Tuesday, 29 August 2017

श्राद्ध- एक ऋषि परम्परा

श्राद्ध- एक ऋषि परम्परा
श्राद्ध का स्वरूप पृथ्वीचन्द्रयोदय में लिखा हैं कि, जो भोजन अपने को रूचता है वह प्रेत और पितरों के निमिŸा जब श्रद्धा से दिया जाय तब उसे श्राद्ध कहते हैं। मरीचि ने कहा है किः-
श्रद्धया दीयते यत्ऱ तच्छ्राद्धं परिकीर्तितम्।।
श्राद्ध मूलतः उन के लिए किया जाता है जो पितृ रूप में हैं। इसी संदर्भ में यह भी निरूपित किया गया हैं कि नश्वर स्थूल शरीर नष्ट होने पर भी उस योनि द्वारा संपादित किया हुआ कर्म नष्ट नहीं होता। हमारे सूक्ष्म शरीर में कर्म का प्रतिबिम्ब रह जाता हैं, यह सूक्ष्म शरीर बीज रूप से कर्म संस्कार स्मृतियों को लेकर एक स्थूल शरीर से दूसरे स्थूल शरीर में प्रवेश करता हैं। कठोपनिषद् में यमराज नचिकेता को कहते हैंः-
योनिमन्ये प्रपद्यन्ते शरीरत्वाय देहिनः। स्थाणुमन्यंऽनुसंयन्ति यथाकर्म यथाश्रुतम।।
यमराज कहते हैं, हे नचिकेता अपने-अपने शुभाशुभ कर्मो के अनुसार और शास्त्र, गुरू, संग, शिक्षा, ज्ञान, विवेक आदि के द्वारा देखे-सुने भावों से निर्मित अन्तः कालीन वासना के अनुसार मरने के पश्चात् कितने ही जीवात्मा दूसरा शरीर धारण करने के लिए वीर्य के साथ माता की योनि में प्रवेश कर जाते हैं। इनमे जिनके पुण्य-पाप समान होते हैं, वे मनुष्य का , जिनके पुण्य कम व पाप अधिक होते हैं वे पशु-पक्षी का शरीर धारण करके उत्पन्न होते हैं, और कितने ही, जिनके पाप अत्यधिक होते हैं वे स्थावर भाव को प्राप्त होते हैं अर्थात् वृक्ष, लता, तृण, पर्वत आदि शरीर में उत्पन्न होते हैं।
अलग-अलग ग्रन्थों में श्राद्ध के विभिन्न प्रकार बताये हैं। पर महर्षि विश्वामित्र ने प्रमुखतया बारह प्रकार के श्राद्धों का उल्लेख किया हैं, जो निम्न प्रकार हैं।
नित्यः-जो नित्य किया जाता हैं, इसमे विश्वदेव का आह्नान नहीं किया जाता हैं। असमर्थ मनुष्य जल से भी कर सकता हैं।
नैमिŸिाकः-यह एकोदिष्ट होता हैं। इसमे भी विश्वदेव का आह्नान नहीं किया जाता हैं। इसमे एक, तीन, पाँच ़ ़ ़ अयुग्म ब्राह्मणों को भोजन कराया जाता हैं।
काम्यः-किसी विशेष कामना से किया हुआ श्राद्ध काम्य श्राद्ध कहलाता हैं।
वृद्धिः-मांगलिक अवसरों पर पितरो की प्रसन्नता हेतु किया गया श्राद्ध, वृद्धि श्राद्ध कहलाता हैं।  सपिंडीः-इसमे गंध, तिल व जल से युक्त चार पात्र अघ्र्य के निमिŸा बनावें। पितरों के पात्रों में प्रेत के पात्र जल को  येस माना, समनसा इन दो मंत्रों से सींचन करें इसको सपिंडन कहते हैं। शेष कर्म नित्य श्राद्ध के समान होता हैं।
पार्वणः-यह संक्रान्ति, अष्टमी, चतुर्दशी, पूर्णिमा व अमावस्या के दिन किया जाता हैं।
गोष्ठीः-विष्णुपुराण में लिखा है कि , बहुत विद्वानों को सुख व पितृ तृप्ति हेतु समूह रूप में जो किया जाय उसे गोष्ठी श्राद्ध कहा जाता हैं।
शुद्धिः-किसी भी कार्य के पूर्व शुद्धि हेतु किया गया प्रायश्चित कर्म या ब्राह्मणों को कराया गया भोजन शुद्धि श्राद्ध कहा जाता हैं।
कर्मांगः-गर्भाधान, सीमंत, पुंसवन आदि कर्मो के अंगभूत होने से पितरों के प्रसन्नता हेतु किया जाता हैं।
दैविकः-देवों की प्रसन्नता हेतु किया जाता हैं, उसे दैविक श्राद्ध कहते हैं।  
यात्राः-सफल तीर्थ यात्रा के उद्देश्य से किया जाता हैं, उसे यात्रा श्राद्ध कहते हैं।
पुष्टिः-शरीर को पुष्ट रखने के लिए या धन वृद्धि हेतु किया जाय उसे पुष्टि श्राद्ध हैं।
इनके अतिरिक्त निम्न श्राद्ध और भी हैं, जो ज्यादातर देखने में आते हैं।
एकोदिष्ट श्राद्धः-यह केवल एक प्रमुख पितर के निमिŸा किया जाता हैं।
महालय श्राद्धः-यह श्राद्ध आश्विन मास के कन्या गत भानु में कृष्ण पक्ष में किया जाता हैं। मुख्य रूप से वर्तमान में यही श्राद्ध देखने को मिलता हैं।
श्राद्ध के देशः-
प्रभास खण्ड में लिखा हैं कि, अपने घर में श्राद्ध के दाता को तीर्थ से आठ गुणा पुण्य प्राप्त होता हैं।
स्कन्द पुराण में लिखा हैं कि, तुलसी के वन की छाया जहां-जहां हो वहां-वहां पितरों की तृप्ति के निमिŸा श्राद्ध करें।
त्रिस्थलीसेतु में वायुपुराण का वाक्य हैं कि, शमी के पŸो के समान भी गयाशिर में जो पिंड देता है, वह सात गोत्र और एक सौ एक कुल का उद्धार करता हैं, सात गोत्र यह हैं, माता, पिता, भार्या, भगिनी, पुत्री, पिता व माता की भगिनी इन सात गोत्रों के 101 पितरो को कुल कहते हैं।
श्रद्धा से किया गया श्राद्ध पितरों को उसी रूप में मिलता है जिस रूप या योनि में पितृ होते हैं। जैसे:-यदि पितृ शुभ कर्म से देवता हुआ है तो उस देने वाले का अन्न अमृत होकर उसे प्राप्त होता हैं, यदि गन्धर्व हो तो भोग रूप से, पशु हो तो तृण रूप से, नाग होने पर वायु रूप से, यक्ष होने पर पान रूप से, राक्षस हो तो आमिष रूप से, दनुज हो तो मद्य रूप से, प्रेत हो तो रूधिरोधक, मनुष्य हो तो अन्नपानादि रूप से मिलता हैं।
अतः प्रत्येक गृहस्थी को पितरों के निमिŸा यथा शक्ति श्रद्धा से श्राद्ध करके पितरों को तृप्त करना चाहिएं।

श्राद्ध  5 सितम्बर  मंगलवार से 20 सितम्बर बुधवार तक।
5 को पूर्णिमा श्राद्ध
6 को प्रतिपदा
7 को द्वितीया
8 को तृतीया
9 चतुर्थी
10 को पंचमी
11 को षष्ठी
12 को सप्तमी
13 को अष्टमी श्राद्ध
14 को सौभाग्यवती नवमी श्राद्ध
15 दशमी
16 को एकादशी
17 को द्वादशी व संयासीनां श्राद्ध
18 चतुर्दशी व शस्त्र से मृत्यु प्राप्त का श्राद्ध
19 सर्वपितृ अमावस्या श्राद्ध
20 को मातामह श्राद्ध

Tuesday, 15 August 2017

वनस्पति से ग्रह शांति

वनस्पति से ग्रह शांति

संसार में मानव मात्र यही चाहता कि वह हमेशा सुखी रहे पर ऐसा हमेशा नहीं होता हैं और व्यक्ति किसी न किसी उलझनों में जूझता ही रहता हैं। ज्योतिष शास्त्र कहता है कि यह सब ग्रहों का असर है एवं उसका निदान ढूंढा जा सकता हैं।
श्री दर्शन पंचांग कर्Ÿाा शास्त्री प्रवीण त्रिवेदी कहते है कि जिस प्रकार पृथ्वी की गुरूत्वाकर्षण शक्ति अन्य वस्तुआंे को अपनी ओर खिचती है, चन्द्रमा की शक्ति से पृथ्वी पर स्थित समन्दर में ज्वार भाटा देखा जा सकता है। ठीक वैसी ही सभी ग्रहों की अपनी अपनी गुरूत्वाकर्षण और चुम्बकीय शक्ति होती है जिसका असर एक दूसरे पर होने से ब्रह्माण्ड के सभी पिण्ड अपनी निश्चित परिधि या स्थान पर स्थित रहते है, वही गुरूत्वाकर्षण एवं चुम्बकीय तरंगों का प्रभाव जब पृथ्वी पर पड़ता है, उसके समन्दरों पर पड़ता है तो वही प्रभाव उस पर निवास करने वाले प्राणि मात्र पर पड़ता है।
त्रिवेदी कहते है कि उन्हीं तरंगों का मानव पर पड़ने वाले प्रभाव या असर को बताने वाला शास्त्र ज्योतिष विज्ञान कहलाता है। जिसमें सर्वाधिक असर करने वाले हमारी पृथ्वी के नजदीकी पिण्डों में से ग्रहों व नक्षत्रों के आधार व प्रभाव को जानने हेतु हमारें तत्वज्ञों ने ज्योतिष शास्त्र का निर्माण किया जिसमें जब शिशु का जन्म होता है उस समय आकाश में रहे हुए ग्रहों की स्थिति बताने वाले चक्र को कुण्डली का रूप दिया गया।
इसी जन्म कुण्डली में स्थित ग्रहों का मानव पर अच्छे एवं बुरे दोनों ही प्रकार के प्रभाव को दर्शाने हेतु फलित ज्योतिष बनाया गया। जिसके अनुसार जब कोई ग्रह आप पर प्रतिकूल असर डालता है तो उसके निदान हेतु कई प्रकार के उपचार बताये गए है जिसमें वनस्पतियों द्वारा ग्रह शांति को इस प्रकार किया जा सकता है-
सूर्य ग्रह की शांति हेतु बेल की जड़ दाहिनें हाथ में गुलाबी धागे में बांधकर रविवार के दिन पुष्य आदि अच्छे नक्षत्र व समय में धारण करें।
चन्द्र ग्रह की शांति हेतु खिरनी या सत्यानाशी की जड़ दाहिनें हाथ में सफेद धागे में बांधकर सोमवार के दिन पुष्य आदि अच्छे नक्षत्र व समय में धारण करें।
मंगल ग्रह की शांति हेतु अनन्त मूल या नागजिन्दा की जड़ दाहिनें हाथ में लाल धागे में बांधकर मंगलवार के दिन पुष्य आदि अच्छे नक्षत्र व समय में धारण करें।
बुध ग्रह की शांति हेतु विधारा या तांबेसर की जड़ दाहिनें हाथ में हरे धागे में बांधकर बुधवार के दिन पुष्य आदि अच्छे नक्षत्र व समय में धारण करें।
बृहस्पति ग्रह की शांति हेतु मोगरा या केले की जड़ दाहिनें हाथ में पीले धागे में बांधकर गुरूवार के दिन पुष्य आदि अच्छे नक्षत्र व समय में धारण करें।
शुक्र ग्रह की शांति हेतु सप्तपर्णी या सरपंखा की जड़ दाहिनें हाथ में श्वेत चमकीले धागे में बांधकर शुक्रवार के दिन पुष्य आदि अच्छे नक्षत्र व समय में धारण करें। इसमें सप्तपर्णी की जड़ शनिवार को धारण करने तो ज्यादा उŸाम रहेगा।
शनि ग्रह की शांति हेतु बिच्छू की जड़ दाहिनें हाथ में काले धागे में बांधकर शनिवार के दिन पुष्य आदि अच्छे नक्षत्र व समय में धारण करें।
राहु ग्रह की शांति हेतु श्वेत चंदन की जड़ दाहिनें हाथ में नीले धागे में बांधकर बुधवार के दिन पुष्य आदि अच्छे नक्षत्र व समय में धारण करें।
केतु ग्रह की शांति हेतु असगंध की जड़ दाहिनें हाथ में आसमानी धागे में बांधकर गुरूवार के दिन पुष्य आदि अच्छे नक्षत्र व समय में धारण करें।
जो व्यक्ति ग्रह दोष हेतु महंगे खर्च नहीं कर पाते उनके लिए यह उपाय कारगर सिद्ध हो सकता है।

Thursday, 15 June 2017

शनि वक्री होकर वृश्चिक राशि में

शनि वक्री होकर वृश्चिक राशि में बुधवार, 21 जून 2017 को प्रातः 5.03 पर प्रवेश करेगा, उस समय चंद्र मेष राशि पर होने से विभिन्न राशि के जातकों पर निम्न प्रभाव पड़ेगा।
तुला राशि के जातकों के ताम्र पाद पर पनोती लक्ष्मीदायक रहेगी।
वृश्चिक राशि के जातकों के सुवर्ण पाद पर पनोती चिंता कारक रहेगी।
धनु राशि के जातकों के चांदी के पाद पर पनोती धनदायक रहेगी।
मेष राशि के जातकों के सुवर्ण पाद पर पनोती चिंताकारक रहेगी।
सिंह राशि के जातकों के चांदी के पाद पर पनोती धनदायक रहेगी।

Saturday, 6 May 2017

मंगल से भय की आवश्यकता नहीं।

मंगल से भय की आवश्यकता नहीं।
सामान्यतः लोगों की जुबान पर यह सुनने को मिलता है कि अमुक वर या अमुक कन्या मंगलिक होने से विवाह सम्बन्ध देख कर करना होगा अन्यथा मुसिबत खड़ी हो सकती है। इस कठिनाई से निजात पाने हेतु प्रथम यह समझ लेना आवश्यक है कि मंगलिक क्या होता है एवं कैसे देखा जाता है।
किसी भी पुरूष या महिला की जन्म कुण्डली में प्रथम, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम व द्वादश भाव में यदि मंगल स्थित हो तो उसे मंगलिक कहा जाता है। यह स्थिति वर के हो तो उसे पाघड़ियें मंगल कहते है तथा कन्या की कुण्डली में स्थिति हो तो उसे चूनड़ियें मंगल की उपमा दी जाती है। इस स्थिति को और भी विस्तार रूप में देखने पर जन्म कुण्डली के अलावा चन्द्र या शुक्र कुण्डली अर्थात् जहां चन्द्र व शुक्र स्थित हो उस भाव को लग्न मानकर भी 1-4-7-8-12 भावों में मंगल हो तो उसे मंगलिक माना जाता है।
ज्योतिषियों एवं लोगों में मंगल को लेकर धारणा ?
सामान्यतः यह मंगल को लेकर यह धारण बनी हुई हैं कि मंगलिक होने का सीधा अर्थ यह है कि वर के मंगल दोष हो तो विदुर होगा एवं कन्या के हो तो विधवा होगी। परन्तु दोनों ही मंगलिक हो तो एक दूसरे के दोष काट देने से दोनों का जीवन सुखमय होगा।
क्या वास्तव में ऐसा होता है ?
नहीं! ऐसे कई लोग होंगे जिन्होने कुण्डली मिलान करके विवाह किया होगा पर उनमें सामंजस्य की कमी है। दोनों मंगलिक होने के बावजूद भी उनमें तनाव, तलाक व विदुर आदि दोष की स्थितियां देखी गई हैं। परन्तु बिना कुण्डली मिलान के भी विवाह करने वालों या एक मंगलिक व दूसरें के मंगलिक नहीं होने की स्थिति में भी प्रेम व दीर्घायु योग देखे गए है। परन्तु लोगों व ज्योतिषियों में जो आम धारणा मंगल को लेकर बनी हुई है उसे सही कहना सार्थक नहीं होगा। इसका निर्णय आप स्वयं कर सकते हो, भले ही आप ज्योतिष का ज्ञान नहीं रखते हो पर मेरे निम्न प्रश्नोंं या बिन्दुओं पर आपको अध्ययन करना होगा।
1 क्या मंगल लग्न भाव में वहीं फल देगा जो चतुर्थ भाव में देगा ?
2 क्या मंगल 1-4-7-8-12 भावों में किसी भी भाव में होने पर विदुर या विधवा योग ही बनाता हैं ?
3 क्या मंगल मेष, वृषभ आदि किसी भी लग्न में एक जैसा ही फल देने वाला है ?
4 क्या मंगल मेष आदि किसी भी राशि पर 1-4-7-8-12 भावों में एक जैसा फल देगा ?
5 क्या मंगल अकेला हो, किसी एक ग्रह के साथ हो, दो, तीन, चार, पांच, छः या सात ग्रहों के साथ होकर 1-4-7-8-12 भावों में होने पर सिर्फ एक ही फल देगा कि मानव विदुर या विधवा होगा।
6 क्या मंगल उच्च, नीच, अस्त, उदय होने पर एक जैसा ही फल देगा ?
7 क्या मंगल एक डीग्री, दस डीग्री या पच्चीस डीग्री पर होने पर भी एक ही फल देगा ?
8 क्या मंगल बाल, युवा या वृद्ध होने पर भी एक ही फल देगा ?
9 क्या मंगल स्वगृही, मित्रक्षेत्री, शत्रु क्षेत्री में से किसी भी स्थिति में होने पर एक ही फल देगा ?
10 क्या मंगल मार्गी या वक्री होने पर भी एक जैसा ही फल देगा ?
11 क्या मंगल नवमांश में किस स्थिति में है, उसका कोई प्रभाव नहीं होगा ?
        उपर्युक्त सभी प्रश्नों का उŸार आता है-नहीं।
सामान्य व्यक्ति भी इस बात से सहमत नहीं होगा कि सभी प्रकार की स्थितियों में मंगल का एक ही अर्थ निकालकर कि जातक विदुर या विधवा होगा कहना समुचित नहीं है। इस प्रकार स्पष्ट होता है कि 1-4-7-8-12 भावों में किसी भी भाव व स्थिति में स्थित मंगल को मांगलिक बताकर लोगों में भय की स्थापना करना कितना अनुचित होगा।                    
                                                                

Saturday, 22 April 2017

अक्षय तृतीया

भीनमाल।
आगामी 28 अप्रेल, शुक्रवार को अक्षय तृतीया है। भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि अक्षय तृतीया परम पुण्य तिथि है। शास्त्री प्रवीण त्रिवेदी ने बताया कि इस दिन दोपहर से पूर्व स्नान, जप, तप, होम, स्वाध्याय, पितृ तर्पण तथा दान करने वाला महाभाग अ़़़क्षय पुण्यफल का भागी होता है।
इस दिन समुद्र या गंगा स्नान करना चाहिए। प्रातः पंखा, चावल, नमक, घी, शक्कर, सब्जी, इमली, फल, वस्त्र, मटका और खरबूजे के दान करके ब्राह्मणों को भोजन व दक्षिणा देनी चाहिए। इस दिन सत्तू अवश्य खाना चाहिए। इस दिन नवीन वस्त्र, आभूषण बनवाना या धारण करना चाहिए।
त्रिवेदी ने बताया कि इस दिन से सतयुग व त्रेतायुग का प्रारंभ माना जाता है। इसी दिन चारों धाम में से एक बद्रीनारायण के पट खुलते है। नर-नारायण ने इसी दिन अवतार लिया था।  वेद व्यास एवं गणेश द्वारा महाभारत ग्रंथ के लेखन का प्रारंभ दिन है। महाभारत के युद्ध का समापन दिन है। परशुराम का अवतरण भी इसी दिन हुआ था। द्वापर युग का समापन दिन है। माता गंगा का पृथ्वी पर आगमन दिन है। हयग्रीव का अवतार भी इसी दिन हुआ था। ब्रह्मा के पुत्र अक्षय कुमार का आविर्भाव अर्थात् उदीयमान दिन है।  वृंदावन के बांके बिहारी के मंदिन में केवल इसी दिन श्रीविग्रह के चरण-दर्शन होते है, अन्यथा पूरे वर्ष वस्त्रों से ढंके रहते है।

Wednesday, 22 March 2017

प्रतिपदा निर्णय
अमायुक्ता न कर्तव्या प्रतिवत्पूजने मम।
मुहूर्तमात्रा कर्तव्या द्वितीयादिगुणान्विता।।
अमावस्या से युक्त प्रतिपदा में पूजन न करे, मुहूर्त मात्र भी द्वितीया से युक्त करें।
अमायुक्ता न कर्तव्या प्रतिपच्चण्डिकार्चने।
आदि आदि लिखा है कि अमावस्या से युक्त प्रतिपदा ग्रहण न करे। द्वितीया से युक्त ही प्रतिपदा सुख देने वाली है।
परन्तु दूसरे दिन प्रतिपदा मुहूर्त मात्र होनी चाहिए।
इस नव वर्ष में 29 मार्च को प्रतिपदा सूर्योदय को स्पर्श भी नहीं करती है इसलिए अमायुक्ता ही ग्रहण करनी होगी।
जिसका प्रमाण
अमायुक्ता प्रकर्तव्या, इत्यादिनि नृसिंहप्रसादे वचनानि।
अन्य
परदिने प्रतिपदोत्यन्तासत्त्वे तु दर्शयुताsपि पूर्वैव ग्राह्या।
दूसरे दिन प्रतिपदा अत्यंत सर्वथा न रहने पर अमायुक्त भी पूर्वा ही ग्रहण करें।

Monday, 20 February 2017

महाशिवरात्रि

महाशिवरात्रि 24 फरवरी को है।
गरूड पुराण के अनुसार शिवरात्रि से एक दिन पूर्व त्रयोदशी तिथि में शिवजी की पूजा करनी चाहिए और और व्रत का संकल्प लेना चाहिए । इसके उपरांत चतुर्दशी तिथि को निराहार रहना चाहिए। महाशिवरात्रि के दिन भगवान शिव को गंगा जल चढ़ाने से विशेष पुण्य प्राप्त होता है।   महाशिवरात्रि के दिन भगवान शिव की मूर्ति या शिवलिंग को पंचामृत से स्नान कराकर ओम नमः शिवाय मंत्र से पूजा करनी चाहिए। इसके बाद रात्रि के चारो प्रहर में शिव जी की पूजा करनी चाहिए और अगले दिन प्रातः काल ब्राह्मणों को दान दक्षिणा देकर व्रत का पारणा करना चाहिए।
भगवान शिव की पूजा अर्चन करने के लिए यह दिन सबसे शुभ होता है। वैसे प्रतिमास शिवरात्रि आती है, परन्तु सबसे बड़ी शिवरात्रि को महाशिवरात्रि कहते है। सूर्य के मकर राशि में प्रवेश के बाद महाशिवरात्रि का आगमन होता है। भगवान शिव पंचमुखी होकर 10 भुजाओं से युक्त है एवं पृथ्वी, आकाश और पाताल तीनों लोकांे के एक मात्र स्वामी है। शिव का ज्योतिर्मय रूप भौतिकी शिव के नाम से जाना जाता है जिसकी हम सभी आराधना करते है। ज्योतिर्मय शिव पंचतत्वों से निर्मित है। भौतिकी शिव का वैदिक रीति से अभिषेक एवं स्तुति आदि से स्तवन किया जाता है। तत्वों के आधार पर शिव परिवार के वाहन सुनिश्चित है। शिव स्वयं पंचतत्व मिश्रित जल प्रधान है। इनका वाहन नंदी आकाश तत्व की प्रधानता लिए हुए है। शिव दर्शन करने के पूर्व नंदीदेव के सींगों के बीच में से शिव दर्शन करते है। क्योंकि शिव ज्योतिर्मय भी है और सीधे दर्शन करने पर उनका तेज सहन नहीं किया जा सकता है। नंदी देव आकाश तत्व होने से वे शिव के तेज को सहन करने की पूर्ण क्षमता रखते है। माता गौरी अग्नि तत्व की प्रधानता लिए हुए है। इनका वाहन सिंह भी अग्नितत्व है। स्वामी कार्तिकेय वायु तत्व है जिनका वाहन मयूर भी वायुतत्व है। गणेश पृथ्वी तत्व एवं इनका वाहन मूषक भी पृथ्वी तत्व है।
भगवान शिव को शंख से जल, केतकी का पुष्प तथा कंकु नहीं चढ़ाना चाहिए। परन्तु शिवरात्रि को अर्धरात्रि के समय सूखा कंकु चढ़ाया जा सकता है। हरतालिका को केतकी का पुष्प।

शिव जी के विभिन्न द्रव्यों से अभिषेक के फल
जल से वृष्टि होती है।
कुशोदक से व्याधि शान्ति होती है।
इक्षुरस से श्री की प्राप्ति
दुध से पुत्र प्राप्ति
जलधारा से ज्वर शान्ति
वंश वृद्धि के लिए घृतधारा
शर्करा युक्त दुध से जड़बुद्धि का विकास
सरसों के तेल से शत्रु नाश
मधु से राज्य प्राप्ति


शिव नीलकण्ठ क्यों बनें

भगवान आशुतोष को महादेव के नाम से जाना जाता है। क्योंकि वे देवों के देव है। तथा यह नाम उन्हें वैसे ही प्राप्त नहीं हुआ होगा। इसके लिए कोई न कोई कारण अवश्य रहा होगा। उन्हीं श्रृंखला में एक कारण यह भी रहा होगा कि समुद्र मंथन से उत्पन्न हलाहल नाम का विष पान शिवजी ने ही किया था। इस सम्बन्ध निम्न उदाहरण दृष्टव्य हैं।
एक बार राजदरबार में शिवजी के विषपान करते हुए चित्र को देखकर राजा भोज के दिमाग में कालिदास से प्रश्न करने की सुझी और उन्होंने कालिदास से पूछा, किम् कारणमपिवत हर हलाहलं ? (महादेव ने विष पान क्यों किया ?) कवि ने विचार किया कि अवश्य ही राजेन्द्र को आशुतोष नीलकण्ठ के चित्र को देखकर कोई विनोद सूझा हैं, अन्यथा क्या उन्हें शिव द्वारा विषपान का कारण ज्ञात नहीं ! महाकवि कालिदास ने मां शारदा का स्मरण किया व इस प्रकार निवेदन किया,
वृषभो प्रपलायते प्रतिदिनं सिंहावलोकादभया पश्यन्
मŸामयूरमन्तिक चरं, भूषा भुजंग व्रजः कृŸिां कृन्तति
मूषकोऽपि रजनौ भिक्षान्तमाक्षयन
दुखेनेतिदिगम्बरः स्मरहरो हलाहलं पीतवान।
अर्थात् पार्वती के वाहन सिंह के भय से अपना वाहन प्रतिदिन कांपता प्रलाप करता रहता हैं, अपने स्वयं के आभूषण भुजंग को अपने पुत्र कार्तिकेय का वाहन मयूर को देखकर बार-बार उधर लपकता हैं अथवा मयूर को देखकर भुजंग भयाक्रांत हो भागता है, गणेश का वाहन मूषक भिक्षा से प्राप्त अन्न को काटता कुतरता रहता है, इससे रात्रि में नींद नहीं आती, इसी दुःख के कारण दिगम्बर हो रहने पर भी दुखी कामरी महादेव ने विष पीकर आत्महत्या करनी चाही थी। सारी सभा धन्य! धन्य!! के शब्दों से गूंज उठी परन्तु राजा भोज के श्रृंगार रस से परिपूर्ण तृप्ति नहीं हुई, उनके मुख मण्डल पर मुस्कराहट फैली फिर भी बोले, अप्यन्श्व ? अर्थात् क्या कोई और भी कारण हैं ? महाकवि के अधरों पर भी मुस्कान उभरी। उन्होंने राजा को नत मस्तक करके एक छन्द और पढ़ा
अŸाुं वाच्छति वाहनं गणपतेराखुं क्षुधार्तः फणी तज्व
कौंचपतेः शिखी, च गिरिजा सिंहोऽपि नागाननम्।
गौरी जह्नु सुता मसूयति कलानाथं कपालाऽनिलो
निर्विष्णः सपपौ कुटुम्ब कहलादी शोऽपि हलाहलम्।
अर्थात् हे राजन्! अपने पुत्र गणेश के वाहन चूहे को स्वयं का प्रिय भूषण सर्प निगल लेना चाहता है और अपने उसी अंलकार भुजंग को दूसरे पुत्र कार्तिकेय का वाहन मोर, मार डालना चाहता हैं, अपनी पत्नी का वाहन सिंह अपने पुत्र गजानन को हाथी समझकर उसका अन्त करने के लिए व्याकुल रहता है। पार्वती अपने पति के सिर चढ़ी गंगा को देख कर सौतिया डाह से जलती रहती है और जटाजूट पर लटका चन्द्रमा बेचारा तृतीय नैत्र की ज्वाला से दग्ध तनमना होकर निस्तेज बन रहा हैं, हे राजा! अपने कुटुम्ब के भीतर ऐसा भीषण कलह देख कर ही ईश्वर कहलाने वाले शिव को भी विष पीना पड़ा था।
महराजा भोज ने महाकवि को अपने गले से लगाकर बहुमूल्य मणिमाल उनको उपहार में पहना दी।