्न प्रकार से प्रभावित करके उन्हें क्रियाशील – उर्जीकृत करता है :-
मूलाधार चक्र – स्वर 'अ' एवं क वर्ग का उच्चारण मूलाधार चक्र पर प्रभाव डाल कर उसे क्रियाशील एवं सक्रिय करता है।
स्वर 'इ' तथा च वर्ग का उच्चारण स्वाधिष्ठान चक्र को उर्जीकृत करता है।
स्वर 'ऋ' तथा ट वर्ग का उच्चारण मणिपूरक चक्र को सक्रिय एवं उर्जीकृत करता है।
स्वर 'लृ' तथा त वर्ग का उच्चारण अनाहत चक्र को प्रभावित करके उसे उर्जीकृत एवं सक्रिय करता है।
स्वर 'उ' तथा प वर्ग का उच्चारण विशुद्धि चक्र को प्रभावित करके उसे सक्रिय करता है।
ईषत् स्पृष्ट वर्ग का उच्चारण मुख्य रूप से आज्ञा चक्र एवं अन्य चक्रों को सक्रियता प्रदान करता है।
ईषत् विवृत वर्ग का उच्चारण मुख्य रूप से
सहस्त्राधार चक्र एवं अन्य चक्रों को सक्रिय करता है।
इस प्रकार देवनागरी लिपि के प्रत्येक स्वर एवं व्यंजन का उच्चारण व्यक्ति के किसी न किसी उर्जा चक्र को सक्रिय करके व्यक्ति की चेतना के स्तर में अभिवृद्धि करता है। वस्तुतः संस्कृत भाषा का प्रत्येक शब्द इस प्रकार से संरचित (design) किया गया है कि उसके स्वर एवं व्यंजनों के मिश्रण (combination) का उच्चारण करने पर वह हमारे विशिष्ट ऊर्जा चक्रों को प्रभावित करे। प्रत्येक शब्द स्वर एवं व्यंजनों की विशिष्ट संरचना है जिसका प्रभाव व्यक्ति की चेतना पर स्पष्ट परिलक्षित होता है। इसीलिये कहा गया है कि व्यक्ति को शुद्ध उच्चारण के साथ-साथ बहुत सोच-समझ कर बोलना चाहिए। शब्दों में शक्ति होती है जिसका दुरूपयोग एवं सदुपयोग स्वयं पर एवं दूसरे पर प्रभाव डालता है। शब्दों के प्रयोग से ही व्यक्ति का स्वभाव, आचरण, व्यवहार एवं व्यक्तित्व निर्धारित होता है।
उदाहरणार्थ जब 'राम' शब्द का उच्चारण किया जाता है है तो हमारा अनाहत चक्र जिसे ह्रदय चक्र भी कहते है सक्रिय होकर उर्जीकृत होता है। 'कृष्ण' का उच्चारण मणिपूरक चक्र – नाभि चक्र को सक्रिय करता है। 'सोह्म' का उच्चारण दोनों 'अनाहत' एवं 'मणिपूरक' चक्रों को सक्रिय करता है।
वैदिक मंत्रो को हमारे मनीषियों ने इसी आधार पर विकसित किया है। प्रत्येक मन्त्र स्वर एवं व्यंजनों की एक विशिष्ट संरचना है। इनका निर्धारित प्रक्रिया के अनुसार शुद्ध उच्चारण ऊर्जा चक्रों को सक्रिय करने के साथ साथ मष्तिष्क की चेतना को उच्चीकृत करता है। उच्चीकृत चेतना के साथ व्यक्ति विशिष्टता प्राप्त कर लेता है और उसका कहा हुआ अटल होने के साथ-साथ अवश्यम्भावी होता है। शायद आशीर्वाद एवं श्राप देने का आधार भी यही है। संस्कृत भाषा की वैज्ञानिकता एवं सार्थकता इस तरह स्वयं सिद्ध है।
भारतीय शास्त्रीय संगीत के सातों स्वर हमारे शरीर के सातों उर्जा चक्रों से जुड़े हुए हैं। प्रत्येक का उच्चारण सम्बंधित उर्जा चक्र को क्रियाशील करता है। शास्त्रीय राग इस प्रकार से विकसित किये गए हैं जिससे उनका उच्चारण / गायन विशिष्ट उर्जा चक्रों को सक्रिय करके चेतना के स्तर को उच्चीकृत करे। प्रत्येक राग मनुष्य की चेतना को विशिष्ट प्रकार से उच्चीकृत करने का सूत्र (formula) है। इनका सही अभ्यास व्यक्ति को असीमित ऊर्जावान बना देता है।
संस्कृत केवल स्वविकसित भाषा नहीं बल्कि संस्कारित भाषा है इसीलिए इसका नाम संस्कृत है। संस्कृत को संस्कारित करने वाले भी कोई साधारण भाषाविद् नहीं बल्कि #महर्षि_पाणिनि; #महर्षि_कात्यायिनि और योग शास्त्र के प्रणेता महर्षि #पतंजलि हैं। इन तीनों महर्षियों ने बड़ी ही कुशलता से योग की क्रियाओं को भाषा में समाविष्ट किया है। यही इस भाषा का रहस्य है । जिस प्रकार साधारण पकी हुई दाल को शुध्द घी में जीरा; मैथी; लहसुन; और हींग का तड़का लगाया जाता है;तो उसे संस्कारित दाल कहते हैं। घी ; जीरा; लहसुन, मैथी ; हींग आदि सभी महत्वपूर्ण औषधियाँ हैं। ये शरीर के तमाम विकारों को दूर करके पाचन संस्थान को दुरुस्त करती है।दाल खाने वाले व्यक्ति को यह पता ही नहीं चलता कि वह कोई कटु औषधि भी खा रहा है; और अनायास ही आनन्द के साथ दाल खाते-खाते इन औषधियों का लाभ ले लेता है। ठीक यही बात संस्कारित भाषा संस्कृत के साथ सटीक बैठती है। जो भेद साधारण दाल और संस्कारित दाल में होता है ;वैसा ही भेद अन्य भाषाओं और संस्कृत भाषा के बीच है।

यह विश्व की तमाम भाषाओं से संस्कृत भाषा का तुलनात्मक अध्ययन करने से स्पष्ट हो जाता है। चार महत्वपूर्ण विशेषताएँ:- 1. अनुस्वार (अं ) और विसर्ग (अ:): संस्कृत भाषा की सबसे महत्वपूर्ण और लाभदायक व्यवस्था है, अनुस्वार और विसर्ग। पुल्लिंग के अधिकांश शब्द विसर्गान्त होते हैं -यथा- राम: बालक: हरि: भानु: आदि। नपुंसक लिंग के अधिकांश शब्द अनुस्वारान्त होते हैं-यथा- जलं वनं फलं पुष्पं आदि।
विसर्ग का उच्चारण और कपालभाति प्राणायाम दोनों में श्वास को बाहर फेंका जाता है। अर्थात् जितनी बार विसर्ग का उच्चारण करेंगे उतनी बार कपालभाति प्रणायाम अनायास ही हो जाता है। जो लाभ कपालभाति प्रणायाम से होते हैं, वे केवल संस्कृत के विसर्ग उच्चारण से प्राप्त हो जाते हैं।उसी प्रकार अनुस्वार का उच्चारण और भ्रामरी प्राणायाम एक ही क्रिया है । भ्रामरी प्राणायाम में श्वास को नासिका के द्वारा छोड़ते हुए भवरे की तरह गुंजन करना होता है और अनुस्वार के उच्चारण में भी यही क्रिया होती है। अत: जितनी बार अनुस्वार का उच्चारण होगा , उतनी बार भ्रामरी प्राणायाम स्वत: हो जायेगा । जैसे हिन्दी का एक वाक्य लें- " राम फल खाता है"इसको संस्कृत में बोला जायेगा- " राम: फलं खादति"=राम फल खाता है ,यह कहने से काम तो चल जायेगा ,किन्तु राम: फलं खादति कहने से अनुस्वार और विसर्ग रूपी दो प्राणायाम हो रहे हैं। यही संस्कृत भाषा का रहस्य है। संस्कृत भाषा में एक भी वाक्य ऐसा नहीं होता जिसमें अनुस्वार और विसर्ग न हों। अत: कहा जा सकता है कि संस्कृत बोलना अर्थात् चलते फिरते योग साधना करना होता है ।
2.शब्द-रूप:-संस्कृत की दूसरी विशेषता है शब्द रूप। विश्व की सभी भाषाओं में एक शब्द का एक ही रूप होता है,जबकि संस्कृत में प्रत्येक शब्द के 25 रूप होते हैं*। जैसे राम शब्द के निम्नानुसार 25 रूप बनते हैं- यथा:- रम् (मूल धातु)-राम: रामौ रामा:;रामं रामौ रामान् ;रामेण रामाभ्यां रामै:; रामाय रामाभ्यां रामेभ्य: ;रामात् रामाभ्यां रामेभ्य:; रामस्य रामयो: रामाणां; रामे रामयो: रामेषु ;हे राम ! हे रामौ ! हे रामा : ।ये 25 रूप सांख्य दर्शन के 25 तत्वों का प्रतिनिधित्व करते हैं।
जिस प्रकार पच्चीस तत्वों के ज्ञान से समस्त सृष्टि का ज्ञान प्राप्त हो जाता है, वैसे ही संस्कृत के पच्चीस रूपों का प्रयोग करने से आत्म साक्षात्कार हो जाता है और इन 25 तत्वों की शक्तियाँ संस्कृतज्ञ को प्राप्त होने लगती है। सांख्य दर्शन के 25 तत्व निम्नानुसार हैं -आत्मा (पुरुष), (अंत:करण 4 ) मन बुद्धि चित्त अहंकार, (ज्ञानेन्द्रियाँ 5) नासिका जिह्वा नेत्र त्वचा कर्ण, (कर्मेन्द्रियाँ 5) पाद हस्त उपस्थ पायु वाक्, (तन्मात्रायें 5) गन्ध रस रूप स्पर्श शब्द,( महाभूत 5) पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश।
3.द्विवचन :- संस्कृत भाषा की तीसरी विशेषता है द्विवचन। सभी भाषाओं में एक वचन और बहुवचन होते हैं जबकि संस्कृत में द्विवचन अतिरिक्त होता है। इस द्विवचन पर ध्यान दें तो पायेंगे कि यह द्विवचन बहुत ही उपयोगी और लाभप्रद है। जैसे :- राम शब्द के द्विवचन में निम्न रूप बनते हैं:- रामौ , रामाभ्यां और रामयो:। इन तीनों शब्दों के उच्चारण करने से योग के क्रमश: मूलबन्ध ,उड्डियान बन्ध और जालन्धर बन्ध लगते हैं, जो योग की बहुत ही महत्वपूर्ण क्रियायें हैं।
4. सन्धि :- संस्कृत भाषा की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता है सन्धि। संस्कृत में जब दो शब्द पास में आते हैं तो वहाँ सन्धि होने से स्वरूप और उच्चारण बदल जाता है। उस बदले हुए उच्चारण में जिह्वा आदि को कुछ विशेष प्रयत्न करना पड़ता है।ऐसे सभी प्रयत्न एक्यूप्रेशर चिकित्सा पद्धति के प्रयोग हैं।"इति अहं जानामि" इस वाक्य को चार प्रकार से बोला जा सकता है, और हर प्रकार के उच्चारण में वाक् इन्द्रिय को विशेष प्रयत्न करना होता है।
यथा:- 1 इत्यहं जानामि। 2 अहमिति जानामि। 3 जानाम्यहमिति । 4 जानामीत्यहम्। इन सभी उच्चारणों में विशेष आभ्यंतर प्रयत्न होने से एक्यूप्रेशर चिकित्सा पद्धति का सीधा प्रयोग अनायास ही हो जाता है। जिसके फल स्वरूप मन बुद्धि सहित समस्त शरीर पूर्ण स्वस्थ एवं निरोग हो जाता है। इन समस्त तथ्यों से सिद्ध होता है कि संस्कृत भाषा केवल विचारों के आदान-प्रदान की भाषा ही नहीं ,अपितु मनुष्य के सम्पूर्ण विकास की कुंजी है। यह वह भाषा है, जिसके उच्चारण करने मात्र से व्यक्ति का कल्याण हो सकता है। इसीलिए इसे #देवभाषा और अमृतवाणी कहते हैं। संस्कृत भाषा का व्याकरण अत्यंत परिमार्जित एवं वैज्ञानिक है।
संस्कृत के एक वैज्ञानिक भाषा होने का पता उसके किसी वस्तु को संबोधन करने वाले शब्दों से भी पता चलता है। इसका हर शब्द उस वस्तु के बारे में, जिसका नाम रखा गया है, के सामान्य लक्षण और गुण को प्रकट करता है। ऐसा अन्य भाषाओं में बहुत कम है। पदार्थों के नामकरण ऋषियों ने वेदों से किया है और वेदों में यौगिक शब्द हैं और हर शब्द गुण आधारित हैं ।
इस कारण संस्कृत में वस्तुओं के नाम उसका गुण आदि प्रकट करते हैं। जैसे हृदय शब्द। हृदय को अंगेजी में हार्ट कहते हैं और संस्कृत में हृदय कहते हैं।
अंग्रेजी वाला शब्द इसके लक्षण प्रकट नहीं कर रहा, लेकिन संस्कृत शब्द इसके लक्षण को प्रकट कर इसे परिभाषित करता है। #बृहदारण्यकोपनिषद 5.3.1 में हृदय शब्द का अक्षरार्थ इस प्रकार किया है- तदेतत् र्त्यक्षर हृदयमिति, हृ इत्येकमक्षरमभिहरित, द इत्येकमक्षर ददाति, य इत्येकमक्षरमिति।
अर्थात हृदय शब्द हृ, हरणे द दाने तथा इण् गतौ इन तीन धातुओं से निष्पन्न होता है। हृ से हरित अर्थात शिराओं से अशुद्ध रक्त लेता है, द से ददाति अर्थात शुद्ध करने के लिए फेफड़ों को देता है और य से याति अर्थात सारे शरीर में रक्त को गति प्रदान करता है। इस सिद्धांत की खोज हार्वे ने 1922 में की थी, जिसे हृदय शब्द स्वयं लाखों वर्षों से उजागर कर रहा था ।
संस्कृत में संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण और क्रिया के कई तरह से शब्द रूप बनाए जाते, जो उन्हें व्याकरणीय अर्थ प्रदान करते हैं। अधिकांश शब्द-रूप मूल शब्द के अंत में प्रत्यय लगाकर बनाए जाते हैं। इस तरह यह कहा जा सकता है कि संस्कृत एक बहिर्मुखी-अंतःश्लिष्टयोगात्मक भाषा है। संस्कृत के व्याकरण को महापुरुषों ने वैज्ञानिक स्वरूप प्रदान किया है। संस्कृत भारत की कई लिपियों में लिखी जाती रही है, लेकिन आधुनिक युग में देवनागरी लिपि के साथ इसका विशेष संबंध है। #देवनागरी_लिपि वास्तव में संस्कृत के लिए ही बनी है! इसलिए इसमें हरेक चिन्ह के लिए एक और केवल एक ही ध्वनि है।
देवनागरी में 13 स्वर और 34 व्यंजन हैं। संस्कृत केवल स्वविकसित भाषा नहीं, बल्कि #संस्कारित_भाषा भी है, अतः इसका नाम संस्कृत है। केवल संस्कृत ही एकमात्र भाषा है, जिसका नामकरण उसके बोलने वालों के नाम पर नहीं किया गया है। संस्कृत को संस्कारित करने वाले भी कोई साधारण भाषाविद नहीं, बल्कि महर्षि पाणिनि, महर्षि कात्यायन और योगशास्त्र के प्रणेता महर्षि पतंजलि हैं।
विश्व की सभी भाषाओं में एक शब्द का प्रायः एक ही रूप होता है, जबकि संस्कृत में प्रत्येक शब्द के 27 रूप होते हैं। सभी भाषाओं में एकवचन और बहुवचन होते हैं, जबकि संस्कृत में द्विवचन अतिरिक्त होता है। संस्कृत भाषा की सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता है संधि। संस्कृत में जब दो अक्षर निकट आते हैं, तो वहां संधि होने से स्वरूप और उच्चारण बदल जाता है। इसे शोध में कम्प्यूटर अर्थात कृत्रिम बुद्धि के लिए सबसे उपयुक्त भाषा सिद्ध हुई है और यह भी पाया गया है कि संस्कृत पढ़ने से स्मरण शक्ति बढ़ती है।
"संस्कृत ही एक मात्र साधन है, जो क्रमशः अंगुलियों एवं जीभ को लचीला बनाती है।" इसके अध्ययन करने वाले छात्रों को गणित, विज्ञान एवं अन्य भाषाएं ग्रहण करने में सहायता मिलती है। वैदिक ग्रंथों की बात छोड़ भी दी जाए, तो भी संस्कृत भाषा में साहित्य की रचना कम से कम छह हजार वर्षों से निरंतर होती आ रही है। "संस्कृत केवल एक भाषा मात्र नहीं है, अपितु एक विचार भी है।" "संस्कृत एक भाषा मात्र नहीं, बल्कि एक संस्कृति है और संस्कार भी है।" संस्कृत में विश्व का कल्याण है, शांति है, सहयोग है और #वसुधैव_कुटुंबकम् की भावना भी !















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