Wednesday, 5 April 2023

संस्कृत

 संस्कृत में 1700 धातुएं, 70 प्रत्यय और 80 उपसर्ग हैं, इनके योग से जो शब्द बनते हैं, उनकी संख्या 27 लाख 20 हजार होती है। यदि दो शब्दों से बने सामासिक शब्दों को जोड़ते हैं तो उनकी संख्या लगभग 769 करोड़ हो जाती है।

संस्कृत इंडो-यूरोपियन लैंग्वेज की सबसे #प्राचीन_भाषा है और सबसे वैज्ञानिक_भाषा भी है। इसके सकारात्मक तरंगों के कारण ही ज्यादातर श्लोक संस्कृत में हैं। #भारत में संस्कृत से लोगों का जुड़ाव खत्म हो रहा है लेकिन विदेशों में इसके प्रति रुझाान बढ़ रहा है।
ब्रह्मांड में सर्वत्र गति है। गति के होने से ध्वनि प्रकट होती है । ध्वनि से शब्द परिलक्षित होते हैं और शब्दों से भाषा का निर्माण होता है। आज अनेकों भाषायें प्रचलित हैं । किन्तु इनका काल निश्चित है कोई सौ वर्ष, कोई पाँच सौ तो कोई हजार वर्ष पहले जन्मी। साथ ही इन भिन्न भिन्न भाषाओं का जब भी जन्म हुआ, उस समय अन्य भाषाओं का अस्तित्व था। अतः पूर्व से ही भाषा का ज्ञान होने के कारण एक नयी भाषा को जन्म देना अधिक कठिन कार्य नहीं है। किन्तु फिर भी साधारण मनुष्यों द्वारा साधारण रीति से बिना किसी वैज्ञानिक आधार के निर्माण की गयी सभी भाषाओं मे भाषागत दोष दिखते हैं । ये सभी भाषाए पूर्ण शुद्धता,स्पष्टता एवं वैज्ञानिकता की कसौटी पर खरी नहीं उतरती। क्योंकि ये सिर्फ और सिर्फ एक दूसरे की बातों को समझने के साधन मात्र के उद्देश्य से बिना किसी सूक्ष्म वैज्ञानिकीय चिंतन के बनाई गयी। किन्तु मनुष्य उत्पत्ति के आरंभिक काल में, धरती पर किसी भी भाषा का अस्तित्व न था।
तो सोचिए किस प्रकार भाषा का निर्माण संभव हुआ होगा?
शब्दों का आधार #ध्वनि है, तब ध्वनि थी तो स्वाभाविक है #शब्द भी थे। किन्तु व्यक्त नहीं हुये थे, अर्थात उनका ज्ञान नहीं था।
प्राचीन ऋषियों ने मनुष्य जीवन की आत्मिक एवं लौकिक उन्नति व विकास में शब्दो के महत्व और शब्दों की अमरता का गंभीर आकलन किया । उन्होने एकाग्रचित्त हो ध्वानपूर्वक, बार बार मुख से अलग प्रकार की ध्वनियाँ उच्चारित की और ये जानने में प्रयासरत रहे कि मुख-विवर के किस सूक्ष्म अंग से ,कैसे और कहाँ से ध्वनि जन्म ले रही है। तत्पश्चात निरंतर अथक प्रयासों के फलस्वरूप उन्होने परिपूर्ण, पूर्ण शुद्ध,स्पष्ट एवं अनुनाद क्षमता से युक्त ध्वनियों को ही भाषा के रूप में चुना । सूर्य के एक ओर से 9 रश्मिया निकलती हैं और सूर्य के चारो ओर से 9 भिन्न भिन्न रश्मियों के निकलने से कुल निकली 36 रश्मियों की ध्वनियों पर संस्कृत के 36 #स्वर बने और इन 36 रश्मियो के पृथ्वी के आठ वसुओ से टकराने से 72 प्रकार की #ध्वनि उत्पन्न होती हैं । जिनसे संस्कृत के 72 व्यंजन बने। इस प्रकार ब्रह्माण्ड से निकलने वाली कुल 108 ध्वनियों पर संस्कृत की #वर्णमाला आधारित है। ब्रह्मांड की इन ध्वनियों के रहस्य का ज्ञान वेदों से मिलता है। इन ध्वनियों को नासा ने भी स्वीकार किया है जिससे स्पष्ट हो जाता है कि प्राचीन ऋषि मुनियों को उन ध्वनियों का ज्ञान था और उन्ही ध्वनियों के आधार पर उन्होने पूर्णशुद्ध भाषा को अभिव्यक्त किया। अतः प्राचीनतम #आर्यभाषा जो #ब्रह्मांडीय_संगीत थी उसका नाम "संस्कृत" पड़ा। संस्कृत – संस् + कृत् अर्थात
#श्वासों_से_निर्मित अथवा साँसो से बनी एवं स्वयं से कृत , जो कि ऋषियों के ध्यान लगाने व परस्पर संपर्क से अभिव्यक्त हुयी।
कालांतर में #पाणिनी ने नियमित #व्याकरण के द्वारा संस्कृत को परिष्कृत एवं सर्वम्य प्रयोग में आने योग्य रूप प्रदान किया। #पाणिनीय_व्याकरण ही संस्कृत का प्राचीनतम व सर्वश्रेष्ठ व्याकरण है। दिव्य व दैवीय गुणों से युक्त, अतिपरिष्कृत, परमार्जित, सर्वाधिक व्यवस्थित, अलंकृत सौन्दर्य से युक्त , पूर्ण समृद्ध व सम्पन्न , पूर्णवैज्ञानिक #देववाणी संस्कृत – मनुष्य की आत्मचेतना को जागृत करने वाली, सात्विकता में वृद्धि , बुद्धि व आत्मबलप्रदान करने वाली सम्पूर्ण विश्व की सर्वश्रेष्ठ भाषा है। अन्य सभी भाषाओ में त्रुटि होती है पर इस भाषा में कोई त्रुटि नहीं है। इसके उच्चारण की शुद्धता को इतना सुरक्षित रखा गया कि सहस्त्रों वर्षो से लेकर आज तक वैदिक मन्त्रों की ध्वनियों व मात्राओं में कोई पाठभेद नहीं हुआ और ऐसा सिर्फ हम ही नहीं कह रहे बल्कि विश्व के आधुनिक विद्वानों और भाषाविदों ने भी एक स्वर में संस्कृत को पूर्णवैज्ञानिक एवं सर्वश्रेष्ठ माना है।
संस्कृत की सर्वोत्तम शब्द-विन्यास युक्ति के, गणित के, कंप्यूटर आदि के स्तर पर नासा व अन्य वैज्ञानिक व भाषाविद संस्थाओं ने भी इस भाषा को एकमात्र वैज्ञानिक भाषा मानते हुये इसका अध्ययन आरंभ कराया है और भविष्य में भाषा-क्रांति के माध्यम से आने वाला समय संस्कृत का बताया है। अतः अंग्रेजी बोलने में बड़ा गौरव अनुभव करने वाले, अंग्रेजी में गिटपिट करके गुब्बारे की तरह फूल जाने वाले कुछ महाशय जो संस्कृत में दोष गिनाते हैं उन्हें कुँए से निकलकर संस्कृत की वैज्ञानिकता का एवं संस्कृत के विषय में विश्व के सभी विद्वानों का मत जानना चाहिए।
▪️नासा की वेबसाईट पर जाकर संस्कृत का महत्व पढ़ें।
काफी शर्म की बात है कि भारत की भूमि पर ऐसे लोग हैं जिन्हें अमृतमयी वाणी संस्कृत में दोष और विदेशी भाषाओं में गुण ही गुण नजर आते हैं वो भी तब जब विदेशी भाषा वाले संस्कृत को सर्वश्रेष्ठ मान रहे हैं ।
अतः जब हम अपने बच्चों को कई विषय पढ़ा सकते हैं तो संस्कृत पढ़ाने में संकोच नहीं करना चाहिए। देश विदेश में हुये कई शोधो के अनुसार संस्कृत मस्तिष्क को काफी तीव्र करती है जिससे अन्य भाषाओं व विषयों को समझने में काफी सरलता होती है , साथ ही यह सत्वगुण में वृद्धि करते हुये नैतिक बल व चरित्र को भी सात्विक बनाती है। अतः सभी को यथायोग्य संस्कृत का अध्ययन करना चाहिए।
आज दुनिया भर में लगभग 6900 भाषाओं का प्रयोग किया जाता है। लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि इन भाषाओं की जननी कौन है?
नहीं?
कोई बात नहीं आज हम आपको दुनिया की सबसे पुरानी भाषा के बारे में विस्तृत जानकारी देने जा रहे हैं।
दुनिया की सबसे पुरानी भाषा है :- संस्कृत भाषा।
▪️आइये जाने संस्कृत भाषा का महत्व :
संस्कृत भाषा के विभिन्न स्वरों एवं व्यंजनों के विशिष्ट उच्चारण स्थान होने के साथ प्रत्येक स्वर एवं व्यंजन का उच्चारण व्यक्ति के सात ऊर्जा चक्रों में से एक या एक से अधिक चक्रों को निम्न प्रकार से प्रभावित करके उन्हें क्रियाशील – उर्जीकृत करता है :-
मूलाधार चक्र – स्वर 'अ' एवं क वर्ग का उच्चारण मूलाधार चक्र पर प्रभाव डाल कर उसे क्रियाशील एवं सक्रिय करता है।
स्वर 'इ' तथा च वर्ग का उच्चारण स्वाधिष्ठान चक्र को उर्जीकृत करता है।
स्वर 'ऋ' तथा ट वर्ग का उच्चारण मणिपूरक चक्र को सक्रिय एवं उर्जीकृत करता है।
स्वर 'लृ' तथा त वर्ग का उच्चारण अनाहत चक्र को प्रभावित करके उसे उर्जीकृत एवं सक्रिय करता है।
स्वर 'उ' तथा प वर्ग का उच्चारण विशुद्धि चक्र को प्रभावित करके उसे सक्रिय करता है।
ईषत् स्पृष्ट वर्ग का उच्चारण मुख्य रूप से आज्ञा चक्र एवं अन्य चक्रों को सक्रियता प्रदान करता है।
ईषत् विवृत वर्ग का उच्चारण मुख्य रूप से
सहस्त्राधार चक्र एवं अन्य चक्रों को सक्रिय करता है।
इस प्रकार देवनागरी लिपि के प्रत्येक स्वर एवं व्यंजन का उच्चारण व्यक्ति के किसी न किसी उर्जा चक्र को सक्रिय करके व्यक्ति की चेतना के स्तर में अभिवृद्धि करता है। वस्तुतः संस्कृत भाषा का प्रत्येक शब्द इस प्रकार से संरचित (design) किया गया है कि उसके स्वर एवं व्यंजनों के मिश्रण (combination) का उच्चारण करने पर वह हमारे विशिष्ट ऊर्जा चक्रों को प्रभावित करे। प्रत्येक शब्द स्वर एवं व्यंजनों की विशिष्ट संरचना है जिसका प्रभाव व्यक्ति की चेतना पर स्पष्ट परिलक्षित होता है। इसीलिये कहा गया है कि व्यक्ति को शुद्ध उच्चारण के साथ-साथ बहुत सोच-समझ कर बोलना चाहिए। शब्दों में शक्ति होती है जिसका दुरूपयोग एवं सदुपयोग स्वयं पर एवं दूसरे पर प्रभाव डालता है। शब्दों के प्रयोग से ही व्यक्ति का स्वभाव, आचरण, व्यवहार एवं व्यक्तित्व निर्धारित होता है।
उदाहरणार्थ जब 'राम' शब्द का उच्चारण किया जाता है है तो हमारा अनाहत चक्र जिसे ह्रदय चक्र भी कहते है सक्रिय होकर उर्जीकृत होता है। 'कृष्ण' का उच्चारण मणिपूरक चक्र – नाभि चक्र को सक्रिय करता है। 'सोह्म' का उच्चारण दोनों 'अनाहत' एवं 'मणिपूरक' चक्रों को सक्रिय करता है।
वैदिक मंत्रो को हमारे मनीषियों ने इसी आधार पर विकसित किया है। प्रत्येक मन्त्र स्वर एवं व्यंजनों की एक विशिष्ट संरचना है। इनका निर्धारित प्रक्रिया के अनुसार शुद्ध उच्चारण ऊर्जा चक्रों को सक्रिय करने के साथ साथ मष्तिष्क की चेतना को उच्चीकृत करता है। उच्चीकृत चेतना के साथ व्यक्ति विशिष्टता प्राप्त कर लेता है और उसका कहा हुआ अटल होने के साथ-साथ अवश्यम्भावी होता है। शायद आशीर्वाद एवं श्राप देने का आधार भी यही है। संस्कृत भाषा की वैज्ञानिकता एवं सार्थकता इस तरह स्वयं सिद्ध है।
भारतीय शास्त्रीय संगीत के सातों स्वर हमारे शरीर के सातों उर्जा चक्रों से जुड़े हुए हैं। प्रत्येक का उच्चारण सम्बंधित उर्जा चक्र को क्रियाशील करता है। शास्त्रीय राग इस प्रकार से विकसित किये गए हैं जिससे उनका उच्चारण / गायन विशिष्ट उर्जा चक्रों को सक्रिय करके चेतना के स्तर को उच्चीकृत करे। प्रत्येक राग मनुष्य की चेतना को विशिष्ट प्रकार से उच्चीकृत करने का सूत्र (formula) है। इनका सही अभ्यास व्यक्ति को असीमित ऊर्जावान बना देता है।
संस्कृत केवल स्वविकसित भाषा नहीं बल्कि संस्कारित भाषा है इसीलिए इसका नाम संस्कृत है। संस्कृत को संस्कारित करने वाले भी कोई साधारण भाषाविद् नहीं बल्कि #महर्षि_पाणिनि; #महर्षि_कात्यायिनि और योग शास्त्र के प्रणेता महर्षि #पतंजलि हैं। इन तीनों महर्षियों ने बड़ी ही कुशलता से योग की क्रियाओं को भाषा में समाविष्ट किया है। यही इस भाषा का रहस्य है । जिस प्रकार साधारण पकी हुई दाल को शुध्द घी में जीरा; मैथी; लहसुन; और हींग का तड़का लगाया जाता है;तो उसे संस्कारित दाल कहते हैं। घी ; जीरा; लहसुन, मैथी ; हींग आदि सभी महत्वपूर्ण औषधियाँ हैं। ये शरीर के तमाम विकारों को दूर करके पाचन संस्थान को दुरुस्त करती है।दाल खाने वाले व्यक्ति को यह पता ही नहीं चलता कि वह कोई कटु औषधि भी खा रहा है; और अनायास ही आनन्द के साथ दाल खाते-खाते इन औषधियों का लाभ ले लेता है। ठीक यही बात संस्कारित भाषा संस्कृत के साथ सटीक बैठती है। जो भेद साधारण दाल और संस्कारित दाल में होता है ;वैसा ही भेद अन्य भाषाओं और संस्कृत भाषा के बीच है।
▪️संस्कृत भाषा में वे औषधीय तत्व क्या है ?
यह विश्व की तमाम भाषाओं से संस्कृत भाषा का तुलनात्मक अध्ययन करने से स्पष्ट हो जाता है। चार महत्वपूर्ण विशेषताएँ:- 1. अनुस्वार (अं ) और विसर्ग (अ:): संस्कृत भाषा की सबसे महत्वपूर्ण और लाभदायक व्यवस्था है, अनुस्वार और विसर्ग। पुल्लिंग के अधिकांश शब्द विसर्गान्त होते हैं -यथा- राम: बालक: हरि: भानु: आदि। नपुंसक लिंग के अधिकांश शब्द अनुस्वारान्त होते हैं-यथा- जलं वनं फलं पुष्पं आदि।
विसर्ग का उच्चारण और कपालभाति प्राणायाम दोनों में श्वास को बाहर फेंका जाता है। अर्थात् जितनी बार विसर्ग का उच्चारण करेंगे उतनी बार कपालभाति प्रणायाम अनायास ही हो जाता है। जो लाभ कपालभाति प्रणायाम से होते हैं, वे केवल संस्कृत के विसर्ग उच्चारण से प्राप्त हो जाते हैं।उसी प्रकार अनुस्वार का उच्चारण और भ्रामरी प्राणायाम एक ही क्रिया है । भ्रामरी प्राणायाम में श्वास को नासिका के द्वारा छोड़ते हुए भवरे की तरह गुंजन करना होता है और अनुस्वार के उच्चारण में भी यही क्रिया होती है। अत: जितनी बार अनुस्वार का उच्चारण होगा , उतनी बार भ्रामरी प्राणायाम स्वत: हो जायेगा । जैसे हिन्दी का एक वाक्य लें- " राम फल खाता है"इसको संस्कृत में बोला जायेगा- " राम: फलं खादति"=राम फल खाता है ,यह कहने से काम तो चल जायेगा ,किन्तु राम: फलं खादति कहने से अनुस्वार और विसर्ग रूपी दो प्राणायाम हो रहे हैं। यही संस्कृत भाषा का रहस्य है। संस्कृत भाषा में एक भी वाक्य ऐसा नहीं होता जिसमें अनुस्वार और विसर्ग न हों। अत: कहा जा सकता है कि संस्कृत बोलना अर्थात् चलते फिरते योग साधना करना होता है ।
2.शब्द-रूप:-संस्कृत की दूसरी विशेषता है शब्द रूप। विश्व की सभी भाषाओं में एक शब्द का एक ही रूप होता है,जबकि संस्कृत में प्रत्येक शब्द के 25 रूप होते हैं*। जैसे राम शब्द के निम्नानुसार 25 रूप बनते हैं- यथा:- रम् (मूल धातु)-राम: रामौ रामा:;रामं रामौ रामान् ;रामेण रामाभ्यां रामै:; रामाय रामाभ्यां रामेभ्य: ;रामात् रामाभ्यां रामेभ्य:; रामस्य रामयो: रामाणां; रामे रामयो: रामेषु ;हे राम ! हे रामौ ! हे रामा : ।ये 25 रूप सांख्य दर्शन के 25 तत्वों का प्रतिनिधित्व करते हैं।
जिस प्रकार पच्चीस तत्वों के ज्ञान से समस्त सृष्टि का ज्ञान प्राप्त हो जाता है, वैसे ही संस्कृत के पच्चीस रूपों का प्रयोग करने से आत्म साक्षात्कार हो जाता है और इन 25 तत्वों की शक्तियाँ संस्कृतज्ञ को प्राप्त होने लगती है। सांख्य दर्शन के 25 तत्व निम्नानुसार हैं -आत्मा (पुरुष), (अंत:करण 4 ) मन बुद्धि चित्त अहंकार, (ज्ञानेन्द्रियाँ 5) नासिका जिह्वा नेत्र त्वचा कर्ण, (कर्मेन्द्रियाँ 5) पाद हस्त उपस्थ पायु वाक्, (तन्मात्रायें 5) गन्ध रस रूप स्पर्श शब्द,( महाभूत 5) पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश।
3.द्विवचन :- संस्कृत भाषा की तीसरी विशेषता है द्विवचन। सभी भाषाओं में एक वचन और बहुवचन होते हैं जबकि संस्कृत में द्विवचन अतिरिक्त होता है। इस द्विवचन पर ध्यान दें तो पायेंगे कि यह द्विवचन बहुत ही उपयोगी और लाभप्रद है। जैसे :- राम शब्द के द्विवचन में निम्न रूप बनते हैं:- रामौ , रामाभ्यां और रामयो:। इन तीनों शब्दों के उच्चारण करने से योग के क्रमश: मूलबन्ध ,उड्डियान बन्ध और जालन्धर बन्ध लगते हैं, जो योग की बहुत ही महत्वपूर्ण क्रियायें हैं।
4. सन्धि :- संस्कृत भाषा की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता है सन्धि। संस्कृत में जब दो शब्द पास में आते हैं तो वहाँ सन्धि होने से स्वरूप और उच्चारण बदल जाता है। उस बदले हुए उच्चारण में जिह्वा आदि को कुछ विशेष प्रयत्न करना पड़ता है।ऐसे सभी प्रयत्न एक्यूप्रेशर चिकित्सा पद्धति के प्रयोग हैं।"इति अहं जानामि" इस वाक्य को चार प्रकार से बोला जा सकता है, और हर प्रकार के उच्चारण में वाक् इन्द्रिय को विशेष प्रयत्न करना होता है।
यथा:- 1 इत्यहं जानामि। 2 अहमिति जानामि। 3 जानाम्यहमिति । 4 जानामीत्यहम्। इन सभी उच्चारणों में विशेष आभ्यंतर प्रयत्न होने से एक्यूप्रेशर चिकित्सा पद्धति का सीधा प्रयोग अनायास ही हो जाता है। जिसके फल स्वरूप मन बुद्धि सहित समस्त शरीर पूर्ण स्वस्थ एवं निरोग हो जाता है। इन समस्त तथ्यों से सिद्ध होता है कि संस्कृत भाषा केवल विचारों के आदान-प्रदान की भाषा ही नहीं ,अपितु मनुष्य के सम्पूर्ण विकास की कुंजी है। यह वह भाषा है, जिसके उच्चारण करने मात्र से व्यक्ति का कल्याण हो सकता है। इसीलिए इसे #देवभाषा और अमृतवाणी कहते हैं। संस्कृत भाषा का व्याकरण अत्यंत परिमार्जित एवं वैज्ञानिक है।
संस्कृत के एक वैज्ञानिक भाषा होने का पता उसके किसी वस्तु को संबोधन करने वाले शब्दों से भी पता चलता है। इसका हर शब्द उस वस्तु के बारे में, जिसका नाम रखा गया है, के सामान्य लक्षण और गुण को प्रकट करता है। ऐसा अन्य भाषाओं में बहुत कम है। पदार्थों के नामकरण ऋषियों ने वेदों से किया है और वेदों में यौगिक शब्द हैं और हर शब्द गुण आधारित हैं ।
इस कारण संस्कृत में वस्तुओं के नाम उसका गुण आदि प्रकट करते हैं। जैसे हृदय शब्द। हृदय को अंगेजी में हार्ट कहते हैं और संस्कृत में हृदय कहते हैं।
अंग्रेजी वाला शब्द इसके लक्षण प्रकट नहीं कर रहा, लेकिन संस्कृत शब्द इसके लक्षण को प्रकट कर इसे परिभाषित करता है। #बृहदारण्यकोपनिषद 5.3.1 में हृदय शब्द का अक्षरार्थ इस प्रकार किया है- तदेतत् र्त्यक्षर हृदयमिति, हृ इत्येकमक्षरमभिहरित, द इत्येकमक्षर ददाति, य इत्येकमक्षरमिति।
अर्थात हृदय शब्द हृ, हरणे द दाने तथा इण् गतौ इन तीन धातुओं से निष्पन्न होता है। हृ से हरित अर्थात शिराओं से अशुद्ध रक्त लेता है, द से ददाति अर्थात शुद्ध करने के लिए फेफड़ों को देता है और य से याति अर्थात सारे शरीर में रक्त को गति प्रदान करता है। इस सिद्धांत की खोज हार्वे ने 1922 में की थी, जिसे हृदय शब्द स्वयं लाखों वर्षों से उजागर कर रहा था ।
संस्कृत में संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण और क्रिया के कई तरह से शब्द रूप बनाए जाते, जो उन्हें व्याकरणीय अर्थ प्रदान करते हैं। अधिकांश शब्द-रूप मूल शब्द के अंत में प्रत्यय लगाकर बनाए जाते हैं। इस तरह यह कहा जा सकता है कि संस्कृत एक बहिर्मुखी-अंतःश्लिष्टयोगात्मक भाषा है। संस्कृत के व्याकरण को महापुरुषों ने वैज्ञानिक स्वरूप प्रदान किया है। संस्कृत भारत की कई लिपियों में लिखी जाती रही है, लेकिन आधुनिक युग में देवनागरी लिपि के साथ इसका विशेष संबंध है। #देवनागरी_लिपि वास्तव में संस्कृत के लिए ही बनी है! इसलिए इसमें हरेक चिन्ह के लिए एक और केवल एक ही ध्वनि है।
देवनागरी में 13 स्वर और 34 व्यंजन हैं। संस्कृत केवल स्वविकसित भाषा नहीं, बल्कि #संस्कारित_भाषा भी है, अतः इसका नाम संस्कृत है। केवल संस्कृत ही एकमात्र भाषा है, जिसका नामकरण उसके बोलने वालों के नाम पर नहीं किया गया है। संस्कृत को संस्कारित करने वाले भी कोई साधारण भाषाविद नहीं, बल्कि महर्षि पाणिनि, महर्षि कात्यायन और योगशास्त्र के प्रणेता महर्षि पतंजलि हैं।
विश्व की सभी भाषाओं में एक शब्द का प्रायः एक ही रूप होता है, जबकि संस्कृत में प्रत्येक शब्द के 27 रूप होते हैं। सभी भाषाओं में एकवचन और बहुवचन होते हैं, जबकि संस्कृत में द्विवचन अतिरिक्त होता है। संस्कृत भाषा की सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता है संधि। संस्कृत में जब दो अक्षर निकट आते हैं, तो वहां संधि होने से स्वरूप और उच्चारण बदल जाता है। इसे शोध में कम्प्यूटर अर्थात कृत्रिम बुद्धि के लिए सबसे उपयुक्त भाषा सिद्ध हुई है और यह भी पाया गया है कि संस्कृत पढ़ने से स्मरण शक्ति बढ़ती है।
"संस्कृत ही एक मात्र साधन है, जो क्रमशः अंगुलियों एवं जीभ को लचीला बनाती है।" इसके अध्ययन करने वाले छात्रों को गणित, विज्ञान एवं अन्य भाषाएं ग्रहण करने में सहायता मिलती है। वैदिक ग्रंथों की बात छोड़ भी दी जाए, तो भी संस्कृत भाषा में साहित्य की रचना कम से कम छह हजार वर्षों से निरंतर होती आ रही है। "संस्कृत केवल एक भाषा मात्र नहीं है, अपितु एक विचार भी है।" "संस्कृत एक भाषा मात्र नहीं, बल्कि एक संस्कृति है और संस्कार भी है।" संस्कृत में विश्व का कल्याण है, शांति है, सहयोग है और #वसुधैव_कुटुंबकम् की भावना भी !
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कापी फ्रोम ,,,संस्कृत का उदय
श्रेय - Central Sanskrit University
Established by an act of Parliament
Formerly Rashtriya Sanskrit Sansthan
Under Ministry of Education
(Government of India)

वेद में हनुमान् का स्वरूप

 वेद में हनुमान् का स्वरूप

१.वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यं (गीता, १५/१५)।
विष्णु के जगन्नाथ या पुरुष रूप में जो कहा है, वही हनुमान् के वृषाकपि रूप विषय में भी है-
तत्र गत्त्वा जगन्नाथं वासुदेवं वृषाकपिम्।
पुरुषं पुरुष सूक्तेन उपतस्थे समाहिताः॥ (भागवत पुराण, १०/१/२०)
ततो विभुः प्रवर वराह रूपधृक् वृषाकपिः प्रसभमथैकदंष्ट्रया। (हरिवंश पुराण, ३/३४/४८)
शुक्ल यजुर्वेदीय तारसारोपनिषद् में हनुमान् का परब्रह्म रूप वर्णित है।
२. कल्याण विशेषांक-कल्याण के श्रीहनुमान अङ्क (१९७५) में कुछ लेख हनुमान के वेद वर्णन विषय में हैं। आरम्भ में हनुमान गायत्री सहित ऋक् (५/३/३,९/६९/१, ९/७१/२, ९/७२/५, १०/५/७) तथा साम (११/३/१/२) मन्त्र दिये हैं। स्वामी गंगेश्वरानन्द जी ने ऋग्वेद के कई मन्त्रों की हनुमान् चरित्र सम्बन्धित व्याख्या की है-ऋक (१/१२/१) में अग्नि अर्थात् अग्रि के दूत, विश्ववेदस (सर्वशास्त्रज्ञ), यज्ञ के सुक्रतु रूप में वर्णन है। ऋक् के प्रथम मन्त्र के चान्द्र भाष्य अनुसार अग्नि को वायुपुत्र हनुमान् तथा रत्न-धातम (राम की मुद्रिका, सीता की चूड़ामणि धारण करने वाले), पुरोहित (सबके आगे रह कर हित करने वाले), होतारं (लंका तथा असुरों को अग्नि और युद्ध में हवन करने वाले हैं। हनु भग्न होने का उल्लेख ऋक् (४/१७/९) में है। हनुमान् शब्द का हन्मन रूप वेद वर्णित है। ऋग्वेद में दूत शब्द ९० बार, हनू शब्द ४ बार तथा हन्मना शब्द ५ बार प्रयुक्त हुआ है। हनुमान् के लिए अपां-नपात् शब्द कई स्थानों पर है (ऋक् सूक्त २/३५, १/, ७, ९, १०, १३, १०/३०/३-४)। आकाश से वायु (तैत्तिरीय उपनिषद्, २/१), वायु से हनुमान् होने से वह आकाश या अन्तरिक्ष स्थित अप् के पौत्र (अपां-नपात्) हैं। ऋक् (२/३५/१०) में अपां-नपात् को कई प्रकार से हिरण्य रूप कहा है जिस रूप में हनुमान् की स्तुति है-अतुलितबलधामं हेमशैलाभ देहं। (रामचरितमानस, सुन्दरकाण्ड, मंगलाचरण)
अशोभत मुखं तस्य जृम्भमाणस्य धीमतः।
अम्बरीषमिवादीप्तं विधूम इव पावकः॥ (रामायण, ४/६७/७)
ऋक् (१/१९) सूक्त के सभी ९ मन्त्रों के अन्त में ’मरुद्भिरग्न आ गहि’ कहा है। यहां मध्यम मरुत् स्थान् की अग्नि का अर्थ हनुमान् है।
स्वामी जी की व्याख्या के अतिरिक्त ऋक् (१/१९) के हर मन्त्र में में रामायण के हनुमत् चरित्र के कई घटनाओं का उल्लेख है तथा इसे हनुमान् सूक्त कहा जा सकता है-
(१) आक्रमण के समय जोर से हू शब्द करते हैं-प्र हूयसे। ननाद भीम निर्ह्रादो रक्षसां जनयन् भयम् (रामायण, ५/४३/१२)
(२) कोई देव या मर्त्य उनकी बराबरी नहीं कर सकता-नहि देवो न मर्त्यो महस्तव।
(३) सर्व शास्त्र जानने वाले-ये महो रजसो विदुः। - सर्वासु विद्यासु तपोनिधाने, प्रस्पर्धतेऽयं हि गुरुं सुराणाम्।
सोऽयं नवव्याकरणार्थवेत्ता, ब्रह्मा भविष्यत्यपि ते प्रसादात्॥ (वा. रामायण, ७/३६/४७)
(४) अजेय-अनाधृष्टास ओजसा।- न रावण सहस्रं मे युद्धे प्रतिबलो भवेत् (रामायण, ५/४३/१०)
(५) प्रचण्ड तेजस्वी तथा असुर नाशक-ये शुभ्रा घोर वर्पसः, सुक्षत्रासो रिशादसः।
(६) स्वर्ग देव शिव अवतार-ये नाकस्याधि रोचने दिवि देवास आसते।
(७) पर्वत ले जाने वाले (पर्वत से प्रहार, संजीवनी पर्वत उठा कर उड़ने वाले) तथा समुद्र पार करने वाले-य ईङ्खयन्ति पर्वतान्, तिरः समुद्रम् अर्णवम्।
(८) शरीर विस्तार से समुद्र जैसे-आ ये तन्वन्ति रश्मिभिः, तिरः समुद्र ओजसा।
(९) मधु सोम या लड्डू भोग-अभि त्वां पूर्व पीतये, सृजामि सोम्यं मधु।
इसके अतिरिक्त हनुमान के प्रणव रूप तथा नीलकण्ठ के मन्त्र रामायण में उल्लिखित हनुमत् चरित्र सम्बन्धी वेद मन्त्रों का संकलन कुछ लोगों ने किया है।
३. प्रणव रूप-(रामानुजाचार्य श्री पुरुषोत्तमाचार्य जी के अनुसार)-यह सूर्य के शिष्य हनुमान् जी की गुरु परम्परा में सुरक्षित है। विश्व वाक् तत्त्व का परिणाम है, जो २ प्रकार का है-अर्थवाक्, शब्द वाक्।
ॐ की व्युत्पत्ति अवति, अवाप्नोति आदि धातुओं से है।
अव रक्षण-गति-कान्ति-प्रीति, तृप्ति-अवगम-प्रवेश-श्रवण-स्वामी-अर्थ याचन-क्रिया-इच्छा-दीप्ति-अवाप्ति-आलिङ्गन-हिंसा-आदान-भाव-वृद्धिषु (धातु पाठ, १/३९६)
आप्लृ व्याप्तौ (५/१५) के पूर्व अव उपसर्ग से अवाप्नोति होता है = मिलना, पाना।
ॐ की शास्त्रीय व्याख्या में इतने अर्थ नहीं हैं, किन्तु हनुमत् चरित्र सभी प्रकार के अर्थ वाक् का समन्वय है।
गोपथ ब्राह्मण, पूर्व (१/१६-२८) में ॐ की विस्तृत व्याख्या है।
शब्दमय ॐ-एकाक्षर स्फोट है।
२ अक्षर के ॐ में ओ = ओत, म = मित। इस परब्रह्म में सभी मित हैं।
३ अक्षर का ॐ-विश्व या वैश्वानर, तैजस, प्राज्ञ विश्व के प्रतीक अ, उ, म हैं। (माण्डूक्य उपनिषद्)
४ अक्षर ॐ में अ, उ, म के अतिरिक्त विन्दु परात्पर ब्रह्म है।
अर्थ रूप ॐ वेद या विश्व का चतुर्धा विभाजन है।
ॐ के ३ अंग अ, उ, म-अव्यक्त विश्व हैं।
हनुमान् के ३ पूर्ण अक्षरों से व्यञ्जन निकालने पर ॐ के ३ अक्षर होते हैं। अर्धमात्रा विन्दु का रूप ’न्’ है। पुच्छ सहित हनुमान् का शरीर ही ॐ रूप में है।
४. आञ्जनेय-भौतिक शरीर रूप में हनुमान् अञ्जना के पुत्र थे। उनको पुञ्जिकस्थली अप्सरा कहा गया है (रामायण, ४/६६/८)। ब्रह्माण्ड् के अप् समुद्र में रमण करने वाले नक्षत्र ही अप्सरा हैं-नक्षत्राण्यप्सरसः (वाज यजु, १८/४०, शतपथ ब्राह्मण, ९/४/१/९)। इस अर्थ में हनुमान् का अर्थ दृश्य जगत् है, जो अव्यक्त पुरुष से प्रकट हुआ-पहले चतुष्पाद पूरुष, उससे निर्मित विश्व पुरुष, उसके बाद विराट् (पुरुष सूक्त, ३-५)।
अव्यक्त विश्व का व्यक्त रूप विराट् है जो अञ्जन परिग्रह के कारण दीखता है। अतः अव्यक्त ॐ में वि+अञ्जन लगाने पर हनुमान् शब्द बनता है। ॐ = अ + उ + म्। हनुमान् = (ह्)अ +(न्)उ + (म्)आ।
पण्डित मधुसूदन ओझा (ब्रह्म चतुष्पदी, तथा उनके शिष्य पण्डित मोतीलाल शर्मा (श्राद्ध विज्ञान-१, गीता बुद्धियोग परीक्षा-१) ने अव्यक्त निर्विशेष आत्मा के ६ परिग्रहों द्वारा दृश्य या विराट् जगत् निर्माण की व्याख्या की है-माया (शैव दर्शन के अनुसार ७ आवरण या कञ्चुक), कला (१६ भेद), गुण, विकार, अञ्जन, आवरण। आवरण द्वारा सीमाबद्ध पिण्ड बनते हैं। जिस प्रकार के आवरण से पिण्ड का रूप दीखता है, वह अञ्जन है। इसी अञ्जन परिग्रह रूप विश्व के रूप आञ्जनेय हनुमान् हैं।
स इमा विश्वा भुवनानि अञ्जत् (अथर्व, १९/५३/२)
अञ्जसा शासता रजः (ऋक्, १/१३९/४)
५. महावीर-यज्ञ सामग्री के पाचन के लिए आवरण या बर्तन को महावीर कहते थे (वाज यजु, १९/१४, शतपथ ब्राह्मण, १४/१/२/९/१७, १४/३/१/१३, १४/३/४/१६, १४/२/२/१३, ४०, पञ्चविंश ब्राह्मण, ९/१०/१, कौषीतकि ब्राह्मण, ८/३/७ आदि)। मनुष्य में वीरता की सीमा महावीर है। लोक भाषा में देश सीमा पर सैन्य स्थान को वीर कहते हैं, जैसे मत्स्य राज्य की सीमा को वीर मत्स्य कहा गया है (रामायण, २/७१/५)। वीरभोग्या वसुन्धरा के अर्थ में भोक्ता को भी वीर कहा गया है-अत्ता ह्येतमनु। अत्ता हि वीरः। (शतपथ ब्राह्मण ४/२/१/९)। आकाश में किसी क्षेत्र की सीमा को वीर कहते हैं, जो यज्ञ का शीर्ष भी है।
शिरो वा एतद् यज्ञस्य यत् महावीरः (कौषीतकि ब्राह्मण, ८/३)
असौ वै महावीरो योऽसौ सूर्यः तपति (कौषीतकि ब्राह्मण, ८/३/७)
सूर्य को घेरे हुए ताप का क्षेत्र (सूर्य से १०० सूर्य व्यास या योजन तक) महावीर है।
सूर्य का परम पद ब्रह्माण्ड ४९ अहर्गण तक है जिसकी सीमा भी महावीर है। इस अर्थ में वे ४९ मरुत् रूप हैं।
हनु = ज्ञान-कर्म की सीमा। ब्रह्माण्ड की सीमा पर ४९वां मरुत् है। ब्रह्माण्ड केन्द्र से सीमा तक गति क्षेत्रों का वर्गीकरण मरुतों के रूप में है। अन्तिम मरुत् की सीमा हनुमान् है। इसी प्रकार सूर्य (विष्णु) के रथ या चक्र की सीमा हनुमान् है। ब्रह्माण्ड विष्णु के परम-पद के रूप में महाविष्णु है। दोनों हनुमान् द्वारा सीमा बद्ध हैं, अतः मनुष्य (कपि) रूप में भी हनुमान् के हृदय में प्रभु राम का वास है।
६. मातरिश्वन्-वायु का एक रूप मातरिश्वा है, जो ब्रह्म का ही एक रूप है।
इन्द्रं मित्रं वरुणमग्निरथो दिव्यः स सुपर्णो गरुत्मान्।
एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्त्यग्निं यमं मातरिश्वानमाहुः॥ (ऋक्, १/१६४/४६, अथर्व, ९/१०/२८)
अप् में गति रूप वायु मातरिश्वा है, उसके द्वारा पदार्थों के मिश्रण से जो सृष्टि होती है, वह वायु पुत्र हनुमान् है।
अने॑ज॒देकं॒ मन॑सो॒ जवी॑यो॒ नैन॑द्देवा आ॑प्नुव॒न् पूर्व॒मर्श॑त्। तद्धाव॑तो॒ ऽन्यानत्ये॑ति॒ तिष्ठ॒त् तस्मि॑न्न॒पो मा॑त॒रिश्वा॑ दधाति॥४॥
(ईशावास्योपनिषद्, वाह. यजु, ४०/४)
यहां हनुमान् की मनोजव गति का भी उल्लेख है। ब्रह्म की यह गति हनुमान् है। मनोजवके २ अर्थ हैं-मन के समान तत्क्षण गति (अभिगमन-छन्दोमयेन गरुडेन समुह्यमानः, चक्रायुधोऽभ्यगमदाशु यतो गजेन्द्रः-गजेन्द्र मोक्ष)। अन्य अर्थ है मन की विचार क्षमता तेज होना जिसका वर्णन गायत्री के तृतीय पाद में है।
७. गायत्री में हनुमान् स्वरूप-गायत्री मन्त्र के ३ पादों के अनुसार ३ रूप हैं-स्रष्टा रूप में-सूर्या चन्द्रमसौ धाता यथापूर्वं अकल्पयत् (ऋक्, १०/१९०/३)
= पहले जैसी सृष्टि करने वाला वृषाकपि है। मूल तत्त्व के समुद्र से से विन्दु रूपों (द्रप्सः -ब्रह्माण्ड, तारा, ग्रह, -सभी विन्दु हैं) में वर्षा करता है वह वृषा है। पहले जैसा करता है अतः कपि है।
तद् यत् कम्पायमानो रेतो वर्षति तस्माद् वृषाकपिः, तद् वृषाकपेः वृषाकपित्वम्। (गोपथ ब्राह्मण, उत्तर, ६/१२)
आदित्यो वै वृषाकपिः। ( गोपथ ब्राह्मण, उत्तर, ६/१०)
स्तोको वै द्रप्सः। (गोपथ ब्राह्मण, उत्तर, २/१२)
इस प्रकार सृष्टि कर्त्ता ब्रह्म ही वृषाकपि हनुमान है-
तत्र गत्त्वा जगन्नाथं वासुदेवं वृषाकपिम्।
पुरुषं पुरुष सूक्तेन उपतस्थे समाहिताः॥ (भागवत पुराण, १०/१/२०)
ततो विभुः प्रवर वराह रूपधृक् वृषाकपिः प्रसभमथैकदंष्ट्रया। (हरिवंश पुराण, ३/३४/४८)
अतः मनुष्य का अनुकरण करने वाले पशु को भी कपि कहते हैं। तेज का स्रोत विष्णु है, उसका अनुभव शिव है और तेज के स्तर में अन्तर के कारण गति मारुति = हनुमान् है। वर्गीकृत ज्ञान ब्रह्मा है या वेद आधारित है। चेतना विष्ुह है, गुरु शिव है। उसकी शिक्षा के कारण जो उन्नति होती है वह मनोजव हनुमान् है।
अक्षण्वन्तः कर्णवन्तः सखायो मनोजवेष्व समा बभूवुः।
आदध्नास उपकक्षास उत्वेह्रदा इव स्नात्वा उत्वे ददृशे॥ (ऋग्वेद,१०/७१/७)
हृदा तष्टेषु मनसो जवेषु यद्ब्राह्मणाः संयजन्ते सखायः।
अत्राह त्वं विजहुर्वेद्याभि रोह ब्रह्माणो विचरन्तु त्वे॥ (ऋग्वेद, १०/७१/८)
इसका क्रिया रूप योग सूत्र में है-
ग्रहण स्वरूपास्मितान्वयार्थवत्व संयमादिन्द्रिय जयः। (योग सूत्र, ३/४७)
ततो मनोजवित्वं विकरण भावः प्रधान जयश्च। (योग सूत्र, ३/४८)
= इन्द्रिय संयम, अर्थात् मन द्वारा ज्ञान और कर्म इन्द्रियों का समन्वय (हनुमान् रूप) से मनोजवित्व होता है।
८. आध्यात्मिक अर्थ-यह तैत्तिरीय उपनिषद् में दिया है-दोनों हनु के बीच का भाग ज्ञान और कर्म की ५-५ इन्द्रियों का मिलन विन्दु है। जो इन १० इन्द्रियों का उभयात्मक मन द्वारा समन्वय करता है, वह हनुमान् है।
तैत्तिरीय उपनिषद् शीक्षा वल्ली, अनुवाक ३-अथाध्यात्मम्। अधरा हनुः पूर्वरूपं, उत्तरा हनुरुत्तर रूपम्। वाक् सन्धिः, जिह्वा सन्धानम्। इत्यध्यात्मम्।
मस्तिष्क के ऊपर सहस्रार से कुछ पीछे जहां चोटी रखते हैं, वह विन्दु चक्र है। वहां हनुमान का स्थान है जिससे अमृत स्राव होता है।
हृदयेऽष्टदले हंसात्मानं ध्यायेत्। अग्निषोमौ पक्षौ, ॐकारः शिरो विन्दुस्तु नेत्रं मुखो रुद्रो रुद्राणि चरणौ बाहूकालश्चाग्निश्च ... एषोऽसौ परमहंसो भानुकोटिप्रतीकाशः। (हंसोपनिषद्)
सुषुम्नायै कुण्डलिन्यै सुधायै चन्द्र मण्डलात्।
मनोन्मन्यै नमस्तुभ्यं महाशक्त्यै चिदात्मन्॥ (योगशिखोपनिषद्, ६/३)
ॐकार का आकार भी हनुमान् के मुख तथा मस्तिष्क रूप में है।
९. सृष्टि सन्तति-मनुष्य का ७ पीढ़ी तक आनुवंशिक गुणों का सञ्चार भी मरुत् है। गुणों की गति में कुछ नष्ट होता है, पूरा नहीं जाता। अतः इसे ’क्षरन्ति शिशवः’ कहा है।
सप्त क्षरन्ति शिशवे मरुत्वते पित्रे पुत्रासो अप्यवीवतन्नृतम्। (ऋक्, १०/१३/५, अथर्व, ७/४७/२)
मारुतो वत्सतर्य्यः। (ताण्ड्य महाब्राह्मण, २१/१४/१२)
आकाश में भी अव्यक्त पुरुष से क्रमशः ७ लोक बनते हैं जिनका विस्तार ७ समुद्र हैं-
सुदेवो असि वरुण यस्य ते सप्तसिन्धवः। अनु क्षरन्ति काकुदं सूर्म्यं सुषिरामिव॥ (ऋक्, ८/६९/१२)
अस्मा आपो मातरं सप्त तस्थुः (ऋक्, ८/९६/१)
१०. हनु सीमा-२ प्रकार की सीमाओं को हरि कहते हैं-पिण्ड या मूर्त्ति की सीमा ऋक् है, उसकी महिमा साम है-
ऋक्-सामे वै हरी (शतपथ ब्राह्मण, ४/४/३/६)।
पृथ्वी सतह पर हमारी सीमा क्षितिज है। उसमें २ प्रकार के हरि हैं-वास्तविक भूखण्ड जहां तक दृष्टि जाती है, ऋक् है। वह रेखा जहां राशिचक्र से मिलती है वह साम हरि है। इन दोनों का योजन शतपथ ब्राह्मण के काण्ड ४ अध्याय ४ के तीसरे ब्राह्मण में बताया है अतः इसको हारियोजन ग्रह कहते हैं। हारियोजन से होराइजन हुआ है।
अथ हारियोजनं गृह्णाति । छन्दांसि वै हारियोजनश्छ्न्दांस्येवैतत् सन्तर्पयति तस्माद्धारियोजनं गृह्णाति (शतपथ ब्राह्मण, ४/४/३/२)
एवा ते हारियोजना सुवृक्ति (ऋक्, १/६१/१६, अथर्व, २०/३५/१६)
हारियोजन या पूर्व क्षितिज रेखा पर जब सूर्य आता है, उसे बाल सूर्य कहते हैं। मध्याह्न का युवक और सायं का वृद्ध है। इसी प्रकार गायत्री के रूप हैं। जब सूर्य का उदय दीखता है, उस समय वास्तव में उसका कुछ भाग क्षितिज रेखा के नीचे रहता है और वायुमण्डल में प्रकाश के वलन के कारण दीखने लगता है। सूर्य सिद्धान्त (४/१) में सूर्य का व्यास ६५०० योजन कहा है, यह भ-योजन = २७ भू-योजन = प्रायः २१४ किमी. है। इसे सूर्य व्यास १३,९२,००० किमी. से तुलना कर देख सकते हैं। वलन के कारण जब पूरा सूर्य बिम्ब उदित दीखता है तो इसका २००० योजन भाग (प्रायः ४,२८,००० किमी.) हारियोजन द्वारा ग्रस्त रहता है (सूर्य सिद्धान्त, ४/२६)। इसी को कहा है-बाल समय रवि भक्षि लियो ...)। इसके कारण ३ लोकों पृथ्वी का क्षितिज, सौरमण्डल की सीमा तथा ब्रह्माण्ड की सीमा पर अन्धकार रहता है। यहां युग सहस्र का अर्थ युग्म-सहस्र = २००० योजन है जिसकी इकाई २१४ कि.मी. है।
११. मनुष्य रूप-पराशर संहिता के अनुसार उनके मनुष्य रूप में ९ अवतार हुये थे। एक जन्म में सूर्य शिष्य रूप में सूर्य सिद्धान्त पढ़ा था। बाइबिल के इथियोपीय प्राचीन संस्करण में उनको इनौक कहा गया है जिनकी अलग पुस्तक ज्योतिष विषय में है। उसके अध्यायों ७८-८२ में प्राचीन कैलेण्डर दिया है जो स्वायम्भुव मनु के समय था। उत्तरायण-दक्षिणायन के २-२ भाग कर वर्ष के ४ भाग होते थे। विषुव के उत्तर या दक्षिण ३ वीथियां १२, २०, २४ अंश के अन्तर पर थीं जिनमें सूर्य १-१ मास रहता था। पण्डित मधुसूदन ओझा ने (आवरणवाद, १२३-१३२) पुस्तक में इनमें दिन मान के अन्तर के आधार पर गायत्री (२४ अक्षर) से जगती (४८ अक्षर) तक के ७ छन्द रूप में वर्णन किया है। इसकी चर्चा ऋग्वेद (१/१६४/१-३, १२, १३, १/११५/३, ७/५३/२, १०/१३०/४), अथर्व वेद (८/५/१९-२०), वायु पुराण, अध्याय २, ब्रह्माण्ड पुराण अ. (१/२२), विष्णु पुराण (अ. २/८-१०) आदि में है। हनुमान् को कुरान में हनूक कहा गया है।
हनुमान के नाम से एक शकुन ग्रन्थ प्रसिद्ध है, जिसे हनुमत् ज्योतिष कहते हैं।
सर्वज्ञ शंकरेंद्र की वाल से साभार

महर्षि काकभुशुण्डि,,,

 महर्षि काकभुशुण्डि,,,

जितना अज्ञानमूलक व्यवहार हमने अपने पूर्वजों,अपने इतिहास के साथ किया है उतना किसी सभ्यता या राष्ट्र ने नहीं किया,,वे अपने कंकड़ को भी पहाड़ बताते हैं और हम अपने ब्रह्मवेत्ता ऋषियों को भी #काग,,कौवा बताने कहने से नहीं चूकते,,#एथेंस की कुल आबादी ही उस समय पांच हज़ार थी जब सुकरात चौराहों पर खड़ा होकर कुछ बोलता था,, पांच दस सुनने वाले रहते थे,, फिर भी उन्होंने सुकरात को दर्शनशास्त्र का पिता बना दिया,,
हमने क्या किया??,,झूठी गप्पों कथाओं के माध्यम से ब्रह्मवेत्ता,महाबलशाली,आदित्य ब्रह्मचारी,,संगीत शास्त्र के तीन महान आचार्यों में से एक,,श्रीराम भक्त #हनुमान को बंदर बना लिया,, महर्षि काकभुषुण्डि को कौवा मान लिया,,,
महर्षि #श्रृंगी कहते हैं कि वे अंगिरस गोत्रीय महर्षि #रेणुकेतु प्रवाहण के पुत्र थे,, बचपन में जब वे महर्षि श्रुति के आश्रम में पढ़ते थे तब उनका नाम था ब्रह्मचारी #सोजनी,, लेकिन कागा नाम पड़ने के पीछे एक मधुर कथा है,, जब वे बालक थे तब अपने भोजन के पात्र के अलावा माता और पिताजी के पात्रों को भी #झूठा कर देते थे चखकर,, हंसी हंसी में माता ने कहा जैसे कागा पेट भरा होने पर भी कई जगह चोंच मारता है ऐसे ही यह नटखट बालक है,,तो वे बालक को कागा बुलाने लगी,,
जब वे सोजनी ब्रह्मचारी #श्रुति ऋषि के आश्रम में वेदाध्ययन कर रहे थे तब किसी भी बात का जवाब एकदम सटीक और तुरन्त देते थे,, आजकल जिसको #प्रत्युतपन्न मति हाज़िर जवाबी या top आई क्यू बोलते हैं,,
सामान्य #संस्कृत का परिचय रहने वाला भी जानता है कि संस्कृत में #बंदूक को भुशुण्डि बोलते हैं,, तो उनके जो सहपाठी ब्रह्मचारी थे महर्षि लोमश वे उन्हें उनकी प्रत्युतपन्न मेधा के कारण गोली की तरह जवाब देने वाला यानी कहते हैं न कि एकदम फायर करता है,, भुशुण्डि कहने लगे,,
महर्षि काकभुशुण्डि #आयुर्वेदाचार्य तो थे ही,,वर्णन आता है कि जब वे प्रभु श्रीराम से मिले उस समय उनकी उम्र 684 वर्ष थी,, महाराजा राम ने जब कहा कि हे महर्षि आप तो आयुर्वेद के बारे में सबकुछ जानते हैं,, इतना आपने कैसे जाना??,,तब महर्षि #काकभुशुण्डि ने कहा कि हे राम,, मैंने 400 वर्ष आयुर्वेद के अध्धयन और औषधियों की खोज में लगाए हैं,, फिर भी मैं बहुत कम ही जानता हूँ,,
आयुर्वेद पर एक महान ग्रन्थ--#चन्द्रयाणकृत पोथी की रचना की उन ऋषि ने,,
बाद में विज्ञान में रुचि और शोध बुद्धि के चलते ब्रह्मांडो और गलेक्सीयों की गणना और खोज पर एक #सविता नामक महान ग्रन्थ रचा,,
आजकल #हॉलीवुड फिल्मों में देखते हैं कि एक ऐसी मिसाइल छोड़ते हैं जो टारगेट के पीछे लगी रहती है,, टारगेट कितना भी मुड़ तुड़ जाए एकदम दिशा बदलकर उल्टा घूम जाए वह पीछे ही लगी रहती है,, महर्षि श्रृंगी कहते हैं कि महर्षि काकभुशुण्डि ने उस समय एक ऐसे ही यंत्र का आविष्कार किया था जिसका नाम--#कागाम #चथवेतु यंत्र था,, जिसको बनाने की प्रेरणा उन्हें कौवे को ऐसे उल जलूल उड़ते देखकर मिली,,,
ऋषियों का एक मत यह भी है कि उस कागाम चथवेतु यंत्र के कारण ही इनका नाम काग पड़ा,, #भुशुण्डि तीव्र मेधा के चलते,,
पता नहीं कैसी #पामर बुद्धि होती है जो अपने पूर्वजों को कौवे बंदर बनाने पर तुल जाती है,, और मजा ये कि हम मान भी बैठते हैं,, वामपंथियों के लिखे कूड़े कर्कट से बाहर निकलकर अपने पराक्रमी पूर्वजों,#ब्रह्मवेत्ता ऋषियों को जानें,, उनका व्यापक अध्धयन करें,
साभार : स्वामी सूर्यदेव जी