Wednesday, 5 April 2023

वेद में हनुमान् का स्वरूप

 वेद में हनुमान् का स्वरूप

१.वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यं (गीता, १५/१५)।
विष्णु के जगन्नाथ या पुरुष रूप में जो कहा है, वही हनुमान् के वृषाकपि रूप विषय में भी है-
तत्र गत्त्वा जगन्नाथं वासुदेवं वृषाकपिम्।
पुरुषं पुरुष सूक्तेन उपतस्थे समाहिताः॥ (भागवत पुराण, १०/१/२०)
ततो विभुः प्रवर वराह रूपधृक् वृषाकपिः प्रसभमथैकदंष्ट्रया। (हरिवंश पुराण, ३/३४/४८)
शुक्ल यजुर्वेदीय तारसारोपनिषद् में हनुमान् का परब्रह्म रूप वर्णित है।
२. कल्याण विशेषांक-कल्याण के श्रीहनुमान अङ्क (१९७५) में कुछ लेख हनुमान के वेद वर्णन विषय में हैं। आरम्भ में हनुमान गायत्री सहित ऋक् (५/३/३,९/६९/१, ९/७१/२, ९/७२/५, १०/५/७) तथा साम (११/३/१/२) मन्त्र दिये हैं। स्वामी गंगेश्वरानन्द जी ने ऋग्वेद के कई मन्त्रों की हनुमान् चरित्र सम्बन्धित व्याख्या की है-ऋक (१/१२/१) में अग्नि अर्थात् अग्रि के दूत, विश्ववेदस (सर्वशास्त्रज्ञ), यज्ञ के सुक्रतु रूप में वर्णन है। ऋक् के प्रथम मन्त्र के चान्द्र भाष्य अनुसार अग्नि को वायुपुत्र हनुमान् तथा रत्न-धातम (राम की मुद्रिका, सीता की चूड़ामणि धारण करने वाले), पुरोहित (सबके आगे रह कर हित करने वाले), होतारं (लंका तथा असुरों को अग्नि और युद्ध में हवन करने वाले हैं। हनु भग्न होने का उल्लेख ऋक् (४/१७/९) में है। हनुमान् शब्द का हन्मन रूप वेद वर्णित है। ऋग्वेद में दूत शब्द ९० बार, हनू शब्द ४ बार तथा हन्मना शब्द ५ बार प्रयुक्त हुआ है। हनुमान् के लिए अपां-नपात् शब्द कई स्थानों पर है (ऋक् सूक्त २/३५, १/, ७, ९, १०, १३, १०/३०/३-४)। आकाश से वायु (तैत्तिरीय उपनिषद्, २/१), वायु से हनुमान् होने से वह आकाश या अन्तरिक्ष स्थित अप् के पौत्र (अपां-नपात्) हैं। ऋक् (२/३५/१०) में अपां-नपात् को कई प्रकार से हिरण्य रूप कहा है जिस रूप में हनुमान् की स्तुति है-अतुलितबलधामं हेमशैलाभ देहं। (रामचरितमानस, सुन्दरकाण्ड, मंगलाचरण)
अशोभत मुखं तस्य जृम्भमाणस्य धीमतः।
अम्बरीषमिवादीप्तं विधूम इव पावकः॥ (रामायण, ४/६७/७)
ऋक् (१/१९) सूक्त के सभी ९ मन्त्रों के अन्त में ’मरुद्भिरग्न आ गहि’ कहा है। यहां मध्यम मरुत् स्थान् की अग्नि का अर्थ हनुमान् है।
स्वामी जी की व्याख्या के अतिरिक्त ऋक् (१/१९) के हर मन्त्र में में रामायण के हनुमत् चरित्र के कई घटनाओं का उल्लेख है तथा इसे हनुमान् सूक्त कहा जा सकता है-
(१) आक्रमण के समय जोर से हू शब्द करते हैं-प्र हूयसे। ननाद भीम निर्ह्रादो रक्षसां जनयन् भयम् (रामायण, ५/४३/१२)
(२) कोई देव या मर्त्य उनकी बराबरी नहीं कर सकता-नहि देवो न मर्त्यो महस्तव।
(३) सर्व शास्त्र जानने वाले-ये महो रजसो विदुः। - सर्वासु विद्यासु तपोनिधाने, प्रस्पर्धतेऽयं हि गुरुं सुराणाम्।
सोऽयं नवव्याकरणार्थवेत्ता, ब्रह्मा भविष्यत्यपि ते प्रसादात्॥ (वा. रामायण, ७/३६/४७)
(४) अजेय-अनाधृष्टास ओजसा।- न रावण सहस्रं मे युद्धे प्रतिबलो भवेत् (रामायण, ५/४३/१०)
(५) प्रचण्ड तेजस्वी तथा असुर नाशक-ये शुभ्रा घोर वर्पसः, सुक्षत्रासो रिशादसः।
(६) स्वर्ग देव शिव अवतार-ये नाकस्याधि रोचने दिवि देवास आसते।
(७) पर्वत ले जाने वाले (पर्वत से प्रहार, संजीवनी पर्वत उठा कर उड़ने वाले) तथा समुद्र पार करने वाले-य ईङ्खयन्ति पर्वतान्, तिरः समुद्रम् अर्णवम्।
(८) शरीर विस्तार से समुद्र जैसे-आ ये तन्वन्ति रश्मिभिः, तिरः समुद्र ओजसा।
(९) मधु सोम या लड्डू भोग-अभि त्वां पूर्व पीतये, सृजामि सोम्यं मधु।
इसके अतिरिक्त हनुमान के प्रणव रूप तथा नीलकण्ठ के मन्त्र रामायण में उल्लिखित हनुमत् चरित्र सम्बन्धी वेद मन्त्रों का संकलन कुछ लोगों ने किया है।
३. प्रणव रूप-(रामानुजाचार्य श्री पुरुषोत्तमाचार्य जी के अनुसार)-यह सूर्य के शिष्य हनुमान् जी की गुरु परम्परा में सुरक्षित है। विश्व वाक् तत्त्व का परिणाम है, जो २ प्रकार का है-अर्थवाक्, शब्द वाक्।
ॐ की व्युत्पत्ति अवति, अवाप्नोति आदि धातुओं से है।
अव रक्षण-गति-कान्ति-प्रीति, तृप्ति-अवगम-प्रवेश-श्रवण-स्वामी-अर्थ याचन-क्रिया-इच्छा-दीप्ति-अवाप्ति-आलिङ्गन-हिंसा-आदान-भाव-वृद्धिषु (धातु पाठ, १/३९६)
आप्लृ व्याप्तौ (५/१५) के पूर्व अव उपसर्ग से अवाप्नोति होता है = मिलना, पाना।
ॐ की शास्त्रीय व्याख्या में इतने अर्थ नहीं हैं, किन्तु हनुमत् चरित्र सभी प्रकार के अर्थ वाक् का समन्वय है।
गोपथ ब्राह्मण, पूर्व (१/१६-२८) में ॐ की विस्तृत व्याख्या है।
शब्दमय ॐ-एकाक्षर स्फोट है।
२ अक्षर के ॐ में ओ = ओत, म = मित। इस परब्रह्म में सभी मित हैं।
३ अक्षर का ॐ-विश्व या वैश्वानर, तैजस, प्राज्ञ विश्व के प्रतीक अ, उ, म हैं। (माण्डूक्य उपनिषद्)
४ अक्षर ॐ में अ, उ, म के अतिरिक्त विन्दु परात्पर ब्रह्म है।
अर्थ रूप ॐ वेद या विश्व का चतुर्धा विभाजन है।
ॐ के ३ अंग अ, उ, म-अव्यक्त विश्व हैं।
हनुमान् के ३ पूर्ण अक्षरों से व्यञ्जन निकालने पर ॐ के ३ अक्षर होते हैं। अर्धमात्रा विन्दु का रूप ’न्’ है। पुच्छ सहित हनुमान् का शरीर ही ॐ रूप में है।
४. आञ्जनेय-भौतिक शरीर रूप में हनुमान् अञ्जना के पुत्र थे। उनको पुञ्जिकस्थली अप्सरा कहा गया है (रामायण, ४/६६/८)। ब्रह्माण्ड् के अप् समुद्र में रमण करने वाले नक्षत्र ही अप्सरा हैं-नक्षत्राण्यप्सरसः (वाज यजु, १८/४०, शतपथ ब्राह्मण, ९/४/१/९)। इस अर्थ में हनुमान् का अर्थ दृश्य जगत् है, जो अव्यक्त पुरुष से प्रकट हुआ-पहले चतुष्पाद पूरुष, उससे निर्मित विश्व पुरुष, उसके बाद विराट् (पुरुष सूक्त, ३-५)।
अव्यक्त विश्व का व्यक्त रूप विराट् है जो अञ्जन परिग्रह के कारण दीखता है। अतः अव्यक्त ॐ में वि+अञ्जन लगाने पर हनुमान् शब्द बनता है। ॐ = अ + उ + म्। हनुमान् = (ह्)अ +(न्)उ + (म्)आ।
पण्डित मधुसूदन ओझा (ब्रह्म चतुष्पदी, तथा उनके शिष्य पण्डित मोतीलाल शर्मा (श्राद्ध विज्ञान-१, गीता बुद्धियोग परीक्षा-१) ने अव्यक्त निर्विशेष आत्मा के ६ परिग्रहों द्वारा दृश्य या विराट् जगत् निर्माण की व्याख्या की है-माया (शैव दर्शन के अनुसार ७ आवरण या कञ्चुक), कला (१६ भेद), गुण, विकार, अञ्जन, आवरण। आवरण द्वारा सीमाबद्ध पिण्ड बनते हैं। जिस प्रकार के आवरण से पिण्ड का रूप दीखता है, वह अञ्जन है। इसी अञ्जन परिग्रह रूप विश्व के रूप आञ्जनेय हनुमान् हैं।
स इमा विश्वा भुवनानि अञ्जत् (अथर्व, १९/५३/२)
अञ्जसा शासता रजः (ऋक्, १/१३९/४)
५. महावीर-यज्ञ सामग्री के पाचन के लिए आवरण या बर्तन को महावीर कहते थे (वाज यजु, १९/१४, शतपथ ब्राह्मण, १४/१/२/९/१७, १४/३/१/१३, १४/३/४/१६, १४/२/२/१३, ४०, पञ्चविंश ब्राह्मण, ९/१०/१, कौषीतकि ब्राह्मण, ८/३/७ आदि)। मनुष्य में वीरता की सीमा महावीर है। लोक भाषा में देश सीमा पर सैन्य स्थान को वीर कहते हैं, जैसे मत्स्य राज्य की सीमा को वीर मत्स्य कहा गया है (रामायण, २/७१/५)। वीरभोग्या वसुन्धरा के अर्थ में भोक्ता को भी वीर कहा गया है-अत्ता ह्येतमनु। अत्ता हि वीरः। (शतपथ ब्राह्मण ४/२/१/९)। आकाश में किसी क्षेत्र की सीमा को वीर कहते हैं, जो यज्ञ का शीर्ष भी है।
शिरो वा एतद् यज्ञस्य यत् महावीरः (कौषीतकि ब्राह्मण, ८/३)
असौ वै महावीरो योऽसौ सूर्यः तपति (कौषीतकि ब्राह्मण, ८/३/७)
सूर्य को घेरे हुए ताप का क्षेत्र (सूर्य से १०० सूर्य व्यास या योजन तक) महावीर है।
सूर्य का परम पद ब्रह्माण्ड ४९ अहर्गण तक है जिसकी सीमा भी महावीर है। इस अर्थ में वे ४९ मरुत् रूप हैं।
हनु = ज्ञान-कर्म की सीमा। ब्रह्माण्ड की सीमा पर ४९वां मरुत् है। ब्रह्माण्ड केन्द्र से सीमा तक गति क्षेत्रों का वर्गीकरण मरुतों के रूप में है। अन्तिम मरुत् की सीमा हनुमान् है। इसी प्रकार सूर्य (विष्णु) के रथ या चक्र की सीमा हनुमान् है। ब्रह्माण्ड विष्णु के परम-पद के रूप में महाविष्णु है। दोनों हनुमान् द्वारा सीमा बद्ध हैं, अतः मनुष्य (कपि) रूप में भी हनुमान् के हृदय में प्रभु राम का वास है।
६. मातरिश्वन्-वायु का एक रूप मातरिश्वा है, जो ब्रह्म का ही एक रूप है।
इन्द्रं मित्रं वरुणमग्निरथो दिव्यः स सुपर्णो गरुत्मान्।
एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्त्यग्निं यमं मातरिश्वानमाहुः॥ (ऋक्, १/१६४/४६, अथर्व, ९/१०/२८)
अप् में गति रूप वायु मातरिश्वा है, उसके द्वारा पदार्थों के मिश्रण से जो सृष्टि होती है, वह वायु पुत्र हनुमान् है।
अने॑ज॒देकं॒ मन॑सो॒ जवी॑यो॒ नैन॑द्देवा आ॑प्नुव॒न् पूर्व॒मर्श॑त्। तद्धाव॑तो॒ ऽन्यानत्ये॑ति॒ तिष्ठ॒त् तस्मि॑न्न॒पो मा॑त॒रिश्वा॑ दधाति॥४॥
(ईशावास्योपनिषद्, वाह. यजु, ४०/४)
यहां हनुमान् की मनोजव गति का भी उल्लेख है। ब्रह्म की यह गति हनुमान् है। मनोजवके २ अर्थ हैं-मन के समान तत्क्षण गति (अभिगमन-छन्दोमयेन गरुडेन समुह्यमानः, चक्रायुधोऽभ्यगमदाशु यतो गजेन्द्रः-गजेन्द्र मोक्ष)। अन्य अर्थ है मन की विचार क्षमता तेज होना जिसका वर्णन गायत्री के तृतीय पाद में है।
७. गायत्री में हनुमान् स्वरूप-गायत्री मन्त्र के ३ पादों के अनुसार ३ रूप हैं-स्रष्टा रूप में-सूर्या चन्द्रमसौ धाता यथापूर्वं अकल्पयत् (ऋक्, १०/१९०/३)
= पहले जैसी सृष्टि करने वाला वृषाकपि है। मूल तत्त्व के समुद्र से से विन्दु रूपों (द्रप्सः -ब्रह्माण्ड, तारा, ग्रह, -सभी विन्दु हैं) में वर्षा करता है वह वृषा है। पहले जैसा करता है अतः कपि है।
तद् यत् कम्पायमानो रेतो वर्षति तस्माद् वृषाकपिः, तद् वृषाकपेः वृषाकपित्वम्। (गोपथ ब्राह्मण, उत्तर, ६/१२)
आदित्यो वै वृषाकपिः। ( गोपथ ब्राह्मण, उत्तर, ६/१०)
स्तोको वै द्रप्सः। (गोपथ ब्राह्मण, उत्तर, २/१२)
इस प्रकार सृष्टि कर्त्ता ब्रह्म ही वृषाकपि हनुमान है-
तत्र गत्त्वा जगन्नाथं वासुदेवं वृषाकपिम्।
पुरुषं पुरुष सूक्तेन उपतस्थे समाहिताः॥ (भागवत पुराण, १०/१/२०)
ततो विभुः प्रवर वराह रूपधृक् वृषाकपिः प्रसभमथैकदंष्ट्रया। (हरिवंश पुराण, ३/३४/४८)
अतः मनुष्य का अनुकरण करने वाले पशु को भी कपि कहते हैं। तेज का स्रोत विष्णु है, उसका अनुभव शिव है और तेज के स्तर में अन्तर के कारण गति मारुति = हनुमान् है। वर्गीकृत ज्ञान ब्रह्मा है या वेद आधारित है। चेतना विष्ुह है, गुरु शिव है। उसकी शिक्षा के कारण जो उन्नति होती है वह मनोजव हनुमान् है।
अक्षण्वन्तः कर्णवन्तः सखायो मनोजवेष्व समा बभूवुः।
आदध्नास उपकक्षास उत्वेह्रदा इव स्नात्वा उत्वे ददृशे॥ (ऋग्वेद,१०/७१/७)
हृदा तष्टेषु मनसो जवेषु यद्ब्राह्मणाः संयजन्ते सखायः।
अत्राह त्वं विजहुर्वेद्याभि रोह ब्रह्माणो विचरन्तु त्वे॥ (ऋग्वेद, १०/७१/८)
इसका क्रिया रूप योग सूत्र में है-
ग्रहण स्वरूपास्मितान्वयार्थवत्व संयमादिन्द्रिय जयः। (योग सूत्र, ३/४७)
ततो मनोजवित्वं विकरण भावः प्रधान जयश्च। (योग सूत्र, ३/४८)
= इन्द्रिय संयम, अर्थात् मन द्वारा ज्ञान और कर्म इन्द्रियों का समन्वय (हनुमान् रूप) से मनोजवित्व होता है।
८. आध्यात्मिक अर्थ-यह तैत्तिरीय उपनिषद् में दिया है-दोनों हनु के बीच का भाग ज्ञान और कर्म की ५-५ इन्द्रियों का मिलन विन्दु है। जो इन १० इन्द्रियों का उभयात्मक मन द्वारा समन्वय करता है, वह हनुमान् है।
तैत्तिरीय उपनिषद् शीक्षा वल्ली, अनुवाक ३-अथाध्यात्मम्। अधरा हनुः पूर्वरूपं, उत्तरा हनुरुत्तर रूपम्। वाक् सन्धिः, जिह्वा सन्धानम्। इत्यध्यात्मम्।
मस्तिष्क के ऊपर सहस्रार से कुछ पीछे जहां चोटी रखते हैं, वह विन्दु चक्र है। वहां हनुमान का स्थान है जिससे अमृत स्राव होता है।
हृदयेऽष्टदले हंसात्मानं ध्यायेत्। अग्निषोमौ पक्षौ, ॐकारः शिरो विन्दुस्तु नेत्रं मुखो रुद्रो रुद्राणि चरणौ बाहूकालश्चाग्निश्च ... एषोऽसौ परमहंसो भानुकोटिप्रतीकाशः। (हंसोपनिषद्)
सुषुम्नायै कुण्डलिन्यै सुधायै चन्द्र मण्डलात्।
मनोन्मन्यै नमस्तुभ्यं महाशक्त्यै चिदात्मन्॥ (योगशिखोपनिषद्, ६/३)
ॐकार का आकार भी हनुमान् के मुख तथा मस्तिष्क रूप में है।
९. सृष्टि सन्तति-मनुष्य का ७ पीढ़ी तक आनुवंशिक गुणों का सञ्चार भी मरुत् है। गुणों की गति में कुछ नष्ट होता है, पूरा नहीं जाता। अतः इसे ’क्षरन्ति शिशवः’ कहा है।
सप्त क्षरन्ति शिशवे मरुत्वते पित्रे पुत्रासो अप्यवीवतन्नृतम्। (ऋक्, १०/१३/५, अथर्व, ७/४७/२)
मारुतो वत्सतर्य्यः। (ताण्ड्य महाब्राह्मण, २१/१४/१२)
आकाश में भी अव्यक्त पुरुष से क्रमशः ७ लोक बनते हैं जिनका विस्तार ७ समुद्र हैं-
सुदेवो असि वरुण यस्य ते सप्तसिन्धवः। अनु क्षरन्ति काकुदं सूर्म्यं सुषिरामिव॥ (ऋक्, ८/६९/१२)
अस्मा आपो मातरं सप्त तस्थुः (ऋक्, ८/९६/१)
१०. हनु सीमा-२ प्रकार की सीमाओं को हरि कहते हैं-पिण्ड या मूर्त्ति की सीमा ऋक् है, उसकी महिमा साम है-
ऋक्-सामे वै हरी (शतपथ ब्राह्मण, ४/४/३/६)।
पृथ्वी सतह पर हमारी सीमा क्षितिज है। उसमें २ प्रकार के हरि हैं-वास्तविक भूखण्ड जहां तक दृष्टि जाती है, ऋक् है। वह रेखा जहां राशिचक्र से मिलती है वह साम हरि है। इन दोनों का योजन शतपथ ब्राह्मण के काण्ड ४ अध्याय ४ के तीसरे ब्राह्मण में बताया है अतः इसको हारियोजन ग्रह कहते हैं। हारियोजन से होराइजन हुआ है।
अथ हारियोजनं गृह्णाति । छन्दांसि वै हारियोजनश्छ्न्दांस्येवैतत् सन्तर्पयति तस्माद्धारियोजनं गृह्णाति (शतपथ ब्राह्मण, ४/४/३/२)
एवा ते हारियोजना सुवृक्ति (ऋक्, १/६१/१६, अथर्व, २०/३५/१६)
हारियोजन या पूर्व क्षितिज रेखा पर जब सूर्य आता है, उसे बाल सूर्य कहते हैं। मध्याह्न का युवक और सायं का वृद्ध है। इसी प्रकार गायत्री के रूप हैं। जब सूर्य का उदय दीखता है, उस समय वास्तव में उसका कुछ भाग क्षितिज रेखा के नीचे रहता है और वायुमण्डल में प्रकाश के वलन के कारण दीखने लगता है। सूर्य सिद्धान्त (४/१) में सूर्य का व्यास ६५०० योजन कहा है, यह भ-योजन = २७ भू-योजन = प्रायः २१४ किमी. है। इसे सूर्य व्यास १३,९२,००० किमी. से तुलना कर देख सकते हैं। वलन के कारण जब पूरा सूर्य बिम्ब उदित दीखता है तो इसका २००० योजन भाग (प्रायः ४,२८,००० किमी.) हारियोजन द्वारा ग्रस्त रहता है (सूर्य सिद्धान्त, ४/२६)। इसी को कहा है-बाल समय रवि भक्षि लियो ...)। इसके कारण ३ लोकों पृथ्वी का क्षितिज, सौरमण्डल की सीमा तथा ब्रह्माण्ड की सीमा पर अन्धकार रहता है। यहां युग सहस्र का अर्थ युग्म-सहस्र = २००० योजन है जिसकी इकाई २१४ कि.मी. है।
११. मनुष्य रूप-पराशर संहिता के अनुसार उनके मनुष्य रूप में ९ अवतार हुये थे। एक जन्म में सूर्य शिष्य रूप में सूर्य सिद्धान्त पढ़ा था। बाइबिल के इथियोपीय प्राचीन संस्करण में उनको इनौक कहा गया है जिनकी अलग पुस्तक ज्योतिष विषय में है। उसके अध्यायों ७८-८२ में प्राचीन कैलेण्डर दिया है जो स्वायम्भुव मनु के समय था। उत्तरायण-दक्षिणायन के २-२ भाग कर वर्ष के ४ भाग होते थे। विषुव के उत्तर या दक्षिण ३ वीथियां १२, २०, २४ अंश के अन्तर पर थीं जिनमें सूर्य १-१ मास रहता था। पण्डित मधुसूदन ओझा ने (आवरणवाद, १२३-१३२) पुस्तक में इनमें दिन मान के अन्तर के आधार पर गायत्री (२४ अक्षर) से जगती (४८ अक्षर) तक के ७ छन्द रूप में वर्णन किया है। इसकी चर्चा ऋग्वेद (१/१६४/१-३, १२, १३, १/११५/३, ७/५३/२, १०/१३०/४), अथर्व वेद (८/५/१९-२०), वायु पुराण, अध्याय २, ब्रह्माण्ड पुराण अ. (१/२२), विष्णु पुराण (अ. २/८-१०) आदि में है। हनुमान् को कुरान में हनूक कहा गया है।
हनुमान के नाम से एक शकुन ग्रन्थ प्रसिद्ध है, जिसे हनुमत् ज्योतिष कहते हैं।
सर्वज्ञ शंकरेंद्र की वाल से साभार

महर्षि काकभुशुण्डि,,,

 महर्षि काकभुशुण्डि,,,

जितना अज्ञानमूलक व्यवहार हमने अपने पूर्वजों,अपने इतिहास के साथ किया है उतना किसी सभ्यता या राष्ट्र ने नहीं किया,,वे अपने कंकड़ को भी पहाड़ बताते हैं और हम अपने ब्रह्मवेत्ता ऋषियों को भी #काग,,कौवा बताने कहने से नहीं चूकते,,#एथेंस की कुल आबादी ही उस समय पांच हज़ार थी जब सुकरात चौराहों पर खड़ा होकर कुछ बोलता था,, पांच दस सुनने वाले रहते थे,, फिर भी उन्होंने सुकरात को दर्शनशास्त्र का पिता बना दिया,,
हमने क्या किया??,,झूठी गप्पों कथाओं के माध्यम से ब्रह्मवेत्ता,महाबलशाली,आदित्य ब्रह्मचारी,,संगीत शास्त्र के तीन महान आचार्यों में से एक,,श्रीराम भक्त #हनुमान को बंदर बना लिया,, महर्षि काकभुषुण्डि को कौवा मान लिया,,,
महर्षि #श्रृंगी कहते हैं कि वे अंगिरस गोत्रीय महर्षि #रेणुकेतु प्रवाहण के पुत्र थे,, बचपन में जब वे महर्षि श्रुति के आश्रम में पढ़ते थे तब उनका नाम था ब्रह्मचारी #सोजनी,, लेकिन कागा नाम पड़ने के पीछे एक मधुर कथा है,, जब वे बालक थे तब अपने भोजन के पात्र के अलावा माता और पिताजी के पात्रों को भी #झूठा कर देते थे चखकर,, हंसी हंसी में माता ने कहा जैसे कागा पेट भरा होने पर भी कई जगह चोंच मारता है ऐसे ही यह नटखट बालक है,,तो वे बालक को कागा बुलाने लगी,,
जब वे सोजनी ब्रह्मचारी #श्रुति ऋषि के आश्रम में वेदाध्ययन कर रहे थे तब किसी भी बात का जवाब एकदम सटीक और तुरन्त देते थे,, आजकल जिसको #प्रत्युतपन्न मति हाज़िर जवाबी या top आई क्यू बोलते हैं,,
सामान्य #संस्कृत का परिचय रहने वाला भी जानता है कि संस्कृत में #बंदूक को भुशुण्डि बोलते हैं,, तो उनके जो सहपाठी ब्रह्मचारी थे महर्षि लोमश वे उन्हें उनकी प्रत्युतपन्न मेधा के कारण गोली की तरह जवाब देने वाला यानी कहते हैं न कि एकदम फायर करता है,, भुशुण्डि कहने लगे,,
महर्षि काकभुशुण्डि #आयुर्वेदाचार्य तो थे ही,,वर्णन आता है कि जब वे प्रभु श्रीराम से मिले उस समय उनकी उम्र 684 वर्ष थी,, महाराजा राम ने जब कहा कि हे महर्षि आप तो आयुर्वेद के बारे में सबकुछ जानते हैं,, इतना आपने कैसे जाना??,,तब महर्षि #काकभुशुण्डि ने कहा कि हे राम,, मैंने 400 वर्ष आयुर्वेद के अध्धयन और औषधियों की खोज में लगाए हैं,, फिर भी मैं बहुत कम ही जानता हूँ,,
आयुर्वेद पर एक महान ग्रन्थ--#चन्द्रयाणकृत पोथी की रचना की उन ऋषि ने,,
बाद में विज्ञान में रुचि और शोध बुद्धि के चलते ब्रह्मांडो और गलेक्सीयों की गणना और खोज पर एक #सविता नामक महान ग्रन्थ रचा,,
आजकल #हॉलीवुड फिल्मों में देखते हैं कि एक ऐसी मिसाइल छोड़ते हैं जो टारगेट के पीछे लगी रहती है,, टारगेट कितना भी मुड़ तुड़ जाए एकदम दिशा बदलकर उल्टा घूम जाए वह पीछे ही लगी रहती है,, महर्षि श्रृंगी कहते हैं कि महर्षि काकभुशुण्डि ने उस समय एक ऐसे ही यंत्र का आविष्कार किया था जिसका नाम--#कागाम #चथवेतु यंत्र था,, जिसको बनाने की प्रेरणा उन्हें कौवे को ऐसे उल जलूल उड़ते देखकर मिली,,,
ऋषियों का एक मत यह भी है कि उस कागाम चथवेतु यंत्र के कारण ही इनका नाम काग पड़ा,, #भुशुण्डि तीव्र मेधा के चलते,,
पता नहीं कैसी #पामर बुद्धि होती है जो अपने पूर्वजों को कौवे बंदर बनाने पर तुल जाती है,, और मजा ये कि हम मान भी बैठते हैं,, वामपंथियों के लिखे कूड़े कर्कट से बाहर निकलकर अपने पराक्रमी पूर्वजों,#ब्रह्मवेत्ता ऋषियों को जानें,, उनका व्यापक अध्धयन करें,
साभार : स्वामी सूर्यदेव जी

Friday, 14 January 2022

नीच भंग राजयोग

 नीच भंग राजयोग

कुंडली में कोई ग्रह अपनी नीच राशि में स्थित हो तो वह अशुभ परिणाम देने वाला माना जाता है लेकिन यदि उस ग्रह का नीचत्व समाप्त अथवा भंग हो जाए अर्थात् नीच भंग राजयोग का निर्माण हो जाए तो वह ग्रह अपनी नीच अवस्था के फल ना देकर शुभ फल देने में सक्षम हो जाता है।
नीच भंग राजयोग वैदिक ज्योतिष के अनुसार एक प्रबल राजयोग है जो व्यक्ति को सक्षम और समर्थ बनाता है तथा अपने कर्मों के द्वारा व्यक्ति जीवन में सभी प्रकार की चुनौतियों को पीछे छोड़कर जीवन में सफलता के मार्ग पर अग्रसर होता है। जैसा कि नाम से ही पता चलता है कि नीच भंग राजयोग के लिए कुंडली में किसी ग्रह का नीच होना पहली अनिवार्य शर्त है।
नीचस्थितो जन्मनि यो ग्रहः स्यात्तद्राशिनाथोऽपि तदुच्चनाथः।
स चन्द्रलग्नाद्यदि केन्द्रवर्ती राजा भवेद्धार्मिकचकर्वर्ती ।।२६।।
नीच भंग राजयोग तब बनता ,है जब कुंडली में कोई नीच ग्रह इस प्रकार विराजमान हो कि उसकी नीच अवस्था समाप्त अर्थात् भंग हो जाए और वह प्रबल रूप से राजयोग कारक ग्रह बन जाए तो वह नीच भंग राजयोग कहलाने लगता है।
नीच भंग राजयोग की पहली शर्त यह होती है कि कोई ग्रह नीच राशि में स्थित होना चाहिए अर्थात् ग्रह जब नीच राशि में होगा, तभी हम इस राज योग के बारे में विचार कर सकते हैं। लेकिन किसी ग्रह का नीच राशि में होना सदैव भंग नहीं हो सकता, इसलिए नीच भंग होने के लिए कुछ आवश्यक शर्तों का होना भी जरूरी है, जिनकी उपस्थिति किसी भी ग्रह की नीच अवस्था को समाप्त या निष्फल कर देती है और वह ग्रह नीच स्थिति से बाहर निकलकर नीच भंग राजयोग के परिणाम देने लगता है। ये विशेष नियम जिनमें नीच भंग राजयोग का निर्माण होता है, आप निम्नलिखित विवरण के आधार पर आसानी से समझ सकते हैं:
नीच भंग राजयोग के लिए एक नियम यह है कि यदि किसी जन्म कुंडली में कोई ग्रह अपनी नीच राशि में स्थित है और उस राशि का स्वामी यदि चंद्रमा द्वारा अधिष्ठित राशि से केंद्र भाव में स्थित हो तो नीच भंग राजयोग का निर्माण होता है। अर्थात् वह ग्रह नीच अवस्था से बाहर निकल जाता है और अच्छे परिणाम देने लग जाता है।
एक अन्य नियम के अनुसार जब कोई ग्रह कुंडली में नीच राशि में स्थित हो तो उस नीच राशि का उच्च नाथ (जो ग्रह उच्च राशि में उच्च स्थिति में माना जाता हो) चंद्रमा से केंद्र भाव की राशि में स्थित हो तो नीच भंग राजयोग का निर्माण होता है।
एक अन्य नियम के अनुसार यदि कोई ग्रह नीच राशि में स्थित है लेकिन उस राशि का स्वामी ग्रह, जिसमें वह ग्रह नीच अवस्था में है, कुंडली के लग्न से केंद्र भाव में अर्थात् प्रथम, चतुर्थ, सप्तम या दशम भाव में विराजमान हो तो नीच भंग राजयोग बन जाता है।
एक नियम यह भी कहता है कि ग्रह जिस राशि में नीच अवस्था में है, उस नीच राशि का उच्च नाथ कुंडली के लग्न से केंद्र भाव में स्थित हो तो भी नीच भंग राज योग निर्मित होता है।
एक ग्रह अपनी नीच राशि में स्थित है और उस नीच राशि का स्वामी ग्रह अपनी उच्च राशि को देख रहा हो अर्थात् दृष्टि दे रहा हो तो नीच भंग राज योग निर्मित होता है।
वैदिक ज्योतिष के अनुसार जिस राशि में नीच अवस्था में कोई ग्रह बैठा हो, उस राशि में उच्च अवस्था में माने जाने वाला ग्रह चंद्रमा द्वारा अधिष्ठित राशि से केंद्र भाव में हो तो नीच भंग राज योग निर्मित होता है।
नीच भंग राजयोग के निर्माण की एक स्थिति यह भी है कि जिस राशि में नीच अवस्था में कोई ग्रह बैठा है, उस राशि में उच्च स्थिति वाला ग्रह कुंडली में लग्न से केंद्र भावों में स्थित हो तो ऐसी स्थिति में नीच भंग राजयोग बन जाता है और उस ग्रह का नीचत्त्व समाप्त हो जाता है।
नीच भंग राजयोग के निर्माण की एक स्थिति यह भी है कि जिस राशि में कोई ग्रह नीच अवस्था में स्थित है, उसी राशि में कोई ग्रह अपनी उच्च अवस्था में स्थित हो तो स्वतः ही नीच भंग राजयोग निर्मित हो जाता है।
वैदिक ज्योतिष में जन्म कुंडली के साथ-साथ नवमांश कुंडली उनको भी अत्यंत महत्व दिया गया है। इसी को ध्यान में रखते हुए एक अन्य नियम यह भी है कि यदि कोई ग्रह जन्म कुंडली में अपनी नीच राशि में स्थित है लेकिन नवमांश कुंडली में यदि वही ग्रह अपनी उच्च राशि में स्थित होता है तो नीच भंग राजयोग बन जाता है और उस ग्रह के नीच स्थिति के फलों की स्थिति में परिवर्तन आ जाता है और वह अच्छे परिणाम देने लगता है।
उपरोक्त के अतिरिक्त एक अन्य नियम यह भी है कि यदि कोई ग्रह नीच राशि में स्थित है और उस नीच राशि में जो ग्रह उच्च अवस्था में माना जाता हो, वे दोनों ग्रह एक दूसरे से केंद्र में हों तो नीच भंग राज योग निर्मित होता है।
किसी की कुंडली में राजयोग का निर्माण होना बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है क्योंकि किसी भी कुंडली में राजयोग जितने अधिक संख्या में विराजमान होते हैं अथवा ज्यादा मजबूत होते हैं तो वह व्यक्ति के जीवन स्तर को उतना ही उत्तम बना देते हैं और उसे जीवन में यश, महान सफलता, कीर्ति, लक्ष्मी सभी कुछ प्रदान करते हैं। यदि हम नीच भंग राजयोग के फलों की बात करें तो इस योग में जन्म लेने से आपको अनेक प्रकार के सुखों की प्राप्ति होती है और आप जीवन में कुछ समस्याओं के उपरांत प्रगति अवश्य करते हैं। आप किसी राजा के समान सुखों का भोग करते हैं और आपको अखंड लक्ष्मी की प्राप्ति होती है। नीच भंग राज योग के कारण आपके जीवन में धीरे धीरे सफलता आनी शुरू हो जाती है और आप काफी मजबूत स्थिति में खड़े होते हैं। यदि जन्म कुंडली में उचित समय पर नीच भंग राज योग निर्मित करने वाले ग्रह की महादशा अथवा अंतर्दशा आती है तो वह व्यक्ति को परिणाम देने में देर नहीं लगाती और व्यक्ति जीवन में सभी सफलताओं को प्राप्त करता है।

'संस्काराद्विज उच्यते' ...

 'संस्काराद्विज उच्यते' ...

कहकर प्रत्येक संस्कार का समान महत्व बताया है और समझाया है कि संस्कारों की शृंखला में यदि किसी एक का भी विलोप होने लगेगा तो धीरे-धीरे सब लुप्त हो जाएंगे। तथापि यह निश्चित है कि द्विजत्वाधायक मुख्य संस्कार मात्र 'उपनयन' ही है। हम इसी एक संस्कार के संकल्प में 'द्विजत्वसिद्धये' पढ़ते हैं। यह भी प्रत्यक्ष है कि यज्ञोपवीत के बाद ही बालक द्विज कहलाने का अधिकारी बनता है। उपनयन को ही द्विजत्वाधायक क्यों माना गया, इसका विवेचन शास्त्रों में अनेकत्र हुआ है। तथापि यहां संक्षेप में कहा जा सकता है कि यज्ञोपवीत के समय बटु, सर्वात्मना आचार्य के समर्पित हो जाता है और वह उसे नया जन्म देता है। माता-पिता के द्वारा तो बटुक के स्थूल शरोर का ही निर्माण होता है। उसका संस्कारात्मक शरीर निर्मित होता है आचार्य और उसके द्वारा प्रदत्त ज्ञान के द्वारा इसके उपनेता आचार्य को बटुक का उपनयन करने से पूर्व स्वयं भी त्रिरात्र कृच्छव्रत रखना होता है, इन दिनों में उसकी भावनाएं ऐसी बनी रहती हैं मानो वह स्वयं बटुक को (नया) जन्म दे रहा है। इस सम्बंध में वेद भगवान् ने सब कुछ स्वयं स्पष्ट कर दिया है...
" उपनयमानो ब्रह्मचारिणं कृणुते गर्भमन्तः ।
तं रावीस्तित्र उदरे विर्भात तं जातं द्रष्टुमभिसंयन्ति देवाः ।"
अर्थात् व्रतयुक्त आचार्य तीन रात्रि तक ऐसी भावना बनाए रहे कि उसने बटुक को अपने उदर में धारण किया हुआ है। इस प्रकार तीन रात्रि पश्चात् आचार्य के गर्भ से प्रकट हुए (नया जन्म ग्रहण किए हुए) उस ब्रह्मचारी को देखने के लिए स्वयं देवता भी आया करते हैं।
विष्णुस्मृति में वेद के उक्त आदेश को ही...
" कृच्छ्रत्रयं चोपनेता त्रींश्च कृच्छ्रान्बटुश्चरेत् ।"
अपने शब्दों में दुहराया गया है कालिदास ने भी....
"श्रुतेरिवार्थं स्मृतिरन्वगच्छत्"
कथन का समर्थन किया है। स्मरण रहे कि यज्ञोपवीत से पूर्व बटुक के लिए भक्ष्याभक्ष्य का विपयय हो गया हो, या असत्प्रतिग्रह ग्रहण कर लिया गया हो तो उसके प्रायश्चित्त के लिये ब्रह्मचारी एवं उसके पिता के लिये भी कृच्छत्रय का विधान किया गया है। बटुक का मुण्डन भी किया जाता है और उसे पंचगव्य आदि खिलाया. पिलाया जाता है। इस प्रकार जब सब प्रकार से शुद्ध, पवित्र और निर्मल रूप धारण किए बटुक विद्याध्ययन के प्रवेश द्वार के प्रतीक सावित्री उपदेश के लिए गुरु की सेवा में उपस्थित होता है तो लगता है कि सचमुच उसका नया जन्म हो रहा है या अब वह 'द्विज' बन रहा है।
यज्ञोपवीत और उसके तीन सूत्र....
'वेञ' तन्तु सन्ताने धातु का अर्थ है बुनना। इसीलिए कपड़ा बुनने वाले को तन्तुवाय (धागों से कपड़ा बुनने वाला) कहा जाता है। इसी आधार पर यह कल्पना की गई है कि आरम्भ में यज्ञोपवीत कोई कंधे पर धारण किया जाने वाला वस्त्र विशेष रहा होगा। किन्तु 'वीत' से ही पंजाबी और हिन्दी का भी 'बटना' भी तो बनता है। रस्सी और धागा बटा जाता है बुना नहीं जाता। इसी आधार पर यह भी कहा जा सकता है कि आरम्भ से ही उपवीत त्रिसूत्रात्मक रहा होगा। कुछ भी हो यह तो निश्चित है कि उपवीत से हमारा परिचय त्रिसूत्रात्मक रूप में ही हुआ है उससे पूर्व भले ही उसका कुछ भी रूप क्यों न रहा हो। यज्ञोपवीत के सूत्र तीन ही क्यों होते हैं, इसके लिए यू तो वृद्धसारस्वत ऋषि-प्रोक्त भगवती पराम्बा त्रिपुर सुन्दरी की स्तुति -
" देवानां वितयं नयी हुतभुजां शक्तिवयं त्रिस्वराः त्रैलोक्यं त्रिपदी त्रिपुष्करमथो विब्रह्म वर्णास्त्रयः । यत्किचिज्जगति विधा नियमितं वस्तु त्रिवर्गादिकम् तत्सर्वं त्रिपुरेति नाम भगवत्यन्वेति ते तत्त्वतः ॥"
के अनुसार विश्व का सम्पूर्ण त्रिरूप तत्त्व उपवीत के त्रिसूत्र में समाविष्ट है। इसके • अतिरिक्त भी आध्यात्मिक आदि अन्य अनेक व्याख्याएं भी यहाँ अभिप्रेत हैं। यज्ञो पवीत में ध्यान देने योग्य पहली बात यह है कि अलग-अलग तीन सूत्र नहीं होते। एक ही सूत्र त्रिगुणित होता है। इसमें सृष्टिविज्ञान निहित है। ब्रह्म क्यभावापन्न पूज्यपाद आचार्यचरण अमृतवाग्भव जी महाराज ने अपने आत्मविलास में सृष्टि विकास की प्रक्रिया समझाते हुए लिखा है कि मूल तत्त्व एक ही है आरम्भ में उससे दो तत्त्व (प्रकृति और पुरुष) विकसित होते हैं, ये तीनों सृष्टि-चक्र के आद्य तत्त्व हैं अर्थात् एक तीन बन जाता है। उपवीत में भी एक ही सूत्र त्रिगुणित है। यहां उस एक की प्रतीक ब्रह्मग्रन्थि भी सबसे ऊपर बनी रहती है। उपवीत के एक-एक में पुनः तीन-तीन तन्तु हैं। अभिप्राय यह है कि मूल त्रितत्त्व भी पुनः तीन-तीन की संख्या में विकसित होता है और इस प्रकार 'नव द्रव्यात्मक' जगत् का निर्माण होता
है। इसी के प्रतीक हैं यज्ञोपवीत नौ तन्तु नो की त्रिगुणित संख्या २७ है। साव्य योगोक्त २५ तत्त्वों के ऊपर सदाशिव और शिव तत्त्व है। इस प्रकार मूल तत्त्व हुए सत्ताइस। सृष्टि-चक्र के संचालन में इच्छा, ज्ञान और क्रिया को समन्विति होनी चाहिए। इनके पृथक् रहने से विश्व की एकांगी उन्नति भले हो हो जाय, सर्वागीण विकास नहीं हो पाता। श्रीयुत जयशंकर प्रसाद जो ने कामायनी में इच्छा, ज्ञान और किया इन तीनों बिन्दुओं के एकीकरण का वैज्ञानिक रहस्य समझाने का प्रयत्न किया है। यज्ञोपवीत की ब्रह्म ग्रन्थि के द्वारा इन तीनों सूत्रों के एकीकरण का यह भी एक रहस्य है। मूलाधार चक्र (जिसका संयोग गुदा से है) से मस्तिष्क प्रदेश की त्रिकुटि में स्थित आज्ञा चक्र तक सीधे स्थित मेरुदण्ड के सहारे हमारा शरीर टिका हुआ है और इस मेरुदण्ड में है इड़ा, पिंगला और सुषुम्णा नामक तीन नाड़ियां। सुषुम्णा में ही पट्चक्र हैं, जिनमें से ग्रीवा में स्थित पांचवे विशुद्धि चक्र से होकर आकाशगुणात्मक शब्द का प्रादुर्भाव होता है और शिव बाज्ञा चक्र से ऊपर सहस्रार दल में प्रतिष्ठित है। ब्रह्मरन्ध्र भी यही है। ऊपर ग्रीवा से नीचे कटि या गुदा तक आने वाले उपवीत के त्रिसूत्र इडा पिंगला और सुषुम्णा के बाह्य प्रतीक हैं। इन सबसे ऊपर विद्यमान ब्रह्मग्रन्थी है ब्रह्मरन्ध्र का सही सूचक, जहां त्रिगुणात्मक शिव का अधिष्ठान है, यहीं से त्रिगुणमयी ये तीनों नाड़ियां पृथक् होती हैं। ऊपर कष्ठ (विशुद्धि चक्र) से नीचे मूलाधार तक आने वाले उपबीत के त्रिसूत्र अपने में ऐसे अनेक तत्त्व समेटे हुए हैं। आरम्भ में भले ही उपवीत कोई वस्त्र-विशेष रहा हो, किन्तु सूत्रकाल में और विक्रम की प्रथम शती के आसपास के शूद्रक के समय में उपवीत अवश्य त्रिगुणात्मक ही था, क्योंकि मृच्छकटिक के पात्र शक्लिक को यज्ञोपवीत से सेंध नापने को डोरी का काम लेते हुए दिखाया गया है। कालिदास ने तो विक्रमोर्वशीय में नारद जी के लिये स्पष्ट शब्दों में कहा है कि उन्होंने चन्द्रमा के समान शुभ्र उपवीत सूत्र धारण किया हुआ था
"संलक्ष्यतेशशिकलामलवोतसूत्रः।" (विक्रमोवंशीय ५/१६)
साथ ही त्रिसूत्र व्यक्ति को सदा यह स्मरण दिलाते रहते हैं कि इन त्रिसूत्रों को धारण करने के लिये मुझे, मेरे पिता को और आचार्य को भी त्रिरात्र कृच्छ्रव्रत रखना पड़ा था, अतः इनकी पवित्रता सदा बनाए रखनी है, और इनके द्वारा विहित कर्मों का सदा पालन करना है, तभी इनकी सार्थकता है।
त्रिस्कंध ज्योतिर्विद् शशांक शेखर शुल्ब की वाल से साभार

प्राणेहि प्रजापतिः

 प्राण

वेदों में प्राणतत्व की महिमा का गान करते हुए उसे विश्व की सर्वोपरि शक्ति माना है।
प्राणों विराट प्राणो देष्ट्री प्राणं सर्व उपासते। प्राणो ह सूर्यश्चन्द्रमाः प्राण माहुः प्रजापतिम्॥ -अथर्ववेद
अर्थात्- प्राण विराट है, सबका प्रेरक है। इसी से सब उसकी उपासना करते हैं। प्राण ही सूर्य, चन्द्र और प्रजापति है।
प्राणाय नमो यस्य सर्व मिदं वशे। यो भूतः सर्वस्येश्वरो यस्मिन् सर्व प्रतिष्ठम्। -अथर्ववेद
अर्थात्- जिसके अधीन यह सारा जगत है, उस प्राण को नमस्कार है। वही सबका स्वामी है, उसी में सारा जगत प्रतिष्ठित है।
ब्राह्मण ग्रंथों और आरण्यकों में भी प्राण की महत्ता का गान एक स्वर से किया गया है- उसे ही विश्व का आदि निर्माण, सबमें व्यापक और पोषक माना है। जो कुछ भी हलचल इस जगत में दृष्टिगोचर होती है उसका मूल हेतु प्राण ही है।
कतम एको देव इति। प्राण इति स ब्रह्म नद्रित्याचक्षते। -बृहदारण्यक
अर्थात्- वह एकदेव कौन सा है? वह प्राण है। ऐसा कौषितकी ऋषि से व्यक्त किया है।
‘प्राणों ब्रह्म’ इति स्माहपैदृश्य।
अर्थात्- पैज्य ऋषि ने कहा है कि प्राण ही ब्रह्मा है।
प्राण एव प्रज्ञात्मा। इदं शरीरं परिगृह्यं उत्थापयति। यो व प्राणः सा प्रज्ञा, या वा प्रज्ञा स प्राणः। -शाखायन आरण्यक 5।3
अर्थात्- इस समस्त संसार में तथा इस शरीर में जो कुछ प्रज्ञा है, वह प्राण ही है। जो प्राण है, वही प्रज्ञा है। जो प्रज्ञा है वही प्राण है।
सोऽयमाकाशः प्राणेन वृहत्याविष्टव्धः तद्यथा यमाकाशः प्राणेन वृहत्या विष्टब्ध एवं सर्वाणि भूतानि आपि पीलिकाभ्यः प्राणेन वृहत्या विष्टव्धानी त्येवं विद्यात्। -एतरेय 2।1।6
अर्थात्- प्राण ही इस विश्व को धारण करने वाला है। प्राण की शक्ति से ही यह ब्रह्मांड अपने स्थान पर टिका हुआ है। चींटी से लेकर हाथी तक सब प्राणी इस प्राण के ही आश्रित हैं। यदि प्राण न होता तो जो कुछ हम देखते हैं कुछ भी न दीखता।
शतपथ ब्राह्मण में कहा गया है कि :--
प्राणेहि प्रजापतिः 4।5।5।13
प्राण उ वै प्रजापतिः 8।4।1।4
प्राणः प्रजापति 6।3।1।9
अर्थात्-प्राण ही प्रजापति परमेश्वर है।
सर्व ह्रीदं प्राणनावृतम्। -एतरेय
अर्थात्- यह सारा जगत प्राण से आदृत है।
उपनिषदों में
उपनिषदकार का कथन है-
प्राणोवा ज्येष्ठः श्रेष्ठश्च। - छान्दोग्य
अर्थात्- प्राण ही बड़ा है। प्राण ही श्रेष्ठ है।
प्रश्नोपनिषद में प्राणतत्व का अधिक विस्तारपूर्वक विवेचन किया गया है-
स प्राणमसृजत प्राणाच्छ्रद्धां खं वायुर्ज्योतिरापः पृथिवीन्द्रियं मनोऽन्नाद्धीर्य तपोमंत्राः कर्मलोकालोकेषु च नाम च। -प्रश्नोपनिषद् 6।4
अर्थात्- परमात्मा ने सबसे प्रथम प्राण की रचना की। इसके बाद श्रद्धा उत्पन्न की। तब आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी यह पाँच तत्व बनाये। इसके उपरान्त क्रमशः मन, इन्द्रिय, समूह, अन्न, वीर्य, तप, मंत्र, और कर्मों का निर्माण हुआ। तदन्तर विभिन्न लोक बने।
भृगुतंत्र में
प्राण शक्ति ने भाण्डागार वाले स्वरूप को जान लेने पर ऋषियों ने कहा है कि कुछ भी जानना शेष नहीं रहता है।
भृगुतंत्र में कहा गया है-
उत्पत्ति मायाति स्थानं विभुत्वं चैव पंचधा। अध्यात्म चैब प्राणस्य विज्ञाया मृत्यश्नुते॥
अर्थात्- प्राण कहाँ से उत्पन्न होता है? कहाँ से शरीर में आता है? कहाँ रहता है? किस प्रकार व्यापक होता है? उसका अध्यात्म क्या है? जो इन पाँच बातों को जान लेता है वह अमृतत्व को प्राप्त कर लेता है।