Monday, 30 August 2021

।#जयन्ती_शब्दविमर्श।।

 #जयन्ती_शब्दविमर्श।।

आजकल कुछ लोग ( यह बिल्कुल शास्त्रीय शब्द है, जिसका अर्थ बिल्कुल सभ्य है)यह कहते पाए गये हैं कि जयन्ती शब्द उन महापुरुषों के लिए प्रयोग करो जो मर चुके हैं।
यह बात बिल्कुल निराधार है कि जयन्ती शब्द केवल मृतक महापुरुषों के जन्म दिवस के लिए ही है।
#जयंती का अर्थ---
जयतीति । जि + “तॄभूवहिवसीति । ” उणां ३ । १२८ । इति झच् ।
व्याकरण की व्युत्पत्ति के अनुसार यह #विजयप्रद कालांश के लिए प्रयुक्त शब्द है।
अर्थात् जिस विजयी क्षण में कोई महापुरुष प्रकट हुआ हो।
पुराणों में यह भी कहा है कि --
#जयं पुण्यञ्च कुरुते जयन्तीमिति तां विदुः।।
जयप्रद और पुण्यशाली क्षण भी जयन्ती शब्द वाच्य है।
जो अत्यधिक बलवान् शत्रुओं पर विजय प्राप्त करें उसे #जयन्त कहते हैं ,इसी को देने वाली वेला जयन्ती है----
#अतिशयेनारीन् जयते जयहेतुरिति वा जयन्तः । ” इति तद्भाष्यम् ।। )
भगवान् विष्णु का भी नाम #जयन्त है । अतः उसके प्राकट्य को व्यक्त करने वाली #वेला भी #जयन्ती शब्द वाच्य है---
“अर्को वाजसनः शृङ्गी #जयन्तः सर्व्वविज्जयी ।।
भगवान् शिव का भी नाम जयन्त है , उसके अवतारों का प्राकट्य दिवस भी जयन्ती पद वाच्य है----
यथा मात्स्ये । ५ । ३० । “सावित्रश्च #जयन्तश्च पिनाकी चापराजितः । एते रुद्राः समाख्याता एकादशगणेश्वराः ।।
भगवान वासुदेव के अंश उपेन्द्र के लिए भी जयन्त शब्द है--
जयन्तो वासुदेवांश उपेन्द्र इति यं विदुः ।।
भगवती को भी #जयन्ती कहते हैं---
जयन्ती मंगला.....
श्रीकृष्ण की जन्मकालीन वेला भी जयन्ती कहलाती है---
रोहिणीसहिता कृष्णा
मासे च श्रावणेऽष्टमी ।। अर्द्धरात्रादधश्चोर्द्ध्वं
कलयापि यदा भवेत् ।
जयन्ती नाम सा प्रोक्ता सर्व्वपापप्रणाशिनी ।।
ज्योतिष शास्त्र के अनुसार अनेक ग्रहों की उच्च स्थिति से यह योग बनता है हमारे सभी अवतारों के जन्म समय में यह ज्योतिषीय योग विद्यमान है अतः उनका जन्म दिवस जयन्ती कहलाता है---
यत्र स्वोच्चगतश्चन्द्रो लग्नादेकादशे स्थितः । #जयन्तो नाम योगोऽयं शत्रुपक्षविनाशकृत् ।।
अतः सिद्ध है कि जयन्ती शब्द का जीवित/मृत से कोई सम्बन्ध नहीं है ।यह प्रकट दिवस पर प्रयुक्त होता है।
Arun shastri की वाल से साभार

मुण्डकोपनिषद्

 मुण्डकोपनिषद् अथर्ववेद की शौनकी शाखा से है । इसमें ब्रह्म और उसको प्राप्त करने के मार्ग का सुन्दर उपदेश है । भारत सरकार द्वारा गर्वान्वित उपदेश ’सत्यमेव जयते’ भी इसी उपनिषद् में पाया जाता है । इसी प्रकार इसके अन्य श्लोकांश भी सुविख्यात हैं । इसके कुछ श्लोक कठोपनिषद् में भी पाए जाते हैं । उपनिषद् तीन अध्यायों में बटा है, जिन्हें मुण्डक कहा जाता है । प्रत्येक मुण्डक में दो-दो खण्ड है, जिनमें कुल ६४ श्लोक हैं । अति-स्पष्ट होने से, यह उपनिषद् अवश्य ही पढ़ना चाहिए ।

उपनिषद् बताता है कि देवों की जो प्रथम सृष्टि हुई, उनमें भी सबसे ज्ञानी ब्रह्मा हुए, जो सबके कर्ता और लोकों के रक्षक हुए (सम्भवतः, उन्होंने मनुष्य-जाति को आगे बढ़ाने में योगदान दिया और धर्म के प्रवचन से सब प्राणियों की रक्षा के निमित्त हुए – यह इसका अर्थ है । इस ’ब्रह्मा’ को परमात्मा-वाची ’ब्रह्म’ नहीं समझना चाहिए – नपुंसकलिंग ’ब्रह्म’ परमात्मा के लिए प्रयुक्त होता है, और प्रायः पुंल्लिङ्ग ’ब्रह्मा’ देव-/मनुष्य-वाची होता है ।) उन्होंने अपने ज्येष्ठ पुत्र अथर्वा को ब्रह्मविद्या दी । अथर्वा ने अंगी ऋषि को इस विद्या का पात्र बनाया । अंगी ने उस विद्या को भरद्वाज-गोत्रीय सत्यवह नामक ऋषि को दिया, जिन्होंने अंगिरा ऋषि को यह कही । इस अंगिरा के पास एक दिन शौनक नाम के प्रसिद्ध धनाढ्य व्यक्ति विधिवत् उपस्थित हुए । उन्होंने अंगिरा से जो प्रश्न पूछा, वही इस उपनिषद् को प्रसिद्ध करने के लिए पर्याप्त है ! उन्होंने पूछा –

कस्मिन्नु  भगवो  विज्ञाते  सर्वमिदं  विज्ञातं  भवतीति ॥ मुण्डक० १।१।३ ॥

“हे भगवन् ! किसको जान लेने पर यह सब कुछ जान लिया जाता है (जो सब कुछ इस संसार में है और जो नहीं भी है) ?” क्या विलक्षण प्रश्न है ! इसी पर विचार करके मन प्रफुल्लित हो जाता है !

इस प्रश्न का उत्तर ही उपनिषद् की विषय-वस्तु है । सबसे पहले अंगिरा ने जो विद्या का दो में विभाजन किया, वह अनेकों स्थलों पर उद्धृत किया जाता है, क्योंकि ऐसा विभाजन कम ही पाया जाता है –

तस्मै  स  होवाच । द्वे  विद्ये  वेदितव्ये  इति  ह  स्म  यद्ब्रह्मविदो  वदन्ति  परा  चैवापरा  च ॥ १।१।४ ॥

तत्रापरा  ऋग्वेदो  यजुर्वेदः  सामवेदोऽथर्ववेदः  शिक्षा  कल्पो  व्याकरणं  निरुक्तं  छन्दो  ज्योतिषमिति । अथ  परा  यया  तदक्षरमधिगम्यते ॥ १।१।५ ॥

अर्थात् अंगिरा ने शौनक से कहा, “ दो विद्याएं जानने योग्य हैं जिन्हें कि ब्रह्मविदों ने बताया है – एक परा, दूसरी अपरा । उनमें से अपरा (निचले स्तर की) विद्या वे है जो ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द और ज्योतिष में निबद्ध है । और परा (ऊंचे स्तर की) विद्या वह है जिससे अक्षर परमात्मा तत्त्वशः जाना जाता है ।” यह बहुत ही चिन्तन करने योग्य वाक्य है । हम तो यही जानते आए हैं कि, जिसको यहां अपरा विद्या कहा गया है, वही ब्रह्म तक पहुंचाती है । ऋषि ने तो एक झटके में उसको निम्न कोटि की विद्या में डाल दिया जो, वास्तव में, ब्रह्म तक नहीं पहुंचाती ! यह इसलिए है कि, इन सब ग्रन्थों का परिशीलन कर लेने के बाद भी, जिसने उपासना-समाधि नहीं की, उसने कुछ भी न जाना, न पाया – यस्तं  न  वेद  किमृचा  करिष्यति ? य  इत्  तद्विदुस्त  इमे  समासते (ऋक्० १।१६४।३९, अथर्व० ९।१०।१८)  – जिसने सब पढ़-पढ़ा कर, सब जान-समझ कर, परमात्मा को नहीं जाना, वह वेद की ऋचा से क्या कर लेगा ?! अर्थात् कुछ भी नहीं कर पाएगा । और जिन्होंने परमात्मा को जान लिया, वे उसी में समा गए । वेदों के समान ही, मुनि भी चेतावनी देते हैं कि इन सब ग्रन्थों को पढ़कर अपने को ज्ञानी, मानी, महात्मा मत समझ बैठो – 

अविद्यायामन्तरे  वर्तमानाः  स्वयं  धीराः  पण्डितं  मन्यमानाः ।

जङ्घन्यमानाः  परियन्ति  मूढा  अन्धेनैव  नीयमाना  यथान्धाः ॥ १।२।८ ॥

मूढ़ लोग, अविद्या से घिरे होते हुए भी, अपने को धीर और पण्डित समझते हुए, और इस कारण सब ओर से ठोकरें खाते हुए, उसी प्रकार इधर-उधर मण्डराते हैं जैसे कि एक अन्धे के द्वारा लिए जा रहे अन्धे ।       

इस उपनिषद् में अग्नि की लपटों को गुणानुसार विभक्त किया गया है, जो भी एक बहुचर्चित विभाजन है, परन्तु इसका वैज्ञानिक विश्लेषण अपेक्षित है –

काली  कराली  मनोजवा  च

         सुलोहिता  या  च  सुधूम्रवर्णा ।

स्फुलिङ्गिनी  विश्वरुची  च  देवी

         लेलायमाना  इति  सप्त  जिह्वाः ॥ १।२।४ ॥

अग्नि की जिह्वारूपी, लपलपाती हुई सात लपटें बताई गई हैं – काली (रंगहीन), कराली (अति उग्र), मनोजवा (स्फूर्ति वाली), सुलोहिता (लाल रंग वाली), सुधूम्रवर्णा (धुंए के रंग वाली), स्फुलिंगिनी (अंगारों वाली) और विश्वरुची देवी (सब ओर से प्रकाशित) ।

ब्रह्मविद्या को प्राप्त करने के लिए उपनिषद् मार्ग बताता है –

परीक्ष्य  लोकान्  कर्मचितान्  ब्राह्मणो

         निर्वेदमायान्नास्त्यकृतः  कृतेन ।

तद्विज्ञानार्थं  स  गुरुमेवाभिगच्छेत्

         समित्पाणिः  श्रोत्रियं  ब्रह्मनिष्ठम् ॥ १।२।१२ ॥

ब्रह्म की इच्छा करने वाला ब्राह्मण अच्छे कर्मों से भी प्राप्त होने वाले स्वर्गलोक के दोषों को देखकर (पिछले श्लोक का शेष), विरक्ति को प्राप्त करे, क्योंकि जो ’अकृत’ परमेश्वर है, वह कर्मों से नहीं प्राप्त होता ! उसको जानने के लिए वह समित्पाणि होकर, मन में श्रद्धा भरकर, ऐसे गुरु को प्राप्त करे जो वेदों में पारंगत हो और परमात्मा में स्थित हो ।

अन्य उपनिषदों के समान, यह उपनिषद् भी जताता है कि अच्छे कर्मों या ’निष्काम कर्मों’ से मोक्ष नहीं प्राप्त होता । उसके लिए ब्रह्म का साक्षात्कार अनिवार्य है, जिसके लिए कर्म रोककर उपासना करनी पड़ती है ।

आगे ऋषि कहते हैं –

धनुर्गृहीत्वौपनिषदं  महास्त्रं

         शरं  ह्युपासानिशितं  सन्धयीत ।

आयम्य  तद्भावगतेन  चेतसा

         लक्ष्यं  तदेवाक्षरं  सोम्य  विद्धि ॥ २।२।३ ॥

प्रणवो  धनुः  शरो  ह्यात्मा  ब्रह्म  तल्लक्ष्यमुच्यते ।

अप्रमत्तेन  वेद्धव्यं  शरवत्  तन्मयो  भवेत् ॥ २।२।४ ॥

हे सोम्य ! हे प्रिय शिष्य ! उपनिषदों में वर्णित महास्त्र धनु को उठाकर, उस पर उपासना से तेज किए हुए तीर को चढ़ा । भाव-विभोर मन से उसकी डोरी खींच और उस ही अक्षर को लक्ष्य कर वेध दे । इस उपमा को अगले श्लोक में वे स्वयं समझाते हैं – प्रणव धनुष है, आत्मा तीर है, ब्रह्म को लक्ष्य कहा गया है । प्रमादशून्य होकर उस लक्ष्य को वेधना चाहिए और तीर के समान उसमें तल्लीन हो जाना चाहिए । अत्यन्त सुन्दरता से ऋषि ने पूरी उपासना की प्रक्रिया संक्षेप से कह दी !

आगे वे और परामर्श देते हैं –

सत्येन  लभ्यस्तपसा  ह्येष  आत्मा

         सम्यग्ज्ञानेन  ब्रह्मचर्येण  नित्यम् ।

अन्तःशरीरे  ज्योतिर्मयो  हि  शुभ्रो

         यं  पश्यन्ति  यतयः  क्षीणदोषाः ॥ ३।१।५ ॥

वह परमात्मा सत्य से, तप से, सम्यक् ज्ञान से और नित्य ब्रह्मचर्य से प्राप्त होता है । जो यति, निरन्तर यत्न करते हुए, दोषों से रहित हो जाते हैं, वे उसको अपने शरीर के अन्दर (बुद्धि में) शुभ्र ज्योति के रूप में देखते हैं । क्योंकि –

सत्यमेव  जयति  नानृतं

         सत्येन  पन्था  विततो देवयानः ।

येनाक्रम्न्त्यृषयो  ह्याप्तकामा

         यत्र  तत्  सत्यस्य  परमं  निधानम् ॥ ३।१।६ ॥

सत्य ही अन्ततः जीतता है, न कि झूठ । सत्य के पथ से देवों के पथ का विस्तार होता है, जिस को पार करके ऋषि-जन कामना-रहित होते हुए, वहां पहुंच जाते हैं जहां सत्य का परम कोष है, अर्थात् परमात्मा को प्राप्त कर लेते हैं । सत्य का महत्त्व प्रायः आजकल सब भूल गए हैं, और चारों ओर झूठ फैल गया है । परन्तु जिनको अपना उद्धार इष्ट है, उन्हें झूठ को अपने जीवन से उखाड़ना ही पड़ेगा … 

’सत्यमेव जयते’ यह प्रसिद्ध पाठ सम्यक् नहीं प्रतीत होता । पाणिनीय व्याकरणानुसार भी ’जय’ धातु में आत्मनेपद उपलब्ध नहीं है । किन ऐतिहासिक कारणों से सर्वकार द्वारा ऐसा पाठ स्वीकृत किया गया, यह मुझे ज्ञात नहीं है ।

मुनि एक और अत्यन्त सुन्दर उपमा देते हैं, जो कि स्मरणीय है –

यथा  नद्यः  स्यन्दमानाः  समुद्रे-

         ऽस्तं  गच्छन्ति  नामरूपे  विहाय ।

तथा  विद्वान्  नामरूपाद्विमुक्तः

         परात्परं  पुरुषमुपैति  दिव्यम् ॥ ३।२।८ ॥

जैसे बहती हुई नदियां अपना नाम और रूप छोड़कर समुद्र में अस्त हो जाती हैं, वैसे ही जो विद्वान् मोक्ष प्राप्त करता है, वह भी अपने नाम और रूप से मुक्त होकर, उत्तमों से उत्तम, दिव्य पुरुष को प्राप्त कर लेता है । 

यहां यह संशय हो सकता है कि यह वाक्य अद्वैत मत का मण्डन कर रहा है, क्योंकि नदी तो समुद्र में जाकर अपना अस्तित्व पूरी तरह खो देती है – क्या आत्मा भी परमात्मा में एक हो जाती है ? आगे भी वे कहते हैं – स  यो  ह  वै  तत्परमं  ब्रह्म  वेद  ब्रह्मैव  भवति (३।२।९) – अर्थात् जो भी उस परम ब्रह्म को जान लेता है, वह ब्रह्म ही हो जाता है । नहीं, आत्मा अपना भिन्न अस्तित्व बनाए रखती है, परन्तु प्रकृति-जनित नाम और रूप को खो देती है – यह केवल कहने की आलंकारिक शैली है । तथापि वह अन्य मुक्तात्माओं से कैसे अपना वैशिष्ट्य बनाए रखती है, यह चिन्त्य है ।

अन्त में पुनः कहा गया है कि यह महर्षि अंगिरा का उपदेश है, जिसे कि ब्रह्मचर्यव्रत का पालन न करने वाला नहीं समझ सकता । उनके जैसे सभी परम ऋषियों को नमस्कारपूर्वक उपनिषद् समाप्त हो जाता है ।

इस प्रकार मुण्डकोपनिषद् आध्यात्मिक पथ पर चलने वालों के लिए तो आवश्यक सामग्री है ही, परन्तु वस्तुतः यह अत्यन्त सुन्दर उपनिषद् सभी अध्यात्मानुरागियों के द्वारा पठितव्य है । 

Wednesday, 10 February 2021

महाकाल भैरवाष्ठकं

 महाकाल भैरवाष्ठकं

🔱
यं यं यं यक्षरूपं दशदिशिविदितं भूमिकम्पायमानं,
सं सं संहारमूर्तिं शिरमुकुटजटा शेखरंचन्द्रबिम्बम् ।
दं दं दं दीर्घकायं विक्रितनख मुखं चोर्ध्वरोमं करालं,
पं पं पं पापनाशं प्रणमत सततं भैरवं क्षेत्रपालम् ॥ १॥
रं रं रं रक्तवर्णं, कटिकटिततनुं तीक्ष्णदंष्ट्राकरालं,
घं घं घं घोष घोषं घ घ घ घ घटितं घर्झरं घोरनादम् ।
कं कं कं कालपाशं द्रुक् द्रुक् दृढितं ज्वालितं कामदाहं,
तं तं तं दिव्यदेहं, प्रणामत सततं, भैरवं क्षेत्रपालम् ॥ २॥
लं लं लं लं वदन्तं ल ल ल ल ललितं दीर्घ जिह्वा करालं,
धूं धूं धूं धूम्रवर्णं स्फुट विकटमुखं भास्करं भीमरूपम् ।
रुं रुं रुं रूण्डमालं, रवितमनियतं ताम्रनेत्रं करालम्,
नं नं नं नग्नभूषं , प्रणमत सततं, भैरवं क्षेत्रपालम् ॥ ३॥
वं वं वायुवेगं नतजनसदयं ब्रह्मसारं परन्तं,
खं खं खड्गहस्तं त्रिभुवनविलयं भास्करं भीमरूपम् ।
चं चं चलित्वाऽचल चल चलिता चालितं भूमिचक्रं,
मं मं मायि रूपं प्रणमत सततं भैरवं क्षेत्रपालम् ॥ ४॥
शं शं शं शङ्खहस्तं, शशिकरधवलं, मोक्ष सम्पूर्ण तेजं,
मं मं मं मं महान्तं, कुलमकुलकुलं मन्त्रगुप्तं सुनित्यम् ।
यं यं यं भूतनाथं, किलिकिलिकिलितं बालकेलिप्रदहानं,
आं आं आं आन्तरिक्षं , प्रणमत सततं, भैरवं क्षेत्रपालम् ॥ ५॥
खं खं खं खड्गभेदं, विषममृतमयं कालकालं करालं,
क्षं क्षं क्षं क्षिप्रवेगं, दहदहदहनं, तप्तसन्दीप्यमानम् ।
हौं हौं हौंकारनादं, प्रकटितगहनं गर्जितैर्भूमिकम्पं,
बं बं बं बाललीलं, प्रणमत सततं, भैरवं क्षेत्रपालम् ॥ ६॥
वं वं वं वाललीलं सं सं सं सिद्धियोगं, सकलगुणमखं,
देवदेवं प्रसन्नं, पं पं पं पद्मनाभं, हरिहरमयनं चन्द्रसूर्याग्नि नेत्रम् ।
ऐं ऐं ऐं ऐश्वर्यनाथं, सततभयहरं, पूर्वदेवस्वरूपं,
रौं रौं रौं रौद्ररूपं, प्रणमत सततं, भैरवं क्षेत्रपालम् ॥ ७॥
हं हं हं हंसयानं, हसितकलहकं, मुक्तयोगाट्टहासं,
धं धं धं नेत्ररूपं, शिरमुकुटजटाबन्ध बन्धाग्रहस्तम् ।
तं तं तंकानादं, त्रिदशलटलटं, कामगर्वापहारं,
भ्रुं भ्रुं भ्रुं भूतनाथं, प्रणमत सततं, भैरवं क्षेत्रपालम् ॥ ८॥
🙏🏻 इति महाकालभैरवाष्टकं सम्पूर्णम् 🙏🏻

"दक्षिणा" विशेष::-

 "दक्षिणा" विशेष::-

~~~~~~~~~~
यजुर्वेद में एक बहुत सुंदर मन्त्र है, वह कहता है ब्रह्मचर्य आदि व्रतों से ही दीक्षा प्राप्त होती है अर्थात् ब्रह्मविद्या या किसी अन्य विद्या में प्रवेश मिलता है। फिर दीक्षा से दक्षिणा अर्थात् धन समृद्धि आदि प्रतिष्ठा प्राप्त होती है। यहाँ दक्षिणा मिलने का अर्थ है दक्षिणा देना, वेद ने यही माना है कि जो देता है उसे देवता और अधिक देते हैं। जो नहीं देता है, देवता उसका धन छीनकर दानियों को ही दे देते हैं।
फिर कहता है दक्षिणा से श्रद्धा प्राप्त होती है, और श्रद्धा से सत्य प्राप्त होता है।
माइंड रीडर क्रम है, व्रत --> दीक्षा --> दक्षिणा --> श्रद्धा --> सत्य।
मध्य में दक्षिणा है, एक बार दीक्षित हो गए, मार्ग पर बढ़ गए, और फिर दक्षिणा में लोभ किया तो मार्ग नष्ट हो जाता है। इसलिए विद्वानों, गुरु, आचार्य को दक्षिणा और पात्रों को दान देने से ही मार्ग आगे प्रशस्त होता है। दक्षिणा देने से अपने गुरु, आचार्य में श्रद्धा बढ़ती है, वे भी अपनी अन्य सांसारिक चिंताओं से मुक्ति पाकर शिष्य या यजमान के कल्याण के लिए और उत्साह से लग जाते हैं और अंततः सत्य से साक्षात्कार कराते हैं।
अब दक्षिणा क्या होनी चाहिए, इसपर शास्त्र का स्पष्ट मत है कि दक्षिणा यथाशक्ति, यथासम्भव ही होनी चाहिए, न अपनी शक्ति से कम होनी चाहिए न ज्यादा की कोई आवश्यकता है।
सनातन धर्म की समाज संरचना ऐसी थी कि अपरिग्रही ब्राह्मणों, पुरोहितों, ज्योतिष, वास्तु आदि आचार्यों का दायित्व समाज के ऊपर होता था। समाज उन्हें अपने सामर्थ्यानुसार दक्षिणा के रूप में पोषित करता था, बदले में वे समाज को अपने ज्ञान से पोषित करते थे। पर जैसे ही इसमें यजमान की कृपणता ने जगह बनाई और आचार्य के लोभ ने जगह बनाई वैसे ही यह व्यवस्था टूट गई। इससे यह हानि हुई कि जिन ब्राह्मणादि लोगों का कार्य पुरोहित बनकर कर्मकाण्ड कराना था, गुरु बनकर पढ़ाना लिखाना था, ज्योतिषाचार्य बनकर लोगों को जीवन की दिशा के प्रति सचेत करना और मार्ग दिखाना था, उन्हें यजमानों से उचित दक्षिणा न मिलने के कारण अपना घर चलाने के लिए दूसरे व्यवसायों में जाना पड़ा और इससे इन विद्याओं का नाश हुआ।
आज सब लोग एक पक्षीय रूप से तो देखते हैं कि ब्राह्मण पौरोहित्य ठीक नहीं करते, ज्योतिषी लूटते हैं और झूठ बताते हैं लेकिन वे खुद का दोष नहीं देखते कि क्या यजमान धर्म का उन्होंने पालन किया? क्या यथाशक्ति, यथासम्भव वे इन आचार्यों को दक्षिणा देते हैं?
आपके कोई जानपहचान के ज्योतिषी हैं तो आप चाहते हैं कि उन्हें मुफ्त में कुण्डली दिखा दें, उनसे इमोशनल अत्याचार करते हैं। यह नहीं देखते कि ज्योतिष विद्या प्राप्त करने के लिए कितने हज़ार घण्टे उन्होंने अध्ययन की तपस्या की होगी। वे आपकी कुण्डली को समझने में जो एक दो घण्टे खर्च करते हैं आप चाहते हैं उसकी कीमत 51 रुपए दे दें, 101 रुपए दे दें, या 151 रुपए दे दें। घर में कोई पूजापाठ है तो आप चाहते हैं कि 251 रुपए में पण्डित मान जाए, वह आपके घर दूर से एक दो घण्टे खर्च करके आता जाता है, 2 घण्टे खर्च करके पूजा कराकर अपना पूरा दिन खर्च करता है और बदले में 251 से,500 रुपए में आप उसे विदा करना चाहते हैं। क्या यह आपकी यथाशक्ति है? यह यथासम्भव है?
यदि सब लोग उन पुरोहितों या ज्योतिषियों को बस 501 रुपया ही दें तो हर पर 2 घण्टे लगाकर वह केवल 5-6 लोगों की कुंडली या पूजापाठ ही तो करा पाएगा? इससे महीने में 1100 प्रतिदिन हिसाब से हज़ार होंगे, या थोड़ा बढ़ा लीजिए, इसमें वह अपना घर कैसे चलाएगा? और शांति से नहीं चला पाएगा तो अपनी विद्या और यजमान पर ध्यान कैसे देगा? फिर जब वह मजबूरी में अपनी दक्षिणा फिक्स करने लगे तो आप उसे पाखण्डी या धंधेबाज कहते हो? यह क्या खुद का फोड़ा न देखकर दूसरे की सूजन निहारने वाली बात नहीं है?
आप ज्योतिषी से तो उम्मीद करते हैं कि वह पाराशर स्मृति के अनुसार चलकर दक्षिणा न मांगे पर जब वही शास्त्र ज्योतिष आदि विद्याओं के लिए यथाशक्ति दक्षिणा देने की बात कहते हैं तो उसे नहीं मानते। तब आप 251 रुपए देकर कहते हैं बिना दक्षिणा दिए पाप लगता है पण्डितजी यह रख लीजिए, अरे 11 रुपए का एक ज्यूस भी नहीं आता है, क्यों उन जानपहचान के ज्योतिषियों और पुरोहितों को अपमानित करते हैं 251 रुपए देकर?? क्यों खुद के सिर पाप चढाते हैं।
वेद ने स्पष्ट कहा है, "इन्द्र ऐसे कृपण/कंजूस लोगों को पैर से घास फूंस की तरह रौंदकर नष्ट कर देता है।"
मैं यह नहीं कह रहा कि सभी ज्योतिषी बहुत विद्वान या सारे ही पुरोहित बहुत अच्छे हैं। पर उनमें कई वास्तव में अच्छे हैं जिन्हें समाज हतोत्साहित करता है। ऐसे में वे अपने अध्ययन पर ध्यान नहीं दे पाते, उन्हें भी अपनी सांसारिक जरूरतें पूरी करने के लिए दूसरे रास्ते अपनाने पड़ते हैं। असंतुष्ट होकर आचार्य कभी भी कृपा नहीं कर सकते, सच्चे मन, पूर्ण विश्वास और उन्हें संतुष्टि देकर ही उनकी कृपा प्राप्त की जा सकती है। उनके द्वारा बताए गए उपाय भी तभी सफल होते हैं।
पुराणों में एक कथा आती है, नारद जी ने प्रश्न किया कि दक्षिणाहीन कर्म का फल कौन भोगता है? तो भगवान नारायण ने उत्तर दिया, "मुने! दक्षिणाहीन कर्म में फल ही कैसे हो सकता है? क्योंकि फल प्रसव करने की योग्यता तो दक्षिणा वाले कर्म में ही है। बिना दक्षिणा वाला कर्म तो बलि के पेट में चला जाता है, अर्थात् नष्ट हो जाता है।
आचार्यों से वैदिक विद्याओं का प्रयोग करवाना, पौरोहित्य करवाना आदि यज्ञ का अंग है। मनुस्मृति में महाराज मनु का स्पष्ट शब्दों में आदेश है, " और पुण्य कर्मों को करे पर कम धन वाला यज्ञ न करे। न्यून/कम दक्षिणा देकर कोई यज्ञ नहीं करना चाहिए। कम दक्षिणा देकर यज्ञ कराने से यज्ञ की इन्द्रियाँ, यश, स्वर्ग, आयु, कीर्ति, प्रजा और पशुओं का नाश करती हैं।"
अन्यत्र भी कहा है, "दक्षिणाहीन यज्ञ दीक्षित को नष्ट कर देता है।"
वेद में भी कहा गया है, "प्रयत्न से उत्तम कर्म करने वाले के लिए जो योग्य दक्षिणा देता है, अग्नि उस मनुष्य की चारों ओर से सुरक्षा करता है।"
कंजूस कभी भी ज्ञानसम्पन्न नहीं हो सकते, वे सदा ही अंधकार में ठोकर खाते फिरेंगे। जो यज्ञ के कार्य के लिए अपना धन समर्पित करते हैं, वे उन्नति करते हैं और अदानशील व्यक्ति नष्ट हो जाते हैं।"
इसलिए वैदिक विद्याओं को बचाने के लिए, सनातन धर्म की रक्षा के लिए केवल दोषारोपण न करें। आपके लिए वैदिक विद्या का प्रयोग करने वाले आचार्यों, अन्य योग्य सनातनी संस्थाओं और व्यक्तियों को उचित दान दक्षिणा देने में कंजूसी न करें। बहुत सी ऐसी जगहें हैं जहाँ धन बचा लेंगे। फालतू जगहों पर कंजूसी करेंगे तो धन बढ़ेगा, वैदिक विद्या और धर्म के कार्य में कंजूसी करेंगे तो धन घटेगा। इधर तो देने से ही बढ़ता है। इसमें शास्त्रों का स्पष्ट निर्देश है।
सन्दर्भ ::-
*******
१. यजुर्वेद 19.30
२. ऋग्वेद 5.34.7
३. अथर्ववेद 20.63.5/ऋग्वेद 1.84.8
४. ब्रह्मवैवर्त पुराण, प्रकृति खण्ड, अध्याय 42
५. मनुस्मृति 11.39/40
६. स्कन्दपुराण 5.33.27
७. ऋग्वेद 1.31.15
८. ऋग्वेद 4.51.3

Friday, 28 August 2020

श्राद्ध- एक ऋषि परम्परा

 भीनमाल।

श्राद्ध- एक ऋषि परम्परा 1 सितम्बर से 17 सितम्बर 2020 तक 

श्राद्ध का स्वरूप पृथ्वीचन्द्रयोदय में लिखा हैं कि, जो भोजन अपने को रूचता है वह प्रेत और पितरों के निमिŸा जब श्रद्धा से दिया जाय तब उसे श्राद्ध कहते हैं। मरीचि ने कहा है किः-

श्रद्धया दीयते यत्ऱ तच्छ्राद्धं परिकीर्तितम्।।

ब्रह्मकर्म प्रकाशक शास्त्री प्रवीण त्रिवेदी ने बताया कि श्राद्ध मूलतः उन के लिए किया जाता है जो पितृ रूप में हैं। इसी संदर्भ में यह भी निरूपित किया गया हैं कि नश्वर स्थूल शरीर नष्ट होने पर भी उस योनि द्वारा संपादित किया हुआ कर्म नष्ट नहीं होता। हमारे सूक्ष्म शरीर में कर्म का प्रतिबिम्ब रह जाता हैं, यह सूक्ष्म शरीर बीज रूप से कर्म संस्कार स्मृतियों को लेकर एक स्थूल शरीर से दूसरे स्थूल शरीर में प्रवेश करता हैं। कठोपनिषद् में यमराज नचिकेता को कहते हैंः-

योनिमन्ये प्रपद्यन्ते शरीरत्वाय देहिनः। स्थाणुमन्यंऽनुसंयन्ति यथाकर्म यथाश्रुतम।।

यमराज कहते हैं, हे नचिकेता अपने-अपने शुभाशुभ कर्मो के अनुसार और शास्त्र, गुरू, संग, शिक्षा, ज्ञान, विवेक आदि के द्वारा देखे-सुने भावों से निर्मित अन्तः कालीन वासना के अनुसार मरने के पश्चात् कितने ही जीवात्मा दूसरा शरीर धारण करने के लिए वीर्य के साथ माता की योनि में प्रवेश कर जाते हैं। इनमे जिनके पुण्य-पाप समान होते हैं, वे मनुष्य का , जिनके पुण्य कम व पाप अधिक होते हैं वे पशु-पक्षी का शरीर धारण करके उत्पन्न होते हैं, और कितने ही, जिनके पाप अत्यधिक होते हैं वे स्थावर भाव को प्राप्त होते हैं अर्थात् वृक्ष, लता, तृण, पर्वत आदि शरीर में उत्पन्न होते हैं। 

त्रिवेदी ने बताया कि अलग-अलग ग्रन्थों में श्राद्ध के विभिन्न प्रकार बताये हैं। पर महर्षि विश्वामित्र ने प्रमुखतया बारह प्रकार के श्राद्धों का उल्लेख किया हैं, जो निम्न प्रकार हैं।

नित्य, नैमिŸिाक, काम्य, वृद्धि, पार्वण, गोष्ठी, शुद्धि, कर्मांग, दैविक,यात्रा, पुष्टि,  त्रिवेदी ने बताया कि इनके अतिरिक्त निम्न श्राद्ध और भी हैं, जो ज्यादातर देखने में आते हैं।

एकोदिष्ट श्राद्ध, महालय श्राद्ध श्राद्ध के देशः-

प्रभास खण्ड में लिखा हैं कि, अपने घर में श्राद्ध के दाता को तीर्थ से आठ गुणा पुण्य प्राप्त होता हैं।

स्कन्द पुराण में लिखा हैं कि, तुलसी के वन की छाया जहां-जहां हो वहां-वहां पितरों की तृप्ति के निमिŸा श्राद्ध करें।

त्रिस्थलीसेतु में वायुपुराण का वाक्य हैं कि, शमी के पŸो के समान भी गयाशिर में जो पिंड देता है, वह सात गोत्र और एक सौ एक कुल का उद्धार करता हैं, सात गोत्र यह हैं, माता, पिता, भार्या, भगिनी, पुत्री, पिता व माता की भगिनी इन सात गोत्रों के 101 पितरो को कुल कहते हैं।

श्रद्धा से किया गया श्राद्ध पितरों को उसी रूप में मिलता है जिस रूप या योनि में पितृ होते हैं। जैसे:-यदि पितृ शुभ कर्म से देवता हुआ है तो उस देने वाले का अन्न अमृत होकर उसे प्राप्त होता हैं, यदि गन्धर्व हो तो भोग रूप से, पशु हो तो तृण रूप से, नाग होने पर वायु रूप से, यक्ष होने पर पान रूप से, राक्षस हो तो आमिष रूप से, दनुज हो तो मद्य रूप से, प्रेत हो तो रूधिरोधक, मनुष्य हो तो अन्नपानादि रूप से मिलता हैं। 

अतः प्रत्येक गृहस्थी को पितरों के निमिŸा यथा शक्ति श्रद्धा से श्राद्ध करके पितरों को तृप्त करना चाहिएं।



त्रिवेदी ने बताया कि श्राद्ध में कदापि उपयोग न करें-

मसूर, राजमा, प्याज, चणा, कपित्थ, अलसी, तीसी, सन, बासी भोजन और समुद्र जल से बना नमक। भैंस, हिरणी, ऊंटनी, भेड़ आदि का दूध भी वर्जित है। श्राद्ध किसी दूसरे के घर में, दूसरे की भूमि में कभी नहीं किया जाता है। 


1/2 को पूर्णिमा श्राद्ध

2 को प्रतिपदा श्राद्ध

3 को द्वितीया श्राद्ध

5 को तृतीया श्राद्ध 16.32 तक

6 को चतुर्थी श्राद्ध

7 को पंचमी श्राद्ध

8 को षष्ठी श्राद्ध

9 को सप्तमी श्राद्ध

10 को अष्टमी श्राद्ध

11 को मातृ नवमी श्राद्ध

12 को दशमी श्राद्ध

13 को एकादशी श्राद्ध 

14 को द्वादशी श्राद्ध

15 को त्रयोदशी श्राद्ध

16 को चतुर्दशी श्राद्ध

17 को सर्वपितृ अमावस्या श्राद्ध