Monday, 30 August 2021

क्या मौली (कलावा) बांधने शरीर की रक्षा होती है?

 क्या मौली (कलावा) बांधने शरीर की रक्षा होती है?

मौली बांधना वैदिक परंपरा का हिस्सा है। यज्ञ के दौरान इसे बांधे जाने की परंपरा तो पहले से ही रही है, लेकिन इसको संकल्प सूत्र के साथ ही रक्षा-सूत्र के रूप में तब से बांधा जाने लगा, जबसे असुरों के दानवीर राजा बलि की अमरता के लिए भगवान वामन ने उनकी कलाई पर रक्षा-सूत्र बांधा था। इसे रक्षाबंधन का भी प्रतीक माना जाता है, जबकि देवी लक्ष्मी ने राजा बलि के हाथों में अपने पति की रक्षा के लिए यह बंधन बांधा था। मौली को हर हिन्दू बांधता है। इसे मूलत: रक्षा सूत्र कहते हैं।
मौली का अर्थ
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मौली' का शाब्दिक अर्थ है 'सबसे ऊपर'। मौली का तात्पर्य सिर से भी है। मौली को कलाई में बांधने के कारण इसे कलावा भी कहते हैं। इसका वैदिक नाम उप मणिबंध भी है। मौली के भी प्रकार हैं। शंकर भगवान के सिर पर चन्द्रमा विराजमान है इसीलिए उन्हें चंद्रमौली भी कहा जाता है।
कैसी होती है मौली?
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मौली कच्चे धागे (सूत) से बनाई जाती है जिसमें मूलत: 3 रंग के धागे होते हैं- लाल, पीला और हरा, लेकिन कभी-कभी यह 5 धागों की भी बनती है जिसमें नीला और सफेद भी होता है। 3 और 5 का मतलब कभी त्रिदेव के नाम की, तो कभी पंचदेव।
कहां-कहां बांधते हैं मौली?
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मौली को हाथ की कलाई, गले और कमर में बांधा जाता है। इसके अलावा मन्नत के लिए किसी देवी-देवता के स्थान पर भी बांधा जाता है और जब मन्नत पूरी हो जाती है तो इसे खोल दिया जाता है। इसे घर में लाई गई नई वस्तु को भी बांधा जाता और इसे पशुओं को भी बांधा जाता है।
डॉ0 विजय शंकर मिश्र:
मौली बांधने के नियम
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शास्त्रों के अनुसार पुरुषों एवं अविवाहित कन्याओं को दाएं हाथ में कलावा बांधना चाहिए। विवाहित स्त्रियों के लिए बाएं हाथ में कलावा बांधने का नियम है।
कलावा बंधवाते समय जिस हाथ में कलावा बंधवा रहे हों, उसकी मुट्ठी बंधी होनी चाहिए और दूसरा हाथ सिर पर होना चाहिए।
मौली कहीं पर भी बांधें, एक बात का हमेशा ध्यान रहे कि इस सूत्र को केवल 3 बार ही लपेटना चाहिए व इसके बांधने में वैदिक विधि का प्रयोग करना चाहिए।
कब बांधी जाती है मौली?
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पर्व-त्योहार के अलावा किसी अन्य दिन कलावा बांधने के लिए मंगलवार और शनिवार का दिन शुभ माना जाता है।
हर मंगलवार और शनिवार को पुरानी मौली को उतारकर नई मौली बांधना उचित माना गया है। उतारी हुई पुरानी मौली को पीपल के वृक्ष के पास रख दें या किसी बहते हुए जल में बहा दें।
प्रतिवर्ष की संक्रांति के दिन, यज्ञ की शुरुआत में, कोई इच्छित कार्य के प्रारंभ में, मांगलिक कार्य, विवाह आदि हिन्दू संस्कारों के दौरान मौली बांधी जाती है।
क्यों बांधते हैं मौली?
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मौली को धार्मिक आस्था का प्रतीक माना जाता है।
किसी अच्छे कार्य की शुरुआत में संकल्प के लिए भी बांधते हैं।
किसी देवी या देवता के मंदिर में मन्नत के लिए भी बांधते हैं।
मौली बांधने के 3 कारण हैं- पहला आध्यात्मिक, दूसरा चिकित्सीय और तीसरा मनोवैज्ञानिक।
किसी भी शुभ कार्य की शुरुआत करते समय या नई वस्तु खरीदने पर हम उसे मौली बांधते हैं ताकि वह हमारे जीवन में शुभता प्रदान करे।
हिन्दू धर्म में प्रत्येक धार्मिक कर्म यानी पूजा-पाठ, उद्घाटन, यज्ञ, हवन, संस्कार आदि के पूर्व पुरोहितों द्वारा यजमान के दाएं हाथ में मौली बांधी जाती है।
इसके अलावा पालतू पशुओं में हमारे गाय, बैल और भैंस को भी पड़वा, गोवर्धन और होली के दिन मौली बांधी जाती है।
डॉ0 विजय शंकर मिश्र:
मौली करती है रक्षा
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मौली को कलाई में बांधने पर कलावा या उप मणिबंध करते हैं। हाथ के मूल में 3 रेखाएं होती हैं जिनको मणिबंध कहते हैं। भाग्य व जीवनरेखा का उद्गम स्थल भी मणिबंध ही है। इन तीनों रेखाओं में दैहिक, दैविक व भौतिक जैसे त्रिविध तापों को देने व मुक्त करने की शक्ति रहती है।
इन मणिबंधों के नाम शिव, विष्णु व ब्रह्मा हैं। इसी तरह शक्ति, लक्ष्मी व सरस्वती का भी यहां साक्षात वास रहता है। जब हम कलावा का मंत्र रक्षा हेतु पढ़कर कलाई में बांधते हैं तो यह तीन धागों का सूत्र त्रिदेवों व त्रिशक्तियों को समर्पित हो जाता है जिससे रक्षा-सूत्र धारण करने वाले प्राणी की सब प्रकार से रक्षा होती है। इस रक्षा-सूत्र को संकल्पपूर्वक बांधने से व्यक्ति पर मारण, मोहन, विद्वेषण, उच्चाटन, भूत-प्रेत और जादू-टोने का असर नहीं होता।
आध्यात्मिक पक्ष
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शास्त्रों का ऐसा मत है कि मौली बांधने से त्रिदेव- ब्रह्मा, विष्णु व महेश तथा तीनों देवियों- लक्ष्मी, पार्वती व सरस्वती की कृपा प्राप्त होती है। ब्रह्मा की कृपा से कीर्ति, विष्णु की कृपा से रक्षा तथा शिव की कृपा से दुर्गुणों का नाश होता है। इसी प्रकार लक्ष्मी से धन, दुर्गा से शक्ति एवं सरस्वती की कृपा से बुद्धि प्राप्त होती है।
यह मौली किसी देवी या देवता के नाम पर भी बांधी जाती है जिससे संकटों और विपत्तियों से व्यक्ति की रक्षा होती है। यह मंदिरों में मन्नत के लिए भी बांधी जाती है।
इसमें संकल्प निहित होता है। मौली बांधकर किए गए संकल्प का उल्लंघन करना अनुचित और संकट में डालने वाला सिद्ध हो सकता है। यदि आपने किसी देवी या देवता के नाम की यह मौली बांधी है तो उसकी पवित्रता का ध्यान रखना भी जरूरी हो जाता है।
कमर पर बांधी गई मौली के संबंध में विद्वान लोग कहते हैं कि इससे सूक्ष्म शरीर स्थिर रहता है और कोई दूसरी बुरी आत्मा आपके शरीर में प्रवेश नहीं कर सकती है। बच्चों को अक्सर कमर में मौली बांधी जाती है। यह काला धागा भी होता है। इससे पेट में किसी भी प्रकार के रोग नहीं होते।
डॉ0 विजय शंकर मिश्र:
चिकित्सीय पक्ष
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प्राचीनकाल से ही कलाई, पैर, कमर और गले में भी मौली बांधे जाने की परंपरा के चिकित्सीय लाभ भी हैं। शरीर विज्ञान के अनुसार इससे त्रिदोष अर्थात वात, पित्त और कफ का संतुलन बना रहता है। पुराने वैद्य और घर-परिवार के बुजुर्ग लोग हाथ, कमर, गले व पैर के अंगूठे में मौली का उपयोग करते थे, जो शरीर के लिए लाभकारी था। ब्लड प्रेशर, हार्टअटैक, डायबिटीज और लकवा जैसे रोगों से बचाव के लिए मौली बांधना हितकर बताया गया है।
हाथ में बांधे जाने का लाभ
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शरीर की संरचना का प्रमुख नियंत्रण हाथ की कलाई में होता है अतः यहां मौली बांधने से व्यक्ति स्वस्थ रहता है। उसकी ऊर्जा का ज्यादा क्षय नहीं होता है। शरीर विज्ञान के अनुसार शरीर के कई प्रमुख अंगों तक पहुंचने वाली नसें कलाई से होकर गुजरती हैं। कलाई पर कलावा बांधने से इन नसों की क्रिया नियंत्रित रहती है।
कमर पर बांधी गई मौली
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कमर पर बांधी गई मौली के संबंध में विद्वान लोग कहते हैं कि इससे सूक्ष्म शरीर स्थिर रहता है और कोई दूसरी बुरी आत्मा आपके शरीर में प्रवेश नहीं कर सकती है। बच्चों को अक्सर कमर में मौली बांधी जाती है। यह काला धागा भी होता है। इससे पेट में किसी भी प्रकार के रोग नहीं होते।
मनोवैज्ञानिक लाभ
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मौली बांधने से उसके पवित्र और शक्तिशाली बंधन होने का अहसास होता रहता है और इससे मन में शांति और पवित्रता बनी रहती है। व्यक्ति के मन और मस्तिष्क में बुरे विचार नहीं आते और वह गलत रास्तों पर नहीं भटकता है। कई मौकों पर इससे व्यक्ति गलत कार्य करने से बच जाता है।
आचार्य डॉ0 विजय शंकर मिश्र:

।#जयन्ती_शब्दविमर्श।।

 #जयन्ती_शब्दविमर्श।।

आजकल कुछ लोग ( यह बिल्कुल शास्त्रीय शब्द है, जिसका अर्थ बिल्कुल सभ्य है)यह कहते पाए गये हैं कि जयन्ती शब्द उन महापुरुषों के लिए प्रयोग करो जो मर चुके हैं।
यह बात बिल्कुल निराधार है कि जयन्ती शब्द केवल मृतक महापुरुषों के जन्म दिवस के लिए ही है।
#जयंती का अर्थ---
जयतीति । जि + “तॄभूवहिवसीति । ” उणां ३ । १२८ । इति झच् ।
व्याकरण की व्युत्पत्ति के अनुसार यह #विजयप्रद कालांश के लिए प्रयुक्त शब्द है।
अर्थात् जिस विजयी क्षण में कोई महापुरुष प्रकट हुआ हो।
पुराणों में यह भी कहा है कि --
#जयं पुण्यञ्च कुरुते जयन्तीमिति तां विदुः।।
जयप्रद और पुण्यशाली क्षण भी जयन्ती शब्द वाच्य है।
जो अत्यधिक बलवान् शत्रुओं पर विजय प्राप्त करें उसे #जयन्त कहते हैं ,इसी को देने वाली वेला जयन्ती है----
#अतिशयेनारीन् जयते जयहेतुरिति वा जयन्तः । ” इति तद्भाष्यम् ।। )
भगवान् विष्णु का भी नाम #जयन्त है । अतः उसके प्राकट्य को व्यक्त करने वाली #वेला भी #जयन्ती शब्द वाच्य है---
“अर्को वाजसनः शृङ्गी #जयन्तः सर्व्वविज्जयी ।।
भगवान् शिव का भी नाम जयन्त है , उसके अवतारों का प्राकट्य दिवस भी जयन्ती पद वाच्य है----
यथा मात्स्ये । ५ । ३० । “सावित्रश्च #जयन्तश्च पिनाकी चापराजितः । एते रुद्राः समाख्याता एकादशगणेश्वराः ।।
भगवान वासुदेव के अंश उपेन्द्र के लिए भी जयन्त शब्द है--
जयन्तो वासुदेवांश उपेन्द्र इति यं विदुः ।।
भगवती को भी #जयन्ती कहते हैं---
जयन्ती मंगला.....
श्रीकृष्ण की जन्मकालीन वेला भी जयन्ती कहलाती है---
रोहिणीसहिता कृष्णा
मासे च श्रावणेऽष्टमी ।। अर्द्धरात्रादधश्चोर्द्ध्वं
कलयापि यदा भवेत् ।
जयन्ती नाम सा प्रोक्ता सर्व्वपापप्रणाशिनी ।।
ज्योतिष शास्त्र के अनुसार अनेक ग्रहों की उच्च स्थिति से यह योग बनता है हमारे सभी अवतारों के जन्म समय में यह ज्योतिषीय योग विद्यमान है अतः उनका जन्म दिवस जयन्ती कहलाता है---
यत्र स्वोच्चगतश्चन्द्रो लग्नादेकादशे स्थितः । #जयन्तो नाम योगोऽयं शत्रुपक्षविनाशकृत् ।।
अतः सिद्ध है कि जयन्ती शब्द का जीवित/मृत से कोई सम्बन्ध नहीं है ।यह प्रकट दिवस पर प्रयुक्त होता है।
Arun shastri की वाल से साभार

मुण्डकोपनिषद्

 मुण्डकोपनिषद् अथर्ववेद की शौनकी शाखा से है । इसमें ब्रह्म और उसको प्राप्त करने के मार्ग का सुन्दर उपदेश है । भारत सरकार द्वारा गर्वान्वित उपदेश ’सत्यमेव जयते’ भी इसी उपनिषद् में पाया जाता है । इसी प्रकार इसके अन्य श्लोकांश भी सुविख्यात हैं । इसके कुछ श्लोक कठोपनिषद् में भी पाए जाते हैं । उपनिषद् तीन अध्यायों में बटा है, जिन्हें मुण्डक कहा जाता है । प्रत्येक मुण्डक में दो-दो खण्ड है, जिनमें कुल ६४ श्लोक हैं । अति-स्पष्ट होने से, यह उपनिषद् अवश्य ही पढ़ना चाहिए ।

उपनिषद् बताता है कि देवों की जो प्रथम सृष्टि हुई, उनमें भी सबसे ज्ञानी ब्रह्मा हुए, जो सबके कर्ता और लोकों के रक्षक हुए (सम्भवतः, उन्होंने मनुष्य-जाति को आगे बढ़ाने में योगदान दिया और धर्म के प्रवचन से सब प्राणियों की रक्षा के निमित्त हुए – यह इसका अर्थ है । इस ’ब्रह्मा’ को परमात्मा-वाची ’ब्रह्म’ नहीं समझना चाहिए – नपुंसकलिंग ’ब्रह्म’ परमात्मा के लिए प्रयुक्त होता है, और प्रायः पुंल्लिङ्ग ’ब्रह्मा’ देव-/मनुष्य-वाची होता है ।) उन्होंने अपने ज्येष्ठ पुत्र अथर्वा को ब्रह्मविद्या दी । अथर्वा ने अंगी ऋषि को इस विद्या का पात्र बनाया । अंगी ने उस विद्या को भरद्वाज-गोत्रीय सत्यवह नामक ऋषि को दिया, जिन्होंने अंगिरा ऋषि को यह कही । इस अंगिरा के पास एक दिन शौनक नाम के प्रसिद्ध धनाढ्य व्यक्ति विधिवत् उपस्थित हुए । उन्होंने अंगिरा से जो प्रश्न पूछा, वही इस उपनिषद् को प्रसिद्ध करने के लिए पर्याप्त है ! उन्होंने पूछा –

कस्मिन्नु  भगवो  विज्ञाते  सर्वमिदं  विज्ञातं  भवतीति ॥ मुण्डक० १।१।३ ॥

“हे भगवन् ! किसको जान लेने पर यह सब कुछ जान लिया जाता है (जो सब कुछ इस संसार में है और जो नहीं भी है) ?” क्या विलक्षण प्रश्न है ! इसी पर विचार करके मन प्रफुल्लित हो जाता है !

इस प्रश्न का उत्तर ही उपनिषद् की विषय-वस्तु है । सबसे पहले अंगिरा ने जो विद्या का दो में विभाजन किया, वह अनेकों स्थलों पर उद्धृत किया जाता है, क्योंकि ऐसा विभाजन कम ही पाया जाता है –

तस्मै  स  होवाच । द्वे  विद्ये  वेदितव्ये  इति  ह  स्म  यद्ब्रह्मविदो  वदन्ति  परा  चैवापरा  च ॥ १।१।४ ॥

तत्रापरा  ऋग्वेदो  यजुर्वेदः  सामवेदोऽथर्ववेदः  शिक्षा  कल्पो  व्याकरणं  निरुक्तं  छन्दो  ज्योतिषमिति । अथ  परा  यया  तदक्षरमधिगम्यते ॥ १।१।५ ॥

अर्थात् अंगिरा ने शौनक से कहा, “ दो विद्याएं जानने योग्य हैं जिन्हें कि ब्रह्मविदों ने बताया है – एक परा, दूसरी अपरा । उनमें से अपरा (निचले स्तर की) विद्या वे है जो ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द और ज्योतिष में निबद्ध है । और परा (ऊंचे स्तर की) विद्या वह है जिससे अक्षर परमात्मा तत्त्वशः जाना जाता है ।” यह बहुत ही चिन्तन करने योग्य वाक्य है । हम तो यही जानते आए हैं कि, जिसको यहां अपरा विद्या कहा गया है, वही ब्रह्म तक पहुंचाती है । ऋषि ने तो एक झटके में उसको निम्न कोटि की विद्या में डाल दिया जो, वास्तव में, ब्रह्म तक नहीं पहुंचाती ! यह इसलिए है कि, इन सब ग्रन्थों का परिशीलन कर लेने के बाद भी, जिसने उपासना-समाधि नहीं की, उसने कुछ भी न जाना, न पाया – यस्तं  न  वेद  किमृचा  करिष्यति ? य  इत्  तद्विदुस्त  इमे  समासते (ऋक्० १।१६४।३९, अथर्व० ९।१०।१८)  – जिसने सब पढ़-पढ़ा कर, सब जान-समझ कर, परमात्मा को नहीं जाना, वह वेद की ऋचा से क्या कर लेगा ?! अर्थात् कुछ भी नहीं कर पाएगा । और जिन्होंने परमात्मा को जान लिया, वे उसी में समा गए । वेदों के समान ही, मुनि भी चेतावनी देते हैं कि इन सब ग्रन्थों को पढ़कर अपने को ज्ञानी, मानी, महात्मा मत समझ बैठो – 

अविद्यायामन्तरे  वर्तमानाः  स्वयं  धीराः  पण्डितं  मन्यमानाः ।

जङ्घन्यमानाः  परियन्ति  मूढा  अन्धेनैव  नीयमाना  यथान्धाः ॥ १।२।८ ॥

मूढ़ लोग, अविद्या से घिरे होते हुए भी, अपने को धीर और पण्डित समझते हुए, और इस कारण सब ओर से ठोकरें खाते हुए, उसी प्रकार इधर-उधर मण्डराते हैं जैसे कि एक अन्धे के द्वारा लिए जा रहे अन्धे ।       

इस उपनिषद् में अग्नि की लपटों को गुणानुसार विभक्त किया गया है, जो भी एक बहुचर्चित विभाजन है, परन्तु इसका वैज्ञानिक विश्लेषण अपेक्षित है –

काली  कराली  मनोजवा  च

         सुलोहिता  या  च  सुधूम्रवर्णा ।

स्फुलिङ्गिनी  विश्वरुची  च  देवी

         लेलायमाना  इति  सप्त  जिह्वाः ॥ १।२।४ ॥

अग्नि की जिह्वारूपी, लपलपाती हुई सात लपटें बताई गई हैं – काली (रंगहीन), कराली (अति उग्र), मनोजवा (स्फूर्ति वाली), सुलोहिता (लाल रंग वाली), सुधूम्रवर्णा (धुंए के रंग वाली), स्फुलिंगिनी (अंगारों वाली) और विश्वरुची देवी (सब ओर से प्रकाशित) ।

ब्रह्मविद्या को प्राप्त करने के लिए उपनिषद् मार्ग बताता है –

परीक्ष्य  लोकान्  कर्मचितान्  ब्राह्मणो

         निर्वेदमायान्नास्त्यकृतः  कृतेन ।

तद्विज्ञानार्थं  स  गुरुमेवाभिगच्छेत्

         समित्पाणिः  श्रोत्रियं  ब्रह्मनिष्ठम् ॥ १।२।१२ ॥

ब्रह्म की इच्छा करने वाला ब्राह्मण अच्छे कर्मों से भी प्राप्त होने वाले स्वर्गलोक के दोषों को देखकर (पिछले श्लोक का शेष), विरक्ति को प्राप्त करे, क्योंकि जो ’अकृत’ परमेश्वर है, वह कर्मों से नहीं प्राप्त होता ! उसको जानने के लिए वह समित्पाणि होकर, मन में श्रद्धा भरकर, ऐसे गुरु को प्राप्त करे जो वेदों में पारंगत हो और परमात्मा में स्थित हो ।

अन्य उपनिषदों के समान, यह उपनिषद् भी जताता है कि अच्छे कर्मों या ’निष्काम कर्मों’ से मोक्ष नहीं प्राप्त होता । उसके लिए ब्रह्म का साक्षात्कार अनिवार्य है, जिसके लिए कर्म रोककर उपासना करनी पड़ती है ।

आगे ऋषि कहते हैं –

धनुर्गृहीत्वौपनिषदं  महास्त्रं

         शरं  ह्युपासानिशितं  सन्धयीत ।

आयम्य  तद्भावगतेन  चेतसा

         लक्ष्यं  तदेवाक्षरं  सोम्य  विद्धि ॥ २।२।३ ॥

प्रणवो  धनुः  शरो  ह्यात्मा  ब्रह्म  तल्लक्ष्यमुच्यते ।

अप्रमत्तेन  वेद्धव्यं  शरवत्  तन्मयो  भवेत् ॥ २।२।४ ॥

हे सोम्य ! हे प्रिय शिष्य ! उपनिषदों में वर्णित महास्त्र धनु को उठाकर, उस पर उपासना से तेज किए हुए तीर को चढ़ा । भाव-विभोर मन से उसकी डोरी खींच और उस ही अक्षर को लक्ष्य कर वेध दे । इस उपमा को अगले श्लोक में वे स्वयं समझाते हैं – प्रणव धनुष है, आत्मा तीर है, ब्रह्म को लक्ष्य कहा गया है । प्रमादशून्य होकर उस लक्ष्य को वेधना चाहिए और तीर के समान उसमें तल्लीन हो जाना चाहिए । अत्यन्त सुन्दरता से ऋषि ने पूरी उपासना की प्रक्रिया संक्षेप से कह दी !

आगे वे और परामर्श देते हैं –

सत्येन  लभ्यस्तपसा  ह्येष  आत्मा

         सम्यग्ज्ञानेन  ब्रह्मचर्येण  नित्यम् ।

अन्तःशरीरे  ज्योतिर्मयो  हि  शुभ्रो

         यं  पश्यन्ति  यतयः  क्षीणदोषाः ॥ ३।१।५ ॥

वह परमात्मा सत्य से, तप से, सम्यक् ज्ञान से और नित्य ब्रह्मचर्य से प्राप्त होता है । जो यति, निरन्तर यत्न करते हुए, दोषों से रहित हो जाते हैं, वे उसको अपने शरीर के अन्दर (बुद्धि में) शुभ्र ज्योति के रूप में देखते हैं । क्योंकि –

सत्यमेव  जयति  नानृतं

         सत्येन  पन्था  विततो देवयानः ।

येनाक्रम्न्त्यृषयो  ह्याप्तकामा

         यत्र  तत्  सत्यस्य  परमं  निधानम् ॥ ३।१।६ ॥

सत्य ही अन्ततः जीतता है, न कि झूठ । सत्य के पथ से देवों के पथ का विस्तार होता है, जिस को पार करके ऋषि-जन कामना-रहित होते हुए, वहां पहुंच जाते हैं जहां सत्य का परम कोष है, अर्थात् परमात्मा को प्राप्त कर लेते हैं । सत्य का महत्त्व प्रायः आजकल सब भूल गए हैं, और चारों ओर झूठ फैल गया है । परन्तु जिनको अपना उद्धार इष्ट है, उन्हें झूठ को अपने जीवन से उखाड़ना ही पड़ेगा … 

’सत्यमेव जयते’ यह प्रसिद्ध पाठ सम्यक् नहीं प्रतीत होता । पाणिनीय व्याकरणानुसार भी ’जय’ धातु में आत्मनेपद उपलब्ध नहीं है । किन ऐतिहासिक कारणों से सर्वकार द्वारा ऐसा पाठ स्वीकृत किया गया, यह मुझे ज्ञात नहीं है ।

मुनि एक और अत्यन्त सुन्दर उपमा देते हैं, जो कि स्मरणीय है –

यथा  नद्यः  स्यन्दमानाः  समुद्रे-

         ऽस्तं  गच्छन्ति  नामरूपे  विहाय ।

तथा  विद्वान्  नामरूपाद्विमुक्तः

         परात्परं  पुरुषमुपैति  दिव्यम् ॥ ३।२।८ ॥

जैसे बहती हुई नदियां अपना नाम और रूप छोड़कर समुद्र में अस्त हो जाती हैं, वैसे ही जो विद्वान् मोक्ष प्राप्त करता है, वह भी अपने नाम और रूप से मुक्त होकर, उत्तमों से उत्तम, दिव्य पुरुष को प्राप्त कर लेता है । 

यहां यह संशय हो सकता है कि यह वाक्य अद्वैत मत का मण्डन कर रहा है, क्योंकि नदी तो समुद्र में जाकर अपना अस्तित्व पूरी तरह खो देती है – क्या आत्मा भी परमात्मा में एक हो जाती है ? आगे भी वे कहते हैं – स  यो  ह  वै  तत्परमं  ब्रह्म  वेद  ब्रह्मैव  भवति (३।२।९) – अर्थात् जो भी उस परम ब्रह्म को जान लेता है, वह ब्रह्म ही हो जाता है । नहीं, आत्मा अपना भिन्न अस्तित्व बनाए रखती है, परन्तु प्रकृति-जनित नाम और रूप को खो देती है – यह केवल कहने की आलंकारिक शैली है । तथापि वह अन्य मुक्तात्माओं से कैसे अपना वैशिष्ट्य बनाए रखती है, यह चिन्त्य है ।

अन्त में पुनः कहा गया है कि यह महर्षि अंगिरा का उपदेश है, जिसे कि ब्रह्मचर्यव्रत का पालन न करने वाला नहीं समझ सकता । उनके जैसे सभी परम ऋषियों को नमस्कारपूर्वक उपनिषद् समाप्त हो जाता है ।

इस प्रकार मुण्डकोपनिषद् आध्यात्मिक पथ पर चलने वालों के लिए तो आवश्यक सामग्री है ही, परन्तु वस्तुतः यह अत्यन्त सुन्दर उपनिषद् सभी अध्यात्मानुरागियों के द्वारा पठितव्य है ।