Saturday, 20 January 2018

आर्य भाषा की लिपि देवनागरी

आर्य भाषा की लिपि देवनागरी है। देवनागरी को देवनागरी इसलिए कहा गया है , क्यूंकि यह देवों की भाषा है। भाषाएँ दो प्रकार की होती है।
(1)कल्पित और
(2) अपौरुषेय (ईश्वरीय वैज्ञानिक)
कल्पित भाषा का आधार कल्पना के अतिरिक्त और कोई नहीं होता। ऐसी भाषा में वर्णरचना का आधार भी वैज्ञानिक के स्थान पर काल्पनिक होता है।
अपौरुषेय भाषा का आधार नित्य अनादि वाणी होता है। उसमें समय समय पर परिवर्तन होते रहते है परन्तु वह अपना मूल आधार अनादि अपौरुषेय वाणी को कभी नहीं छोड़ती। ऐसी भाषा का आधार भी अनादि विज्ञान ही होता है।
वैदिक वर्णमाला में मुख्यतः 17 अक्षर है। इन 17 अक्षरों में कितने अक्षर केवल प्रयत्नशील अर्थात मुख और जिव्हा की इधर-उधर गति आकुंचन और प्रसारण से बोले जाते है , और किसी विशेष स्थान से इनका कोई सम्बन्ध नहीं होता। उन्हें स्वर कहते है।
जिनके उच्चारण में स्वर और प्रयत्न दोनों की सहायता लेनी पड़ती है उन्हें व्यंजन कहते है।
कितने ही अवांतर भेद हो जाने पर हमारी इस वर्णमाला के अक्षर 64 हो जाते है। यजुर्वेद में इन्हीं १७ अक्षरों की नीचे के मंत्र द्वारा स्पष्ट गणना है-
“”अग्निरेकाक्षरेण, अश्विनौ द्व्यक्षरेण, विष्णु: त्र्यक्षरेण, सोमश्चतुरक्षेण, पूषा पंचाक्षरेण, सविता षडक्षरेण, मरुत: सप्ताक्षरेण, बृहस्पति अष्टाक्षरेण, मित्रो नवाक्षरेण, वरुणो दशाक्षरेण, इन्द्र एकादशाक्षरेण, विश्वदेवा द्वादशाक्षरेण, वसवस्त्रयोदशाक्षरेण,रुद्रश्चतुर्दशाक्षरेण, आदित्या: पंचदशाक्षरेण, अदिति: षोडशाक्षरेण, प्रजापति: सप्तदशाक्षरेण। “”
(यजुर्वेद ९-३१-३४)
इस प्रकार यह मूलरूप से 17अक्षरों की वर्णमाला वैदिक होने से अनादि और अपौरुषेय है। वर्णमाला के 17 अक्षरों का मूल एक ही अकार है। यह अकार ही अपने स्थान और प्रयत्नों के भेद से अनेक प्रकार का हो जाता है। ओष्ठ बंद करके यदि अकार का उच्चारण किया जाए तो पकार हो जावेगा और यदि अकार का ही कंठ से उच्चारण करें तो ककार सुनाई देगा। इस प्रकार से सभी वर्णों के विषय में समझ लेना चाहिये। अकार प्रत्येक उच्चारण में उपस्थित रहता है, बिना उसकी सहायता के न कोई वर्ण भलीभांति बोला जा सकता है और न सुनाई देता है। इसलिए अकार के निम्न अनेक अर्थ है-
” सब, कुल, पूर्ण, व्यापक, अव्यय, एक और अखंड आदि अकार अक्षर के ही अर्थ है। इन अर्थों को देखकर अकार अक्षर व्यापक और अखंड प्रतीत होता है। क्यूंकि शेष अक्षर उसी में प्रविष्ट होने से इन्हीं के रूप में ही प्रतीत होते है। उपनिषद् में ब्राह्मण कम् और खम् दो अर्थ है। इसलिए इस अपौरुषेय वर्णमाला का उच्चारण करते समय हम एक प्रकार से ब्रह्म की उपासना कर रहे होते है। वर्णों के शब्द बनते हैं और शब्दों का समुदाय भाषा है। इस प्रकार से हिंदी भाषा को ‘ब्रह्मवादिनी’ भी कह सकते है। “”
इस प्रकार देवनागरी लिपि में प्रत्येक अक्षर का उच्चारण करते समय हम ब्रह्म की उपासना कर रहे होते है। इसलिए देवनागरी हमारी संस्कृति का प्रतीक है। हमारी संस्कृति वैदिक है। वैदिक संस्कृति वेद द्वारा भगवान की देन है और वेदों के अनादि होने से हमारी संस्कृति और हमारी भाषा भी अनादि और अपौरुषेय है। एक और तथ्य यह है कि हमारी भाषा में सभी भाषाओँ के शब्द लिखे और पढ़े जा सकते है क्यूंकि इसके 64 अक्षर किसी भी शब्द की तथा उच्चारण की किसी भी न्यूनता को रहने नहीं देते।
देवनागरी लिपि के विकास की जहाँ तक बात है तो स्वामी दयानंद पूना प्रवचन के नौवें प्रवचन में लिखते है कि इक्ष्वाकु यह आर्यावर्त का प्रथम राजा हुआ। इक्ष्वाकु के समय अक्षर स्याही आदि से लिखने की लिपि का विकास किया। ऐसा प्रतीत होता है। इक्ष्वाकु के समय वेद को कंठस्थ करने की रीती कुछ कम होने लगी थी । जिस लिपि में वेद लिखे गए उसका नाम देवनागरी है। विद्वान अर्थात देव लोगों ने संकेत से अक्षर लिखना प्रारम्भ किया इसलिए भी इसका नाम देवनागरी है।
इस प्रकार से आर्य भाषा अपौरुषेय एवं वैदिक काल की भाषा है जिसकी लिपि का विकास भी वैदिक काल में हो गया था।
सन्दर्भ- उपदेश मंजरी- स्वामी दयानंद पूना प्रवचन एवं स्वामी आत्मानंद सरस्वती पत्र व्यवहार-209
अब आते है पाली भाषा पर ,
तो सर्व प्रथम आपको बता दे यह भाषा का विकास बहूत बाद में हुआ था ।
पुरानी भाषा कौनसी संस्कृत या पाली
एक लेखक ने संस्कृत को नवीन भाषा बताया उसका आधार उसने शिलालेख आदि बताये | लेकिन यह आधार अयुक्त है क्यूंकि प्राकृत भाषा लोक भाषा थी जब यह शिलालेख आदि लिखे गये थे जबकि संस्कृत केवल कुछ विद्वान लोगो की भाषा थी |
शिलालेख आदि का संदेश आम जन को कोई सुचना या राज्य की परियोजना अथवा कोई संदेश के लिए होता था | आमजन के लिए उन्ही की समझने लायक भाषा में ही संदेश लिखा जाएगा | जैसे आज हिंदी का प्रचलन है तो कोई भी सरकारी घोषणा संस्कृत में नही दी जायेगी बल्कि हिंदी में ही दी जायेगी | इस बात का प्रबल प्रमाण एक जैन लेखक के द्वारा मिलता है जिससे सिद्ध होता है कि प्राकृत बुद्ध ,महावीर के समय की सामान्य जन की भाषा थी –
” जैन आचार्य हरीभद्र सूरी दशवेकालीक टीका की भूमिका 101 पर लिखता है –
” बाल स्त्री मूढ़ मूर्खाणा मूणा चारित्रकांगक्षि
णाम |
अनुग्रहार्थ तत्वज्ञ: सिद्धांत: प्राकृत: स्मृत : ||
अर्थात बाल ,मूढ़ ,मुर्ख के लिए जैन सिद्धांत प्राकृत में दिया गया | ”
इससे सिद्ध है कि संस्कृत भाषा भी महावीर आदि के समय थी महावीर का काल चन्द्रगुप्त से पुराना मानना होगा क्यूंकि तथाकथित इतिहासकार उसे चन्द्रगुप्त का जैन बनना मानते है यदि इसे न माने तो अशोक का चौथा उतराधिकारी शालीशुक मौर्य जैन था | इससे जैन मत इससे भी प्राचीन सिद्ध होता है | अत: संस्कृत की प्राचीनता हरीभद्र अनुसार शालिशुक से पुरानी तो हो ही जाती है |
संस्कृत में ग्रन्थ लेखन का ही कार्य होता था ग्रंथो को भोजपत्र या ताड़पत्र पर लिखा जाता था जिसका काल अधिक नही होता था अधिक से अधिक १०० वर्ष के अंदर वो नष्ट हो जाता था | उसकी पुनरावृत्ति दुसरे ताड़ या भोज पत्र पर हो जाती थी इस तरह नया संस्करण निकाल पुराने ग्रंथो के वचन सुरक्षित रखे जाते थे | आज जो पांडूलिपि मिलती है वो ग्रन्थ के वास्तविक काल की न हो उसके अंत के संस्करणो की है | आज की अच्छी क्वालिटी का कागज भी ६०-७० साल में टूट टूट नष्ट हो जाता है | इसलिए पांडूलिपि ,शिलालेख यह वास्तविक आधार नही कौनसी भाषा प्राचीन है यह जानने का |
इसका आधार है उस भाषा में लिखे विभिन्न व्याकरण ग्रन्थ जिनमे उसके शब्द विकार ,शब्द सिद्धि दर्शाई जाती है |
प्राकृत के अध्ययन हेतु निम्न सामग्री है –
(१) भरत का नाट्य शास्त्र –
भरत मुनि का उलेख महाभारत में होने से तथा भरत मुनि द्वारा प्राकृत सूत्र दिए जाने से प्राकृत का काल भी महाभारत समकक्ष तो बैठता ही है |
कोहल – मार्कण्डेय कवीन्द्र के अनुसार कोहल के ग्रन्थ में भी प्राकृत का उलेख है |
वाल्मीकि सूत्र – यह प्राकृत भाषा के व्याकरण के सूत्र है इन पर अप्पय दीक्षित की व्याख्या है यह वाल्मीक जी की रचना है | इससे यह सम्भव है प्राकृत भी तथाकथित मूलनिवासियों की भाषा नही बल्कि आर्यों की ही भाषा है ।
शाकल्य – यह ऋग्वेद के एक शाखा के रचेयता है तथा प्राचीन ऋषि है | मार्कंड कवीन्द्र के अनुसार शाकल्य ऋषि प्राकृत पर लिखे है |
लगभग त्रेताकाल से दोनों भाषाए चली है संस्कृत और प्राकृत |
वररुचिकृत प्राकृत लक्षण – यह प्राकृत अध्ययन में सबसे महत्वपूर्ण ग्रन्थ है | इसमें भामह व्याख्या भी है| भामाह विक्रम सम्वत पूर्व के आसपास था |
प्राकृतदीपिका – यह अभिनवगुप्त द्वारा लिखा ग्रन्थ है |
चंडकृत प्राकृत लक्षण – इसमें महाराष्ट्र तथा जैन प्राकृतो का वर्णन है |
हेमचन्द्र का प्राकृत व्याकरण – यह प्राकृत के शब्दानुशासन का ग्रन्थ है |
प्राकृत पिंगल – इसमें प्राकृत के पद्यो और छन्दों का संग्रह है |
यह सब प्राकृत के जान्ने के ग्रन्थ है | इन सबसे एक निष्कर्ष निकलता है कि संस्कृत में किसी शब्द सिद्धि संस्कृत धातु से प्रत्यय उपसर्ग से ही हो जाती है | अर्थात संस्कृत में किसी अन्य भाषा से कोई शब्द उधार नही लिया लेकिन आगे जब इन प्राकृत व्याकरण ग्रंथो के प्रमाण देखोगे तो पता चलेगा कि संस्कृत के कई अपभ्रंश इस भाषा में लिए गये है अपभ्रष कहलाता है एक भाषा के शुद्ध रूप का बिगड़ कर अन्य भाषा में प्रयुक्त होना इससे अपभ्रश प्रयोग वाली भाषा आत्मजा और शुद्ध प्रयोग वाली जनक सिद्ध हो जाती है |
अब प्राकृत के सामान्य नियम समझिये –
प्राकृत में तीन प्रकार के शब्द प्रयोग करे गये है –
“ समानशब्द विभ्रष्ट देशीगतथापि च – भरतनाट्य शास्त्र १७/३
अर्थात समान ,विभ्रष्ट और देशी पद प्राकृत में है |
इसी पर हरिपाल कृत टीका में लिखा है –
“ तद्भव: तत्समो देशी त्रिविध: प्राकृतकम: “ अर्थात संस्कृत के सदृश्य ,संस्कृत से विकृत और देशी यह तीन प्रकार के शब्द प्राकृत में है |
जैन आचार्य हेमचन्द्र अभिधान चिंतामणि की स्वोपज्ञ टीका में इस बात के प्रमाण देता है कि प्राकृत में प्रयुक्त देशज शब्द भी संस्कृत से आये है –
“ गोसो देश्याम | संस्कृतेsपि
तुंगी देश्याम | संस्कृतेsपि
अब संस्कृत के तत्सम का प्राकृत में किस तरह विकार हो तद्भव होता है यह निम्न नियम से पाया जाता है –
“ ए ओ आर पराणि अ अं आरपरं अ पाअए णत्थि |
व स आर मज्झिमाइ अ क च वग्ग तवग्ग णिहणाइ || “
अर्थात ए ओकार से परे अर्थात ऐ औ अंकार के परे अर्थात विसर्ग नहीं होता अर्थात संस्कृत में आये विसर्ग का प्राकृत में लोप हो जाता है | तथा व सकार के मध्य के श ष वर्ण तथा क च त वर्गो के निधनानि ङ ञ न का भी प्राकृत में लोप कर देते है |
यहा स्पष्ट पता चल रहा है कि प्राकृत संस्कृत के कुछ शब्द को तद्भव कर बनाई गयी भाषा है अर्थात इसके शब्द संस्कृत से उधार लिए गये है |
साहित्य रत्नाकार नामक ग्रन्थ में निम्न श्लोक मिलता है जिससे पता चलता है कि किन किन वर्णों को लुप्त कर प्राकृत वर्णमाला रची –
“ ऐ औ कं क: ऋ ऋ(दीर्घ स्वर में ) लृ लृ(दीर्घ) प्लुप्त श षाबिंदुश्चतुर्थी क्वचित |
प्रान्ते न क्ष डं ञा पृथग द्विवचन नाष्टादश प्राकृते |
रूपञ्चापि यदातमेपदकृत यद्वा परस्मैपद्म |
भेदों नैव तयोर्न लिंगनियमस्ताद्र्ग्यथा संस्कृते ||
अर्थात ऐ औ कं क: ऋकार लृकार प्लुत श ष अबिंदु तथा ४ विभक्ति प्रांत में न क्ष ङ ञ और द्विवचन यह १८ प्राकृत में नही रहे |
यहा भी संस्कृत से प्राकृत का बनना बताया जा रहा है |
प्राकृत पैंगल में उग्गाह छंद में निम्नलिखित गाथा है –
“ एऔ अं म ल पुरऔ सआर ,पुब्बेहि बे बि वण्णाई |
कच्चबग्गे अन्ता दहबणा पाउए ण हूअति || “
ए ओ अं म ल के अगले वर्ण ऐ औ : य व स से पहले दो वर्ण श ष तथा क वर्ग और त वर्ग के अंतिम वर्ण ङ णञ प्राकृत में नही होते | अर्थात प्राकृत में इनका लोप हो जाता है |
संस्कृत से बदलाव लाने के आलावा भी प्राकृत का सिलसिला यही न रुका यह भाषा बार बार बदल बदल नये नये रूप में आती गयी पहले शौरसेनी प्राकृत हुई फिर मागधी में हुआ |
मागधी में संस्कृत के स के स्थान पर श कर कुछ शब्द बना लिए गये – जैसे सामवेद से शामवेद इस पर नामिसाधू श्लोक 12 में व्याख्यात है – “ रसयोर्लशौ मागधिकायाम “
अर्थात र के स्थान पर ल और स के स्थान पर श अर्थात संस्कृत में पुरुष शब्द ष का ल विकार हो माधवी प्राकृत में – पुलिश हो गयी | इसी तरह फिर अर्धमागधी प्राकृत हुई | इसके बाद जैन में श्वेताम्बर सम्प्रदाय की प्राकृत का प्रचलन हुआ इसे महाराष्ट्री भी कहते है | रामदासकृत सेतुबंध टीका में लिखा है – “ महाराष्ट्रभाषाया बहुवचने sप्येकवचन प्रयोगात पृष्ठ 174 तथाच –युद्ध = जुज्झ (सेतुबंध पृष्ठ 502 )
यहा उदाहरण दे बताया है संस्कृत के युद्ध का महाराष्ट्री प्राकृत में किस तरह रूपान्तर हुआ |
अश्वघोष के दो नाटको के त्रुटीयुक्त पत्ते चीन में प्राप्त हुए है अध्यापक लूडर्स (जर्मन ) ने उन्हें जोड़ एक लेख लिखा जिसका अनुवाद श्रीमती तुहिनिका चैटर्जी ने किया –
“ पेज 40 पर लूडर्स लिखता है – “ we can distinguish clearly at least three dialects
अर्थात प्राकृत की तीन बोलिया अश्वगोष के काव्य में है |
यहा स्पष्ट है पहले संस्कृत से विकार पा यह भाषा बनी फिर कुछ शब्दों में और विकार हुआ और अंत में विकार प्राप्त हो काफी भेद इस भाषा में हुआ | जबकि संस्कृत भाषा के किसी भी प्राचीन संस्कृत व्याकरण में ऐसा कोई नियम नही मिलता की अमुक वर्ण अमुक भाषा के वर्ण से इस भाषा में लिया गया या अमुक भाषा के तत्सम से तद्भव हुआ | संस्कृत में लौकिक में अगर कुछ विकार देखा जाता है तो व्याकरण कार उसे वैदिक ( वैदिक वाक् –वैदिक संस्कृत ) से बताते है न कि प्राकृत ,पाली भाषा से जबकि प्राकृत में बहुधा उदाहरण मिल जायेंगे संस्कृत के तत्सम के तद्भव रूप में | अत: प्राकृत से संस्कृत नही संस्कृत से प्राकृत बनी है | और यह तथाकथित मूलनिवासी भाषा नही बल्कि ब्राह्मण ,द्विज से लेकर आर्य शुद्र तक इसे प्रयोग करते थे क्यूंकि बौद्ध के प्रमाण में प्रत्येक २८ बुद्ध द्विज (ब्रह्म ज्ञानी , एवम वेद वेत्ता) ही था कोई भी कथित मंदबुद्धि मूलनिवासी नही था | और उन्होंने इस भाषा का प्रयोग करा उनके अनुयायी बौधिधर्म अरिहंत आदि बड़े बड़े बौद्ध भी द्विज वर्ण (ब्रह्म ज्ञानी , वेदवेत्ता) से ही थे | इसलिए प्राकृत और संस्कृत दोनों आर्यों की ही भाषा है | इस भाषा के नाम पर लोगो को आपस में पागल बनाने इतिहास मोड़ने ,भावनाए आहत करने जानबुझ नीचा दिखाने दो पक्षों को लदवाने का कार्य अम्बेडकरवादी कर रहे है |
राजीव मल्होत्रा अपनी पुस्तक “द बैटल फॉर संस्कृत” लिखते हैं के –
“बुद्ध से 2000 साल पहले “इंडस सरस्वती सिविलाइज़ेशन” थी, जिनकी लिपि भी थी, तथा कई सारा साहित्य इनके समय में लिखा गया है | अतः यह बात बिलकुल निरर्थक है कि बौद्ध धर्म के आने के बाद भारत में लेखन की शुरुआत हुई |”
कई वैदिक और बौद्ध ग्रंथ भी संस्कृत में ही लिखे गए बाद में पाली में भी लिखे गए है ।
इसमें एक तथ्यपूर्ण बाद यह भी है के यदि “पाली भाषा का इतिहास पढ़ा जाए तो पता चलता है यह बुद्ध के काफी बाद में विकसित हुई है | अतः बुद्ध के प्रवचन पाली में नहीं थे | बल्कि बाद में लोगों ने उन्हें पाली में लिखा है | कई लोगों का मत यह भी है के बुद्ध के काफी प्रवचन संस्कृत में ही थे |
अगर सामान्य बुद्धि से भी सोचे तो यदि संस्कृत , प्राकृतिक से बनी होती तो एक ही प्राकृतिक रूप से अनेक अर्थो वाले संस्कृत शब्द न होते ।
संस्कृत आज नासा द्वारा भी सबसे वैज्ञानिक भाषा सिद्ध हुए , और UNO ने दुनिया की 97% भाषा को संस्कृत से प्रभावित माना है । यह अपुरुषेय भाषा वैज्ञानिक होने से
अति प्राचीन और अद्भुत भी है ।
✍🏻
हिमांशु शुक्ला

सूतक समस्या विचार

​सूतक समस्या विचार =​
जन्म मरण आदि के कारण जो मृतक हो जाते हैं उनमें शुभ कर्म निषिद्ध है। जब तक शुद्धि न हो जाय तब तक यज्ञ, ब्रह्म भोजन आदि नहीं किये जाते। परन्तु यदि वह शुभ कार्य प्रारंभ हो जाय तो फिर सूतक उपस्थिति होने पर उस कार्य का रोकना आवश्यक नहीं। ऐसे समयों पर शास्त्रकारों की आज्ञा है कि उस यज्ञादि कर्म को बीच में न रोककर उसे यथावत चालू रखा जाय। इस सम्बंध में कुछ शास्त्रीय अभिमत नीचे दिये जाते हैं-
यज्ञे प्रवर्तमाने तु जायेतार्थ म्रियेत वा।
पूर्व संकल्पिते कार्ये न दोष स्तत्र विद्यते।
यज्ञ काले विवाहे च देवयागे तथैव च।
हूय माने तथा चाग्नौ नाशौचं नापि सतकम्।
दक्षस्मृति 6।19-20
यज्ञ हो रहा हो ऐसे समय यदि जन्म या मृत्यु का सूतक हो जाए तो इससे पूर्व संकल्पित यज्ञादि धर्म में कोई दोष नहीं होता। यज्ञ, विवाह, देवयोग आदि के अवसर पर जो सूतक होता है उसके कारण कार्य नहीं रुकता।
न देव प्रतिष्ठोर्त्सगविवाहेषु देशविभ्रमे।
नापद्यपि च कष्टायामा शौचम्॥
-विष्णु स्मृति
देव प्रतिष्ठा, उत्सर्ग, विवाह आदि में उपस्थित सूतक में बाधा नहीं।
विवाह दुर्ग यज्ञेषु यात्रायाँ तीर्थ कर्मणि।
न तत्र सूतकं तद्वत कर्म याज्ञादि कारयेत॥
-पैठानसि
विवाह, किला बनाना, यज्ञ, यात्रा, तीर्थ कर्म के समय यदि सूतक हो जाय तो उसकी चिन्ता नहीं करनी चाहिए।
यज्ञ करने वाले यजमान पर ही नहीं यह बात ऋत्विज् ब्रह्मा आचार्य आदि पर भी लागू होती है। उनके यहाँ कोई सूतक हो जाय तो वह यज्ञ करने-कराने या उसमें भाग लेने के अनधिकारी नहीं होते तथा-
ऋत्विजाँ यजमानस्य तत्पत्न्या देशकस्य च।
कर्ममध्ये तु नाशौच मन्त एव तु तद्भवेत-॥
ऋत्विजों को यजमान को, यजमान की पत्नी को और आचार्य को जन्म या मरण का सूतक नहीं लगता। यज्ञ कर्म की पूर्ति हो जाने पर ही उन्हें सूतक लगता है।
ऋत्विजाँ दीक्षितानाँ च याज्ञिकं कर्म कुर्वता

संस्कृत मंत्रों के उच्चारण से बढ़ती है याददाश्त*

अमेरिकी पत्रिका का दावा-
*संस्कृत मंत्रों के उच्चारण से बढ़ती है याददाश्त*
【एक्सपर्ट की इस टीम ने 42 वॉलंटियर्स को चुना, जिनमें 21 प्रशिक्षित वैदिक पंडित (22 साल) थे। इन लोगों ने 7 सालों तक शुक्ला यजुर्वेद के उच्चारण में पारंगत हासिल की थी। ये सभी पंडित दिल्ली के एक वैदिक स्कूल के थे।】
एक अमेरिकी पत्रिका में दावा किया गया है कि वैदिक मंत्रों को याद करने से दिमाग के उसे हिस्से में बढ़ोतरी होती है जिसका काम संज्ञान लेना है, यानी की चीजों को याद करना है। डॉ जेम्स हार्टजेल नाम के न्यूरो साइंटिस्ट के इस शोध को साइंटिफिक अमेरिकन नाम के जरनल ने प्रकाशित किया है। न्यूरो साइंटिस्ट डॉ हार्टजेल ने अपने शोध के बाद ‘द संस्कृति इफेक्ट’ नाम का टर्म तैयार किया है। वह अपने रिपोर्ट में लिखते हैं कि भारतीय मान्यता यह कहती है कि वैदिक मंत्रों का लगातार उच्चारण करने और उसे याद करने की कोशिश से याददाश्त और सोच बढ़ती है। इस धारणा की जांच के लिए डॉ जेम्स और इटली के ट्रेन्टो यूनिवर्सिटी के उनके साथी ने भारत स्थित नेशनल ब्रेन रिसर्च सेंटर के डॉ तन्मय नाथ और डॉ नंदिनी चटर्जी के साथ टीम बनाई।
‘द हिन्दू’ में छपी रिपोर्ट के मुताबिक एक्सपर्ट की इस टीम ने 42 वॉलंटियर्स को चुना, जिनमें 21 प्रशिक्षित वैदिक पंडित (22 साल) थे। इन लोगों ने 7 सालों तक शुक्ला यजुर्वेद के उच्चारण में पारंगत हासिल की थी। ये सभी पंडित दिल्ली के एक वैदिक स्कूल के थे। जबकि एक कॉलेज के छात्रों में 21 को संस्कृत उच्चारण के लिए चुना गया। इस टीम ने इन सभी 42 प्रतिभागियों के ब्रेन की मैपिंग की। इसके लिए आधुनिक तकनीक का इस्तेमाल किया गया। नेशनल ब्रेन रिसर्च सेंटर के पास मौजूद इस तकनीक से दिमाग के अलग अलग हिस्सों का आकार की जानकारी ली जा सकती है।
टीम ने जब 21 पंडितों और 21 दूसरे वालंटियर्स के ब्रेन की मैपिंग की तो दोनों में काफी अंतर पाया गया। उन्होंने पाया कि वे छात्र जो संस्कृत उच्चारण में पारंगत थे उनके दिमाग का वो हिस्सा, जहां से याददाश्त, भावनाएं, निर्णय लेने की क्षमता नियंत्रित होती है, वो ज्यादा सघन था। इसमें ज्यादा अहम बात यह है कि दिमाग की संरचना में ये परिवर्तन तात्कालिक नहीं थे बल्कि वैज्ञानिकों के मुताबिक जो छात्र वैदिक मंत्रों के उच्चारण में पारंगत थे उनमें बदलवा लंबे समय तक रहने वाले थे। इसका मतलब यह है कि संस्कृत में प्रशिक्षित छात्रों की याददाश्त, निर्णय लेने की क्षमता, अनुभूति की क्षमता लंबे समय तक कायम रहने वाली थी।
(साभार, जनसत्ता आनलाइन १४-०१-२०१८)

Monday, 16 October 2017

देवीय शक्ति से साक्षात्कार कराते मंत्र

देवीय शक्ति से साक्षात्कार कराते मंत्र
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मंत्रों का प्रयोग मानव ने अपने कल्याण के साथ-साथ दैनिक जीवन की संपूर्ण समस्याओं के समाधान हेतु यथासमय किया है और उसमें सफलता भी पाई है, परंतु आज के भौतिकवादी युग में यह विधा मात्र कुछ ही व्यक्तियों के प्रयोग की वस्तु बनकर रह गई है।
मंत्रों में छुपी अलौकिक शक्ति का प्रयोग कर जीवन को सफल एवं सार्थक बनाया जा सकता है। सबसे पहले प्रश्न यह उठता है कि 'मंत्र' क्या है, इसे कैसे परिभाषित किया जा सकता है। इस संदर्भ में यह कहना उचित होगा कि मंत्र का वास्तविक अर्थ असीमित है। किसी देवी-देवता को प्रसन्न करने के लिए प्रयुक्त शब्द समूह मंत्र कहलाता है।
जो शब्द जिस देवता या शक्ति को प्रकट करता है उसे उस देवता या शक्ति का मंत्र कहते हैं। मंत्र एक ऐसी गुप्त ऊर्जा है, जिसे हम जागृत कर इस अखिल ब्रह्मांड में पहले से ही उपस्थित इसी प्रकार की ऊर्जा से एकात्म कर उस ऊर्जा के लिए देवता (शक्ति) से सीधा साक्षात्कार कर सकते हैं।
ऊर्जा अविनाशिता के नियमानुसार ऊर्जा कभी भी नष्ट नहीं होती है, वरन्‌ एक रूप से दूसरे रूप में परिवर्तित होती रहती है। अतः जब हम मंत्रों का उच्चारण करते हैं तो उससे उत्पन्न ध्वनि एक ऊर्जा के रूप में ब्रह्मांड में प्रेषित होकर जब उसी प्रकार की ऊर्जा से संयोग करती है तब हमें उस ऊर्जा में छुपी शक्ति का आभास होने लगता है। ज्योतिषीय संदर्भ में यह निर्विवाद सत्य है कि इस धरा पर रहने वाले सभी प्राणियों पर ग्रहों का अवश्य प्रभाव पड़ता है।
चंद्रमा मन का कारक ग्रह है और यह पृथ्वी के सबसे नजदीक होने के कारण खगोल में अपनी स्थिति के अनुसार मानव मन को अत्यधिक प्रभावित करता है। अतः इसके अनुसार जो मन का त्राण (दुःख) हरे उसे मंत्र कहते हैं। मंत्रों में प्रयुक्त स्वर, व्यंजन, नाद व बिंदु देवताओं या शक्ति के विभिन्न रूप एवं गुणों को प्रदर्शित करते हैं। मंत्राक्षरों, नाद, बिंदुओं में दैवीय शक्ति छुपी रहती है।
मंत्र उच्चारण से ध्वनि उत्पन्न होती है, उत्पन्न ध्वनि का मंत्र के साथ विशेष प्रभाव होता है। जिस प्रकार किसी व्यक्ति, स्थान, वस्तु के ज्ञानर्थ कुछ संकेत प्रयुक्त किए जाते हैं, ठीक उसी प्रकार मंत्रों से संबंधित देवी-देवताओं को संकेत द्वारा संबंधित किया जाता है, इसे बीज कहते हैं। विभिन्न बीज मंत्र इस प्रकार हैं :
ॐ- परमपिता परमेश्वर की शक्ति का प्रतीक है।
ह्रीं- माया बीज,
श्रीं- लक्ष्मी बीज,
क्रीं- काली बीज,
ऐं- सरस्वती बीज,
क्लीं- कृष्ण बीज।
मंत्रों में देवी-देवताओं के नाम भी संकेत मात्र से दर्शाए जाते हैं, जैसे राम के लिए 'रां', हनुमानजी के लिए 'हं', गणेशजी के लिए 'गं', दुर्गाजी के लिए 'दुं' का प्रयोग किया जाता है। इन बीजाक्षरों में जो अनुस्वार (ं) या अनुनासिक (जं) संकेत लगाए जाते हैं, उन्हें 'नाद' कहते हैं। नाद द्वारा देवी-देवताओं की अप्रकट शक्ति को प्रकट किया जाता है।
लिंगों के अनुसार मंत्रों के तीन भेद होते हैं-
पुर्लिंग : जिन मंत्रों के अंत में हूं या फट लगा होता है।
स्त्रीलिंग : जिन मंत्रों के अंत में 'स्वाहा' का प्रयोग होता है।
नपुंसक लिंग : जिन मंत्रों के अंत में 'नमः' प्रयुक्त होता है।
अतः आवश्यकतानुसार मंत्रों को चुनकर उनमें स्थित अक्षुण्ण ऊर्जा की तीव्र विस्फोटक एवं प्रभावकारी शक्ति को प्राप्त किया जा सकता है। मंत्र, साधक व ईश्वर को मिलाने में मध्यस्थ का कार्य करता है। मंत्र की साधना करने से पूर्व मंत्र पर पूर्ण श्रद्धा, भाव, विश्वास होना आवश्यक है तथा मंत्र का सही उच्चारण अति आवश्यक है। मंत्र लय, नादयोग के अंतर्गत आता है।
मंत्रों के प्रयोग से आर्थिक, सामाजिक, दैहिक, दैनिक, भौतिक तापों से उत्पन्न व्याधियों से छुटकारा पाया जा सकता है। रोग निवारण में मंत्र का प्रयोग रामबाण औषधि का कार्य करता है। मानव शरीर में 108 जैविकीय केंद्र (साइकिक सेंटर) होते हैं जिसके कारण मस्तिष्क से 108 तरंग दैर्ध्य (वेवलेंथ) उत्सर्जित करता है।
शायद इसीलिए हमारे ऋषि-मुनियों ने मंत्रों की साधना के लिए 108 मनकों की माला तथा मंत्रों के जाप की आकृति निश्चित की है। मंत्रों के बीज मंत्र उच्चारण की 125 विधियाँ हैं। मंत्रोच्चारण से या जाप करने से शरीर के 6 प्रमुख जैविकीय ऊर्जा केंद्रों से 6250 की संख्या में विद्युत चुम्बकीय ऊर्जा तरंगें उत्सर्जित होती हैं, जो इस प्रकार हैं :
मूलाधार 4×125=500
स्वधिष्ठान 6×125=750
मनिपुरं 10×125=1250
हृदयचक्र 13×125=1500
विध्रहिचक्र 16×125=2000
आज्ञाचक्र 2×125=250
कुल योग 6250 (विद्युत चुम्बकीय ऊर्जा तरंगों की संख्या)
भारतीय कुंडलिनी विज्ञान के अनुसार मानव के स्थूल शरीर के साथ-साथ 6 अन्य सूक्ष्म शरीर भी होते हैं। विशेष पद्धति से सूक्ष्म शरीर के फोटोग्राफ लेने से वर्तमान तथा भविष्य में होने वाली बीमारियों या रोग के बारे में पता लगाया जा सकता है। सूक्ष्म शरीर के ज्ञान के बारे में जानकारी न होने पर मंत्र शास्त्र को जानना अत्यंत कठिन होगा।
मानव, जीव-जंतु, वनस्पतियों पर प्रयोगों द्वारा ध्वनि परिवर्तन (मंत्रों) से सूक्ष्म ऊर्जा तरंगों के उत्पन्न होने को प्रमाणित कर लिया गया है। मानव शरीर से 64 तरह की सूक्ष्म ऊर्जा तरंगें उत्सर्जित होती हैं जिन्हें 'धी' ऊर्जा कहते हैं। जब धी का क्षरण होता है तो शरीर में व्याधि एकत्र हो जाती है।
मंत्रों का प्रभाव वनस्पतियों पर भी पड़ता है। जैसा कि बताया गया है कि चारों वेदों में कुल मिलाकर 20 हजार 389 मंत्र हैं, प्रत्येक वेद का अधिष्ठाता देवता है। ऋग्वेद का अधिष्ठाता ग्रह गुरु है। यजुर्वेद का देवता ग्रह शुक्र, सामवेद का मंगल तथा अथर्ववेद का अधिपति ग्रह बुध है।
मंत्रों का प्रयोग ज्योतिषीय संदर्भ में अशुभ ग्रहों द्वारा उत्पन्न अशुभ फलों के निवारणार्थ किया जाता है। ज्योतिष वेदों का अंग माना गया है। इसे वेदों का नेत्र कहा गया है। भूत ग्रहों से उत्पन्न अशुभ फलों के शमनार्थ वेदमंत्रों, स्तोत्रों का प्रयोग अत्यन्त प्रभावशाली माना गया है।
उदाहरणार्थ आदित्य हृदयस्तोत्र सूर्य के लिए, दुर्गास्तोत्र चंद्रमा के लिए, रामायण पाठ गुरु के लिए, ग्राम देवता स्तोत्र राहु के लिए, विष्णु सहस्रनाम, गायत्री मंत्रजाप, महामृत्युंजय जाप, क्रमशः बुध, शनि एवं केतु के लिए, लक्ष्मीस्तोत्र शुक्र के लिए और मंगलस्रोत मंगल के लिए। मंत्रों का चयन प्राचीन ऐतिहासिक ग्रंथों से किया गया है।
वैज्ञानिक रूप से यह प्रमाणित हो चुका है कि ध्वनि उत्पन्न करने में नाड़ी संस्थान की 72 नसें आवश्यक रूप से क्रियाशील रहती हैं। अतः मंत्रों के उच्चारण से सभी नाड़ी संस्थान क्रियाशील रहते हैं।

Friday, 29 September 2017

विजयादशमी को करें शमी (खेजड़ी) पूजन

अमंगलानां च शमनीं शमनीं दुष्कृतस्य च।
दुस्वप्ननाशिनीं धन्या प्रपद्येहं शमीं शुभाम्


विजयादशमी को करें शमी (खेजड़ी) पूजन

ब्रह्मकर्म रचयिता शास्त्री प्रवीण त्रिवेदी भीनमाल ने बताया कि दशहरे को दशानन को अग्नि को समर्पित करने के साथ और भी पूजन किया जाता है।
स्कंदपुराण के अनुसार विजयादशमी को अपराजिता देवी का पूजन करना चाहिए। यह पूजन घर के उत्तर-पूर्व दिशा में अपराह्न के समय में विजय व कल्याण की भावना से करना चाहिए। पूजन के ईशान कोण में साफ व स्वच्छ स्थान को गोबर आदि से लीप कर शुद्ध करना चाहिए। उसके बाद चावल आदि से अष्टदल बनाकर संकल्प लें। उसके बाद बीच में अपराजिता देवी की स्थापना करें। उसके दायें व बायें जया व विजया देवी का भी आवाहन कर क्रिया शक्ति व उमा शक्ति को नमस्कार कर षोडशोपचार (आवाह्न, आसन, पाद्यं, अघ्र्यं, स्नान, पंचामृत, गंधोदकादि स्नान, अभिषेक, वस्त्र,यज्ञोपवीत,चंदन,अक्षत,पुष्पं, सौभाग्यद्रव्याणि, धूपं, दीपं, नैवेद्यं, ताम्बूलं, फल, दक्षिणा, आरति, पुष्पांजलि, प्रदक्षिणा, नमस्कार )पूजन करें। पूजन के पश्चात् शमी वृक्ष के पास जाकर उनका पूजन करें। लौकिक भाषा में शमी को खेजड़ी भी कहते है। ऐसा करने के बाद शमी वृक्ष के नीचे चावल, सुपारी व ताम्बें का सिक्का रखें फिर वृक्ष की प्रदक्षिणा कर उसकी जड़ के पास की मिट्टी व कुछ पत्तें घर लेकर आये व पवित्र स्थान पर रखे।


त्रिवेदी ने बताया कि यह पूजन शमी का अर्थ शत्रुओं का नाश करने वाला होता है।
शमी शमयते पापं शमी लोहितकण्टका। धारिण्यर्जुनबाणानां रामस्य प्रियवादिनी।
करिष्यमाणयात्रायां यथाकाल सुखं मया। तत्रनिर्विघ्नकत्र्रीत्वंभव श्रीरामपूजिते।।
अर्थ- शमी पापों का शमन करती है। शमी के कांटें तांबे के रंग के होते है, यह अर्जुन के बाणों को धारण करती है। हे शमी! राम ने तुम्हारी पूजा की है, मैं यथा काल विजय यात्रा पर ही निकलूंगा। तुम मेरी इस यात्रा को निर्विघ्न कारक व सुख कारक बनाओं।
त्रिवेदी ने बताया कि
भगवान राम के पूर्वज महाराज रघु ने विश्वजीत यज्ञ कर अपनी समस्त धन सम्पदा दान कर पर्णकुटी में निवास करने लगे थे। ऐसे में अपनी गुरु दक्षिणा के ऋण से मुक्त होने के लिए कौत्स मुनि वहां पधारें व राजा रघु से चैदह करोड़ स्वर्ण मुद्रायें मांगी। ऐसे समय रघु ने ब्राह्मण बालक को धन देने हेतु कुबेर पर आक्रमण किया तब कुबेर ने शमी व अश्मंतक के वृक्ष पर स्वर्णमुद्राओं की बारीश की। तब से शमी व अश्मंतक की पूजा की जाती है। पूजा के बाद अश्मंतक के पत्ते घर लाकर स्वर्ण मानकर लोगों में बांटने का रिवाज प्रचलित हुआ।
शमी के नीचे दीपक जलाने से शत्रु पक्ष से युद्ध व मुकदमों में विजय मिलती है।

अन्य कारण।
भगवान राम ने लंका पर विजय हेतु शमी वृक्ष की पूजा की थी।
पाण्डवों ने वनवास के अज्ञात वास के समय अपने शस्त्रों को शमी वृक्ष पर छिपा कर रखा था तब से इसकी पूजा की जाती है।
विजयादशमी के दिन क्षत्रिय अस्त्र व शस्त्रों की पूजा करते है, वहीं ब्राह्मण वर्ग शमी (खेजड़ी) जिसने पाण्डवों के शस्त्रों को अपने पास रखा था, की पूजा करते है।


Tuesday, 29 August 2017

श्राद्ध- एक ऋषि परम्परा

श्राद्ध- एक ऋषि परम्परा
श्राद्ध का स्वरूप पृथ्वीचन्द्रयोदय में लिखा हैं कि, जो भोजन अपने को रूचता है वह प्रेत और पितरों के निमिŸा जब श्रद्धा से दिया जाय तब उसे श्राद्ध कहते हैं। मरीचि ने कहा है किः-
श्रद्धया दीयते यत्ऱ तच्छ्राद्धं परिकीर्तितम्।।
श्राद्ध मूलतः उन के लिए किया जाता है जो पितृ रूप में हैं। इसी संदर्भ में यह भी निरूपित किया गया हैं कि नश्वर स्थूल शरीर नष्ट होने पर भी उस योनि द्वारा संपादित किया हुआ कर्म नष्ट नहीं होता। हमारे सूक्ष्म शरीर में कर्म का प्रतिबिम्ब रह जाता हैं, यह सूक्ष्म शरीर बीज रूप से कर्म संस्कार स्मृतियों को लेकर एक स्थूल शरीर से दूसरे स्थूल शरीर में प्रवेश करता हैं। कठोपनिषद् में यमराज नचिकेता को कहते हैंः-
योनिमन्ये प्रपद्यन्ते शरीरत्वाय देहिनः। स्थाणुमन्यंऽनुसंयन्ति यथाकर्म यथाश्रुतम।।
यमराज कहते हैं, हे नचिकेता अपने-अपने शुभाशुभ कर्मो के अनुसार और शास्त्र, गुरू, संग, शिक्षा, ज्ञान, विवेक आदि के द्वारा देखे-सुने भावों से निर्मित अन्तः कालीन वासना के अनुसार मरने के पश्चात् कितने ही जीवात्मा दूसरा शरीर धारण करने के लिए वीर्य के साथ माता की योनि में प्रवेश कर जाते हैं। इनमे जिनके पुण्य-पाप समान होते हैं, वे मनुष्य का , जिनके पुण्य कम व पाप अधिक होते हैं वे पशु-पक्षी का शरीर धारण करके उत्पन्न होते हैं, और कितने ही, जिनके पाप अत्यधिक होते हैं वे स्थावर भाव को प्राप्त होते हैं अर्थात् वृक्ष, लता, तृण, पर्वत आदि शरीर में उत्पन्न होते हैं।
अलग-अलग ग्रन्थों में श्राद्ध के विभिन्न प्रकार बताये हैं। पर महर्षि विश्वामित्र ने प्रमुखतया बारह प्रकार के श्राद्धों का उल्लेख किया हैं, जो निम्न प्रकार हैं।
नित्यः-जो नित्य किया जाता हैं, इसमे विश्वदेव का आह्नान नहीं किया जाता हैं। असमर्थ मनुष्य जल से भी कर सकता हैं।
नैमिŸिाकः-यह एकोदिष्ट होता हैं। इसमे भी विश्वदेव का आह्नान नहीं किया जाता हैं। इसमे एक, तीन, पाँच ़ ़ ़ अयुग्म ब्राह्मणों को भोजन कराया जाता हैं।
काम्यः-किसी विशेष कामना से किया हुआ श्राद्ध काम्य श्राद्ध कहलाता हैं।
वृद्धिः-मांगलिक अवसरों पर पितरो की प्रसन्नता हेतु किया गया श्राद्ध, वृद्धि श्राद्ध कहलाता हैं।  सपिंडीः-इसमे गंध, तिल व जल से युक्त चार पात्र अघ्र्य के निमिŸा बनावें। पितरों के पात्रों में प्रेत के पात्र जल को  येस माना, समनसा इन दो मंत्रों से सींचन करें इसको सपिंडन कहते हैं। शेष कर्म नित्य श्राद्ध के समान होता हैं।
पार्वणः-यह संक्रान्ति, अष्टमी, चतुर्दशी, पूर्णिमा व अमावस्या के दिन किया जाता हैं।
गोष्ठीः-विष्णुपुराण में लिखा है कि , बहुत विद्वानों को सुख व पितृ तृप्ति हेतु समूह रूप में जो किया जाय उसे गोष्ठी श्राद्ध कहा जाता हैं।
शुद्धिः-किसी भी कार्य के पूर्व शुद्धि हेतु किया गया प्रायश्चित कर्म या ब्राह्मणों को कराया गया भोजन शुद्धि श्राद्ध कहा जाता हैं।
कर्मांगः-गर्भाधान, सीमंत, पुंसवन आदि कर्मो के अंगभूत होने से पितरों के प्रसन्नता हेतु किया जाता हैं।
दैविकः-देवों की प्रसन्नता हेतु किया जाता हैं, उसे दैविक श्राद्ध कहते हैं।  
यात्राः-सफल तीर्थ यात्रा के उद्देश्य से किया जाता हैं, उसे यात्रा श्राद्ध कहते हैं।
पुष्टिः-शरीर को पुष्ट रखने के लिए या धन वृद्धि हेतु किया जाय उसे पुष्टि श्राद्ध हैं।
इनके अतिरिक्त निम्न श्राद्ध और भी हैं, जो ज्यादातर देखने में आते हैं।
एकोदिष्ट श्राद्धः-यह केवल एक प्रमुख पितर के निमिŸा किया जाता हैं।
महालय श्राद्धः-यह श्राद्ध आश्विन मास के कन्या गत भानु में कृष्ण पक्ष में किया जाता हैं। मुख्य रूप से वर्तमान में यही श्राद्ध देखने को मिलता हैं।
श्राद्ध के देशः-
प्रभास खण्ड में लिखा हैं कि, अपने घर में श्राद्ध के दाता को तीर्थ से आठ गुणा पुण्य प्राप्त होता हैं।
स्कन्द पुराण में लिखा हैं कि, तुलसी के वन की छाया जहां-जहां हो वहां-वहां पितरों की तृप्ति के निमिŸा श्राद्ध करें।
त्रिस्थलीसेतु में वायुपुराण का वाक्य हैं कि, शमी के पŸो के समान भी गयाशिर में जो पिंड देता है, वह सात गोत्र और एक सौ एक कुल का उद्धार करता हैं, सात गोत्र यह हैं, माता, पिता, भार्या, भगिनी, पुत्री, पिता व माता की भगिनी इन सात गोत्रों के 101 पितरो को कुल कहते हैं।
श्रद्धा से किया गया श्राद्ध पितरों को उसी रूप में मिलता है जिस रूप या योनि में पितृ होते हैं। जैसे:-यदि पितृ शुभ कर्म से देवता हुआ है तो उस देने वाले का अन्न अमृत होकर उसे प्राप्त होता हैं, यदि गन्धर्व हो तो भोग रूप से, पशु हो तो तृण रूप से, नाग होने पर वायु रूप से, यक्ष होने पर पान रूप से, राक्षस हो तो आमिष रूप से, दनुज हो तो मद्य रूप से, प्रेत हो तो रूधिरोधक, मनुष्य हो तो अन्नपानादि रूप से मिलता हैं।
अतः प्रत्येक गृहस्थी को पितरों के निमिŸा यथा शक्ति श्रद्धा से श्राद्ध करके पितरों को तृप्त करना चाहिएं।

श्राद्ध  5 सितम्बर  मंगलवार से 20 सितम्बर बुधवार तक।
5 को पूर्णिमा श्राद्ध
6 को प्रतिपदा
7 को द्वितीया
8 को तृतीया
9 चतुर्थी
10 को पंचमी
11 को षष्ठी
12 को सप्तमी
13 को अष्टमी श्राद्ध
14 को सौभाग्यवती नवमी श्राद्ध
15 दशमी
16 को एकादशी
17 को द्वादशी व संयासीनां श्राद्ध
18 चतुर्दशी व शस्त्र से मृत्यु प्राप्त का श्राद्ध
19 सर्वपितृ अमावस्या श्राद्ध
20 को मातामह श्राद्ध

Tuesday, 15 August 2017

वनस्पति से ग्रह शांति

वनस्पति से ग्रह शांति

संसार में मानव मात्र यही चाहता कि वह हमेशा सुखी रहे पर ऐसा हमेशा नहीं होता हैं और व्यक्ति किसी न किसी उलझनों में जूझता ही रहता हैं। ज्योतिष शास्त्र कहता है कि यह सब ग्रहों का असर है एवं उसका निदान ढूंढा जा सकता हैं।
श्री दर्शन पंचांग कर्Ÿाा शास्त्री प्रवीण त्रिवेदी कहते है कि जिस प्रकार पृथ्वी की गुरूत्वाकर्षण शक्ति अन्य वस्तुआंे को अपनी ओर खिचती है, चन्द्रमा की शक्ति से पृथ्वी पर स्थित समन्दर में ज्वार भाटा देखा जा सकता है। ठीक वैसी ही सभी ग्रहों की अपनी अपनी गुरूत्वाकर्षण और चुम्बकीय शक्ति होती है जिसका असर एक दूसरे पर होने से ब्रह्माण्ड के सभी पिण्ड अपनी निश्चित परिधि या स्थान पर स्थित रहते है, वही गुरूत्वाकर्षण एवं चुम्बकीय तरंगों का प्रभाव जब पृथ्वी पर पड़ता है, उसके समन्दरों पर पड़ता है तो वही प्रभाव उस पर निवास करने वाले प्राणि मात्र पर पड़ता है।
त्रिवेदी कहते है कि उन्हीं तरंगों का मानव पर पड़ने वाले प्रभाव या असर को बताने वाला शास्त्र ज्योतिष विज्ञान कहलाता है। जिसमें सर्वाधिक असर करने वाले हमारी पृथ्वी के नजदीकी पिण्डों में से ग्रहों व नक्षत्रों के आधार व प्रभाव को जानने हेतु हमारें तत्वज्ञों ने ज्योतिष शास्त्र का निर्माण किया जिसमें जब शिशु का जन्म होता है उस समय आकाश में रहे हुए ग्रहों की स्थिति बताने वाले चक्र को कुण्डली का रूप दिया गया।
इसी जन्म कुण्डली में स्थित ग्रहों का मानव पर अच्छे एवं बुरे दोनों ही प्रकार के प्रभाव को दर्शाने हेतु फलित ज्योतिष बनाया गया। जिसके अनुसार जब कोई ग्रह आप पर प्रतिकूल असर डालता है तो उसके निदान हेतु कई प्रकार के उपचार बताये गए है जिसमें वनस्पतियों द्वारा ग्रह शांति को इस प्रकार किया जा सकता है-
सूर्य ग्रह की शांति हेतु बेल की जड़ दाहिनें हाथ में गुलाबी धागे में बांधकर रविवार के दिन पुष्य आदि अच्छे नक्षत्र व समय में धारण करें।
चन्द्र ग्रह की शांति हेतु खिरनी या सत्यानाशी की जड़ दाहिनें हाथ में सफेद धागे में बांधकर सोमवार के दिन पुष्य आदि अच्छे नक्षत्र व समय में धारण करें।
मंगल ग्रह की शांति हेतु अनन्त मूल या नागजिन्दा की जड़ दाहिनें हाथ में लाल धागे में बांधकर मंगलवार के दिन पुष्य आदि अच्छे नक्षत्र व समय में धारण करें।
बुध ग्रह की शांति हेतु विधारा या तांबेसर की जड़ दाहिनें हाथ में हरे धागे में बांधकर बुधवार के दिन पुष्य आदि अच्छे नक्षत्र व समय में धारण करें।
बृहस्पति ग्रह की शांति हेतु मोगरा या केले की जड़ दाहिनें हाथ में पीले धागे में बांधकर गुरूवार के दिन पुष्य आदि अच्छे नक्षत्र व समय में धारण करें।
शुक्र ग्रह की शांति हेतु सप्तपर्णी या सरपंखा की जड़ दाहिनें हाथ में श्वेत चमकीले धागे में बांधकर शुक्रवार के दिन पुष्य आदि अच्छे नक्षत्र व समय में धारण करें। इसमें सप्तपर्णी की जड़ शनिवार को धारण करने तो ज्यादा उŸाम रहेगा।
शनि ग्रह की शांति हेतु बिच्छू की जड़ दाहिनें हाथ में काले धागे में बांधकर शनिवार के दिन पुष्य आदि अच्छे नक्षत्र व समय में धारण करें।
राहु ग्रह की शांति हेतु श्वेत चंदन की जड़ दाहिनें हाथ में नीले धागे में बांधकर बुधवार के दिन पुष्य आदि अच्छे नक्षत्र व समय में धारण करें।
केतु ग्रह की शांति हेतु असगंध की जड़ दाहिनें हाथ में आसमानी धागे में बांधकर गुरूवार के दिन पुष्य आदि अच्छे नक्षत्र व समय में धारण करें।
जो व्यक्ति ग्रह दोष हेतु महंगे खर्च नहीं कर पाते उनके लिए यह उपाय कारगर सिद्ध हो सकता है।