तीन साधकों में "सेवा जड़ शरीर की या चेतन आत्मा की?" इस विषय को लेकर मत भेद था। अतः वे तीनो निर्णय के लिए श्रीगङ्गाजी के तट पर एक सन्त के पास गये। सन्त ने जो निर्णय दिया उसे सम्वाद शैली में लिखते हैं। इससे विषय गम्भीर होने पर भी सरलता से समझ में आजाता है।
अस्तु:--
सन्त ने कहा --पहले
आप लोग अपना अपना पक्ष रखें।
उनमें से एक ने कहा---
जड़ अन्न वस्त्र औषध आदि से जड़ शरीर की ही सेवा होती है, क्योंकि
अन्न जल आदि जड़ शरीर में ही लगते हैं, चेतन
जीवात्मा में नहीं। अतः जड़ अन्न वस्त्र आदि से जड़ शरीर की ही सेवा की जाती है। ऐसा मानने से जड़ का सम्बन्ध जड़ से ही होगा, व चेतन आत्मा असङ्ग होकर मुक्त हो जाएगा।
उनकी बात को सुनकर सन्त ने कहा---
कोई व्यक्ति भूखा प्यासा था, और
आपने उसे अन्न-जल खिला-पिला दिया। आपके मतानुसार जड़ अन्न-जल तो जड़ शरीर में लग गए। इस प्रकार जड़ से जड़ की सेवा हो गई। दूसरे दिन फिर उसी भूखे प्यासे व्यक्ति के पास पुनः अन्न-जल लेकर सेवा के लिए गये। उसी क्षण चेतन जीवात्मा निकल गया। क्या अब जड़ अन्न-जल को चेतन जीवात्मारहित जड़ शरीर में डालेंगे? या डालेंगे तो सेवा हो जाएगी??
सन्त के इस प्रश्न को सुनकर प्रथम साधक ने कहा--
जीवात्मा रहित जड़ शरीर में नहीं डालेंगे । डालेंगे तो सेवा नहीं होगी, वल्कि
अन्न-जल का दुरुपयोग ही होगा।
उसके उत्तर को सुनकर सन्त ने कहा--
आपके उत्तर से ही यह विल्कुल स्पष्ट सिद्ध होगया कि--जड़ से जड़ की सेवा नहीं होती।यदि जड़ से जड़ की सेवा होती तो चेतन जीवात्मारहित जड़ शरीर तो अभी भी विद्यमान है। उसमें अन्न-जल आदि डालने से तो सेवा हो जानी चाहिए??
सन्त की बात सुनकर अपने मत का समर्थन करने के लिए उस साधक ने यह तर्क दिया---
जड़ अन्न-जल आदि जड़ शरीर में ही लगते हैं, चेतन जीवात्मा में नहीं।
इस पर सन्त ने कहा-- जिस
सन्त की कुटिया या गरीब की झोपड़ी का जीर्णोद्धार कराना है। आपने सीमेन्ट लोहा लकड़ी आदि सामग्री कुटिया में लगाकर जीर्णोद्धार कर दिया। इससे आपने जड़ कुटिया झोपड़ी की यह सेवा की है या चेतन सन्त गरीब की सेवा की है?
प्रथम साधक ने कहा--मेरे द्वारा चेतन सन्त या गरीब की ही सेवा की गई, जड़
कुटिया, झोपड़ी
की नहीं। क्योंकि उससे सुख तो चेतन सन्त गरीब को ही होगा, जड़ कुटिया झोपड़ी को नही।
सन्त ने कहा--
आपके उत्तर से ही विल्कुल स्पष्ट सिद्ध होगया कि--भले
ही जड़ पदार्थ कहीं लगें, सेवा तो सुख पाने वाले चेतन जीवात्मा को ही होती है। जड़ शरीर या कुटिया की नही।
इस प्रकार आपके ही उत्तरों से यह सिद्ध हो जाता है कि जड़ ण् आदि से जड़ शरीर की सेवा की जानी चाहिए या होती है, यह सिद्धान्त ठीक नहीं है।
दूसरे साधक ने कहा--संसार
में अपना कुछ नहीं है, अतः संसार के पदार्थों को संसार की सेवा की जाये। ऐसा मेरा मत है। इससे संसार के पदार्थों का प्रवाह संसार की ओर हो जाएगा, और हम असङ्ग होकर मुक्त हो जायेंगे।
सन्त ने कहा--दीखिये;
बाजार में कपड़े की दुकान है।आपकी मान्यता के अनुसार कपड़े संसार के पदार्थ हैं। इन्हें आप संसार की सेवा में लगा दें तो क्या सेवा हो जायेगी?? पुलिस
दण्ड नहीं देगी? अधर्म
नहीं होगा??
द्वितीय साधक ने कहा--पुलिस अवश्य पकड़ेगी। अधर्म भी अवश्य होगा। सेवा नहीं होगी। क्योंकि--वे
कपड़े मेरे नहीं हैं, इस लिए उन्हें संसार की सेवा में लगाने का मुझे कोई अधिकार नहीं है।
सन्त ने कहा---आपके
उत्तर से तो यही सिद्ध होता है कि "अपनी वस्तु से ही संसार की सेवा करनी चाहिए/की जा सकती है। इससे तो "अपना
कुछ नहीं" ऐसी जो आपकी मान्यता है, वह
ठीक नहीं सिद्ध होती।
आप यह बतायें-- शर्दी
से व्याकुल एक व्यक्ति को आपने अपने वस्त्र से ढक दिया। आपके मत के अनुसार संसार के पदार्थ वस्त्र से संसार की सेवा हो गई। किसी दूसरे व्यक्ति के पास आप वस्त्र लेकर आप पहुँचे। उसी क्षण चेतन जीवात्मा शरीर से निकल गया।अब आप उस संसार रूप शरीर को वस्त्र से ढँक दें, तो
क्या संसार की सेवा हो जायेगी??
द्वितीय साधक ने कहा--
सेवा तो नहीं होगी, वस्त्र का दुरुपयोग अवश्य होगा।
सन्त ने कहा--आपके
उत्तर से तो यही स्पष्ट सिद्ध हुआ कि--संसार के पदार्थों से संसार की सेवा नहीं होती। यदि होती तो चेतन जीवात्मा रहित जड़ शरीर भी संसार ही है, वह
अभी विद्यमान ही है। अतः उसे वस्त्र से ढँक देने से सेवा तो होनी चाहिए थी। पर होती नहीं। इससे सिद्ध होता है कि-- सेवा जड़ संसार की नहीं वल्कि चेतन जीवात्मा की होती है।
इस प्रकार विचार करने पर--" जड़ से जड़ की सेवा तथा संसार के पदार्थ से संसार की सेवा" ये
दोनों सिद्धान्त सारहीन हैं। शास्त्र में इनका कथन न होने से अशास्त्रीय भी हैं।
तीसरे साधक ने कहा---हमारे प्रारब्ध कर्मानुसार ईश्वर ने हमे जो तन मन बुद्धि धन आदि पदार्थ दिये हैं, उन अपने पदार्थों से चेतन जीवात्मा की सेवा करनी चाहिए। ऐसा मेरा मानना है। ऐसा करने से मुझ पर भगवान् की कृपा होगी, जिससे मैं मुक्त हो जाऊँगा।
सन्त ने कहा--शरीर इन्द्रिय प्राण रहित केवल चेतन जीवात्मा की आप सेवा कैसे करेंगे? क्योंकि शरीर इन्द्रिय प्राण आदि युक्त चेतन जीवात्मा को ही भूख-प्यास आदि लगने पर अन्न-जल वस्त्र आदि से सेवा की जाती है।
तृतीय साधक ने कहा---यद्यपि यह सत्य है कि शरीर इन्द्रिय प्राणयुक्त होने पर ही जीवात्मा को भूख प्यास आदि लगतीं हैं, जिससे अन्न-जल आदि देकर सेवा की जाती है। फिर भी शरीर इन्द्रिय प्राण मन आदि सभी जड़ हैं, चेतन जीवात्मा के भोग के साधन हैं। अधिकरण या करण हैं। इनके द्वारा सुख तो चेतन जीवात्मा को ही मिलता है। वही सुख का भोक्ता है। शरीरादि जड़ होने से भोक्ता नहीं हो सकते। भोक्ता की ही शास्त्र विहित हितकर भोग्य पदार्थों द्वारा सेवा होती है। इस लिए चेतन जीवात्मा की ही सेवा होती है/ की जानी चाहिए" ऐसा मेरा मानना है।
सन्त ने कहा--आपका मन्तव्य ठीक है, शास्त्रसम्मत है। गीता जी में कहा है--#
"सर्वभूत हिते रताः" यहाँ भूत शब्द चेतन जीवात्माओं के लिए प्रयुक्त हुआ है। गीता १८/४६ में भी चेतन की ही सेवा को स्वकर्म के अन्तर्गत कहा गया है।
साभार फेसबुक