Saturday, 6 May 2017

मंगल से भय की आवश्यकता नहीं।

मंगल से भय की आवश्यकता नहीं।
सामान्यतः लोगों की जुबान पर यह सुनने को मिलता है कि अमुक वर या अमुक कन्या मंगलिक होने से विवाह सम्बन्ध देख कर करना होगा अन्यथा मुसिबत खड़ी हो सकती है। इस कठिनाई से निजात पाने हेतु प्रथम यह समझ लेना आवश्यक है कि मंगलिक क्या होता है एवं कैसे देखा जाता है।
किसी भी पुरूष या महिला की जन्म कुण्डली में प्रथम, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम व द्वादश भाव में यदि मंगल स्थित हो तो उसे मंगलिक कहा जाता है। यह स्थिति वर के हो तो उसे पाघड़ियें मंगल कहते है तथा कन्या की कुण्डली में स्थिति हो तो उसे चूनड़ियें मंगल की उपमा दी जाती है। इस स्थिति को और भी विस्तार रूप में देखने पर जन्म कुण्डली के अलावा चन्द्र या शुक्र कुण्डली अर्थात् जहां चन्द्र व शुक्र स्थित हो उस भाव को लग्न मानकर भी 1-4-7-8-12 भावों में मंगल हो तो उसे मंगलिक माना जाता है।
ज्योतिषियों एवं लोगों में मंगल को लेकर धारणा ?
सामान्यतः यह मंगल को लेकर यह धारण बनी हुई हैं कि मंगलिक होने का सीधा अर्थ यह है कि वर के मंगल दोष हो तो विदुर होगा एवं कन्या के हो तो विधवा होगी। परन्तु दोनों ही मंगलिक हो तो एक दूसरे के दोष काट देने से दोनों का जीवन सुखमय होगा।
क्या वास्तव में ऐसा होता है ?
नहीं! ऐसे कई लोग होंगे जिन्होने कुण्डली मिलान करके विवाह किया होगा पर उनमें सामंजस्य की कमी है। दोनों मंगलिक होने के बावजूद भी उनमें तनाव, तलाक व विदुर आदि दोष की स्थितियां देखी गई हैं। परन्तु बिना कुण्डली मिलान के भी विवाह करने वालों या एक मंगलिक व दूसरें के मंगलिक नहीं होने की स्थिति में भी प्रेम व दीर्घायु योग देखे गए है। परन्तु लोगों व ज्योतिषियों में जो आम धारणा मंगल को लेकर बनी हुई है उसे सही कहना सार्थक नहीं होगा। इसका निर्णय आप स्वयं कर सकते हो, भले ही आप ज्योतिष का ज्ञान नहीं रखते हो पर मेरे निम्न प्रश्नोंं या बिन्दुओं पर आपको अध्ययन करना होगा।
1 क्या मंगल लग्न भाव में वहीं फल देगा जो चतुर्थ भाव में देगा ?
2 क्या मंगल 1-4-7-8-12 भावों में किसी भी भाव में होने पर विदुर या विधवा योग ही बनाता हैं ?
3 क्या मंगल मेष, वृषभ आदि किसी भी लग्न में एक जैसा ही फल देने वाला है ?
4 क्या मंगल मेष आदि किसी भी राशि पर 1-4-7-8-12 भावों में एक जैसा फल देगा ?
5 क्या मंगल अकेला हो, किसी एक ग्रह के साथ हो, दो, तीन, चार, पांच, छः या सात ग्रहों के साथ होकर 1-4-7-8-12 भावों में होने पर सिर्फ एक ही फल देगा कि मानव विदुर या विधवा होगा।
6 क्या मंगल उच्च, नीच, अस्त, उदय होने पर एक जैसा ही फल देगा ?
7 क्या मंगल एक डीग्री, दस डीग्री या पच्चीस डीग्री पर होने पर भी एक ही फल देगा ?
8 क्या मंगल बाल, युवा या वृद्ध होने पर भी एक ही फल देगा ?
9 क्या मंगल स्वगृही, मित्रक्षेत्री, शत्रु क्षेत्री में से किसी भी स्थिति में होने पर एक ही फल देगा ?
10 क्या मंगल मार्गी या वक्री होने पर भी एक जैसा ही फल देगा ?
11 क्या मंगल नवमांश में किस स्थिति में है, उसका कोई प्रभाव नहीं होगा ?
        उपर्युक्त सभी प्रश्नों का उŸार आता है-नहीं।
सामान्य व्यक्ति भी इस बात से सहमत नहीं होगा कि सभी प्रकार की स्थितियों में मंगल का एक ही अर्थ निकालकर कि जातक विदुर या विधवा होगा कहना समुचित नहीं है। इस प्रकार स्पष्ट होता है कि 1-4-7-8-12 भावों में किसी भी भाव व स्थिति में स्थित मंगल को मांगलिक बताकर लोगों में भय की स्थापना करना कितना अनुचित होगा।                    
                                                                

Saturday, 22 April 2017

अक्षय तृतीया

भीनमाल।
आगामी 28 अप्रेल, शुक्रवार को अक्षय तृतीया है। भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि अक्षय तृतीया परम पुण्य तिथि है। शास्त्री प्रवीण त्रिवेदी ने बताया कि इस दिन दोपहर से पूर्व स्नान, जप, तप, होम, स्वाध्याय, पितृ तर्पण तथा दान करने वाला महाभाग अ़़़क्षय पुण्यफल का भागी होता है।
इस दिन समुद्र या गंगा स्नान करना चाहिए। प्रातः पंखा, चावल, नमक, घी, शक्कर, सब्जी, इमली, फल, वस्त्र, मटका और खरबूजे के दान करके ब्राह्मणों को भोजन व दक्षिणा देनी चाहिए। इस दिन सत्तू अवश्य खाना चाहिए। इस दिन नवीन वस्त्र, आभूषण बनवाना या धारण करना चाहिए।
त्रिवेदी ने बताया कि इस दिन से सतयुग व त्रेतायुग का प्रारंभ माना जाता है। इसी दिन चारों धाम में से एक बद्रीनारायण के पट खुलते है। नर-नारायण ने इसी दिन अवतार लिया था।  वेद व्यास एवं गणेश द्वारा महाभारत ग्रंथ के लेखन का प्रारंभ दिन है। महाभारत के युद्ध का समापन दिन है। परशुराम का अवतरण भी इसी दिन हुआ था। द्वापर युग का समापन दिन है। माता गंगा का पृथ्वी पर आगमन दिन है। हयग्रीव का अवतार भी इसी दिन हुआ था। ब्रह्मा के पुत्र अक्षय कुमार का आविर्भाव अर्थात् उदीयमान दिन है।  वृंदावन के बांके बिहारी के मंदिन में केवल इसी दिन श्रीविग्रह के चरण-दर्शन होते है, अन्यथा पूरे वर्ष वस्त्रों से ढंके रहते है।

Wednesday, 22 March 2017

प्रतिपदा निर्णय
अमायुक्ता न कर्तव्या प्रतिवत्पूजने मम।
मुहूर्तमात्रा कर्तव्या द्वितीयादिगुणान्विता।।
अमावस्या से युक्त प्रतिपदा में पूजन न करे, मुहूर्त मात्र भी द्वितीया से युक्त करें।
अमायुक्ता न कर्तव्या प्रतिपच्चण्डिकार्चने।
आदि आदि लिखा है कि अमावस्या से युक्त प्रतिपदा ग्रहण न करे। द्वितीया से युक्त ही प्रतिपदा सुख देने वाली है।
परन्तु दूसरे दिन प्रतिपदा मुहूर्त मात्र होनी चाहिए।
इस नव वर्ष में 29 मार्च को प्रतिपदा सूर्योदय को स्पर्श भी नहीं करती है इसलिए अमायुक्ता ही ग्रहण करनी होगी।
जिसका प्रमाण
अमायुक्ता प्रकर्तव्या, इत्यादिनि नृसिंहप्रसादे वचनानि।
अन्य
परदिने प्रतिपदोत्यन्तासत्त्वे तु दर्शयुताsपि पूर्वैव ग्राह्या।
दूसरे दिन प्रतिपदा अत्यंत सर्वथा न रहने पर अमायुक्त भी पूर्वा ही ग्रहण करें।

Monday, 20 February 2017

महाशिवरात्रि

महाशिवरात्रि 24 फरवरी को है।
गरूड पुराण के अनुसार शिवरात्रि से एक दिन पूर्व त्रयोदशी तिथि में शिवजी की पूजा करनी चाहिए और और व्रत का संकल्प लेना चाहिए । इसके उपरांत चतुर्दशी तिथि को निराहार रहना चाहिए। महाशिवरात्रि के दिन भगवान शिव को गंगा जल चढ़ाने से विशेष पुण्य प्राप्त होता है।   महाशिवरात्रि के दिन भगवान शिव की मूर्ति या शिवलिंग को पंचामृत से स्नान कराकर ओम नमः शिवाय मंत्र से पूजा करनी चाहिए। इसके बाद रात्रि के चारो प्रहर में शिव जी की पूजा करनी चाहिए और अगले दिन प्रातः काल ब्राह्मणों को दान दक्षिणा देकर व्रत का पारणा करना चाहिए।
भगवान शिव की पूजा अर्चन करने के लिए यह दिन सबसे शुभ होता है। वैसे प्रतिमास शिवरात्रि आती है, परन्तु सबसे बड़ी शिवरात्रि को महाशिवरात्रि कहते है। सूर्य के मकर राशि में प्रवेश के बाद महाशिवरात्रि का आगमन होता है। भगवान शिव पंचमुखी होकर 10 भुजाओं से युक्त है एवं पृथ्वी, आकाश और पाताल तीनों लोकांे के एक मात्र स्वामी है। शिव का ज्योतिर्मय रूप भौतिकी शिव के नाम से जाना जाता है जिसकी हम सभी आराधना करते है। ज्योतिर्मय शिव पंचतत्वों से निर्मित है। भौतिकी शिव का वैदिक रीति से अभिषेक एवं स्तुति आदि से स्तवन किया जाता है। तत्वों के आधार पर शिव परिवार के वाहन सुनिश्चित है। शिव स्वयं पंचतत्व मिश्रित जल प्रधान है। इनका वाहन नंदी आकाश तत्व की प्रधानता लिए हुए है। शिव दर्शन करने के पूर्व नंदीदेव के सींगों के बीच में से शिव दर्शन करते है। क्योंकि शिव ज्योतिर्मय भी है और सीधे दर्शन करने पर उनका तेज सहन नहीं किया जा सकता है। नंदी देव आकाश तत्व होने से वे शिव के तेज को सहन करने की पूर्ण क्षमता रखते है। माता गौरी अग्नि तत्व की प्रधानता लिए हुए है। इनका वाहन सिंह भी अग्नितत्व है। स्वामी कार्तिकेय वायु तत्व है जिनका वाहन मयूर भी वायुतत्व है। गणेश पृथ्वी तत्व एवं इनका वाहन मूषक भी पृथ्वी तत्व है।
भगवान शिव को शंख से जल, केतकी का पुष्प तथा कंकु नहीं चढ़ाना चाहिए। परन्तु शिवरात्रि को अर्धरात्रि के समय सूखा कंकु चढ़ाया जा सकता है। हरतालिका को केतकी का पुष्प।

शिव जी के विभिन्न द्रव्यों से अभिषेक के फल
जल से वृष्टि होती है।
कुशोदक से व्याधि शान्ति होती है।
इक्षुरस से श्री की प्राप्ति
दुध से पुत्र प्राप्ति
जलधारा से ज्वर शान्ति
वंश वृद्धि के लिए घृतधारा
शर्करा युक्त दुध से जड़बुद्धि का विकास
सरसों के तेल से शत्रु नाश
मधु से राज्य प्राप्ति


शिव नीलकण्ठ क्यों बनें

भगवान आशुतोष को महादेव के नाम से जाना जाता है। क्योंकि वे देवों के देव है। तथा यह नाम उन्हें वैसे ही प्राप्त नहीं हुआ होगा। इसके लिए कोई न कोई कारण अवश्य रहा होगा। उन्हीं श्रृंखला में एक कारण यह भी रहा होगा कि समुद्र मंथन से उत्पन्न हलाहल नाम का विष पान शिवजी ने ही किया था। इस सम्बन्ध निम्न उदाहरण दृष्टव्य हैं।
एक बार राजदरबार में शिवजी के विषपान करते हुए चित्र को देखकर राजा भोज के दिमाग में कालिदास से प्रश्न करने की सुझी और उन्होंने कालिदास से पूछा, किम् कारणमपिवत हर हलाहलं ? (महादेव ने विष पान क्यों किया ?) कवि ने विचार किया कि अवश्य ही राजेन्द्र को आशुतोष नीलकण्ठ के चित्र को देखकर कोई विनोद सूझा हैं, अन्यथा क्या उन्हें शिव द्वारा विषपान का कारण ज्ञात नहीं ! महाकवि कालिदास ने मां शारदा का स्मरण किया व इस प्रकार निवेदन किया,
वृषभो प्रपलायते प्रतिदिनं सिंहावलोकादभया पश्यन्
मŸामयूरमन्तिक चरं, भूषा भुजंग व्रजः कृŸिां कृन्तति
मूषकोऽपि रजनौ भिक्षान्तमाक्षयन
दुखेनेतिदिगम्बरः स्मरहरो हलाहलं पीतवान।
अर्थात् पार्वती के वाहन सिंह के भय से अपना वाहन प्रतिदिन कांपता प्रलाप करता रहता हैं, अपने स्वयं के आभूषण भुजंग को अपने पुत्र कार्तिकेय का वाहन मयूर को देखकर बार-बार उधर लपकता हैं अथवा मयूर को देखकर भुजंग भयाक्रांत हो भागता है, गणेश का वाहन मूषक भिक्षा से प्राप्त अन्न को काटता कुतरता रहता है, इससे रात्रि में नींद नहीं आती, इसी दुःख के कारण दिगम्बर हो रहने पर भी दुखी कामरी महादेव ने विष पीकर आत्महत्या करनी चाही थी। सारी सभा धन्य! धन्य!! के शब्दों से गूंज उठी परन्तु राजा भोज के श्रृंगार रस से परिपूर्ण तृप्ति नहीं हुई, उनके मुख मण्डल पर मुस्कराहट फैली फिर भी बोले, अप्यन्श्व ? अर्थात् क्या कोई और भी कारण हैं ? महाकवि के अधरों पर भी मुस्कान उभरी। उन्होंने राजा को नत मस्तक करके एक छन्द और पढ़ा
अŸाुं वाच्छति वाहनं गणपतेराखुं क्षुधार्तः फणी तज्व
कौंचपतेः शिखी, च गिरिजा सिंहोऽपि नागाननम्।
गौरी जह्नु सुता मसूयति कलानाथं कपालाऽनिलो
निर्विष्णः सपपौ कुटुम्ब कहलादी शोऽपि हलाहलम्।
अर्थात् हे राजन्! अपने पुत्र गणेश के वाहन चूहे को स्वयं का प्रिय भूषण सर्प निगल लेना चाहता है और अपने उसी अंलकार भुजंग को दूसरे पुत्र कार्तिकेय का वाहन मोर, मार डालना चाहता हैं, अपनी पत्नी का वाहन सिंह अपने पुत्र गजानन को हाथी समझकर उसका अन्त करने के लिए व्याकुल रहता है। पार्वती अपने पति के सिर चढ़ी गंगा को देख कर सौतिया डाह से जलती रहती है और जटाजूट पर लटका चन्द्रमा बेचारा तृतीय नैत्र की ज्वाला से दग्ध तनमना होकर निस्तेज बन रहा हैं, हे राजा! अपने कुटुम्ब के भीतर ऐसा भीषण कलह देख कर ही ईश्वर कहलाने वाले शिव को भी विष पीना पड़ा था।
महराजा भोज ने महाकवि को अपने गले से लगाकर बहुमूल्य मणिमाल उनको उपहार में पहना दी।



Friday, 13 January 2017

ब्रह्मगुप्त

ब्रह्मगुप्त
ब्रह्मगुप्त का जन्म 520 शक (655 विक्रम संवत या 589 ए.डी.) रेवाह के राजा व्याघ्रमुख के समकालीन थे।
ब्रह्मगुप्त के पिता का नाम जिस्नुगुप्त था।
30 वर्ष की उम्रं में ब्रह्मस्फूटसिद्धांत ग्रंथ 550 शक में लिखा था।
587 शके में खण्डखाद्यक ग्रंथ लिखा।
दादा का नाम विष्णुगुप्त था
श्रीचापवंशखिलके श्रीव्याघ्रमुखे नृपे शकनृपाणाम्।
पंचाषत्यसंयुक्तै र्वर्षशतैः पंचभिरतीतैः।
ब्राह्मःस्फुटसिद्धान्तः सज्जनगणितज्ञगोलयीत्प्रीत्यै।
त्रिंशद्वर्षेण कृते जिष्णुसुतब्रह्मगुप्तेन।।
ब्राह्मस्फुट सिद्धांत के संज्ञाध्याय में आचार्य की इस उक्ति के अनुसार 520 शाकवर्ष में आचार्य ब्रह्मगुप्त का जन्म हुआ। 30 वर्ष की आयु में ही उन्होने ब्राह्मस्फुट सिद्धांत नामक ज्योतिष के इस महान सिद्धांत ग्रंथ का प्रणयन किया। इसी से रीवा नरेश व्याघ्रभटेश्वर ने इन्हें अपना प्रधान ज्योतिषी बनाकर सम्मानित किया।
इनका जन्म गुर्जर देशान्तर्गत भीनमाल नामक गांव में हुआ। गुर्जर प्रदेश की उत्तर सीमा में मालव (मारवाड़) देश से दक्षिण दिशा की ओर आबूपर्वत और लूणी नदी के मध्यवर्ती पर्वत से वायव्य कोण में भीनमाल में इनका जन्म हुआ।
आचार्य ने स्वयं स्पष्ट किया है कि विष्णुधर्मोत्तर पुराण के अन्तर्गत अति प्राचीन सिद्धांत को ही आगम मानकर उसका संशोधन करके नवीन ब्राह्मस्फुट सिद्धांत की रचना की।
इनकी कुल तीन रचनाए थी-1 ब्राह्मस्फुट सिद्धांत, 2 खण्डखाद्यक , 3 ध्यानग्रहोपदेश
ब्रह्मगुप्त प्रसिद्ध भारतीय गणितज्ञ थे, ये अच्छे वेधकर्ता थे और इन्होंने वेधों के अनुकूल भगणों की कल्पना की हैं। मध्यकालीन यात्री अलबरूनी ने भी ब्रह्मगुप्त का उल्लेख किया है। इनके दो ग्रंथों का अनुवाद अरबी भाषा में अनुमानतः खलीफा मंसूर के समय, सिंदहिंद और अल अकरंद के नाम से हुआ।
ब्राह्मस्फुटसिद्धांत उनका सबसे पहला ग्रंथ माना जाता है जिसमें शून्य का अलग अंक के रूप में उल्लेख किया गया है। यही नहीं , बल्कि इस ग्रंथ में ऋणात्मक अंकां और शून्य पर गणित करने के सभी नियमों का वर्णन भी किया गया है। यह नियम आज भी अपनाए जाते है। हां एक अन्तर अवश्य है कि उन्होंने शून्य से भाग करने का नियम सही नहीं दे पाये। 0/0 बराबर 0
ब्रह्मस्फुटसिद्धांत के साढ़े चार अध्याय मूलभूत गणित को समर्पित है।
बीजगणित केजिस प्रकरण में अनिर्धार्य समीकरणों का अध्ययन किया जाता है, उसका पुराना नाम ‘कुट्टक’ है। इस पर ही इस विज्ञान का नाम सन् 628 ई. में कुट्टक गणित रखा। उन्होंने द्विघातीय अनिर्धार्य समीकरणों के हल की विधि भी खोज निकाली, जिसका नाम चक्रवाल विधि है।
इनके ब्राह्मस्फुटसिद्धांत के द्वारा ही अरबों को भारतीय ज्योतिष का पता लगा। अब्बासिद खलीफा अल-मंसूर (712-775 ईस्वी) ने बगदाद की स्थापना की और इसे शिक्षा के केन्द्र के रूप में विकसित किया। उसने उज्जैन के कंकः को आमंत्रित किया जिसने ब्राह्मस्फुटसिद्धांत के सहारे भारतीय ज्योतिष की व्याख्या की। अब्बासिद के आदेश पर अल-फजरी ने इसका अनुवाद अरबी भाषा में किया।
ब्रह्मगुप्त ने किसी वृत्त के क्षेत्रफल को उसके समान क्षेत्रफल वाले वर्ग से स्थानांतरित करने का भी यत्न किया।
ब्रह्मगुप्त ने पृथ्वी की परिधि ज्ञात की थी, जो आधुनिक मान के निकट है।
ब्रह्मगुप्त ने पाई का मान 10 के वर्गमूल (3.16227766) के बराबर माना था।
ब्रह्मगुप्त अनावर्त वित भिन्नों के सिद्धांत से परिचित थे। इन्होंने एक घातीय अनिर्धार्य समीकरण का पूर्णांकों में व्यापक हल दिया, जो आधुनिक पुस्तकों में इसी रूप में पाया जाता है।
ब्रह्मगुप्त का सबसे महत्वपूर्ण योगदान चक्रीय चतुर्भुज पर है। जिसमें विकर्ण परस्पर लम्बवत होते है। उन्होंने चक्रीय चतुर्भुज के क्षेत्रफल निकालने का सन्निकट सूत्र ;ंचचतवगपउंजमद्ध तथा यथातथ सूत्र ;मगंबज वितउनसंद्ध भी दिया है। 


प्राचीन ब्रह्मसिद्धांत तीन प्रकार के उपलब्ध होते है। 1 शाकल्यसंहितान्तर्गत, 2 विष्णुधर्मोत्तरपुराणान्तर्गत, 3 पंचवर्षमययुगवर्णनात्मक। वराहमिहिरकृत पंचसिद्धांतान्तकान्तर्गत, इन तीनों में ब्रह्मगुप्ताचार्य किसको स्फूट कहते है, यह स्पष्टरूप से नहीं कह सकते तथापि ग्रभगणविमानों के समत्व के कारण विष्णुधर्मोत्तरपुराणान्तर्गत ही ब्रह्मसिद्धांत के ब्रह्मगुप्त आगमत्य करके स्वीकार करते है। पंचवर्षमय युग के तन्त्रपरीक्षाध्याय में ‘युगमाहुःपंचाब्द’ इत्यादि से संहिताकार क ेमत को वर्णनन करते हुए ब्रह्मगुप्त के मत में ज्योतिष वेदांग ब्रह्ममत नहीं है, यह स्पष्ट है। वराहमिहिराचार्यके मत से यह विरूद्ध है।
इस (ब्राह्मस्फुट सिद्धांत) की चतुर्वेदाचार्य कृत ‘तिलक’ नाम की टीका प्रसिद्ध थी, जो वर्तमान में संपूर्ण उपलब्ध नहीं है।
‘कोलबू्रक’ नामक पाश्चात्य विद्वान के पास संपूर्ण टीका उपलब्ध थी। इसी कारण उसके आधार पर इस ग्रंथ के बारहवें (व्यक्त) अध्याय और अठारहवें (अव्यक्तगणित) अध्याय का आंग्ल भाषा में अनुवाद सन् 1817 में ही उपलब्ध हो गया था।
इस ग्रंथ (ब्राह्मस्फुट सिद्धांत) में 1008 श्लोक (आर्यावृत्त) है। पूर्वाध और उत्तरार्ध नामक दो भागों में बटा हुआ है। पूर्वाध में 1 मध्यगति, 2 स्फुटगति, 3 त्रिप्रश्नाध्याय, 4 चंद्रग्रहणाध्याय, 5 सूर्यग्रहणाध्याय, 6 उदयास्तमयाध्याय, 7 चंद्रश्रृंगोन्नत्यध्याय, 8 चंद्राच्छायाध्याय, 9 ग्रहयुत्यध्याय और 10 भग्रहयुत्यध्याय यह दस अध्याय है।
उत्तरार्ध में 1 तन्त्रपरीक्षाध्याय, 2 गणिताध्याय, 3 मध्यमत्युत्तराध्याय, 4 स्फुटगत्युत्तराध्याय, 5 त्रिप्रश्नोत्तराध्याय, 6 ग्रहणोत्तराध्याय, 7 छेद्यकाध्याय, 8 श्रृंगोन्नत्युत्तराध्याय, 9 कुट्टाकाराध्याय, 10 छन्दश्चित्युत्तराध्याय, 11 गोलाध्याय, 12 यन्त्राध्याय, 13 मानाध्याय और 14 संज्ञाध्याय। यह चौदह अध्याय है। कुल मिलाकर 24 अध्याय है।
इन अध्यायों में तन्त्रपरीक्षाध्याय बहुत विचारणीय है। क्योंकि इस अध्याय में आचार्य ने और अनेक आचार्यों के नामों और उनके मतों का उल्लेख किया है।
वराहमिहिराचार्य के बाद और ब्रह्मगुप्त से पूर्व 426 और 550 शाक वर्ष के मध्य दो आचार्य श्रीषेण और विष्णुचंद्र ने ज्योतिषसिद्धांत के विशाल ग्रंथों की रचना की थी।
भास्काराचार्य ने अपने सिद्धांत शिरोमणि के गणिताध्याय के आरंभ में आचार्य ब्रह्मगुप्त को अभिवादन किया तथा अनेक स्थानों पर ब्रह्मगुप्त के मत का उल्लेख किया अर्थात् अनुकरण किया। यथा
यथाऽत्र ग्रंथे ब्रह्मगुप्त स्वीकृतानमोऽङ्गीकृतः।
उस अश्विन्यादि में क्रांतिपात था, इसलिए अश्विन्यादि से नक्षत्रों की गणना प्रवृत्त हुई, जो आज तक यही प्रक्रिया प्रचलित है। क्रांतिपात पश्चिम में प्रायः 65 वर्ष में एक अंश चलता है, जिससे इसका ज्ञान अल्पसमय में असंभव होने से ब्रह्मगुप्त भी अयनचलन की उपलब्धि नहीं कर सकें।
37 वर्ष की आयु में ब्रह्मगप्त ने ‘खण्डखाद्यक’ ग्रंथ की रचना का प्रणयन किया। उस समय सर्वत्र मनुष्यों के व्यवहारों में प्रचलित आर्यभट मत का निराकरण करना अत्यंत कठीन था। इसलिए आर्यभट मतानुसार व्यवहार करते हुए मनुष्यों के उपकारार्थ व्यावहारिक ‘खण्डखाद्यक’ नामक करण ग्रंथ की रचना ब्रह्मगुप्त ने की।
भास्कराचार्य के अनुसार ब्रह्मगुप्त का बहुत बड़ा बीजगणित का ग्रंथ था, परन्तु यह गं्रथ आज प्राप्य नहीं है।
ब्रह्मगुप्त ही औरों की अपेक्षा श्रीपति का श्रेष्ठतर आदर्श है। श्रीपति ने ब्राह्मस्फुट सिद्धांत और शिष्यधीवृद्धि गं्रथों का परिशीलन करने के पश्चात् ही सिद्धांतशेखर की रचना की।
विशेष
ब्रह्मगुप्त ने एक बहुत विलक्षण विषय को अपनी रचना में स्थान दिया है। यह है-‘नतकर्म’।
मंदफल शीघ्रफल भुजान्तरादि संस्कार करने से जो स्पष्टग्रह आते है वे स्वगोलीय (ग्रहगोलीय) स्पष्ट ग्रह होते है, जिनको हम लोग देखते है वे हम लोगों के लिए स्पष्ट ग्रह होते है। स्वगोलीय स्पष्टग्रह में जितना संस्कार करने से हम लोगों के स्पष्ट ग्रह होते है उसी संस्कार का नाम ‘नतकर्म’ है। इस ‘नतकर्म’ के बारें में पूर्ववर्ती किसी भी आचार्य ने कुछ भी नहीं लिखा है। इससे स्पष्ट होता है कि नतकर्म का आविष्कर्त्ता ब्रह्मगुप्त ही है।

ब्राह्मस्फुट सिद्धांत में बहुत से स्थलों में वर्णन की स्थूलता अवश्य है, तथापि नाना प्रकार के विषयों का अपूर्व समावेश है। अतएव ब्राह्मस्फुट सिद्धांत सर्वश्रेष्ठ ग्रंथ है। इस कथन में किसी प्रकार की प्रतिपत्ति (विरोध) प्रतीत नहीं होती हैं।
 

Saturday, 7 January 2017

शनि पनोती

शनि पनोती
शनि को आंग्ल भाषा में सेटर्न कहते हैं। सेट (स्थिर) व्यक्ति को जो टर्न (घुमाव) दे उसी का नाम है-सेटर्न। क्योंकि शनि मूलभूत रूप से कर्मवाद से जुड़ा हुआ ग्रह हैं। सेटर्न मिन्स मेनेजमेण्ट ऑफ्टर डिस्टक्शन अर्थात् सर्वनाश के बाद आयोजन।
पुराणों में उल्लेख आता है कि शनि जाते हुए अच्छे लगते है यानि शनि अपनी पनोती में कष्ट देते है, परन्तु जब पनोती पूरी होती है तो आपको लाभ देने वाले बनते हैं। दूसरे शब्दों में व्यक्ति सोलह कलाओं से खिल उठता है। इतिहास साक्षी है कि प्रत्येक सफल व्यक्ति को पनोती के बाद ही सफलता प्राप्त हुई है।
वर्तमान में शनि मंगल की राशि वृश्चिक पर परिभ्रमण कर रहे है, परन्तु 26 जनवरी 2017 से धनु राशि में प्रवेश करने जा रहे है। धनु राशि बृहस्पति की स्वगृही राशि है जिसमें शनि अपना तटस्थ प्रभाव शुरू करेंगे क्योंकि शनि व बृहस्पति दोनों ग्रह एक दूसरे के लिए न्यूटल ग्रह है। 
कहते है कि संस्कृत के प्रकाण्ड पंडित रावण ने अपने पुत्र मेघनाद के जन्म के पूर्व उसके अमरता के लिए सभी नौ ग्रहों को अपने अनुकूल बना लिया था परन्तु मेघनाद के जन्म से पूर्व शनि ने अपनी चाल बदल दी जिससे रावण ने शनि को बंदी बना दिया था जिसे कालान्तर में हनुमान ने मुक्त कराया था। इसलिए शनि की पनोती के समय हनुमान की पूजा करने से शनि के प्रकोप से बचा जा सकता है।
मूल रूप से शनि अशुभ फल दाता ही नहीं होता है। शनि मूल रूप से न्यायाधिपति है अर्थात् प्राणि मात्र के द्वारा किये गये शुभ व अशुभ कर्मों के अनुसार दण्ड व सुफल देते है।
शनि को शनिश्चर भी कहा जाता है। शनि राशि चक्र में सभी ग्रहों की अपेक्षा अति मन्द गति से चलने वाला होने से इसे मन्द भी कहते है। शनि के चारों ओर तीन रिंग है। यह तीनों रिंग एक दूसरे के कुछ दूरी पर है। प्रत्येक दो रिंग के बीच में काले रंग जैसी खाली जगह है। शनि तीन पीलें रिंग या घेरे सहित आसमानी गेंद की तरह दिखाई देता है।
शनि, सूर्य से 886 मिलियन माइल्स दूर है। यह बृहस्पति से छोटा है, इसका व्यास 75000 मील हैं। इसके नौ चंद्रमा यानि उपग्रह है। शनि, पृथ्वी से आयतन में 700 गुणा बड़ा है, पर वजन में 100 गुणा से कुछ कम है। सूर्य पुत्र शनि को सूर्य की परिक्रमा करने में लगभग 29) वर्ष का समय लगता है। जिससे शनि एक राशि पर लगभग 30 महिनें का यानि 2) वर्ष का समय लेता है।

शनि का धन राशि में आगमन 30 वर्ष में हो रहा है। 26.01.2017 को 19 बजकर 38 मिनट पर शनि धनु राशि में प्रवेश करेगा। सामान्य नियम प्रमाण से शनि ढाई वर्ष एक राशि पर प्रभाव करता है। शनिदेव की समाज व राष्टव्यक्तित्व पर सबसे ज्यादा असर होती है। स्थिर ग्रहों पर शनि किसी भी राशि में होने पर अपने स्थान से तीसरे, सातवें व दसवें भाव पर पूर्ण दृष्टि से देखता है, अर्थात् जन्मकुण्डली में जातक के स्थानों का असरकारक होता है।
पिछले समय अर्थात् 02.11.2014 से मंगल के घर में जलतत्व के शनि ने भूमंडल को ऊपर नीचे कर दिया। राजकारण के राजा शनि ने अति उत्तम नेता दिये। साथ ही प्रजा में कुछ अशांति भी फैली।
अभी धनु राशि में शनि के प्रभाव से अनेक देशों में क्रांति व नये युग का प्रारंभ होगा।
इस वर्ष शनि दो नक्षत्रों पर भ्रमण करेगा जिससे देश में नेताओं में परस्पर मतभेद, शस्त्र कोप, शत्रु भय, रोग वृद्धि व वर्षा में विषमता होगी।
 शनि का धनु राशि में प्रवेश 26.1.2017 को 19.38 पर होगा। उस समय चंद्र पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र व धनु राशि पर है, जिसका प्रभाव विभिन्न राशियों पर निम्न प्रकार से होगा।
विशेष- शनि पनोती का असर स्थूल रूप से दिया गया है, सूक्ष्म फल हेतु जन्मपत्रिका से देखे।

राशि अनुसार फल
मेष- इस राशि के जातकों को छोटी पनोती से मुक्ति मिलेगी। तथा भाग्य भाव में जाने से लम्बी यात्रा प्रवास, भाई-बहिन के सुख में वृद्धि, नौकरी में स्थानान्तरण, पदौन्नति, रोग से मुक्ति एवं कोर्ट मामलों में राहत मिलेगी।
वृषभ- इस राशि वालें जातकों के छोटी पनोती लौह पाद पर कष्टदायक रहेगी। नजदीकी संबंधी के अशुभ समाचार, छोटी बीमारी, ऋण की बढ़त आदि कष्ट होंगे।
मिथुन-इस राशि वालों के सातवें शनि रहकर देह भाव पर दृष्टि से रोग उत्पन्न करेगा। शनि संधि, हड्डी व रक्त को मंद करने का काम करता है जिससे रोग होता है। वायु प्रकृति वालों को विशेष ध्यान रखना है। दाम्पत्य जीवन पर भी अशुभ फल दायक रहेगा।
कर्क-इस राशि वालों के शनि छठे भाव में होने से शत्रु पर विजय, नौकरी में स्थानान्तरण, पदौन्नति, पैतृक सम्पत्ति, पुराने कर्ज व छोटी यात्रा में लाभ होगा।
सिंह-इस राशि वालों के शनि पांचवें भाव में रहकर दाम्पत्य जीवन की असमझ में सुधार, अविवाहितों के लिए संबंध बनने, भाग्य में परिवर्तन लायेगा परन्तु पढ़ाई हेतु समस्याग्रस्त रहेगा।
कन्या- इस राशि वालें जातकों के छोटी पनोती लौह पाद पर कष्टदायक रहेगी।  जमीन-जायदाद के मामलों में सावधानी बरतें। छाती या हृदय में कुछ भी दर्द होतो तुरंत चिकित्सक से सलाह ले।
तुला- इस राशि के जातकों को साढे़साती पनोती से मुक्ति मिलेगी। नवीन सर्जन, राज सुख, नौकरी आदि में पदौन्नति, रिश्तेदारों से संबंध व संतानों संबंधी शुभ समाचार आदि में लाभ प्राप्त होगा।
वृश्चिक- इस राशि वालें जातकों के साढ़ेसाती का अन्तिम भाग यानि पैरों पर चांदी के पाद पर शुरू होगा जो लाभदायक रहेगा। परन्तु अनीति पर चलने वालों के लिए समय दिन में तारें भी दिखा सकता है।
धनु- इस राशि वालें जातकों के साढ़ेसाती का मध्य भाग यानि छाती पर सुवर्ण के पाद पर शुरू होगा जो चिंता कारक रहेगा। शरीर में वायु विकार, दाम्पत्य जीवन में संघर्ष, भागीदारी में नुकसान व भाग्य का साथ कम रहेगा।
मकर- इस राशि वालें जातकों के साढ़ेसाती का प्रथम भाग यानि सिर पर लौह पाद पर कष्ट दायक रहेगा। बड़ा खर्च, शत्रु भय, रिश्तेदारों के अशुभ समाचार, रोग व देवप्रकोप में वृद्धि आदि से सावधानी बरतें।
कुंभ-इस राशि वालों के शनिदेव ग्यारहवें भाव में होने से मित्र वर्ग, वाहन, संतान प्रगति, होगी। चतुर्दिक लाभ व शुभ समाचार मिलेंगे।
मीन-इस राशि वालों के छोटी यात्रा, फालतु खर्च, व्यापार में परिवर्तन, गुप्त शत्रु का आगमन आदि होगा। छोटे रोग पर तुरंत ईलाज लेवे।


Saturday, 17 December 2016

माघ जयंती पर विशेष

माघ जयंती पर विशेष

संस्कृत के श्रेष्ठ कवियों में माघ की गणना की जाती है। उनका समय लगभग 675 ई. निर्धारित किया गया है। उनकी प्रसिद्ध रचना‘शिशुपालवध’ नामक महाकाव्य है। इसकी कथा भी महाभारत से ली गई है। इस ग्रंथ में युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ के अवसर पर चेदि नरेश शिशुपाल को कृष्ण द्वारा वध करने की कथा का काव्यात्मक चित्रण किया गया है। माघ वैष्णव मतानुयायी थे। इनकी ईच्छा अपने वैष्णव काव्य के माध्यम से शैव मतानुयायी भारवि से आगे बढ़ने की थी। इसके निमित्त उन्होंने कई प्रयत्न भी किये। उन्होंने अपने ग्रंथ की रचना किरातार्जुनीयम् की पद्धति पर की। किरात की भांति शिशुपालवध का प्रारंभ भी ‘श्री’ शब्द से होता है।
माघ अलंकृत काव्य शैली के आचार्य है तथा उन्होंने अलंकारों से सुसज्जित पदों का प्रयोग कुशलता से किया है। प्रकृति दृश्यों का वर्णन करने में भी वे दक्ष थे। भारतीय आलोचक उनमें कालिदास जैसी उपमा, भारवि जैसा अर्थ गौरव तथा दण्डी जैसा पदलालित्य, इन तीनों गुणों को देखते है।
माघ ने नवीन चमत्कारिक उपमाओं का सृजन किया है। माघ व्याकरण, दर्शन, राजनीति, काव्यशास्त्र, संगीत आदि के प्रकाण्ड पण्डित थे तथा उनके ग्रंथ में ये सभी विशेषताएं स्थान-स्थान पर देखने को मिलती है। उनका व्याकरण संबंधी ज्ञान तो अगाध था। पदों की रचना में उन्होंने नये-नये शब्दों का चयन किया है। उनका काव्य शब्दों का विश्वकोष प्रतीत होता है। माघ के विषय में उक्ति प्रसिद्ध है कि शिशुपालवध का नवां सर्ग समाप्त होने पर कोई नया शब्द शेष नहीं बचता है। उनका शब्द विन्यास विद्वतापूर्ण होने के साथ मधुर एवं सुन्दर भी है। माघ की कविता में ललित विन्यास भी देखने को मिलता है। कालान्तर में कवियों ने उनकी अलंकृत शैली का अनुकरण किया है।
महाकविमाघ का सामान्य परिचय
संस्कृत साहित्य के काव्यकारों में माघ का उत्कृष्ट स्थान रहा है। यही धारणा है कि उनके द्वारा विरचित ‘शिशुपालवध’ महाकाव्य को संस्कृत की वृहत्रयी में विशिष्ट स्थान मिला है। महाकवि माघ ने काव्य के 20 वें सर्ग के अन्त में प्रशक्ति के रूप में लिए हुए पांच श्लोकों में अपना स्वल्पपरिचय अंकित कर दिया है जिसके सहारे तथा काव्य में यत्र-तत्र निषद्ध संकेतों से तथा अन्य प्रमाणों के आधार पर कविवर माघ के जीवन की रूपरेखा अर्थात् उनका जन्म समय, जन्म स्थान तथा उनके राजाश्रय को जाना जा सकता है।
प्रसिद्ध टीकाकार मल्लिनाथ ने प्रशस्तिरूप में लिखे इन पांच श्लोकों की व्याख्या नहीं की है। केवल वल्लभदेव कृत व्याख्या ही हमें देखने को मिलती है। इसी प्रकार 15 वें सर्ग में 39 वें श्लोक के पश्चात् द्वयर्थक 34 श्लोक रखे गए है। इसके पश्चात् 40 वां श्लोक है।
‘कविवंश वर्णन के पांच श्लोक प्रक्षिप्त है’ यह कहना केवल कपोल कल्पना है।
इन्हीं श्लोकों से स्पष्ट होता है कि दत्तक के पुत्र माघ ने सुकवि कीर्ति को परास्त करने की अभिलाषा से शिशुपालवध’ नामक काव्य की रचना की है। जिसमें श्रीकृष्ण चरित वर्णित है और प्रति सर्ग की समाप्ति पर ‘श्री’ अथवा उसका पर्यायवाची अन्य कोई शब्द अवश्य दिया गया है। यहां ध्यातव्य यह है कि कवि ने 19 वें सर्ग के अन्तिम श्लोक ‘चक्रबंध’ में किसी रूप में बड़ी निपुणता से माकाव्यमिदम् शिशुपालवधम् तक अंकित कर दिया हैं। कविवर माघ का जन्म राजस्थान की पुण्य धरा भीनमाल में राजा वर्मलात के मंत्री सुप्रसिद्ध  ब्राह्मण सुप्रभदेव के पुत्र कुमुदपण्डित (दत्तक) की धर्म पत्नी वराही के गर्भ से माघ की पूर्णिमा को हुआ था। कहा जाता है कि इनके जन्म समय की कुण्डली देखकर ज्योतिषी ने कहा था कि यह बालक उद्भट विद्वान, अत्यन्त विनीत, दयालु, दानी और वैभव समपन्न होगा। किन्तु जीवन की अन्तिम अवस्था में यह निर्धन हो जायेगा। यह बालक पूर्ण आयु प्राप्त करके पैरों में सूजन आने पर दिवंगत हो जायेगा। ज्योतिषी की भविष्यवाणी पर विश्वास करके उनके पिता कुमुद पण्डित दत्तक ने जो एक ओष्ठी धनी थे, प्रभूतधनरत्नादि की सम्पत्ति को भूमि में घड़ों में भरकर गाड़ दिया था और शेष बचा हुआ धन माघ को दे दिया था। कहा जाता है कि ‘शिशुपालवध’ की कुछ रचना उन्होंने परदेश में रहते हुए की थी और शेष भाग की रचना वृद्धावस्था में घर पर रहकर ही की। अन्तिम अवस्था में वे अत्यधिक दरिद्रावस्था में थे। ‘भोज प्रबंध’ में उनकी पत्नी प्रलाप करती हुई कहती है कि जिसके द्वार पर एक दिन राजा आश्रय के लिए ठहरा करते थे आज वही व्यक्ति दाने-दाने के लिए तरस रहा है। क्षेमेन्द्रकृत ‘औचित्य विचार-विमर्श’ में पण्डित महाकवि माघ का अधोलिखित पद्य माघ की उक्त दशा का निदर्शक है-
बुभुक्षितैत्यकिरणं न भुज्यते न पीयते काव्यरसः पिपासितेः।
न विद्यया केनचिदुदूधृतं कुलं हिरण्यमेवार्जयन्हिफलः कियाः।।
उक्त वाक्य से ऐसा प्रतीत होता है कि दरिद्रता से धैर्यहीन हो जाने के कारण अत्यंत कातर हुए माघ की यह उक्ति है। कविवर माघ 120 वर्ष की पूर्ण आयु परास्त करके दिवंगत हुए साथ ही उनकी पत्नी सती हो गई। इनकी अन्तिम क्रिया तक करने वाला कोई व्यक्ति इनके परिवार में नहीं था। ‘भोजप्रबंध’, ‘प्रबंधचिंतामणि’ तथा ‘प्रभावकरित’ के अनुसार भोज की जीवित्तावस्था में दिवंगत हुए, क्योंकि भोज ने ही माघ का दाह संस्कार पुत्रवत् किया था।

माघ निःसन्देह आनंदवर्धन के पूर्ववर्ती है या समकालीन भी हो सकते है। क्यांकि यशोलिप्सा के कारण माघ स्थिर रूप में किसी एक स्थान पर न रह पाये हो उन्होंने निश्चित रूप से उत्तर भारत में कश्मीर तक भ्रमण किया था जिसका उल्लेख काव्य के प्रथम सर्ग का नारद मुनि की जटाओं का वर्णन है। यहीं पर संभव है ध्वन्यालोक में उद्धृत श्लोक को किसी काव्योष्ठी में श्री आनंदवर्धन ने माघ के मुख से सुने हो और उत्तम होने के कारण आनंदवर्धन ने ध्वन्यालोक में उन्हें उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया है।
एक शिलालेख से भी माघ के समय निर्धारण में सहायता मिलती है। राजा वर्मलात का शिलालेख वसन्त गढ़ (सिरोही राज्य में ) से प्राप्त हुआ। यह शिलालेख शक संवत 682 का है। शक संवत में 78 वर्ष जोड़ दिये जाते है तब ईस्वी सन् का ज्ञान होता है। इस प्रकार यह शिलालेख सन् 760 ई के आसपास होना चाहिए।
इस तरह माघ का काल प्रायः 8 वीं और 9 वीं शताब्दियों के बीच स्थिर होता है। इसमें संदेह नहीं किया जा सकता। भोज प्रबंध के अनुसार माघ भोज के समकालीन थे, क्योंकि भोज प्रबंध में माघ के संबंध में यह क्विदंती प्रचलित है कि एक बार माघ ने अपनी संपूर्ण संपत्ति दान कर दी थी। निर्धन स्थिति में उन्होंने एक श्लोक की रचना की जिसे उन्होंने राजा भोज के सभा में भेजा था। यह श्लोक इस प्रकार है।
कुमुदवनमपश्रि श्रीमदम्भोजखण्डे,
मुदति मुद मूलूकः प्रीतिमार्चक्रवाकः।
उदयमहिमरश्मिर्याति शीतांशुरस्तं,
हतविधिलीसतानां ही विचित्रो विपाकः।।
अर्थ- कुमुदवन श्रीहीन हो रहा है, कमल-समूह शोभायुक्त हो रहा है। उल्लू  (दिन में नहीं देख सकने के कारण) प्रसन्नता को तज रहा है, जबकि चकवा (दिन में प्रिया का संग होने के कारण) प्रेममग्न हो रहा है। सूर्य उदित हो रहा है तो चंद्रमा अस्त हो रहा है। दुर्देव की चेष्टाओं का परिणाम विचित्र होता है, कितना आश्चर्यजनक है।
जब राज सभा में उक्त श्लोक को पढ़कर सुनाया गया तो भोज अत्यंत प्रसन्न हुए उन्होंने माघ की पत्नी को बहुत सा धन देकर विदा किया माघ की पत्नी जब वापस लौट रही थी, तो रास्ते मे याचक माघ की दानशीलता की प्रशंसा करते हुए उससे भी मांगने लगे। माघ की पत्नी ने सारा धन याचकों में बांट दिया। जब पत्नी रिक्तहस्त घर पहुंची तो माघ को चिन्ता हुई कि अब कोई याचक आया तो उसे क्या देंगे? माघ की यह चिन्ताजनक स्थिति को देखकर याचक ने यह कहा था-
आश्वास्य पर्वतकुलं तपनोष्ण तप्त,
मुद्यामदामविधुराणि च काननानि।
नानानदीनदशतानि च पुरयित्वा,
रिक्तोऽसि यज्जलद सैव तवोत्तमा श्री।
अर्थ यह है कि ग्रीष्म से तप्त पर्वत समूह का संताप हरने हेतु दावाग्नि से जलते वन की तपन बुझाने में तथा सैकड़ों नदी, नद, नालों को भरने में बादल स्वयं रिक्त हो जाता है, यही उसकी श्रेष्ठ आभा है।
संस्कृत साहित्यकोश में महाकवि माघ एक जाज्वल्यमान के समान है जिन्होंने अपनी काव्यप्रतिभा से संस्कृत जगत् को चमत्कृत किया है। ये एक ओर कालिदास के समान रसवादी कवि है तो दूसरी ओर भारवि सदृश विचित्रमार्ग के पोषक भी। कवियों के मध्य महाकवि कालिदास सुप्रसिद्ध है तो काव्यों में माघ अपना एक विशिष्ट स्थान रखते है।
काव्येषु माघः कवि कालिदासः।
माघ अलंकृत शैली के पण्डित माने जाते है। जहां काव्य के आन्तरिक तत्व की अपेक्षा ब्राह्यतत्व शब्द और अर्थ के चमत्कार देखे जा सकते है। इनकी एकमात्र कृति ‘शिशुपालवधम्’ जिसे महाकाव्य भी कहा जाता है, वृहत्त्रयी में महत्वपूर्ण स्थान रखती है। इस महाकवि के आलोडन के पश्चात् किसी विद्वान ने इसकी महत्वा के विषय में कहा है-‘मेघे माघे गतं वयः।’ माघ विद्वानों के बीच पण्डित कवि के रूप में भी सुप्रसिद्ध है। समीक्षकों का कहना है कि माघ ने भारवि की प्रतिद्वन्दिता में ही महाकाव्य की रचना की क्योंकि माघ पर भारवि का स्पष्ट प्रभाव दिखाई देता है। भले ही माघ ने भारवि के अनुकरण पर अपने महाकाव्य की रचना की हो लेकिन माघ उनसे कहीं अधिक आगे बढ़ गए है इसलिए कहा जाता है-
तावद भा भारवेभीति यावन्माघस्यदोदयः।
माघ जिस शैली के प्रवर्तक थे उनमें प्रायः रस, भाव, अलंकार काव्य वैचित्य बहुलता आदि सभी बातें विद्यमान थी। महाकवि की कविता में हृदय और मस्तिष्क दोनों का अपूर्व मिश्रण था। माघकाव्य में प्राकृतिक वर्णन प्रचुर मात्रा में हुआ है। इनके काव्य में भावागाम्भीर्य भी है। ‘शिशुपालवधम्’ में कतिपय स्थलों पर भावागाम्भीर्य देखकर पाठक अक्सर चकित रह जाते है। कठिन पदोन्योस तथा शब्दबन्ध की सु Üलष्टता जैसी महाकाव्य में देखने को मिलती है वैसी अन्यत्र बहुत कम काव्यों में मिलती है। इनके काव्य को पढ़ते समय मस्तिष्क का पूरा व्यायाम हो जाता है।
कलापक्ष की दृष्टि से भी माघ परिपक्व कवि सिद्ध होते है। कवि के भाषा पक्ष को ही साहित्यकारों ने कलापक्ष नाम दिया है। महाकवि माघ की भाषा के स्वरूप और सौष्ठव को समझने के लिए उनके शब्दकोष, पदयोजना, व्याकरण शब्दशक्ति, प्रयोगकौशल तथा अलंकार आदि सभी को सूक्ष्म रूप से देखना होगा। कालिदास की सरल सुगम कविता की तुलना में माघ की पाण्डित्यपूर्ण कविता में प्रवेश पाने के लिए अध्येता को काव्यशास्त्रीय ज्ञान होना आवश्यक है। वाणी के पीछे अर्थ का स्वतः अनुगमन करने (वाचामर्थोऽनुधावति) की जो दृष्टि भवभूति की रही है तदनुरूप माघ का भी कहना है कि रस भाव के ज्ञाता कवि को ओज, प्रसाद आदि काव्यगुणों का अनुगमन करने की आवश्यकता नहीं है। वे तो कवि की वाणी का स्वतः अनुगमन करते है-
नैकमोजः प्रसादो वा रसभावाविदः कवेः।
माघ के प्रकृति चित्रण में भी उनका वैशिष्ट्य देखने को मिलता है। यद्यपि माघ ने सरोवर, वन, उपवन, पर्वत, नदी, वृक्ष, संध्या, प्रातः, रात्रि, अंधकार आदि का प्रकृति के विभिन्न रूपों का चित्रण उद्दीपन के रूप में किया है फिर भी वह इतना सजीव और हृदयस्पर्शी है कि कोई भी पाठक उसमें डूब जाता है।
माघ का श्रृंगार वर्णन भी उच्च कोटि का है। उन्होंने श्रृंगार के संयोगपक्ष का ही विस्तृत वर्णन किया है। वियोगपक्ष का नहीं। संयोग श्रृंगार का वर्णन भी उन्होंने आलम्बन के रूप में ही किया है।
माघ रसवाधि कवि होने के साथ ही विचित्य तथा चमत्कार से अपनी कविता को कलात्मक के उच्च शिखर पर पहुंचा दिया हैं। एक ही वर्ण में संपूर्ण श्लोक की रचना करना उनके पाण्डित्य का परिचायक है-
दाददो दुद्ददुद्दादी दादादो दूददीददोः।
दुद्दार्द दददे दुद्दे ददाऽददददोऽददः।।
इस प्रसंग में महाकवि माघ ने ‘द’ वर्ण का प्रयोग कर अपनी विद्वता का परिचय दिया है। इसी प्रकार उन्होंने केवल दो वर्णों से भी अनेक श्लोकों की रचना की है जिसका एक उदाहरण प्रस्तुत है।
वरदोऽविवरो वैरिविवारी वारिराऽऽरवः।
विववार वरो वैरं वीरो रविरिवौर्वरः।।
यहाँ केवल ‘व’ और ‘र’ वर्णों का प्रयोग कर कवि ने अपने वर्णनचातुर्य को प्रदर्शित किया है।
इसके अतिरिक्त अनेक अनुलोम-प्रतिलोम प्रयोग विशेष प्रसिद्ध है। इनके एकक्षरपादः, सर्वतोभद्र, गामुत्रिका, बंधःमुरजबंध और यर्थवाची तथा चतुरर्थवाची आदि जटिलतम चित्रबंधों की रचना तत्कालीन कवि समाज की परंपरा की द्योतक है। शिशुपालवधम् के उन्नासवें सर्ग में यही शब्दार्थ कौशल दिखायी पड़ता है।

शिशुपालवधम् की एक छोटी सी घटना को महाभारत के सभापर्व से ग्रहण कर विशालकाय बीस सर्गों के महाकाव्य की रचना माघ के अपूर्व वर्णन कौशल का परिचायक है। शिशुपालवधम् के तीसरे से तेरहवें सर्ग तक आठ सर्गों में माघ ने अपनी मौलिक कल्पना द्वारा वर्णनचातुर्य को प्रदर्शित किया है जहाँ मुख्य विषय गौण हो गया है। उन्होंने चतुर्थ और  पंचम सर्ग में केवल रैवतक पर्वत का वर्णन अत्यन्त ही रोचकतापूर्ण किया है। रेवतक पर्वत को गज के समान तथा दो घण्टे की तुलना चंद्र और सूर्य से कर माघ ने बहुत सुंदर निर्दशना प्रस्तुत की है, जिस पर समीक्षकों द्वारा माघ को ‘घण्टामाघ’ की उपाधि प्रदान की गयी है। रैवतक एक ऐसा पर्वत है जिसका वर्णन माघ के अतिरिक्त किसी दूसरे कवि ने अपने काव्य में नहीं किया है।
वर्णनकुशलता, अलंकारप्रियता, प्रकृति समुपासना के सा޺थ ही माघ एक सफल काव्यशास्त्र भी रहे है। उनके महाकाव्य के अनुशीलन से माघ के विविधशास्त्रविशेषज्ञ होने का ज्ञान होता है। उन्होंने अपने महाकाव्य के माध्यम से हृदय पाठकों एवं कवियों को प्रायः सभी शास्त्रों का सूक्ष्म ज्ञान करा दिया है। काव्यशास्त्रीय सभी विषयों में उनकी गति दिखायी पड़ती है। विविध विषयों जैसे-श्रुतिविषय (वेद), व्याकरणशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, दर्शनशास्त्र, योग, वेदांत, मीमांसा, बौद्ध, सामरिकज्ञान, नाट्यशास्त्र, आयुर्वेदशास्त्र, ज्योतिषशास्त्र, पशुविद्या, संगीतशास्त्र, कामशास्त्र, पाकशास्त्र, साहित्यशास्त्र, व्यावहारिकज्ञान और पौराणिकज्ञान इत्यादि का सूक्ष्म परिचय इस काव्य के अनुशीलन से प्राप्त होता है। माघ का कर्तृत्व
‘एकश्चंद्रस्तमोहन्ति’ उक्ति के अनुसार महाकवि माघ की कीर्ति उनके एकमात्र उपलब्ध महाकाव्य ‘शिशुपालवधम्’ पर आधारित है, जिसका बृहत्रयी और पंचमहाकाव्य में विशिष्ट स्थान है।
शिशुपालवधम् महाकाव्य के अतिरिक्त माघ की अन्य रचनाएं प्राप्त नहीं होती। यद्यपि सुभाषित ग्रंथों में माघ के नाम से कुछ फुटकर पद्य भी मिलते है जिनसे प्रतीत होता है कि माघ की और भी रचनाएं रही होगी जो कालांतर में नष्ट हो गयी। माघ के नाम से जिन ग्रंथों में उनके पद्य मिलते है उनका संदर्भ अधोलिखित है-
बुभुक्षितैव्यकिरण न भुज्यते पिपासितैः काव्यरसो न पीयते।
विधया केनचिदुद्धतं कुलं हिरण्यमेववार्जय निष्फलाः क्रियाः।।
प्रस्तुत श्लोक महाकवि क्षेमेन्द्र की औचित्यविचार चर्चा में माघ के नाम से उल्लिखित है जो शिशुपालवधम् महाकाव्य में नहीं मिलता। सुभाषिरत्न भण्डागार में यह पद्य नाम से प्राप्त होते है-
अर्थाः न सन्ति न च मुंचर्त मां दुराषा त्यागात संकुचित दुर्लवितं मनो मे।
यांचा च लाघवकारी स्ववधे च पापं प्राणः स्वयं व्रजत् किं नु विलम्बितेन।।
इसके अतिरिक्त इनमें ग्रीष्मवर्णनम्, सामान्य नीति, दरिद्रनिन्दा, तेजस्वीप्रशंसा, पानगोष्ठिवर्णनम्, सरलकेलिकथनम्, कथनम्, कुटानि तथा रत्ती स्वभाव इत्यादि में भी माघ के पद्य प्राप्त होते है। जीवन वार्ता में भी माघ के नाम से एक पद्य प्रयुक्त हुआ है।-
उपचरिलत्याः सन्तो यद्यपि कथयन्ति नैकमुपदेशम् यास्तेषां स्वैरकथास्ता एव भवन्ति शास्त्राणि।
उपर्युक्त सभी पद्यों के अतिरिक्त महाकवि माघ से संबंध अन्य पद्य भी है जो भोजप्रबंध और प्रबंधचिंतामणि में माघ के मुख द्वारा मुखरित हुए है। यह पद्य माघ विरचित किसी प्रकाशित या अप्रकाशित ग्रंथ से संबंध हो अथवा न हो क्योंकि माघ को अमरता प्रदान करने के लिए उनका ‘शिशुपालवधम्’ ही प्रर्याप्त है।

विशेष
‘पुरातन-प्रबंध-संग्रह’ में माघ द्वारा एकमात्र महाकाव्य की रचना किये जाने का कारण बताया गया है। माघ काव्य रचना करने के पश्चात् जब अपने पिता को दिखाते तत्व वे उनकी प्रशंसा करने के स्थान पर उनके काव्य की निन्दा किया करते थे। इसलिए माघ ने काव्य रचना करने के पश्चात् उसे रसोई घर में रख दिया कुछ समय पश्चात् जब वह पुस्तक एक प्राचीन पाण्डुलिपि के समान प्रतीत होने लगी तब माघ उसे अपने पिता के पास ले गये जिसको देखकर उनके पिता ने प्रसन्न होकर कहा कि यह वास्तविक कविता है किंतु जब माघ ने उन्हें संपूर्ण वस्तुस्थिति से अवगत करवाया तो उन्होंने क्रोधित होकर माघ को श्राप दिया कि तुमने मुझसे छल किया है, अतः तुम कुछ नहीं लिख पाओंगे। तत्पश्चात् उनके पिता का स्वर्गवास हो गया और अत्यंत धनी होने के कारण माघ का जीवन विलासिता पूर्ण हो गया किंतु उनके महाकाव्य ‘शिशुपालवधम्’  ने उनको प्रसिद्ध महाकवि की उपाधि से विभूषित कर दिया।
शिशुपालवधम् महाकाव्य 20 सर्गों में विभक्त है जिसमें 1650 पद्य है। माघ ने महाभारत को आधार बनाकर अपनी मौलिक कल्पनाओं द्वारा इस महाकाव्य की रचना की है।

‘काव्य’ शब्द भाषा में बहुत प्राचीन है जिसे ‘कवि’ के कर्म के रूप में देखा जाता है। ‘कवेः कर्म काव्यम्’ (कवि $ व्यत्) यह कवि शब्द च्कु  अथवा च्कव् धातु (भ्वादि आत्मनेपद-कवेट) से बना है जिसके तीन अर्थ है-
1.    ध्वनि करना,
2.    विवरण देना और
3.    चित्रण करना।
इस प्रकार शब्दों के द्वारा किसी विषय का आकर्षक विवरण देना या चित्रण करना ही काव्य कहलाता है।
शिशुपालवधम् के सर्गों में निबद्धता- इस काव्य के प्रत्येक सर्ग में न तो 50 से न्यून और नहीं 150 से अधिक श्लोक है। काव्य का प्रारंभ वस्तुनिर्देशात्मक मंगलाचरण से हुआ है-
श्रियः पतिः श्रीमति शासिंतु जगज्जगान्निवासो वसुदेवसद्यनि।
वसत्ददर्शावतरन्तमम्बराद्धिख्यगर्भाङ्गभुर्व मुनि हरिः।।
शिशुपालवधम् के प्रत्येक सर्ग में एक ही छन्द है तथा एक ही छन्द का प्रयोग मिलता है। सर्ग के अंत में लक्षणानुसार छन्द परिवर्तन किया गया है। केवल चतुर्थ सर्ग ही इसका अपवाद है जिसमें अनेक छन्दों का प्रयोग प्राप्त होता है। तृतीय सर्ग में द्वारिका नगरी और अष्टम सर्ग छः ऋतुओं के वर्णन से चमत्कृत है जहाँ पुष्प चयन और जल-क्रीड़ा का भी प्रसंग आया है। नवम् सर्ग में नायिका नायक एवं चंद्रोदय को वर्णित किया गया है। दशम सर्ग में रतिक्रीड़ा का वर्णन है। एकादश सर्ग प्राभाविक सौन्दर्य को दर्शाता है। द्वादश सर्ग में श्रीकृष्ण की सेना का रैवतक पर्वत से इन्द्रप्रस्थ की ओर प्रस्थान करने एवं यमुना नदी का वर्णन है। अन्तिम तीन सर्गों में युद्ध का वर्णन है।
माघ के पाण्डित्य ने शिशुपालवधम् महाकाव्य को आदर्श महाकाव्य का रूप प्रदान कर उसे उच्चकोटि के महाकाव्यों में स्थान दिलाया हैं। मल्लिनाथ ने शिशुपालवधम् महाकाव्य की विशिष्टता को इस प्रकार बताया है-
तेताऽस्मिन्यदुनन्दनः स भगवा वीर प्रधानोरसः
श्रृंगारादिभिरवान् विजयते पूर्णा पुनर्वर्णना।
इन्द्रपथ गमाद्युपायविषयष्चैद्यासादः फल धन्यो
महाकविवयं तु कृतिनस्तत्सूक्तिसंसेवनात्।।
उपर्युक्त विवेचन के आधार पर यह सिद्ध होता है कि शिशुपालवधम् संपूर्ण लक्षणों से युक्त एक महाकाव्य है। ऐसा प्रतीत होता है कि लक्षणकारों ने महाकाव्य को आधार बनाकर ही महाकाव्य के लक्षण निर्धारित किये हैं।


माघ की माता का नाम ब्राह्मी को संस्कृत में सरस्वती भी कहते है इसलिए माघ को सरस्वती पुत्र भी कहा जा सकता है। माघ का जन्म माघ सुदी पूर्णिमा को होने से इनका नाम माघ रखा गया।
माघ का विवाह माल्हणा नामक कन्या के साथ हुआ जो सुंदर एवं गुणवती थी।

माघ का अहंकार
एक बार राजा के साथ महाकवि माघ जंगल में रास्ता भटक गए और एक झोपड़ी  में पहुंचे जहां एक बूढ़ी स्त्री रहती थी। उससे महाकवि का वार्तालाप शुरू हुआ जो इस प्रकार है।
माघ-हे बूढ़ी स्त्री यह रास्ता कहाँ जाता है?
बूढ़ी स्त्री- मूर्ख! रास्ता कहीं नहीं जाता, रास्ते पर तो राहगीर जाते है।
माघ को इस प्रकार के उࢂत्तर की आशा नहीं थी। माघ तिलमिला गये। लेकिन मजबूरी थी, अंधेरा अधिक हो रहा था सो उसने फिर पूछा-
माघ- हम राहगीर है, अब बतादो मार्ग कहाँ जाता है?
बूढ़ी स्त्री- राहगीर तो दो ही है या तो सूर्य या फिर चंद्र। तुम इनमें से कौन हो।
माघ-अच्छा माई! हम राजा के आदमी है, अब तो बतादो।
बूढ़ी स्त्री- राजा तो दो ही है एक इन्द्र दूसरा यम। तुम किस राजा के आदमी हो।
माघ ने कहा-हम क्षमा करने वालों में है।
बूढ़ी स्त्री-क्षमा तो दो व्यक्ति ही करते है एक स्त्री और दूसरी पृथ्वी, तुम इनमें कौन हो?
माघ ने कहा- हम क्षणभंगुर है।
बूढ़ी स्त्री-क्षणभंगुर तो दो ही है एक नवयौवन दूसरा सम्पत्ति, तुम इनमें से किस में हो।
माघ ने हताश हो कर कहा- हम हारने वालों में है।
बूढ़ी स्त्री-हारते तो दो ही है एक जिसका चरित्र चला गया दूसरा जो ऋणि हो जाय। अब बताओं तुम्हारा क्या गया।
माघ उस बुढ़ियां के चरणों में गिर पड़ा और पैर पकड़ लिए। हे माँ तुम कौन हो।
तब उस बुढ़िया माता ने कहा -उठो महा कवि माघ।
कवि माघ चौक गए कि यह स्त्री हमें जानती थी।
-हा कवि माघ मैंने तुमको देखते ही पहचान लिया था, तुम्हारें अहंकार के बारें में भी जानती हूं। अपने अहम् के कारण तुम कुछ लोगों को ही प्रिय हो लेकिन यह अहंकार नहीं रहेगा तो सर्वप्रिय हो जाओंगे।


कहीं पर उनकी पत्नी का नाम विद्यावती भी आया है।

महाकवि माघ के पास कुछ नहीं रहा और जब लौट रहे दुखियों-पीड़ितों के चेहरे पर गहरी हो गई निराशा को देखकर माघ व्याकुल हो उठे। उनके हृदय की विह्वलता वाणी से फूट पड़ी-‘मेरे प्राणों!  तुम और कुछ नहीं दे सकते पर इनकी सहायतार्थ इनके साथ तो जा सकते हो। धन से न सही संभव है प्राणों से ही उनकी सेवा करने का सौभाग्य मिल जाय। ऐसा सुंदर अवसर न जाने फिर कब मिलेगा?’
इन अंतिम शब्दों के साथ महाकवि माघ की जीर्ण काया एक ओर लुढ़क गई। चेतना ने अपने पाँव समेट लिए और अनंत अंतरिक्ष में न जाने कहाँ विलीन हो गई।
माघ जयंती पर विशेष
संस्कृत के श्रेष्ठ कवियों में माघ की गणना की जाती है। उनका समय लगभग 675 ई. निर्धारित किया गया है। उनकी प्रसिद्ध रचना‘शिशुपालवध’ नामक महाकाव्य है। इसकी कथा भी महाभारत से ली गई है। इस ग्रंथ में युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ के अवसर पर चेदि नरेश शिशुपाल को कृष्ण द्वारा वध करने की कथा का काव्यात्मक चित्रण किया गया है। माघ वैष्णव मतानुयायी थे। इनकी ईच्छा अपने वैष्णव काव्य के माध्यम से शैव मतानुयायी भारवि से आगे बढ़ने की थी। इसके निमित्त उन्होंने कई प्रयत्न भी किये। उन्होंने अपने ग्रंथ की रचना किरातार्जुनीयम् की पद्धति पर की। किरात की भांति शिशुपालवध का प्रारंभ भी ‘श्री’ शब्द से होता है।
माघ अलंकृत काव्य शैली के आचार्य है तथा उन्होंने अलंकारों से सुसज्जित पदों का प्रयोग कुशलता से किया है। प्रकृति दृश्यों का वर्णन करने में भी वे दक्ष थे। भारतीय आलोचक उनमें कालिदास जैसी उपमा, भारवि जैसा अर्थ गौरव तथा दण्डी जैसा पदलालित्य, इन तीनों गुणों को देखते है।
माघ ने नवीन चमत्कारिक उपमाओं का सृजन किया है। माघ व्याकरण, दर्शन, राजनीति, काव्यशास्त्र, संगीत आदि के प्रकाण्ड पण्डित थे तथा उनके ग्रंथ में ये सभी विशेषताएं स्थान-स्थान पर देखने को मिलती है। उनका व्याकरण संबंधी ज्ञान तो अगाध था। पदों की रचना में उन्होंने नये-नये शब्दों का चयन किया है। उनका काव्य शब्दों का विश्वकोष प्रतीत होता है। माघ के विषय में उक्ति प्रसिद्ध है कि शिशुपालवध का नवां सर्ग समाप्त होने पर कोई नया शब्द शेष नहीं बचता है। उनका शब्द विन्यास विद्वतापूर्ण होने के साथ मधुर एवं सुन्दर भी है। माघ की कविता में ललित विन्यास भी देखने को मिलता है। कालान्तर में कवियों ने उनकी अलंकृत शैली का अनुकरण किया है।
महाकविमाघ का सामान्य परिचय
संस्कृत साहित्य के काव्यकारों में माघ का उत्कृष्ट स्थान रहा है। यही धारणा है कि उनके द्वारा विरचित ‘शिशुपालवध’ महाकाव्य को संस्कृत की वृहत्रयी में विशिष्ट स्थान मिला है। महाकवि माघ ने काव्य के 20 वें सर्ग के अन्त में प्रशक्ति के रूप में लिए हुए पांच श्लोकों में अपना स्वल्पपरिचय अंकित कर दिया है जिसके सहारे तथा काव्य में यत्र-तत्र निषद्ध संकेतों से तथा अन्य प्रमाणों के आधार पर कविवर माघ के जीवन की रूपरेखा अर्थात् उनका जन्म समय, जन्म स्थान तथा उनके राजाश्रय को जाना जा सकता है।
प्रसिद्ध टीकाकार मल्लिनाथ ने प्रशस्तिरूप में लिखे इन पांच श्लोकों की व्याख्या नहीं की है। केवल वल्लभदेव कृत व्याख्या ही हमें देखने को मिलती है। इसी प्रकार 15 वें सर्ग में 39 वें श्लोक के पश्चात् द्वयर्थक 34 श्लोक रखे गए है। इसके पश्चात् 40 वां श्लोक है।
‘कविवंश वर्णन के पांच श्लोक प्रक्षिप्त है’ यह कहना केवल कपोल कल्पना है।
इन्हीं श्लोकों से स्पष्ट होता है कि दत्तक के पुत्र माघ ने सुकवि कीर्ति को परास्त करने की अभिलाषा से शिशुपालवध’ नामक काव्य की रचना की है। जिसमें श्रीकृष्ण चरित वर्णित है और प्रति सर्ग की समाप्ति पर ‘श्री’ अथवा उसका पर्यायवाची अन्य कोई शब्द अवश्य दिया गया है। यहां ध्यातव्य यह है कि कवि ने 19 वें सर्ग के अन्तिम श्लोक ‘चक्रबंध’ में किसी रूप में बड़ी निपुणता से माकाव्यमिदम् शिशुपालवधम् तक अंकित कर दिया हैं। कविवर माघ का जन्म राजस्थान की पुण्य धरा भीनमाल में राजा वर्मलात के मंत्री सुप्रसिद्ध  ब्राह्मण सुप्रभदेव के पुत्र कुमुदपण्डित (दत्तक) की धर्म पत्नी वराही के गर्भ से माघ की पूर्णिमा को हुआ था। कहा जाता है कि इनके जन्म समय की कुण्डली देखकर ज्योतिषी ने कहा था कि यह बालक उद्भट विद्वान, अत्यन्त विनीत, दयालु, दानी और वैभव समपन्न होगा। किन्तु जीवन की अन्तिम अवस्था में यह निर्धन हो जायेगा। यह बालक पूर्ण आयु प्राप्त करके पैरों में सूजन आने पर दिवंगत हो जायेगा। ज्योतिषी की भविष्यवाणी पर विश्वास करके उनके पिता कुमुद पण्डित दत्तक ने जो एक ओष्ठी धनी थे, प्रभूतधनरत्नादि की सम्पत्ति को भूमि में घड़ों में भरकर गाड़ दिया था और शेष बचा हुआ धन माघ को दे दिया था। कहा जाता है कि ‘शिशुपालवध’ की कुछ रचना उन्होंने परदेश में रहते हुए की थी और शेष भाग की रचना वृद्धावस्था में घर पर रहकर ही की। अन्तिम अवस्था में वे अत्यधिक दरिद्रावस्था में थे। ‘भोज प्रबंध’ में उनकी पत्नी प्रलाप करती हुई कहती है कि जिसके द्वार पर एक दिन राजा आश्रय के लिए ठहरा करते थे आज वही व्यक्ति दाने-दाने के लिए तरस रहा है। क्षेमेन्द्रकृत ‘औचित्य विचार-विमर्श’ में पण्डित महाकवि माघ का अधोलिखित पद्य माघ की उक्त दशा का निदर्शक है-
बुभुक्षितैत्यकिरणं न भुज्यते न पीयते काव्यरसः पिपासितेः।
न विद्यया केनचिदुदूधृतं कुलं हिरण्यमेवार्जयन्हिफलः कियाः।।
उक्त वाक्य से ऐसा प्रतीत होता है कि दरिद्रता से धैर्यहीन हो जाने के कारण अत्यंत कातर हुए माघ की यह उक्ति है। कविवर माघ 120 वर्ष की पूर्ण आयु परास्त करके दिवंगत हुए साथ ही उनकी पत्नी सती हो गई। इनकी अन्तिम क्रिया तक करने वाला कोई व्यक्ति इनके परिवार में नहीं था। ‘भोजप्रबंध’, ‘प्रबंधचिंतामणि’ तथा ‘प्रभावकरित’ के अनुसार भोज की जीवित्तावस्था में दिवंगत हुए, क्योंकि भोज ने ही माघ का दाह संस्कार पुत्रवत् किया था।

माघ निःसन्देह आनंदवर्धन के पूर्ववर्ती है या समकालीन भी हो सकते है। क्यांकि यशोलिप्सा के कारण माघ स्थिर रूप में किसी एक स्थान पर न रह पाये हो उन्होंने निश्चित रूप से उत्तर भारत में कश्मीर तक भ्रमण किया था जिसका उल्लेख काव्य के प्रथम सर्ग का नारद मुनि की जटाओं का वर्णन है। यहीं पर संभव है ध्वन्यालोक में उद्धृत श्लोक को किसी काव्योष्ठी में श्री आनंदवर्धन ने माघ के मुख से सुने हो और उत्तम होने के कारण आनंदवर्धन ने ध्वन्यालोक में उन्हें उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया है।
एक शिलालेख से भी माघ के समय निर्धारण में सहायता मिलती है। राजा वर्मलात का शिलालेख वसन्त गढ़ (सिरोही राज्य में ) से प्राप्त हुआ। यह शिलालेख शक संवत 682 का है। शक संवत में 78 वर्ष जोड़ दिये जाते है तब ईस्वी सन् का ज्ञान होता है। इस प्रकार यह शिलालेख सन् 760 ई के आसपास होना चाहिए।
इस तरह माघ का काल प्रायः 8 वीं और 9 वीं शताब्दियों के बीच स्थिर होता है। इसमें संदेह नहीं किया जा सकता। भोज प्रबंध के अनुसार माघ भोज के समकालीन थे, क्योंकि भोज प्रबंध में माघ के संबंध में यह क्विदंती प्रचलित है कि एक बार माघ ने अपनी संपूर्ण संपत्ति दान कर दी थी। निर्धन स्थिति में उन्होंने एक श्लोक की रचना की जिसे उन्होंने राजा भोज के सभा में भेजा था। यह श्लोक इस प्रकार है।
कुमुदवनमपश्रि श्रीमदम्भोजखण्डे,
मुदति मुद मूलूकः प्रीतिमार्चक्रवाकः।
उदयमहिमरश्मिर्याति शीतांशुरस्तं,
हतविधिलीसतानां ही विचित्रो विपाकः।।
अर्थ- कुमुदवन श्रीहीन हो रहा है, कमल-समूह शोभायुक्त हो रहा है। उल्लू  (दिन में नहीं देख सकने के कारण) प्रसन्नता को तज रहा है, जबकि चकवा (दिन में प्रिया का संग होने के कारण) प्रेममग्न हो रहा है। सूर्य उदित हो रहा है तो चंद्रमा अस्त हो रहा है। दुर्देव की चेष्टाओं का परिणाम विचित्र होता है, कितना आश्चर्यजनक है।
जब राज सभा में उक्त श्लोक को पढ़कर सुनाया गया तो भोज अत्यंत प्रसन्न हुए उन्होंने माघ की पत्नी को बहुत सा धन देकर विदा किया माघ की पत्नी जब वापस लौट रही थी, तो रास्ते मे याचक माघ की दानशीलता की प्रशंसा करते हुए उससे भी मांगने लगे। माघ की पत्नी ने सारा धन याचकों में बांट दिया। जब पत्नी रिक्तहस्त घर पहुंची तो माघ को चिन्ता हुई कि अब कोई याचक आया तो उसे क्या देंगे? माघ की यह चिन्ताजनक स्थिति को देखकर याचक ने यह कहा था-
आश्वास्य पर्वतकुलं तपनोष्ण तप्त,
मुद्यामदामविधुराणि च काननानि।
नानानदीनदशतानि च पुरयित्वा,
रिक्तोऽसि यज्जलद सैव तवोत्तमा श्री।
अर्थ यह है कि ग्रीष्म से तप्त पर्वत समूह का संताप हरने हेतु दावाग्नि से जलते वन की तपन बुझाने में तथा सैकड़ों नदी, नद, नालों को भरने में बादल स्वयं रिक्त हो जाता है, यही उसकी श्रेष्ठ आभा है।
संस्कृत साहित्यकोश में महाकवि माघ एक जाज्वल्यमान के समान है जिन्होंने अपनी काव्यप्रतिभा से संस्कृत जगत् को चमत्कृत किया है। ये एक ओर कालिदास के समान रसवादी कवि है तो दूसरी ओर भारवि सदृश विचित्रमार्ग के पोषक भी। कवियों के मध्य महाकवि कालिदास सुप्रसिद्ध है तो काव्यों में माघ अपना एक विशिष्ट स्थान रखते है।
काव्येषु माघः कवि कालिदासः।
माघ अलंकृत शैली के पण्डित माने जाते है। जहां काव्य के आन्तरिक तत्व की अपेक्षा ब्राह्यतत्व शब्द और अर्थ के चमत्कार देखे जा सकते है। इनकी एकमात्र कृति ‘शिशुपालवधम्’ जिसे महाकाव्य भी कहा जाता है, वृहत्त्रयी में महत्वपूर्ण स्थान रखती है। इस महाकवि के आलोडन के पश्चात् किसी विद्वान ने इसकी महत्वा के विषय में कहा है-‘मेघे माघे गतं वयः।’ माघ विद्वानों के बीच पण्डित कवि के रूप में भी सुप्रसिद्ध है। समीक्षकों का कहना है कि माघ ने भारवि की प्रतिद्वन्दिता में ही महाकाव्य की रचना की क्योंकि माघ पर भारवि का स्पष्ट प्रभाव दिखाई देता है। भले ही माघ ने भारवि के अनुकरण पर अपने महाकाव्य की रचना की हो लेकिन माघ उनसे कहीं अधिक आगे बढ़ गए है इसलिए कहा जाता है-
तावद भा भारवेभीति यावन्माघस्यदोदयः।
माघ जिस शैली के प्रवर्तक थे उनमें प्रायः रस, भाव, अलंकार काव्य वैचित्य बहुलता आदि सभी बातें विद्यमान थी। महाकवि की कविता में हृदय और मस्तिष्क दोनों का अपूर्व मिश्रण था। माघकाव्य में प्राकृतिक वर्णन प्रचुर मात्रा में हुआ है। इनके काव्य में भावागाम्भीर्य भी है। ‘शिशुपालवधम्’ में कतिपय स्थलों पर भावागाम्भीर्य देखकर पाठक अक्सर चकित रह जाते है। कठिन पदोन्योस तथा शब्दबन्ध की सु Üलष्टता जैसी महाकाव्य में देखने को मिलती है वैसी अन्यत्र बहुत कम काव्यों में मिलती है। इनके काव्य को पढ़ते समय मस्तिष्क का पूरा व्यायाम हो जाता है।
कलापक्ष की दृष्टि से भी माघ परिपक्व कवि सिद्ध होते है। कवि के भाषा पक्ष को ही साहित्यकारों ने कलापक्ष नाम दिया है। महाकवि माघ की भाषा के स्वरूप और सौष्ठव को समझने के लिए उनके शब्दकोष, पदयोजना, व्याकरण शब्दशक्ति, प्रयोगकौशल तथा अलंकार आदि सभी को सूक्ष्म रूप से देखना होगा। कालिदास की सरल सुगम कविता की तुलना में माघ की पाण्डित्यपूर्ण कविता में प्रवेश पाने के लिए अध्येता को काव्यशास्त्रीय ज्ञान होना आवश्यक है। वाणी के पीछे अर्थ का स्वतः अनुगमन करने (वाचामर्थोऽनुधावति) की जो दृष्टि भवभूति की रही है तदनुरूप माघ का भी कहना है कि रस भाव के ज्ञाता कवि को ओज, प्रसाद आदि काव्यगुणों का अनुगमन करने की आवश्यकता नहीं है। वे तो कवि की वाणी का स्वतः अनुगमन करते है-
नैकमोजः प्रसादो वा रसभावाविदः कवेः।
माघ के प्रकृति चित्रण में भी उनका वैशिष्ट्य देखने को मिलता है। यद्यपि माघ ने सरोवर, वन, उपवन, पर्वत, नदी, वृक्ष, संध्या, प्रातः, रात्रि, अंधकार आदि का प्रकृति के विभिन्न रूपों का चित्रण उद्दीपन के रूप में किया है फिर भी वह इतना सजीव और हृदयस्पर्शी है कि कोई भी पाठक उसमें डूब जाता है।
माघ का श्रृंगार वर्णन भी उच्च कोटि का है। उन्होंने श्रृंगार के संयोगपक्ष का ही विस्तृत वर्णन किया है। वियोगपक्ष का नहीं। संयोग श्रृंगार का वर्णन भी उन्होंने आलम्बन के रूप में ही किया है।
माघ रसवाधि कवि होने के साथ ही विचित्य तथा चमत्कार से अपनी कविता को कलात्मक के उच्च शिखर पर पहुंचा दिया हैं। एक ही वर्ण में संपूर्ण श्लोक की रचना करना उनके पाण्डित्य का परिचायक है-
दाददो दुद्ददुद्दादी दादादो दूददीददोः।
दुद्दार्द दददे दुद्दे ददाऽददददोऽददः।।
इस प्रसंग में महाकवि माघ ने ‘द’ वर्ण का प्रयोग कर अपनी विद्वता का परिचय दिया है। इसी प्रकार उन्होंने केवल दो वर्णों से भी अनेक श्लोकों की रचना की है जिसका एक उदाहरण प्रस्तुत है।
वरदोऽविवरो वैरिविवारी वारिराऽऽरवः।
विववार वरो वैरं वीरो रविरिवौर्वरः।।
यहाँ केवल ‘व’ और ‘र’ वर्णों का प्रयोग कर कवि ने अपने वर्णनचातुर्य को प्रदर्शित किया है।
इसके अतिरिक्त अनेक अनुलोम-प्रतिलोम प्रयोग विशेष प्रसिद्ध है। इनके एकक्षरपादः, सर्वतोभद्र, गामुत्रिका, बंधःमुरजबंध और यर्थवाची तथा चतुरर्थवाची आदि जटिलतम चित्रबंधों की रचना तत्कालीन कवि समाज की परंपरा की द्योतक है। शिशुपालवधम् के उन्नासवें सर्ग में यही शब्दार्थ कौशल दिखायी पड़ता है।

शिशुपालवधम् की एक छोटी सी घटना को महाभारत के सभापर्व से ग्रहण कर विशालकाय बीस सर्गों के महाकाव्य की रचना माघ के अपूर्व वर्णन कौशल का परिचायक है। शिशुपालवधम् के तीसरे से तेरहवें सर्ग तक आठ सर्गों में माघ ने अपनी मौलिक कल्पना द्वारा वर्णनचातुर्य को प्रदर्शित किया है जहाँ मुख्य विषय गौण हो गया है। उन्होंने चतुर्थ और  पंचम सर्ग में केवल रैवतक पर्वत का वर्णन अत्यन्त ही रोचकतापूर्ण किया है। रेवतक पर्वत को गज के समान तथा दो घण्टे की तुलना चंद्र और सूर्य से कर माघ ने बहुत सुंदर निर्दशना प्रस्तुत की है, जिस पर समीक्षकों द्वारा माघ को ‘घण्टामाघ’ की उपाधि प्रदान की गयी है। रैवतक एक ऐसा पर्वत है जिसका वर्णन माघ के अतिरिक्त किसी दूसरे कवि ने अपने काव्य में नहीं किया है।
वर्णनकुशलता, अलंकारप्रियता, प्रकृति समुपासना के सा޺थ ही माघ एक सफल काव्यशास्त्र भी रहे है। उनके महाकाव्य के अनुशीलन से माघ के विविधशास्त्रविशेषज्ञ होने का ज्ञान होता है। उन्होंने अपने महाकाव्य के माध्यम से हृदय पाठकों एवं कवियों को प्रायः सभी शास्त्रों का सूक्ष्म ज्ञान करा दिया है। काव्यशास्त्रीय सभी विषयों में उनकी गति दिखायी पड़ती है। विविध विषयों जैसे-श्रुतिविषय (वेद), व्याकरणशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, दर्शनशास्त्र, योग, वेदांत, मीमांसा, बौद्ध, सामरिकज्ञान, नाट्यशास्त्र, आयुर्वेदशास्त्र, ज्योतिषशास्त्र, पशुविद्या, संगीतशास्त्र, कामशास्त्र, पाकशास्त्र, साहित्यशास्त्र, व्यावहारिकज्ञान और पौराणिकज्ञान इत्यादि का सूक्ष्म परिचय इस काव्य के अनुशीलन से प्राप्त होता है। माघ का कर्तृत्व
‘एकश्चंद्रस्तमोहन्ति’ उक्ति के अनुसार महाकवि माघ की कीर्ति उनके एकमात्र उपलब्ध महाकाव्य ‘शिशुपालवधम्’ पर आधारित है, जिसका बृहत्रयी और पंचमहाकाव्य में विशिष्ट स्थान है।
शिशुपालवधम् महाकाव्य के अतिरिक्त माघ की अन्य रचनाएं प्राप्त नहीं होती। यद्यपि सुभाषित ग्रंथों में माघ के नाम से कुछ फुटकर पद्य भी मिलते है जिनसे प्रतीत होता है कि माघ की और भी रचनाएं रही होगी जो कालांतर में नष्ट हो गयी। माघ के नाम से जिन ग्रंथों में उनके पद्य मिलते है उनका संदर्भ अधोलिखित है-
बुभुक्षितैव्यकिरण न भुज्यते पिपासितैः काव्यरसो न पीयते।
विधया केनचिदुद्धतं कुलं हिरण्यमेववार्जय निष्फलाः क्रियाः।।
प्रस्तुत श्लोक महाकवि क्षेमेन्द्र की औचित्यविचार चर्चा में माघ के नाम से उल्लिखित है जो शिशुपालवधम् महाकाव्य में नहीं मिलता। सुभाषिरत्न भण्डागार में यह पद्य नाम से प्राप्त होते है-
अर्थाः न सन्ति न च मुंचर्त मां दुराषा त्यागात संकुचित दुर्लवितं मनो मे।
यांचा च लाघवकारी स्ववधे च पापं प्राणः स्वयं व्रजत् किं नु विलम्बितेन।।
इसके अतिरिक्त इनमें ग्रीष्मवर्णनम्, सामान्य नीति, दरिद्रनिन्दा, तेजस्वीप्रशंसा, पानगोष्ठिवर्णनम्, सरलकेलिकथनम्, कथनम्, कुटानि तथा रत्ती स्वभाव इत्यादि में भी माघ के पद्य प्राप्त होते है। जीवन वार्ता में भी माघ के नाम से एक पद्य प्रयुक्त हुआ है।-
उपचरिलत्याः सन्तो यद्यपि कथयन्ति नैकमुपदेशम् यास्तेषां स्वैरकथास्ता एव भवन्ति शास्त्राणि।
उपर्युक्त सभी पद्यों के अतिरिक्त महाकवि माघ से संबंध अन्य पद्य भी है जो भोजप्रबंध और प्रबंधचिंतामणि में माघ के मुख द्वारा मुखरित हुए है। यह पद्य माघ विरचित किसी प्रकाशित या अप्रकाशित ग्रंथ से संबंध हो अथवा न हो क्योंकि माघ को अमरता प्रदान करने के लिए उनका ‘शिशुपालवधम्’ ही प्रर्याप्त है।

विशेष
‘पुरातन-प्रबंध-संग्रह’ में माघ द्वारा एकमात्र महाकाव्य की रचना किये जाने का कारण बताया गया है। माघ काव्य रचना करने के पश्चात् जब अपने पिता को दिखाते तत्व वे उनकी प्रशंसा करने के स्थान पर उनके काव्य की निन्दा किया करते थे। इसलिए माघ ने काव्य रचना करने के पश्चात् उसे रसोई घर में रख दिया कुछ समय पश्चात् जब वह पुस्तक एक प्राचीन पाण्डुलिपि के समान प्रतीत होने लगी तब माघ उसे अपने पिता के पास ले गये जिसको देखकर उनके पिता ने प्रसन्न होकर कहा कि यह वास्तविक कविता है किंतु जब माघ ने उन्हें संपूर्ण वस्तुस्थिति से अवगत करवाया तो उन्होंने क्रोधित होकर माघ को श्राप दिया कि तुमने मुझसे छल किया है, अतः तुम कुछ नहीं लिख पाओंगे। तत्पश्चात् उनके पिता का स्वर्गवास हो गया और अत्यंत धनी होने के कारण माघ का जीवन विलासिता पूर्ण हो गया किंतु उनके महाकाव्य ‘शिशुपालवधम्’  ने उनको प्रसिद्ध महाकवि की उपाधि से विभूषित कर दिया।
शिशुपालवधम् महाकाव्य 20 सर्गों में विभक्त है जिसमें 1650 पद्य है। माघ ने महाभारत को आधार बनाकर अपनी मौलिक कल्पनाओं द्वारा इस महाकाव्य की रचना की है।

‘काव्य’ शब्द भाषा में बहुत प्राचीन है जिसे ‘कवि’ के कर्म के रूप में देखा जाता है। ‘कवेः कर्म काव्यम्’ (कवि $ व्यत्) यह कवि शब्द च्कु  अथवा च्कव् धातु (भ्वादि आत्मनेपद-कवेट) से बना है जिसके तीन अर्थ है-
1.    ध्वनि करना,
2.    विवरण देना और
3.    चित्रण करना।
इस प्रकार शब्दों के द्वारा किसी विषय का आकर्षक विवरण देना या चित्रण करना ही काव्य कहलाता है।
शिशुपालवधम् के सर्गों में निबद्धता- इस काव्य के प्रत्येक सर्ग में न तो 50 से न्यून और नहीं 150 से अधिक श्लोक है। काव्य का प्रारंभ वस्तुनिर्देशात्मक मंगलाचरण से हुआ है-
श्रियः पतिः श्रीमति शासिंतु जगज्जगान्निवासो वसुदेवसद्यनि।
वसत्ददर्शावतरन्तमम्बराद्धिख्यगर्भाङ्गभुर्व मुनि हरिः।।
शिशुपालवधम् के प्रत्येक सर्ग में एक ही छन्द है तथा एक ही छन्द का प्रयोग मिलता है। सर्ग के अंत में लक्षणानुसार छन्द परिवर्तन किया गया है। केवल चतुर्थ सर्ग ही इसका अपवाद है जिसमें अनेक छन्दों का प्रयोग प्राप्त होता है। तृतीय सर्ग में द्वारिका नगरी और अष्टम सर्ग छः ऋतुओं के वर्णन से चमत्कृत है जहाँ पुष्प चयन और जल-क्रीड़ा का भी प्रसंग आया है। नवम् सर्ग में नायिका नायक एवं चंद्रोदय को वर्णित किया गया है। दशम सर्ग में रतिक्रीड़ा का वर्णन है। एकादश सर्ग प्राभाविक सौन्दर्य को दर्शाता है। द्वादश सर्ग में श्रीकृष्ण की सेना का रैवतक पर्वत से इन्द्रप्रस्थ की ओर प्रस्थान करने एवं यमुना नदी का वर्णन है। अन्तिम तीन सर्गों में युद्ध का वर्णन है।
माघ के पाण्डित्य ने शिशुपालवधम् महाकाव्य को आदर्श महाकाव्य का रूप प्रदान कर उसे उच्चकोटि के महाकाव्यों में स्थान दिलाया हैं। मल्लिनाथ ने शिशुपालवधम् महाकाव्य की विशिष्टता को इस प्रकार बताया है-
तेताऽस्मिन्यदुनन्दनः स भगवा वीर प्रधानोरसः
श्रृंगारादिभिरवान् विजयते पूर्णा पुनर्वर्णना।
इन्द्रपथ गमाद्युपायविषयष्चैद्यासादः फल धन्यो
महाकविवयं तु कृतिनस्तत्सूक्तिसंसेवनात्।।
उपर्युक्त विवेचन के आधार पर यह सिद्ध होता है कि शिशुपालवधम् संपूर्ण लक्षणों से युक्त एक महाकाव्य है। ऐसा प्रतीत होता है कि लक्षणकारों ने महाकाव्य को आधार बनाकर ही महाकाव्य के लक्षण निर्धारित किये हैं।


माघ की माता का नाम ब्राह्मी को संस्कृत में सरस्वती भी कहते है इसलिए माघ को सरस्वती पुत्र भी कहा जा सकता है। माघ का जन्म माघ सुदी पूर्णिमा को होने से इनका नाम माघ रखा गया।
माघ का विवाह माल्हणा नामक कन्या के साथ हुआ जो सुंदर एवं गुणवती थी।

माघ का अहंकार
एक बार राजा के साथ महाकवि माघ जंगल में रास्ता भटक गए और एक झोपड़ी  में पहुंचे जहां एक बूढ़ी स्त्री रहती थी। उससे महाकवि का वार्तालाप शुरू हुआ जो इस प्रकार है।
माघ-हे बूढ़ी स्त्री यह रास्ता कहाँ जाता है?
बूढ़ी स्त्री- मूर्ख! रास्ता कहीं नहीं जाता, रास्ते पर तो राहगीर जाते है।
माघ को इस प्रकार के उࢂत्तर की आशा नहीं थी। माघ तिलमिला गये। लेकिन मजबूरी थी, अंधेरा अधिक हो रहा था सो उसने फिर पूछा-
माघ- हम राहगीर है, अब बतादो मार्ग कहाँ जाता है?
बूढ़ी स्त्री- राहगीर तो दो ही है या तो सूर्य या फिर चंद्र। तुम इनमें से कौन हो।
माघ-अच्छा माई! हम राजा के आदमी है, अब तो बतादो।
बूढ़ी स्त्री- राजा तो दो ही है एक इन्द्र दूसरा यम। तुम किस राजा के आदमी हो।
माघ ने कहा-हम क्षमा करने वालों में है।
बूढ़ी स्त्री-क्षमा तो दो व्यक्ति ही करते है एक स्त्री और दूसरी पृथ्वी, तुम इनमें कौन हो?
माघ ने कहा- हम क्षणभंगुर है।
बूढ़ी स्त्री-क्षणभंगुर तो दो ही है एक नवयौवन दूसरा सम्पत्ति, तुम इनमें से किस में हो।
माघ ने हताश हो कर कहा- हम हारने वालों में है।
बूढ़ी स्त्री-हारते तो दो ही है एक जिसका चरित्र चला गया दूसरा जो ऋणि हो जाय। अब बताओं तुम्हारा क्या गया।
माघ उस बुढ़ियां के चरणों में गिर पड़ा और पैर पकड़ लिए। हे माँ तुम कौन हो।
तब उस बुढ़िया माता ने कहा -उठो महा कवि माघ।
कवि माघ चौक गए कि यह स्त्री हमें जानती थी।
-हा कवि माघ मैंने तुमको देखते ही पहचान लिया था, तुम्हारें अहंकार के बारें में भी जानती हूं। अपने अहम् के कारण तुम कुछ लोगों को ही प्रिय हो लेकिन यह अहंकार नहीं रहेगा तो सर्वप्रिय हो जाओंगे।


कहीं पर उनकी पत्नी का नाम विद्यावती भी आया है।

महाकवि माघ के पास कुछ नहीं रहा और जब लौट रहे दुखियों-पीड़ितों के चेहरे पर गहरी हो गई निराशा को देखकर माघ व्याकुल हो उठे। उनके हृदय की विह्वलता वाणी से फूट पड़ी-‘मेरे प्राणों!  तुम और कुछ नहीं दे सकते पर इनकी सहायतार्थ इनके साथ तो जा सकते हो। धन से न सही संभव है प्राणों से ही उनकी सेवा करने का सौभाग्य मिल जाय। ऐसा सुंदर अवसर न जाने फिर कब मिलेगा?’
इन अंतिम शब्दों के साथ महाकवि माघ की जीर्ण काया एक ओर लुढ़क गई। चेतना ने अपने पाँव समेट लिए और अनंत अंतरिक्ष में न जाने कहाँ विलीन हो गई।
 कृतिदेव यहां माघ जयंती पर विशेष
संस्कृत के श्रेष्ठ कवियों में माघ की गणना की जाती है। उनका समय लगभग 675 ई. निर्धारित किया गया है। उनकी प्रसिद्ध रचना‘शिशुपालवध’ नामक महाकाव्य है। इसकी कथा भी महाभारत से ली गई है। इस ग्रंथ में युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ के अवसर पर चेदि नरेश शिशुपाल को कृष्ण द्वारा वध करने की कथा का काव्यात्मक चित्रण किया गया है। माघ वैष्णव मतानुयायी थे। इनकी ईच्छा अपने वैष्णव काव्य के माध्यम से शैव मतानुयायी भारवि से आगे बढ़ने की थी। इसके निमित्त उन्होंने कई प्रयत्न भी किये। उन्होंने अपने ग्रंथ की रचना किरातार्जुनीयम् की पद्धति पर की। किरात की भांति शिशुपालवध का प्रारंभ भी ‘श्री’ शब्द से होता है।
माघ अलंकृत काव्य शैली के आचार्य है तथा उन्होंने अलंकारों से सुसज्जित पदों का प्रयोग कुशलता से किया है। प्रकृति दृश्यों का वर्णन करने में भी वे दक्ष थे। भारतीय आलोचक उनमें कालिदास जैसी उपमा, भारवि जैसा अर्थ गौरव तथा दण्डी जैसा पदलालित्य, इन तीनों गुणों को देखते है।
माघ ने नवीन चमत्कारिक उपमाओं का सृजन किया है। माघ व्याकरण, दर्शन, राजनीति, काव्यशास्त्र, संगीत आदि के प्रकाण्ड पण्डित थे तथा उनके ग्रंथ में ये सभी विशेषताएं स्थान-स्थान पर देखने को मिलती है। उनका व्याकरण संबंधी ज्ञान तो अगाध था। पदों की रचना में उन्होंने नये-नये शब्दों का चयन किया है। उनका काव्य शब्दों का विश्वकोष प्रतीत होता है। माघ के विषय में उक्ति प्रसिद्ध है कि शिशुपालवध का नवां सर्ग समाप्त होने पर कोई नया शब्द शेष नहीं बचता है। उनका शब्द विन्यास विद्वतापूर्ण होने के साथ मधुर एवं सुन्दर भी है। माघ की कविता में ललित विन्यास भी देखने को मिलता है। कालान्तर में कवियों ने उनकी अलंकृत शैली का अनुकरण किया है।
महाकविमाघ का सामान्य परिचय
संस्कृत साहित्य के काव्यकारों में माघ का उत्कृष्ट स्थान रहा है। यही धारणा है कि उनके द्वारा विरचित ‘शिशुपालवध’ महाकाव्य को संस्कृत की वृहत्रयी में विशिष्ट स्थान मिला है। महाकवि माघ ने काव्य के 20 वें सर्ग के अन्त में प्रशक्ति के रूप में लिए हुए पांच श्लोकों में अपना स्वल्पपरिचय अंकित कर दिया है जिसके सहारे तथा काव्य में यत्र-तत्र निषद्ध संकेतों से तथा अन्य प्रमाणों के आधार पर कविवर माघ के जीवन की रूपरेखा अर्थात् उनका जन्म समय, जन्म स्थान तथा उनके राजाश्रय को जाना जा सकता है।
प्रसिद्ध टीकाकार मल्लिनाथ ने प्रशस्तिरूप में लिखे इन पांच श्लोकों की व्याख्या नहीं की है। केवल वल्लभदेव कृत व्याख्या ही हमें देखने को मिलती है। इसी प्रकार 15 वें सर्ग में 39 वें श्लोक के पश्चात् द्वयर्थक 34 श्लोक रखे गए है। इसके पश्चात् 40 वां श्लोक है।
‘कविवंश वर्णन के पांच श्लोक प्रक्षिप्त है’ यह कहना केवल कपोल कल्पना है।
इन्हीं श्लोकों से स्पष्ट होता है कि दत्तक के पुत्र माघ ने सुकवि कीर्ति को परास्त करने की अभिलाषा से शिशुपालवध’ नामक काव्य की रचना की है। जिसमें श्रीकृष्ण चरित वर्णित है और प्रति सर्ग की समाप्ति पर ‘श्री’ अथवा उसका पर्यायवाची अन्य कोई शब्द अवश्य दिया गया है। यहां ध्यातव्य यह है कि कवि ने 19 वें सर्ग के अन्तिम श्लोक ‘चक्रबंध’ में किसी रूप में बड़ी निपुणता से माकाव्यमिदम् शिशुपालवधम् तक अंकित कर दिया हैं। कविवर माघ का जन्म राजस्थान की पुण्य धरा भीनमाल में राजा वर्मलात के मंत्री सुप्रसिद्ध  ब्राह्मण सुप्रभदेव के पुत्र कुमुदपण्डित (दत्तक) की धर्म पत्नी वराही के गर्भ से माघ की पूर्णिमा को हुआ था। कहा जाता है कि इनके जन्म समय की कुण्डली देखकर ज्योतिषी ने कहा था कि यह बालक उद्भट विद्वान, अत्यन्त विनीत, दयालु, दानी और वैभव समपन्न होगा। किन्तु जीवन की अन्तिम अवस्था में यह निर्धन हो जायेगा। यह बालक पूर्ण आयु प्राप्त करके पैरों में सूजन आने पर दिवंगत हो जायेगा। ज्योतिषी की भविष्यवाणी पर विश्वास करके उनके पिता कुमुद पण्डित दत्तक ने जो एक ओष्ठी धनी थे, प्रभूतधनरत्नादि की सम्पत्ति को भूमि में घड़ों में भरकर गाड़ दिया था और शेष बचा हुआ धन माघ को दे दिया था। कहा जाता है कि ‘शिशुपालवध’ की कुछ रचना उन्होंने परदेश में रहते हुए की थी और शेष भाग की रचना वृद्धावस्था में घर पर रहकर ही की। अन्तिम अवस्था में वे अत्यधिक दरिद्रावस्था में थे। ‘भोज प्रबंध’ में उनकी पत्नी प्रलाप करती हुई कहती है कि जिसके द्वार पर एक दिन राजा आश्रय के लिए ठहरा करते थे आज वही व्यक्ति दाने-दाने के लिए तरस रहा है। क्षेमेन्द्रकृत ‘औचित्य विचार-विमर्श’ में पण्डित महाकवि माघ का अधोलिखित पद्य माघ की उक्त दशा का निदर्शक है-
बुभुक्षितैत्यकिरणं न भुज्यते न पीयते काव्यरसः पिपासितेः।
न विद्यया केनचिदुदूधृतं कुलं हिरण्यमेवार्जयन्हिफलः कियाः।।
उक्त वाक्य से ऐसा प्रतीत होता है कि दरिद्रता से धैर्यहीन हो जाने के कारण अत्यंत कातर हुए माघ की यह उक्ति है। कविवर माघ 120 वर्ष की पूर्ण आयु परास्त करके दिवंगत हुए साथ ही उनकी पत्नी सती हो गई। इनकी अन्तिम क्रिया तक करने वाला कोई व्यक्ति इनके परिवार में नहीं था। ‘भोजप्रबंध’, ‘प्रबंधचिंतामणि’ तथा ‘प्रभावकरित’ के अनुसार भोज की जीवित्तावस्था में दिवंगत हुए, क्योंकि भोज ने ही माघ का दाह संस्कार पुत्रवत् किया था।

माघ निःसन्देह आनंदवर्धन के पूर्ववर्ती है या समकालीन भी हो सकते है। क्यांकि यशोलिप्सा के कारण माघ स्थिर रूप में किसी एक स्थान पर न रह पाये हो उन्होंने निश्चित रूप से उत्तर भारत में कश्मीर तक भ्रमण किया था जिसका उल्लेख काव्य के प्रथम सर्ग का नारद मुनि की जटाओं का वर्णन है। यहीं पर संभव है ध्वन्यालोक में उद्धृत श्लोक को किसी काव्योष्ठी में श्री आनंदवर्धन ने माघ के मुख से सुने हो और उत्तम होने के कारण आनंदवर्धन ने ध्वन्यालोक में उन्हें उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया है।
एक शिलालेख से भी माघ के समय निर्धारण में सहायता मिलती है। राजा वर्मलात का शिलालेख वसन्त गढ़ (सिरोही राज्य में ) से प्राप्त हुआ। यह शिलालेख शक संवत 682 का है। शक संवत में 78 वर्ष जोड़ दिये जाते है तब ईस्वी सन् का ज्ञान होता है। इस प्रकार यह शिलालेख सन् 760 ई के आसपास होना चाहिए।
इस तरह माघ का काल प्रायः 8 वीं और 9 वीं शताब्दियों के बीच स्थिर होता है। इसमें संदेह नहीं किया जा सकता। भोज प्रबंध के अनुसार माघ भोज के समकालीन थे, क्योंकि भोज प्रबंध में माघ के संबंध में यह क्विदंती प्रचलित है कि एक बार माघ ने अपनी संपूर्ण संपत्ति दान कर दी थी। निर्धन स्थिति में उन्होंने एक श्लोक की रचना की जिसे उन्होंने राजा भोज के सभा में भेजा था। यह श्लोक इस प्रकार है।
कुमुदवनमपश्रि श्रीमदम्भोजखण्डे,
मुदति मुद मूलूकः प्रीतिमार्चक्रवाकः।
उदयमहिमरश्मिर्याति शीतांशुरस्तं,
हतविधिलीसतानां ही विचित्रो विपाकः।।
अर्थ- कुमुदवन श्रीहीन हो रहा है, कमल-समूह शोभायुक्त हो रहा है। उल्लू  (दिन में नहीं देख सकने के कारण) प्रसन्नता को तज रहा है, जबकि चकवा (दिन में प्रिया का संग होने के कारण) प्रेममग्न हो रहा है। सूर्य उदित हो रहा है तो चंद्रमा अस्त हो रहा है। दुर्देव की चेष्टाओं का परिणाम विचित्र होता है, कितना आश्चर्यजनक है।
जब राज सभा में उक्त श्लोक को पढ़कर सुनाया गया तो भोज अत्यंत प्रसन्न हुए उन्होंने माघ की पत्नी को बहुत सा धन देकर विदा किया माघ की पत्नी जब वापस लौट रही थी, तो रास्ते मे याचक माघ की दानशीलता की प्रशंसा करते हुए उससे भी मांगने लगे। माघ की पत्नी ने सारा धन याचकों में बांट दिया। जब पत्नी रिक्तहस्त घर पहुंची तो माघ को चिन्ता हुई कि अब कोई याचक आया तो उसे क्या देंगे? माघ की यह चिन्ताजनक स्थिति को देखकर याचक ने यह कहा था-
आश्वास्य पर्वतकुलं तपनोष्ण तप्त,
मुद्यामदामविधुराणि च काननानि।
नानानदीनदशतानि च पुरयित्वा,
रिक्तोऽसि यज्जलद सैव तवोत्तमा श्री।
अर्थ यह है कि ग्रीष्म से तप्त पर्वत समूह का संताप हरने हेतु दावाग्नि से जलते वन की तपन बुझाने में तथा सैकड़ों नदी, नद, नालों को भरने में बादल स्वयं रिक्त हो जाता है, यही उसकी श्रेष्ठ आभा है।
संस्कृत साहित्यकोश में महाकवि माघ एक जाज्वल्यमान के समान है जिन्होंने अपनी काव्यप्रतिभा से संस्कृत जगत् को चमत्कृत किया है। ये एक ओर कालिदास के समान रसवादी कवि है तो दूसरी ओर भारवि सदृश विचित्रमार्ग के पोषक भी। कवियों के मध्य महाकवि कालिदास सुप्रसिद्ध है तो काव्यों में माघ अपना एक विशिष्ट स्थान रखते है।
काव्येषु माघः कवि कालिदासः।
माघ अलंकृत शैली के पण्डित माने जाते है। जहां काव्य के आन्तरिक तत्व की अपेक्षा ब्राह्यतत्व शब्द और अर्थ के चमत्कार देखे जा सकते है। इनकी एकमात्र कृति ‘शिशुपालवधम्’ जिसे महाकाव्य भी कहा जाता है, वृहत्त्रयी में महत्वपूर्ण स्थान रखती है। इस महाकवि के आलोडन के पश्चात् किसी विद्वान ने इसकी महत्वा के विषय में कहा है-‘मेघे माघे गतं वयः।’ माघ विद्वानों के बीच पण्डित कवि के रूप में भी सुप्रसिद्ध है। समीक्षकों का कहना है कि माघ ने भारवि की प्रतिद्वन्दिता में ही महाकाव्य की रचना की क्योंकि माघ पर भारवि का स्पष्ट प्रभाव दिखाई देता है। भले ही माघ ने भारवि के अनुकरण पर अपने महाकाव्य की रचना की हो लेकिन माघ उनसे कहीं अधिक आगे बढ़ गए है इसलिए कहा जाता है-
तावद भा भारवेभीति यावन्माघस्यदोदयः।
माघ जिस शैली के प्रवर्तक थे उनमें प्रायः रस, भाव, अलंकार काव्य वैचित्य बहुलता आदि सभी बातें विद्यमान थी। महाकवि की कविता में हृदय और मस्तिष्क दोनों का अपूर्व मिश्रण था। माघकाव्य में प्राकृतिक वर्णन प्रचुर मात्रा में हुआ है। इनके काव्य में भावागाम्भीर्य भी है। ‘शिशुपालवधम्’ में कतिपय स्थलों पर भावागाम्भीर्य देखकर पाठक अक्सर चकित रह जाते है। कठिन पदोन्योस तथा शब्दबन्ध की सु Üलष्टता जैसी महाकाव्य में देखने को मिलती है वैसी अन्यत्र बहुत कम काव्यों में मिलती है। इनके काव्य को पढ़ते समय मस्तिष्क का पूरा व्यायाम हो जाता है।
कलापक्ष की दृष्टि से भी माघ परिपक्व कवि सिद्ध होते है। कवि के भाषा पक्ष को ही साहित्यकारों ने कलापक्ष नाम दिया है। महाकवि माघ की भाषा के स्वरूप और सौष्ठव को समझने के लिए उनके शब्दकोष, पदयोजना, व्याकरण शब्दशक्ति, प्रयोगकौशल तथा अलंकार आदि सभी को सूक्ष्म रूप से देखना होगा। कालिदास की सरल सुगम कविता की तुलना में माघ की पाण्डित्यपूर्ण कविता में प्रवेश पाने के लिए अध्येता को काव्यशास्त्रीय ज्ञान होना आवश्यक है। वाणी के पीछे अर्थ का स्वतः अनुगमन करने (वाचामर्थोऽनुधावति) की जो दृष्टि भवभूति की रही है तदनुरूप माघ का भी कहना है कि रस भाव के ज्ञाता कवि को ओज, प्रसाद आदि काव्यगुणों का अनुगमन करने की आवश्यकता नहीं है। वे तो कवि की वाणी का स्वतः अनुगमन करते है-
नैकमोजः प्रसादो वा रसभावाविदः कवेः।
माघ के प्रकृति चित्रण में भी उनका वैशिष्ट्य देखने को मिलता है। यद्यपि माघ ने सरोवर, वन, उपवन, पर्वत, नदी, वृक्ष, संध्या, प्रातः, रात्रि, अंधकार आदि का प्रकृति के विभिन्न रूपों का चित्रण उद्दीपन के रूप में किया है फिर भी वह इतना सजीव और हृदयस्पर्शी है कि कोई भी पाठक उसमें डूब जाता है।
माघ का श्रृंगार वर्णन भी उच्च कोटि का है। उन्होंने श्रृंगार के संयोगपक्ष का ही विस्तृत वर्णन किया है। वियोगपक्ष का नहीं। संयोग श्रृंगार का वर्णन भी उन्होंने आलम्बन के रूप में ही किया है।
माघ रसवाधि कवि होने के साथ ही विचित्य तथा चमत्कार से अपनी कविता को कलात्मक के उच्च शिखर पर पहुंचा दिया हैं। एक ही वर्ण में संपूर्ण श्लोक की रचना करना उनके पाण्डित्य का परिचायक है-
दाददो दुद्ददुद्दादी दादादो दूददीददोः।
दुद्दार्द दददे दुद्दे ददाऽददददोऽददः।।
इस प्रसंग में महाकवि माघ ने ‘द’ वर्ण का प्रयोग कर अपनी विद्वता का परिचय दिया है। इसी प्रकार उन्होंने केवल दो वर्णों से भी अनेक श्लोकों की रचना की है जिसका एक उदाहरण प्रस्तुत है।
वरदोऽविवरो वैरिविवारी वारिराऽऽरवः।
विववार वरो वैरं वीरो रविरिवौर्वरः।।
यहाँ केवल ‘व’ और ‘र’ वर्णों का प्रयोग कर कवि ने अपने वर्णनचातुर्य को प्रदर्शित किया है।
इसके अतिरिक्त अनेक अनुलोम-प्रतिलोम प्रयोग विशेष प्रसिद्ध है। इनके एकक्षरपादः, सर्वतोभद्र, गामुत्रिका, बंधःमुरजबंध और यर्थवाची तथा चतुरर्थवाची आदि जटिलतम चित्रबंधों की रचना तत्कालीन कवि समाज की परंपरा की द्योतक है। शिशुपालवधम् के उन्नासवें सर्ग में यही शब्दार्थ कौशल दिखायी पड़ता है।

शिशुपालवधम् की एक छोटी सी घटना को महाभारत के सभापर्व से ग्रहण कर विशालकाय बीस सर्गों के महाकाव्य की रचना माघ के अपूर्व वर्णन कौशल का परिचायक है। शिशुपालवधम् के तीसरे से तेरहवें सर्ग तक आठ सर्गों में माघ ने अपनी मौलिक कल्पना द्वारा वर्णनचातुर्य को प्रदर्शित किया है जहाँ मुख्य विषय गौण हो गया है। उन्होंने चतुर्थ और  पंचम सर्ग में केवल रैवतक पर्वत का वर्णन अत्यन्त ही रोचकतापूर्ण किया है। रेवतक पर्वत को गज के समान तथा दो घण्टे की तुलना चंद्र और सूर्य से कर माघ ने बहुत सुंदर निर्दशना प्रस्तुत की है, जिस पर समीक्षकों द्वारा माघ को ‘घण्टामाघ’ की उपाधि प्रदान की गयी है। रैवतक एक ऐसा पर्वत है जिसका वर्णन माघ के अतिरिक्त किसी दूसरे कवि ने अपने काव्य में नहीं किया है।
वर्णनकुशलता, अलंकारप्रियता, प्रकृति समुपासना के सा޺थ ही माघ एक सफल काव्यशास्त्र भी रहे है। उनके महाकाव्य के अनुशीलन से माघ के विविधशास्त्रविशेषज्ञ होने का ज्ञान होता है। उन्होंने अपने महाकाव्य के माध्यम से हृदय पाठकों एवं कवियों को प्रायः सभी शास्त्रों का सूक्ष्म ज्ञान करा दिया है। काव्यशास्त्रीय सभी विषयों में उनकी गति दिखायी पड़ती है। विविध विषयों जैसे-श्रुतिविषय (वेद), व्याकरणशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, दर्शनशास्त्र, योग, वेदांत, मीमांसा, बौद्ध, सामरिकज्ञान, नाट्यशास्त्र, आयुर्वेदशास्त्र, ज्योतिषशास्त्र, पशुविद्या, संगीतशास्त्र, कामशास्त्र, पाकशास्त्र, साहित्यशास्त्र, व्यावहारिकज्ञान और पौराणिकज्ञान इत्यादि का सूक्ष्म परिचय इस काव्य के अनुशीलन से प्राप्त होता है। माघ का कर्तृत्व
‘एकश्चंद्रस्तमोहन्ति’ उक्ति के अनुसार महाकवि माघ की कीर्ति उनके एकमात्र उपलब्ध महाकाव्य ‘शिशुपालवधम्’ पर आधारित है, जिसका बृहत्रयी और पंचमहाकाव्य में विशिष्ट स्थान है।
शिशुपालवधम् महाकाव्य के अतिरिक्त माघ की अन्य रचनाएं प्राप्त नहीं होती। यद्यपि सुभाषित ग्रंथों में माघ के नाम से कुछ फुटकर पद्य भी मिलते है जिनसे प्रतीत होता है कि माघ की और भी रचनाएं रही होगी जो कालांतर में नष्ट हो गयी। माघ के नाम से जिन ग्रंथों में उनके पद्य मिलते है उनका संदर्भ अधोलिखित है-
बुभुक्षितैव्यकिरण न भुज्यते पिपासितैः काव्यरसो न पीयते।
विधया केनचिदुद्धतं कुलं हिरण्यमेववार्जय निष्फलाः क्रियाः।।
प्रस्तुत श्लोक महाकवि क्षेमेन्द्र की औचित्यविचार चर्चा में माघ के नाम से उल्लिखित है जो शिशुपालवधम् महाकाव्य में नहीं मिलता। सुभाषिरत्न भण्डागार में यह पद्य नाम से प्राप्त होते है-
अर्थाः न सन्ति न च मुंचर्त मां दुराषा त्यागात संकुचित दुर्लवितं मनो मे।
यांचा च लाघवकारी स्ववधे च पापं प्राणः स्वयं व्रजत् किं नु विलम्बितेन।।
इसके अतिरिक्त इनमें ग्रीष्मवर्णनम्, सामान्य नीति, दरिद्रनिन्दा, तेजस्वीप्रशंसा, पानगोष्ठिवर्णनम्, सरलकेलिकथनम्, कथनम्, कुटानि तथा रत्ती स्वभाव इत्यादि में भी माघ के पद्य प्राप्त होते है। जीवन वार्ता में भी माघ के नाम से एक पद्य प्रयुक्त हुआ है।-
उपचरिलत्याः सन्तो यद्यपि कथयन्ति नैकमुपदेशम् यास्तेषां स्वैरकथास्ता एव भवन्ति शास्त्राणि।
उपर्युक्त सभी पद्यों के अतिरिक्त महाकवि माघ से संबंध अन्य पद्य भी है जो भोजप्रबंध और प्रबंधचिंतामणि में माघ के मुख द्वारा मुखरित हुए है। यह पद्य माघ विरचित किसी प्रकाशित या अप्रकाशित ग्रंथ से संबंध हो अथवा न हो क्योंकि माघ को अमरता प्रदान करने के लिए उनका ‘शिशुपालवधम्’ ही प्रर्याप्त है।

विशेष
‘पुरातन-प्रबंध-संग्रह’ में माघ द्वारा एकमात्र महाकाव्य की रचना किये जाने का कारण बताया गया है। माघ काव्य रचना करने के पश्चात् जब अपने पिता को दिखाते तत्व वे उनकी प्रशंसा करने के स्थान पर उनके काव्य की निन्दा किया करते थे। इसलिए माघ ने काव्य रचना करने के पश्चात् उसे रसोई घर में रख दिया कुछ समय पश्चात् जब वह पुस्तक एक प्राचीन पाण्डुलिपि के समान प्रतीत होने लगी तब माघ उसे अपने पिता के पास ले गये जिसको देखकर उनके पिता ने प्रसन्न होकर कहा कि यह वास्तविक कविता है किंतु जब माघ ने उन्हें संपूर्ण वस्तुस्थिति से अवगत करवाया तो उन्होंने क्रोधित होकर माघ को श्राप दिया कि तुमने मुझसे छल किया है, अतः तुम कुछ नहीं लिख पाओंगे। तत्पश्चात् उनके पिता का स्वर्गवास हो गया और अत्यंत धनी होने के कारण माघ का जीवन विलासिता पूर्ण हो गया किंतु उनके महाकाव्य ‘शिशुपालवधम्’  ने उनको प्रसिद्ध महाकवि की उपाधि से विभूषित कर दिया।
शिशुपालवधम् महाकाव्य 20 सर्गों में विभक्त है जिसमें 1650 पद्य है। माघ ने महाभारत को आधार बनाकर अपनी मौलिक कल्पनाओं द्वारा इस महाकाव्य की रचना की है।

‘काव्य’ शब्द भाषा में बहुत प्राचीन है जिसे ‘कवि’ के कर्म के रूप में देखा जाता है। ‘कवेः कर्म काव्यम्’ (कवि $ व्यत्) यह कवि शब्द च्कु  अथवा च्कव् धातु (भ्वादि आत्मनेपद-कवेट) से बना है जिसके तीन अर्थ है-
1.    ध्वनि करना,
2.    विवरण देना और
3.    चित्रण करना।
इस प्रकार शब्दों के द्वारा किसी विषय का आकर्षक विवरण देना या चित्रण करना ही काव्य कहलाता है।
शिशुपालवधम् के सर्गों में निबद्धता- इस काव्य के प्रत्येक सर्ग में न तो 50 से न्यून और नहीं 150 से अधिक श्लोक है। काव्य का प्रारंभ वस्तुनिर्देशात्मक मंगलाचरण से हुआ है-
श्रियः पतिः श्रीमति शासिंतु जगज्जगान्निवासो वसुदेवसद्यनि।
वसत्ददर्शावतरन्तमम्बराद्धिख्यगर्भाङ्गभुर्व मुनि हरिः।।
शिशुपालवधम् के प्रत्येक सर्ग में एक ही छन्द है तथा एक ही छन्द का प्रयोग मिलता है। सर्ग के अंत में लक्षणानुसार छन्द परिवर्तन किया गया है। केवल चतुर्थ सर्ग ही इसका अपवाद है जिसमें अनेक छन्दों का प्रयोग प्राप्त होता है। तृतीय सर्ग में द्वारिका नगरी और अष्टम सर्ग छः ऋतुओं के वर्णन से चमत्कृत है जहाँ पुष्प चयन और जल-क्रीड़ा का भी प्रसंग आया है। नवम् सर्ग में नायिका नायक एवं चंद्रोदय को वर्णित किया गया है। दशम सर्ग में रतिक्रीड़ा का वर्णन है। एकादश सर्ग प्राभाविक सौन्दर्य को दर्शाता है। द्वादश सर्ग में श्रीकृष्ण की सेना का रैवतक पर्वत से इन्द्रप्रस्थ की ओर प्रस्थान करने एवं यमुना नदी का वर्णन है। अन्तिम तीन सर्गों में युद्ध का वर्णन है।
माघ के पाण्डित्य ने शिशुपालवधम् महाकाव्य को आदर्श महाकाव्य का रूप प्रदान कर उसे उच्चकोटि के महाकाव्यों में स्थान दिलाया हैं। मल्लिनाथ ने शिशुपालवधम् महाकाव्य की विशिष्टता को इस प्रकार बताया है-
तेताऽस्मिन्यदुनन्दनः स भगवा वीर प्रधानोरसः
श्रृंगारादिभिरवान् विजयते पूर्णा पुनर्वर्णना।
इन्द्रपथ गमाद्युपायविषयष्चैद्यासादः फल धन्यो
महाकविवयं तु कृतिनस्तत्सूक्तिसंसेवनात्।।
उपर्युक्त विवेचन के आधार पर यह सिद्ध होता है कि शिशुपालवधम् संपूर्ण लक्षणों से युक्त एक महाकाव्य है। ऐसा प्रतीत होता है कि लक्षणकारों ने महाकाव्य को आधार बनाकर ही महाकाव्य के लक्षण निर्धारित किये हैं।


माघ की माता का नाम ब्राह्मी को संस्कृत में सरस्वती भी कहते है इसलिए माघ को सरस्वती पुत्र भी कहा जा सकता है। माघ का जन्म माघ सुदी पूर्णिमा को होने से इनका नाम माघ रखा गया।
माघ का विवाह माल्हणा नामक कन्या के साथ हुआ जो सुंदर एवं गुणवती थी।

माघ का अहंकार
एक बार राजा के साथ महाकवि माघ जंगल में रास्ता भटक गए और एक झोपड़ी  में पहुंचे जहां एक बूढ़ी स्त्री रहती थी। उससे महाकवि का वार्तालाप शुरू हुआ जो इस प्रकार है।
माघ-हे बूढ़ी स्त्री यह रास्ता कहाँ जाता है?
बूढ़ी स्त्री- मूर्ख! रास्ता कहीं नहीं जाता, रास्ते पर तो राहगीर जाते है।
माघ को इस प्रकार के उࢂत्तर की आशा नहीं थी। माघ तिलमिला गये। लेकिन मजबूरी थी, अंधेरा अधिक हो रहा था सो उसने फिर पूछा-
माघ- हम राहगीर है, अब बतादो मार्ग कहाँ जाता है?
बूढ़ी स्त्री- राहगीर तो दो ही है या तो सूर्य या फिर चंद्र। तुम इनमें से कौन हो।
माघ-अच्छा माई! हम राजा के आदमी है, अब तो बतादो।
बूढ़ी स्त्री- राजा तो दो ही है एक इन्द्र दूसरा यम। तुम किस राजा के आदमी हो।
माघ ने कहा-हम क्षमा करने वालों में है।
बूढ़ी स्त्री-क्षमा तो दो व्यक्ति ही करते है एक स्त्री और दूसरी पृथ्वी, तुम इनमें कौन हो?
माघ ने कहा- हम क्षणभंगुर है।
बूढ़ी स्त्री-क्षणभंगुर तो दो ही है एक नवयौवन दूसरा सम्पत्ति, तुम इनमें से किस में हो।
माघ ने हताश हो कर कहा- हम हारने वालों में है।
बूढ़ी स्त्री-हारते तो दो ही है एक जिसका चरित्र चला गया दूसरा जो ऋणि हो जाय। अब बताओं तुम्हारा क्या गया।
माघ उस बुढ़ियां के चरणों में गिर पड़ा और पैर पकड़ लिए। हे माँ तुम कौन हो।
तब उस बुढ़िया माता ने कहा -उठो महा कवि माघ।
कवि माघ चौक गए कि यह स्त्री हमें जानती थी।
-हा कवि माघ मैंने तुमको देखते ही पहचान लिया था, तुम्हारें अहंकार के बारें में भी जानती हूं। अपने अहम् के कारण तुम कुछ लोगों को ही प्रिय हो लेकिन यह अहंकार नहीं रहेगा तो सर्वप्रिय हो जाओंगे।


कहीं पर उनकी पत्नी का नाम विद्यावती भी आया है।

महाकवि माघ के पास कुछ नहीं रहा और जब लौट रहे दुखियों-पीड़ितों के चेहरे पर गहरी हो गई निराशा को देखकर माघ व्याकुल हो उठे। उनके हृदय की विह्वलता वाणी से फूट पड़ी-‘मेरे प्राणों!  तुम और कुछ नहीं दे सकते पर इनकी सहायतार्थ इनके साथ तो जा सकते हो। धन से न सही संभव है प्राणों से ही उनकी सेवा करने का सौभाग्य मिल जाय। ऐसा सुंदर अवसर न जाने फिर कब मिलेगा?’
इन अंतिम शब्दों के साथ महाकवि माघ की जीर्ण काया एक ओर लुढ़क गई। चेतना ने अपने पाँव समेट लिए और अनंत अंतरिक्ष में न जाने कहाँ विलीन हो गई।
माघ जयंती पर विशेष
संस्कृत के श्रेष्ठ कवियों में माघ की गणना की जाती है। उनका समय लगभग 675 ई. निर्धारित किया गया है। उनकी प्रसिद्ध रचना‘शिशुपालवध’ नामक महाकाव्य है। इसकी कथा भी महाभारत से ली गई है। इस ग्रंथ में युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ के अवसर पर चेदि नरेश शिशुपाल को कृष्ण द्वारा वध करने की कथा का काव्यात्मक चित्रण किया गया है। माघ वैष्णव मतानुयायी थे। इनकी ईच्छा अपने वैष्णव काव्य के माध्यम से शैव मतानुयायी भारवि से आगे बढ़ने की थी। इसके निमित्त उन्होंने कई प्रयत्न भी किये। उन्होंने अपने ग्रंथ की रचना किरातार्जुनीयम् की पद्धति पर की। किरात की भांति शिशुपालवध का प्रारंभ भी ‘श्री’ शब्द से होता है।
माघ अलंकृत काव्य शैली के आचार्य है तथा उन्होंने अलंकारों से सुसज्जित पदों का प्रयोग कुशलता से किया है। प्रकृति दृश्यों का वर्णन करने में भी वे दक्ष थे। भारतीय आलोचक उनमें कालिदास जैसी उपमा, भारवि जैसा अर्थ गौरव तथा दण्डी जैसा पदलालित्य, इन तीनों गुणों को देखते है।
माघ ने नवीन चमत्कारिक उपमाओं का सृजन किया है। माघ व्याकरण, दर्शन, राजनीति, काव्यशास्त्र, संगीत आदि के प्रकाण्ड पण्डित थे तथा उनके ग्रंथ में ये सभी विशेषताएं स्थान-स्थान पर देखने को मिलती है। उनका व्याकरण संबंधी ज्ञान तो अगाध था। पदों की रचना में उन्होंने नये-नये शब्दों का चयन किया है। उनका काव्य शब्दों का विश्वकोष प्रतीत होता है। माघ के विषय में उक्ति प्रसिद्ध है कि शिशुपालवध का नवां सर्ग समाप्त होने पर कोई नया शब्द शेष नहीं बचता है। उनका शब्द विन्यास विद्वतापूर्ण होने के साथ मधुर एवं सुन्दर भी है। माघ की कविता में ललित विन्यास भी देखने को मिलता है। कालान्तर में कवियों ने उनकी अलंकृत शैली का अनुकरण किया है।
महाकविमाघ का सामान्य परिचय
संस्कृत साहित्य के काव्यकारों में माघ का उत्कृष्ट स्थान रहा है। यही धारणा है कि उनके द्वारा विरचित ‘शिशुपालवध’ महाकाव्य को संस्कृत की वृहत्रयी में विशिष्ट स्थान मिला है। महाकवि माघ ने काव्य के 20 वें सर्ग के अन्त में प्रशक्ति के रूप में लिए हुए पांच श्लोकों में अपना स्वल्पपरिचय अंकित कर दिया है जिसके सहारे तथा काव्य में यत्र-तत्र निषद्ध संकेतों से तथा अन्य प्रमाणों के आधार पर कविवर माघ के जीवन की रूपरेखा अर्थात् उनका जन्म समय, जन्म स्थान तथा उनके राजाश्रय को जाना जा सकता है।
प्रसिद्ध टीकाकार मल्लिनाथ ने प्रशस्तिरूप में लिखे इन पांच श्लोकों की व्याख्या नहीं की है। केवल वल्लभदेव कृत व्याख्या ही हमें देखने को मिलती है। इसी प्रकार 15 वें सर्ग में 39 वें श्लोक के पश्चात् द्वयर्थक 34 श्लोक रखे गए है। इसके पश्चात् 40 वां श्लोक है।
‘कविवंश वर्णन के पांच श्लोक प्रक्षिप्त है’ यह कहना केवल कपोल कल्पना है।
इन्हीं श्लोकों से स्पष्ट होता है कि दत्तक के पुत्र माघ ने सुकवि कीर्ति को परास्त करने की अभिलाषा से शिशुपालवध’ नामक काव्य की रचना की है। जिसमें श्रीकृष्ण चरित वर्णित है और प्रति सर्ग की समाप्ति पर ‘श्री’ अथवा उसका पर्यायवाची अन्य कोई शब्द अवश्य दिया गया है। यहां ध्यातव्य यह है कि कवि ने 19 वें सर्ग के अन्तिम श्लोक ‘चक्रबंध’ में किसी रूप में बड़ी निपुणता से माकाव्यमिदम् शिशुपालवधम् तक अंकित कर दिया हैं। कविवर माघ का जन्म राजस्थान की पुण्य धरा भीनमाल में राजा वर्मलात के मंत्री सुप्रसिद्ध  ब्राह्मण सुप्रभदेव के पुत्र कुमुदपण्डित (दत्तक) की धर्म पत्नी वराही के गर्भ से माघ की पूर्णिमा को हुआ था। कहा जाता है कि इनके जन्म समय की कुण्डली देखकर ज्योतिषी ने कहा था कि यह बालक उद्भट विद्वान, अत्यन्त विनीत, दयालु, दानी और वैभव समपन्न होगा। किन्तु जीवन की अन्तिम अवस्था में यह निर्धन हो जायेगा। यह बालक पूर्ण आयु प्राप्त करके पैरों में सूजन आने पर दिवंगत हो जायेगा। ज्योतिषी की भविष्यवाणी पर विश्वास करके उनके पिता कुमुद पण्डित दत्तक ने जो एक ओष्ठी धनी थे, प्रभूतधनरत्नादि की सम्पत्ति को भूमि में घड़ों में भरकर गाड़ दिया था और शेष बचा हुआ धन माघ को दे दिया था। कहा जाता है कि ‘शिशुपालवध’ की कुछ रचना उन्होंने परदेश में रहते हुए की थी और शेष भाग की रचना वृद्धावस्था में घर पर रहकर ही की। अन्तिम अवस्था में वे अत्यधिक दरिद्रावस्था में थे। ‘भोज प्रबंध’ में उनकी पत्नी प्रलाप करती हुई कहती है कि जिसके द्वार पर एक दिन राजा आश्रय के लिए ठहरा करते थे आज वही व्यक्ति दाने-दाने के लिए तरस रहा है। क्षेमेन्द्रकृत ‘औचित्य विचार-विमर्श’ में पण्डित महाकवि माघ का अधोलिखित पद्य माघ की उक्त दशा का निदर्शक है-
बुभुक्षितैत्यकिरणं न भुज्यते न पीयते काव्यरसः पिपासितेः।
न विद्यया केनचिदुदूधृतं कुलं हिरण्यमेवार्जयन्हिफलः कियाः।।
उक्त वाक्य से ऐसा प्रतीत होता है कि दरिद्रता से धैर्यहीन हो जाने के कारण अत्यंत कातर हुए माघ की यह उक्ति है। कविवर माघ 120 वर्ष की पूर्ण आयु परास्त करके दिवंगत हुए साथ ही उनकी पत्नी सती हो गई। इनकी अन्तिम क्रिया तक करने वाला कोई व्यक्ति इनके परिवार में नहीं था। ‘भोजप्रबंध’, ‘प्रबंधचिंतामणि’ तथा ‘प्रभावकरित’ के अनुसार भोज की जीवित्तावस्था में दिवंगत हुए, क्योंकि भोज ने ही माघ का दाह संस्कार पुत्रवत् किया था।

माघ निःसन्देह आनंदवर्धन के पूर्ववर्ती है या समकालीन भी हो सकते है। क्यांकि यशोलिप्सा के कारण माघ स्थिर रूप में किसी एक स्थान पर न रह पाये हो उन्होंने निश्चित रूप से उत्तर भारत में कश्मीर तक भ्रमण किया था जिसका उल्लेख काव्य के प्रथम सर्ग का नारद मुनि की जटाओं का वर्णन है। यहीं पर संभव है ध्वन्यालोक में उद्धृत श्लोक को किसी काव्योष्ठी में श्री आनंदवर्धन ने माघ के मुख से सुने हो और उत्तम होने के कारण आनंदवर्धन ने ध्वन्यालोक में उन्हें उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया है।
एक शिलालेख से भी माघ के समय निर्धारण में सहायता मिलती है। राजा वर्मलात का शिलालेख वसन्त गढ़ (सिरोही राज्य में ) से प्राप्त हुआ। यह शिलालेख शक संवत 682 का है। शक संवत में 78 वर्ष जोड़ दिये जाते है तब ईस्वी सन् का ज्ञान होता है। इस प्रकार यह शिलालेख सन् 760 ई के आसपास होना चाहिए।
इस तरह माघ का काल प्रायः 8 वीं और 9 वीं शताब्दियों के बीच स्थिर होता है। इसमें संदेह नहीं किया जा सकता। भोज प्रबंध के अनुसार माघ भोज के समकालीन थे, क्योंकि भोज प्रबंध में माघ के संबंध में यह क्विदंती प्रचलित है कि एक बार माघ ने अपनी संपूर्ण संपत्ति दान कर दी थी। निर्धन स्थिति में उन्होंने एक श्लोक की रचना की जिसे उन्होंने राजा भोज के सभा में भेजा था। यह श्लोक इस प्रकार है।
कुमुदवनमपश्रि श्रीमदम्भोजखण्डे,
मुदति मुद मूलूकः प्रीतिमार्चक्रवाकः।
उदयमहिमरश्मिर्याति शीतांशुरस्तं,
हतविधिलीसतानां ही विचित्रो विपाकः।।
अर्थ- कुमुदवन श्रीहीन हो रहा है, कमल-समूह शोभायुक्त हो रहा है। उल्लू  (दिन में नहीं देख सकने के कारण) प्रसन्नता को तज रहा है, जबकि चकवा (दिन में प्रिया का संग होने के कारण) प्रेममग्न हो रहा है। सूर्य उदित हो रहा है तो चंद्रमा अस्त हो रहा है। दुर्देव की चेष्टाओं का परिणाम विचित्र होता है, कितना आश्चर्यजनक है।
जब राज सभा में उक्त श्लोक को पढ़कर सुनाया गया तो भोज अत्यंत प्रसन्न हुए उन्होंने माघ की पत्नी को बहुत सा धन देकर विदा किया माघ की पत्नी जब वापस लौट रही थी, तो रास्ते मे याचक माघ की दानशीलता की प्रशंसा करते हुए उससे भी मांगने लगे। माघ की पत्नी ने सारा धन याचकों में बांट दिया। जब पत्नी रिक्तहस्त घर पहुंची तो माघ को चिन्ता हुई कि अब कोई याचक आया तो उसे क्या देंगे? माघ की यह चिन्ताजनक स्थिति को देखकर याचक ने यह कहा था-
आश्वास्य पर्वतकुलं तपनोष्ण तप्त,
मुद्यामदामविधुराणि च काननानि।
नानानदीनदशतानि च पुरयित्वा,
रिक्तोऽसि यज्जलद सैव तवोत्तमा श्री।
अर्थ यह है कि ग्रीष्म से तप्त पर्वत समूह का संताप हरने हेतु दावाग्नि से जलते वन की तपन बुझाने में तथा सैकड़ों नदी, नद, नालों को भरने में बादल स्वयं रिक्त हो जाता है, यही उसकी श्रेष्ठ आभा है।
संस्कृत साहित्यकोश में महाकवि माघ एक जाज्वल्यमान के समान है जिन्होंने अपनी काव्यप्रतिभा से संस्कृत जगत् को चमत्कृत किया है। ये एक ओर कालिदास के समान रसवादी कवि है तो दूसरी ओर भारवि सदृश विचित्रमार्ग के पोषक भी। कवियों के मध्य महाकवि कालिदास सुप्रसिद्ध है तो काव्यों में माघ अपना एक विशिष्ट स्थान रखते है।
काव्येषु माघः कवि कालिदासः।
माघ अलंकृत शैली के पण्डित माने जाते है। जहां काव्य के आन्तरिक तत्व की अपेक्षा ब्राह्यतत्व शब्द और अर्थ के चमत्कार देखे जा सकते है। इनकी एकमात्र कृति ‘शिशुपालवधम्’ जिसे महाकाव्य भी कहा जाता है, वृहत्त्रयी में महत्वपूर्ण स्थान रखती है। इस महाकवि के आलोडन के पश्चात् किसी विद्वान ने इसकी महत्वा के विषय में कहा है-‘मेघे माघे गतं वयः।’ माघ विद्वानों के बीच पण्डित कवि के रूप में भी सुप्रसिद्ध है। समीक्षकों का कहना है कि माघ ने भारवि की प्रतिद्वन्दिता में ही महाकाव्य की रचना की क्योंकि माघ पर भारवि का स्पष्ट प्रभाव दिखाई देता है। भले ही माघ ने भारवि के अनुकरण पर अपने महाकाव्य की रचना की हो लेकिन माघ उनसे कहीं अधिक आगे बढ़ गए है इसलिए कहा जाता है-
तावद भा भारवेभीति यावन्माघस्यदोदयः।
माघ जिस शैली के प्रवर्तक थे उनमें प्रायः रस, भाव, अलंकार काव्य वैचित्य बहुलता आदि सभी बातें विद्यमान थी। महाकवि की कविता में हृदय और मस्तिष्क दोनों का अपूर्व मिश्रण था। माघकाव्य में प्राकृतिक वर्णन प्रचुर मात्रा में हुआ है। इनके काव्य में भावागाम्भीर्य भी है। ‘शिशुपालवधम्’ में कतिपय स्थलों पर भावागाम्भीर्य देखकर पाठक अक्सर चकित रह जाते है। कठिन पदोन्योस तथा शब्दबन्ध की सु Üलष्टता जैसी महाकाव्य में देखने को मिलती है वैसी अन्यत्र बहुत कम काव्यों में मिलती है। इनके काव्य को पढ़ते समय मस्तिष्क का पूरा व्यायाम हो जाता है।
कलापक्ष की दृष्टि से भी माघ परिपक्व कवि सिद्ध होते है। कवि के भाषा पक्ष को ही साहित्यकारों ने कलापक्ष नाम दिया है। महाकवि माघ की भाषा के स्वरूप और सौष्ठव को समझने के लिए उनके शब्दकोष, पदयोजना, व्याकरण शब्दशक्ति, प्रयोगकौशल तथा अलंकार आदि सभी को सूक्ष्म रूप से देखना होगा। कालिदास की सरल सुगम कविता की तुलना में माघ की पाण्डित्यपूर्ण कविता में प्रवेश पाने के लिए अध्येता को काव्यशास्त्रीय ज्ञान होना आवश्यक है। वाणी के पीछे अर्थ का स्वतः अनुगमन करने (वाचामर्थोऽनुधावति) की जो दृष्टि भवभूति की रही है तदनुरूप माघ का भी कहना है कि रस भाव के ज्ञाता कवि को ओज, प्रसाद आदि काव्यगुणों का अनुगमन करने की आवश्यकता नहीं है। वे तो कवि की वाणी का स्वतः अनुगमन करते है-
नैकमोजः प्रसादो वा रसभावाविदः कवेः।
माघ के प्रकृति चित्रण में भी उनका वैशिष्ट्य देखने को मिलता है। यद्यपि माघ ने सरोवर, वन, उपवन, पर्वत, नदी, वृक्ष, संध्या, प्रातः, रात्रि, अंधकार आदि का प्रकृति के विभिन्न रूपों का चित्रण उद्दीपन के रूप में किया है फिर भी वह इतना सजीव और हृदयस्पर्शी है कि कोई भी पाठक उसमें डूब जाता है।
माघ का श्रृंगार वर्णन भी उच्च कोटि का है। उन्होंने श्रृंगार के संयोगपक्ष का ही विस्तृत वर्णन किया है। वियोगपक्ष का नहीं। संयोग श्रृंगार का वर्णन भी उन्होंने आलम्बन के रूप में ही किया है।
माघ रसवाधि कवि होने के साथ ही विचित्य तथा चमत्कार से अपनी कविता को कलात्मक के उच्च शिखर पर पहुंचा दिया हैं। एक ही वर्ण में संपूर्ण श्लोक की रचना करना उनके पाण्डित्य का परिचायक है-
दाददो दुद्ददुद्दादी दादादो दूददीददोः।
दुद्दार्द दददे दुद्दे ददाऽददददोऽददः।।
इस प्रसंग में महाकवि माघ ने ‘द’ वर्ण का प्रयोग कर अपनी विद्वता का परिचय दिया है। इसी प्रकार उन्होंने केवल दो वर्णों से भी अनेक श्लोकों की रचना की है जिसका एक उदाहरण प्रस्तुत है।
वरदोऽविवरो वैरिविवारी वारिराऽऽरवः।
विववार वरो वैरं वीरो रविरिवौर्वरः।।
यहाँ केवल ‘व’ और ‘र’ वर्णों का प्रयोग कर कवि ने अपने वर्णनचातुर्य को प्रदर्शित किया है।
इसके अतिरिक्त अनेक अनुलोम-प्रतिलोम प्रयोग विशेष प्रसिद्ध है। इनके एकक्षरपादः, सर्वतोभद्र, गामुत्रिका, बंधःमुरजबंध और यर्थवाची तथा चतुरर्थवाची आदि जटिलतम चित्रबंधों की रचना तत्कालीन कवि समाज की परंपरा की द्योतक है। शिशुपालवधम् के उन्नासवें सर्ग में यही शब्दार्थ कौशल दिखायी पड़ता है।

शिशुपालवधम् की एक छोटी सी घटना को महाभारत के सभापर्व से ग्रहण कर विशालकाय बीस सर्गों के महाकाव्य की रचना माघ के अपूर्व वर्णन कौशल का परिचायक है। शिशुपालवधम् के तीसरे से तेरहवें सर्ग तक आठ सर्गों में माघ ने अपनी मौलिक कल्पना द्वारा वर्णनचातुर्य को प्रदर्शित किया है जहाँ मुख्य विषय गौण हो गया है। उन्होंने चतुर्थ और  पंचम सर्ग में केवल रैवतक पर्वत का वर्णन अत्यन्त ही रोचकतापूर्ण किया है। रेवतक पर्वत को गज के समान तथा दो घण्टे की तुलना चंद्र और सूर्य से कर माघ ने बहुत सुंदर निर्दशना प्रस्तुत की है, जिस पर समीक्षकों द्वारा माघ को ‘घण्टामाघ’ की उपाधि प्रदान की गयी है। रैवतक एक ऐसा पर्वत है जिसका वर्णन माघ के अतिरिक्त किसी दूसरे कवि ने अपने काव्य में नहीं किया है।
वर्णनकुशलता, अलंकारप्रियता, प्रकृति समुपासना के सा޺थ ही माघ एक सफल काव्यशास्त्र भी रहे है। उनके महाकाव्य के अनुशीलन से माघ के विविधशास्त्रविशेषज्ञ होने का ज्ञान होता है। उन्होंने अपने महाकाव्य के माध्यम से हृदय पाठकों एवं कवियों को प्रायः सभी शास्त्रों का सूक्ष्म ज्ञान करा दिया है। काव्यशास्त्रीय सभी विषयों में उनकी गति दिखायी पड़ती है। विविध विषयों जैसे-श्रुतिविषय (वेद), व्याकरणशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, दर्शनशास्त्र, योग, वेदांत, मीमांसा, बौद्ध, सामरिकज्ञान, नाट्यशास्त्र, आयुर्वेदशास्त्र, ज्योतिषशास्त्र, पशुविद्या, संगीतशास्त्र, कामशास्त्र, पाकशास्त्र, साहित्यशास्त्र, व्यावहारिकज्ञान और पौराणिकज्ञान इत्यादि का सूक्ष्म परिचय इस काव्य के अनुशीलन से प्राप्त होता है। माघ का कर्तृत्व
‘एकश्चंद्रस्तमोहन्ति’ उक्ति के अनुसार महाकवि माघ की कीर्ति उनके एकमात्र उपलब्ध महाकाव्य ‘शिशुपालवधम्’ पर आधारित है, जिसका बृहत्रयी और पंचमहाकाव्य में विशिष्ट स्थान है।
शिशुपालवधम् महाकाव्य के अतिरिक्त माघ की अन्य रचनाएं प्राप्त नहीं होती। यद्यपि सुभाषित ग्रंथों में माघ के नाम से कुछ फुटकर पद्य भी मिलते है जिनसे प्रतीत होता है कि माघ की और भी रचनाएं रही होगी जो कालांतर में नष्ट हो गयी। माघ के नाम से जिन ग्रंथों में उनके पद्य मिलते है उनका संदर्भ अधोलिखित है-
बुभुक्षितैव्यकिरण न भुज्यते पिपासितैः काव्यरसो न पीयते।
विधया केनचिदुद्धतं कुलं हिरण्यमेववार्जय निष्फलाः क्रियाः।।
प्रस्तुत श्लोक महाकवि क्षेमेन्द्र की औचित्यविचार चर्चा में माघ के नाम से उल्लिखित है जो शिशुपालवधम् महाकाव्य में नहीं मिलता। सुभाषिरत्न भण्डागार में यह पद्य नाम से प्राप्त होते है-
अर्थाः न सन्ति न च मुंचर्त मां दुराषा त्यागात संकुचित दुर्लवितं मनो मे।
यांचा च लाघवकारी स्ववधे च पापं प्राणः स्वयं व्रजत् किं नु विलम्बितेन।।
इसके अतिरिक्त इनमें ग्रीष्मवर्णनम्, सामान्य नीति, दरिद्रनिन्दा, तेजस्वीप्रशंसा, पानगोष्ठिवर्णनम्, सरलकेलिकथनम्, कथनम्, कुटानि तथा रत्ती स्वभाव इत्यादि में भी माघ के पद्य प्राप्त होते है। जीवन वार्ता में भी माघ के नाम से एक पद्य प्रयुक्त हुआ है।-
उपचरिलत्याः सन्तो यद्यपि कथयन्ति नैकमुपदेशम् यास्तेषां स्वैरकथास्ता एव भवन्ति शास्त्राणि।
उपर्युक्त सभी पद्यों के अतिरिक्त महाकवि माघ से संबंध अन्य पद्य भी है जो भोजप्रबंध और प्रबंधचिंतामणि में माघ के मुख द्वारा मुखरित हुए है। यह पद्य माघ विरचित किसी प्रकाशित या अप्रकाशित ग्रंथ से संबंध हो अथवा न हो क्योंकि माघ को अमरता प्रदान करने के लिए उनका ‘शिशुपालवधम्’ ही प्रर्याप्त है।

विशेष
‘पुरातन-प्रबंध-संग्रह’ में माघ द्वारा एकमात्र महाकाव्य की रचना किये जाने का कारण बताया गया है। माघ काव्य रचना करने के पश्चात् जब अपने पिता को दिखाते तत्व वे उनकी प्रशंसा करने के स्थान पर उनके काव्य की निन्दा किया करते थे। इसलिए माघ ने काव्य रचना करने के पश्चात् उसे रसोई घर में रख दिया कुछ समय पश्चात् जब वह पुस्तक एक प्राचीन पाण्डुलिपि के समान प्रतीत होने लगी तब माघ उसे अपने पिता के पास ले गये जिसको देखकर उनके पिता ने प्रसन्न होकर कहा कि यह वास्तविक कविता है किंतु जब माघ ने उन्हें संपूर्ण वस्तुस्थिति से अवगत करवाया तो उन्होंने क्रोधित होकर माघ को श्राप दिया कि तुमने मुझसे छल किया है, अतः तुम कुछ नहीं लिख पाओंगे। तत्पश्चात् उनके पिता का स्वर्गवास हो गया और अत्यंत धनी होने के कारण माघ का जीवन विलासिता पूर्ण हो गया किंतु उनके महाकाव्य ‘शिशुपालवधम्’  ने उनको प्रसिद्ध महाकवि की उपाधि से विभूषित कर दिया।
शिशुपालवधम् महाकाव्य 20 सर्गों में विभक्त है जिसमें 1650 पद्य है। माघ ने महाभारत को आधार बनाकर अपनी मौलिक कल्पनाओं द्वारा इस महाकाव्य की रचना की है।

‘काव्य’ शब्द भाषा में बहुत प्राचीन है जिसे ‘कवि’ के कर्म के रूप में देखा जाता है। ‘कवेः कर्म काव्यम्’ (कवि $ व्यत्) यह कवि शब्द च्कु  अथवा च्कव् धातु (भ्वादि आत्मनेपद-कवेट) से बना है जिसके तीन अर्थ है-
1.    ध्वनि करना,
2.    विवरण देना और
3.    चित्रण करना।
इस प्रकार शब्दों के द्वारा किसी विषय का आकर्षक विवरण देना या चित्रण करना ही काव्य कहलाता है।
शिशुपालवधम् के सर्गों में निबद्धता- इस काव्य के प्रत्येक सर्ग में न तो 50 से न्यून और नहीं 150 से अधिक श्लोक है। काव्य का प्रारंभ वस्तुनिर्देशात्मक मंगलाचरण से हुआ है-
श्रियः पतिः श्रीमति शासिंतु जगज्जगान्निवासो वसुदेवसद्यनि।
वसत्ददर्शावतरन्तमम्बराद्धिख्यगर्भाङ्गभुर्व मुनि हरिः।।
शिशुपालवधम् के प्रत्येक सर्ग में एक ही छन्द है तथा एक ही छन्द का प्रयोग मिलता है। सर्ग के अंत में लक्षणानुसार छन्द परिवर्तन किया गया है। केवल चतुर्थ सर्ग ही इसका अपवाद है जिसमें अनेक छन्दों का प्रयोग प्राप्त होता है। तृतीय सर्ग में द्वारिका नगरी और अष्टम सर्ग छः ऋतुओं के वर्णन से चमत्कृत है जहाँ पुष्प चयन और जल-क्रीड़ा का भी प्रसंग आया है। नवम् सर्ग में नायिका नायक एवं चंद्रोदय को वर्णित किया गया है। दशम सर्ग में रतिक्रीड़ा का वर्णन है। एकादश सर्ग प्राभाविक सौन्दर्य को दर्शाता है। द्वादश सर्ग में श्रीकृष्ण की सेना का रैवतक पर्वत से इन्द्रप्रस्थ की ओर प्रस्थान करने एवं यमुना नदी का वर्णन है। अन्तिम तीन सर्गों में युद्ध का वर्णन है।
माघ के पाण्डित्य ने शिशुपालवधम् महाकाव्य को आदर्श महाकाव्य का रूप प्रदान कर उसे उच्चकोटि के महाकाव्यों में स्थान दिलाया हैं। मल्लिनाथ ने शिशुपालवधम् महाकाव्य की विशिष्टता को इस प्रकार बताया है-
तेताऽस्मिन्यदुनन्दनः स भगवा वीर प्रधानोरसः
श्रृंगारादिभिरवान् विजयते पूर्णा पुनर्वर्णना।
इन्द्रपथ गमाद्युपायविषयष्चैद्यासादः फल धन्यो
महाकविवयं तु कृतिनस्तत्सूक्तिसंसेवनात्।।
उपर्युक्त विवेचन के आधार पर यह सिद्ध होता है कि शिशुपालवधम् संपूर्ण लक्षणों से युक्त एक महाकाव्य है। ऐसा प्रतीत होता है कि लक्षणकारों ने महाकाव्य को आधार बनाकर ही महाकाव्य के लक्षण निर्धारित किये हैं।


माघ की माता का नाम ब्राह्मी को संस्कृत में सरस्वती भी कहते है इसलिए माघ को सरस्वती पुत्र भी कहा जा सकता है। माघ का जन्म माघ सुदी पूर्णिमा को होने से इनका नाम माघ रखा गया।
माघ का विवाह माल्हणा नामक कन्या के साथ हुआ जो सुंदर एवं गुणवती थी।

माघ का अहंकार
एक बार राजा के साथ महाकवि माघ जंगल में रास्ता भटक गए और एक झोपड़ी  में पहुंचे जहां एक बूढ़ी स्त्री रहती थी। उससे महाकवि का वार्तालाप शुरू हुआ जो इस प्रकार है।
माघ-हे बूढ़ी स्त्री यह रास्ता कहाँ जाता है?
बूढ़ी स्त्री- मूर्ख! रास्ता कहीं नहीं जाता, रास्ते पर तो राहगीर जाते है।
माघ को इस प्रकार के उࢂत्तर की आशा नहीं थी। माघ तिलमिला गये। लेकिन मजबूरी थी, अंधेरा अधिक हो रहा था सो उसने फिर पूछा-
माघ- हम राहगीर है, अब बतादो मार्ग कहाँ जाता है?
बूढ़ी स्त्री- राहगीर तो दो ही है या तो सूर्य या फिर चंद्र। तुम इनमें से कौन हो।
माघ-अच्छा माई! हम राजा के आदमी है, अब तो बतादो।
बूढ़ी स्त्री- राजा तो दो ही है एक इन्द्र दूसरा यम। तुम किस राजा के आदमी हो।
माघ ने कहा-हम क्षमा करने वालों में है।
बूढ़ी स्त्री-क्षमा तो दो व्यक्ति ही करते है एक स्त्री और दूसरी पृथ्वी, तुम इनमें कौन हो?
माघ ने कहा- हम क्षणभंगुर है।
बूढ़ी स्त्री-क्षणभंगुर तो दो ही है एक नवयौवन दूसरा सम्पत्ति, तुम इनमें से किस में हो।
माघ ने हताश हो कर कहा- हम हारने वालों में है।
बूढ़ी स्त्री-हारते तो दो ही है एक जिसका चरित्र चला गया दूसरा जो ऋणि हो जाय। अब बताओं तुम्हारा क्या गया।
माघ उस बुढ़ियां के चरणों में गिर पड़ा और पैर पकड़ लिए। हे माँ तुम कौन हो।
तब उस बुढ़िया माता ने कहा -उठो महा कवि माघ।
कवि माघ चौक गए कि यह स्त्री हमें जानती थी।
-हा कवि माघ मैंने तुमको देखते ही पहचान लिया था, तुम्हारें अहंकार के बारें में भी जानती हूं। अपने अहम् के कारण तुम कुछ लोगों को ही प्रिय हो लेकिन यह अहंकार नहीं रहेगा तो सर्वप्रिय हो जाओंगे।


कहीं पर उनकी पत्नी का नाम विद्यावती भी आया है।

महाकवि माघ के पास कुछ नहीं रहा और जब लौट रहे दुखियों-पीड़ितों के चेहरे पर गहरी हो गई निराशा को देखकर माघ व्याकुल हो उठे। उनके हृदय की विह्वलता वाणी से फूट पड़ी-‘मेरे प्राणों!  तुम और कुछ नहीं दे सकते पर इनकी सहायतार्थ इनके साथ तो जा सकते हो। धन से न सही संभव है प्राणों से ही उनकी सेवा करने का सौभाग्य मिल जाय। ऐसा सुंदर अवसर न जाने फिर कब मिलेगा?’
इन अंतिम शब्दों के साथ महाकवि माघ की जीर्ण काया एक ओर लुढ़क गई। चेतना ने अपने पाँव समेट लिए और अनंत अंतरिक्ष में न जाने कहाँ विलीन हो गई।