Wednesday, 2 October 2024

दीपावली कब 31 अक्टूम्बर या 1 नवम्बर 2024

 इस बार दीपावली कब मनाई जाए

31 अक्टूम्बर या 1 नवम्बर
भारत सरकार द्वारा कोलकाता से प्रकाशित राष्ट्रीय पंचांग छंनजपबंस ।सउंदंब एवं विभिन्न राज्य सरकारों द्वारा भी 31 अक्टूम्बर को दीपावली घोषित की है।
शास्त्राज्ञा है कि कार्तिकी अमावस्या जिस दिन प्रदोष व्यापिनी हो उस दिन लक्ष्मी पूजन करें। यदि दोनों दिन प्रदोषव्यापिनी हो तो दूसरे दिन करे।
इस बार दृक् और सौर गणित पद्धतियों से प्रदोषकाल व्यापिनी अमावस्या अर्थात् कर्मकाल व्यापिनी अमावस्या 31 अक्टूम्बर को ही है।
प्रदोष समये दीपदान उल्काप्रदर्शन लक्ष्मीपूजनानि कृत्वा भोजनं कार्यम्
अर्थात् जिस दिन अमावस्या को सायं देवताओं के लिए दीपदान करने, पितरों के निमित्त उल्का दिखाने, विधिवत् लक्ष्मीपूजन करके व्रती को भोजन का पूर्ण समय प्रदोष काल में मिल जावे उसी दिन लक्ष्मी पूजन आदि करें। यही कर्मकाल है। इतना कर्म करने के लिए पूरा प्रदोषकाल चाहिए। केवल प्रदोषस्पर्श से कार्य नहीं हो सकता।
प्रदोष काल का मान कितना है ?
1 सूर्यास्त के बाद तीन मुहूर्त अर्थात् छः घटी अर्थात् 144 मिनट का समय
2 सूर्यास्त से पूर्व व पश्चात् डेढ़ डेढ़ मुहूर्त यानि तीन तीन घटी अर्थात् 72-72 मिनट आगे पीछे
3 सूर्यास्त के बाद डेढ़ मुहूर्त अर्थात् तीन घटी अर्थात् 72 मिनट
इसमें उत्तर है प्रथम
कुछ विद्वान प्रदोष का स्पर्श मात्र मान रहे है, जबकि प्रदोष तो पूरा ही होना चाहिए
व्यापिनी का अर्थ व्यापकत्व- आच्छादन या विस्तृत में ग्रहण करना चाहिए।
प्रदोष एकदेश या प्रदोषस्पर्श मात्र क्यों ग्रहण किया जा रहा हैं
दिनद्वये प्रदोषव्याप्तौ साम्येन तदेकदेशस्पर्शे वा उत्तरा, यह वाक्य होलिका दहन के लिए है, न कि दीपावली के लिए
वैषम्येणैकदेशस्पर्शे तदाधिक्यवती पूर्वाऽपि ग्राह्या
प्रदोषव्याप्तौ प्रदोषेकदेशव्याप्तौ प्रदोष स्पर्शाभावे
स्पष्ट है कि प्रदोषकाल व्यापिनी यानि पूरे प्रदोषकाल में होनी चाहिए
कतिपय विद्वान दूसरे दिन सूर्यास्त के बाद एक घटी अमावस्या का मान देखकर भविष्यपुराण के इस वचन के आधार पर 1 नवम्बर को दीपावली का आदेश कर रहे है और दीपावली को सुखरात्रि मान रहे है
दण्डैक रजनीयोगे दर्शः स्यात्तु परेऽहनि।
तथा विहाय पूवेद्युः परेऽहनि सुखरात्रिका
यह वचन सुखरात्रि व्रत के लिए शास्त्रीय व्यवस्था है। हमें दीपावली सुखरात्रिका और सुखसुप्तिका का अंतर समझना चाहिए, यहां सुखरात्रिका दीपावली के अर्थ में नहीं है, श्लोक का मूल समझना होगा।
दिनांक अमावस्या प्रारंभ अमावस्या समाप्ति भीनमाल में सूर्योदय भीनमाल में सूर्यास्त मंुबई में सूर्योदय मुंबई में सूर्यास्त प्रदोष काल
भीनमाल प्रदोष काल
दर्श आरंभ दर्श समाप्ति
31 अक्टू 15.54 06.47 18.01 06.39 18.04 18.01 से 20.25
18.04 से 20.28 19.12
1 नव. 18.18 06.48 18.00 06.40 18.04 18.00 से 20.24 18.04 से 20.28 11.42

अमावस्या का कुल मान 26 घण्टे 24 मिनट आ रहा है, अहोरात्र या तिथि के आठवें भाग को याम या एक प्रहर कहते है। इस प्रकार अमावस्या के मान के 8 भाग करने पर 3 घंटे 18 मिनट प्राप्त होता है। इस प्रकार प्रथम भाग या पहले प्रहर को सिनीवाली अमावस्या कहते है, बीच के 5 प्रहर को दर्श कहते है और अन्तिम 2 प्रहर को कुहू अमावस्या कहा जाता है। और दीपावली पूजन दर्श अमावस्या में किया जाता है जो 1 नवम्बर को प्रातः 11.42 बजे तक ही दर्श अमावस्या प्राप्त हो रही है। अर्थात् 1 नवम्बर को प्रदोषकाल में दर्श अमावस्या नहीं है तो 31 अक्टूम्बर को ही दीपावली शास्त्र सम्मत है।
दीपावली के लिए धर्म सिंधु में कहा है
अथाश्विनामावास्यायां प्रातरभ्यंग प्रदोषे दीपदानलक्ष्मीपूजनादि विहितम्। तत्र सूर्योदयं व्याप्यास्तोत्तरं घटिकाधिकरात्रिव्यापिनी दर्शे सति न संदेहः।।
इसमें स्पष्ट लिखा है कि सूर्यास्त के बाद रात्रि में एक घटी से अधिक दर्श हो तो उस दिन दीपावली होने में कोई संदेह नहीं है।
राजमार्तण्ड में कहा है
दण्डैकरजनी प्रदोषसमये दर्शो यदा संस्पृशेत्।
कर्त्तव्या सुखरात्रिकात्र विधिना दर्शाद्यभावे तदा।
पूज्या चाब्जधरा सदैव च तिथिः सैवाहनि प्राप्यते।
कार्या भूतविमिश्रिता जगुरिति व्यासादिगर्गादयः।।
अर्थात् यदि रात्रि को प्रदोष के समय एक दण्ड (घटी) भी दर्श का स्पर्श हो रहा हो तो उस दिन रात्रि में दर्श आदि के अभाव में भी विधिपूर्वक सुखरात्रिका करें। लक्ष्मी की पूजा सदैव उसी दिन करनी चाहिए जिस दिन प्रदोषव्यापिनी तिथि (दर्श) की प्राप्ति होती हो। यह चतुर्दशी मिश्रिता अमावस्या में भी करनी चाहिए ऐसा व्यास गर्ग आदि ऋषियों का कथन है।
इस उर्द्धत कर तिथि निर्णय में कहा है
यदि चोत्तरत्र दिवैव दर्शः प्राप्यते समाप्यते, पूर्वदिने च प्रदोषे लभ्यते तदा चतुर्दशीविद्धापि ग्राह्येत्यर्थः।
ज्योतिःशास्त्रे- दण्डैकरजनीयोगे दर्शः स्याच्च परेऽहनि।
तदा विहाय पूर्वेद्युः परेऽह्नि सुखरात्रिका।
अमावस्या यदा रात्रौ दिवाभागे चतुर्दशी।
पूजनीया तदा लक्ष्मीर्विज्ञेया सुखरात्रिका।
इति वचनद्वयमुभयत्र प्रमाणं वेदितव्यम्
अर्थात् यदि दूसरे दिन दिवाभाग में ही दर्श मिले और समाप्त हो जाए व पहिले दिन के प्रदोष में दर्श मिल रहा हो तो चतुर्दशी विद्धा अमावस्या भी ग्राह्य है, ज्योतिः शास्त्र में कहा है, यदि दूसरे दिन की रात्रि में दर्श का एक दण्ड योग व्याप्ति हो, तो पहले दिन को छोड़कर दूसरे दिन सुखरात्रिका होती है।
रात्रि में अमावस्या हो और दिन में चतुर्दशी हो तो उसी रात्रि में लक्ष्मी पूजा करनी चाहिए, इस सुखरात्रिका कहते है। इन दोनों वचनों को प्रमाण माना जाना चाहिए।
शब्द कल्पद्रुम में दीपावली के अंगभूत श्राद्ध, उल्कादान व लक्ष्मीपूजा का कालनिर्णय
शब्दकल्पद्रुम (1828 ई) स्यार राजा राधाकांतदेव बहादुर द्वारा 7 खण्डों में निर्मित संस्कृत का महाशब्दकोश है। इसमें सुखरात्रि के विषय में श्राद्ध, उल्कादान और लक्ष्मीपूजा के काल को पृथक् पृथक् स्पष्टता से बताया है।
यद्येवं पूर्वदिन एव प्रदोषव्यापिन्यमावास्या तदा पूर्वदिन एवं श्राद्धमकृत्वापि उल्कादानं कर्त्तव्यम्। आचारात् पंचभूतोपाख्यानंच श्रोतव्यम्। उभयतः प्रदोषव्याप्तौ परदिन एव युग्मात्। उभयतः प्रदोषाप्राप्तावपि उल्कादानं परदिने पार्व्वणानुरोधात्।
अत्रैव पूर्वदिने लक्ष्मी रात्रौ पूज्या।
अमावस्या यदा रात्रौ दिवाभागे चतुर्दशी।
पूजनीया तदा लक्ष्मीर्विज्ञेया सुखरात्रिका।
इति वचनात्। लक्ष्मीपूजाविषयेऽप्येवं व्यवस्था। ततो गृहमध्ये उत्तराभिमुखो लक्ष्मीं पूजयेत्।
अर्थात् यदि पहले दिन प्रदोषव्यापिनी अमावस्या हो तो पहले दिन ही श्राद्ध न करके भी उल्कादान करें। आचार से पंचभूत व्याख्यान सुनना चाहिए। यदि दोनों दिन प्रदोष व्याप्त हो तो दूसरे दिन उल्कादान करंे। दोनों दिन प्रदोष में अमावस्या की प्राप्ति न हो तो भी पार्वण श्राद्ध के अनुरोध से दूसरे दिन उल्कादान करें। ऐसी स्थितियों में भी पहले दिन की रात्रि में ही लक्ष्मी पूजा करंे। क्योंकि कहा गया है, रात्रि में अमावस्या हो और दिन में चतुर्दशी हो तो उसी रात्रि में लक्ष्मी पूजा करनी चाहिए, इसे सुखरात्रिका कहते है। लक्ष्मी पूजा के विषय में यहीं व्यवस्था हैं
शब्दकल्पद्रुम, चौखम्बा संस्कृत ग्रंथमाला कार्तिककृत्यम्
अमावस्या यदा रात्रौ दिवाभागे चतुर्दशी।
पूजनीया तदा लक्ष्मीर्विज्ञेया सुखरात्रिका।
आचार्य रघुनाथ भट्ट सम्राटस्थापित ने अपने ग्रंथ कालतत्त्वविवेचनम् (1620 ई.) में इसी मत को प्रतिपादित किया है। यह ग्रंथ जयपुर राजगुरु कथाभट्ट के आचार्य नन्दकिशोर शर्मा के सम्पादन में काशी से 1932 में प्रकाशित हुआ है।
अमावस्या कर्त्तव्यदीपदानं च यद्यपि‘ कृत्वा तु पार्वणश्राद्धम्’ इत्यभिधाय ततोऽपराह्नसमये इत्यादिराजकर्त्तव्याभिधानमध्ये दीपमालाकुलेरम्ये विध्वस्तध्वान्तसंचये।
प्रदोषे दोषरहिते शस्ते दोषागमे शुभे
इन सभी प्रमाणों को देखते हुए 31 अक्टूम्बर को ही प्रदोष व्यापिनी अमावस्या होने से दीपावली मनाना शास्त्र सम्मत है।

Friday, 17 November 2023

अग्नि को सर्व प्रथम त्रित ऋषि ने खोजा

 अग्नि को सर्व प्रथम त्रित ऋषि ने खोजा

इ॒मम् । त्रि॒तः । भूरि॑। अ॒विन्द॒त् । इ॒च्छन् । वैभू&व॒सः । 1 मू॒र्धनि । अघ्न्या॑याः । सः । शे&वृधः । जा॒तः । आ । ह॒म् र्येषु । नाभि॑: । युवा॑ । भ॑व॒ति॒ । रोच॒नस्य॑ ॥ ३ ॥
इमं भूरि महांतं अग्निं वैभूवसोविभुवसः पुत्रः त्रितऋषिः इच्छन् लब्धुमिच्छन् अध्यायाः अहंतव्यायाभूम्यामूर्धनि भूम्यामित्यर्थः तत्राविंदव लब्धवान् सोनिः शेवृधः सुखस्य वृधयिता सन हर्म्येषु यजमानगृहेषु आ सर्वतोजातः प्रादुर्भूतः सन् रोचनस्य रोचमानस्य आमलाया फलस्यः उत्कणक्षणस्य यज्ञस्यादित्यस्य वा नाभिर्बंधकोभवति ॥ ३ ॥
हिन्दी अनुवाद
३. पाने की इच्छावाले विभूवस के पुत्र त्रित ऋषि ने इन महान् अग्नि को भूमि पर पाया । सुख के वर्द्धक और यजमान - गृहों में उत्पन्न तरण अग्नि स्वर्ग-फल के नाभि हैं।

रुद्र

 रुद्र

रुद्राष्टाध्यायी यजुर्वेद का अंग है और वेदों को ही सर्वोत्तम ग्रंथ बताया गया है। वेद शिव के ही अंश है
वेद: शिव: शिवो वेद:।
अर्थात् वेद ही शिव है तथा शिव ही वेद हैं, वेद का प्रादुर्भाव शिव से ही हुअा है। भगवान शिव तथा विष्णु भी एकांश हैं तभी दोनो को हरिहर कहा जाता है, हरि अर्थात् नारायण (विष्णु) और हर अर्थात् महादेव (शिव) वेद और नारायण भी एक हैं वेदो नारायण: साक्षात् स्वयम्भूरिति शुश्रुतम्। यही कारण है कि भारतीय संस्कृति में वेदों का इतना महत्व है तथा इनके ही श्लोकों, सूक्तों से पूजा, यज्ञ, अभिषेक आदि किया जाता है। शिव से ही सब है तथा सब में शिव का वास है, शिव, महादेव, हरि, विष्णु, ब्रह्मा, रुद्र, नीलकंठ आदि सब ब्रह्म के पर्यायवाची हैं। रुद्र अर्थात् 'रुत्' और रुत् अर्थात् जो दु:खों को नष्ट करे, वही रुद्र है, रुतं--दु:खं, द्रावयति--नाशयति इति रुद्र:।
रुद्रहृदयोपनिषद् में लिखा है--
सर्वदेवात्मको रुद्र: सर्वे देवा: शिवात्मका:।
रुद्रात्प्रवर्तते बीजं बीजयोनिर्जनार्दन:।।
यो रुद्र: स स्वयं ब्रह्मा यो ब्रह्मा स हुताशन:।
ब्रह्मविष्णुमयो रुद्र अग्नीषोमात्मकं जगत्।।
यह श्लोक बताता है कि रूद्र ही ब्रह्मा, विष्णु है सभी देवता रुद्रांश है और सबकुछ रुद्र से ही जन्मा है। इससे यह सिद्ध है कि रुद्र ही ब्रह्म है, वह स्वयम्भू है।
इसी रुद्र (शिव) के उपासना के निमित्त रुद्राष्टाध्यायी ग्रंथ वेद का ही सारभूत संग्रह है। जिस प्रकार दूध से मक्खन
निकालते हैं उसी प्रकार जनकल्याणार्थ शुक्लयजुर्वेद से रुद्राष्टाध्यायी का भी संग्रह हुआ है। इस ग्रंथ में गृहस्थधर्म, राजधर्म, ज्ञान-वैराज्ञ, शांति, ईश्वरस्तुति आदि अनेक सर्वोत्तम विषयों का वर्णन है।
मनुष्य का मन विषयलोलुप होकर अधोगति को प्राप्त न हो और व्यक्ति अपनी चित्तवृत्तियों को स्वच्छ रख सके इसके निमित्त रुद्र का अनुष्ठान करना मुख्य और उत्कृष्ट साधन है। यह रुद्रानुष्ठान प्रवृत्ति मार्ग से निवृत्ति मार्ग को प्राप्त करने में समर्थ है। इसमें ब्रह्म (शिव) के निर्गुण और सगुण दोनो रूपों का वर्णन हुआ है। जहाँ लोक में इसके जप, पाठ तथा अभिषेक आदि साधनों से भगवद्भक्ति, शांति, पुत्र पौत्रादि वृद्धि, धन धान्य की सम्पन्नता और स्वस्थ जीवन की प्राप्ति होती है; वहीं परलोक में सद्गति एवं मोक्ष भी प्राप्त होता है। वेद के ब्राह्मण ग्रंथों में, उपनिषद, स्मृति तथा कई पुराणों में रुद्राष्टाध्यायी तथा रुद्राभिषेक की महिमा का वर्णन है।
वायुपुराण में लिखा है--
यश्च सागरपर्यन्तां सशैलवनकाननाम्।
सर्वान्नात्मगुणोपेतां सुवृक्षजलशोभिताम्।।
दद्यात् कांचनसंयुक्तां भूमिं चौषधिसंयुताम्।
तस्मादप्यधिकं तस्य सकृद्रुद्रजपाद्भवेत्।।
यश्च रुद्रांजपेन्नित्यं ध्यायमानो महेश्वरम्।
स तेनैव च देहेन रुद्र: संजायते ध्रुवम्।।
अर्थ: जो व्यक्ति समुद्रपर्यन्त, वन, पर्वत, जल एवं वृक्षों से युक्त तथा श्रेष्ठ गुणों से युक्त ऐसी पृथ्वी का दान करता है, जो धनधान्य, सुवर्ण और औषधियों से युक्त है, उससे भी अधिक पुण्य एक बार के रुद्री जप एवं रुद्राभिषेक का है। इसलिये जो भगवान शिव का ध्यान करके रुद्री का पाठ करता है, वह उसी देह से निश्चित ही रुद्ररूप हो जाता है, इसमें संदेह नहीं है।
इस प्रकार साधन पूजन की दृष्टि से रुद्राष्टाध्यायी का विशेष महत्व है।
प्राय: कुछ लोगों मे यह धारणा होती है कि मूलरूप से वेद के सूक्त आदि पुण्यदायक होते हैं अत: इन मन्त्रों का केवल पाठ और सुनना मात्र ही आवश्यक है। वेद तथा वेद के अर्थ तथा उसके गंभीर तत्वों से विद्वान प्राय: अनभिज्ञ हैं। वास्तव में यह सोंच गलत है, विद्वान वेद और वान से मिलकर बना है तो वेद के विद्या को जो जाने वहीं विद्वान है, इसके संदर्भ में उनको जानकारी होना आवश्यक है। प्राचीन ग्रंथों में भी वैदिक तत्वों की महिमा का वर्णन है।
निरुक्तकार कहते हैं कि जो वेद पढ़कर उसका अर्थ नहीं जानता वह भार वाही पशु के तुल्य है अथवा निर्जन वन के सुमधुर उस रसाल वृक्ष के समान है जो न स्वयं उस अमृत रस का आस्वादन करता है और न किसी अन्य को ही देता है। अत: वेदमंत्रों का ज्ञान अतिकल्याणकारी होता है--
स्थाणुरयं भारहार: किलाभूदधीत्य वेदं न विजानाति योऽर्थम्। योऽर्थज्ञ इत् सकलं भद्रमश्नुते नाकमेति ज्ञानविधूतपप्मा।।
अत: रुद्राष्टाध्यायी के अभाव में शिवपूजन की कल्पना तक असंभव है।

सप्तमस्थ शुक्र का फल।

 विषय: लग्नानुसार सप्तमस्थ शुक्र का फल।*

यहाँ केवल शुक्र का विवाह से सम्बंधित फल ही बता रहा हूँ। अतः किसी अन्य विषय से सम्बंधित यहां कुछ विशेष नही रखा गया।
🙏🏻🌹🙏🏻
1. मेष लग्न में सप्तमस्थ शुक्र जातक के जीवनसाथी को मृत्यु देता है।
क्योंकि यहाँ शुक्र प्रबल मारकेश होता है अर्थात द्वितीयेश व सप्तमेश।
2. वृषभ लग्न में सप्तमस्थ शुक्र जातक को अत्यधिक कामी बनाता है, जातक को वीर्य से सम्बंधित समस्या बनी रहती है। क्योंकि यहां शुक्र लगनेश व षष्टेश होता है।
3. मिथुन लग्न में सप्तमस्थ शुक्र जातक को प्रेम में व्यभिचारी बनाता है, जातक अत्यधिक व्यभिचार से स्वयं के बल का नाश करता है। क्योंकि यहाँ शुक्र द्वादशेश व पँचमेश होता है।
4. कर्क लग्न में सप्तमस्थ शुक्र जातक को सुंदर वैवाहिक जीवन प्रदान करता है व उसे सभी सुख मिलते हैं, क्योंकि यहां शुक्र चतुर्थेश व एकादशेश होता है।
5. सिंह लग्न में सप्तमस्थ शुक्र जातक को अधिक वैवाहिक सुख प्रदान नही करता। जातक जीवनसाथी के बदले बाहर खुशियों को ढूंढने में लगा रहता है। क्योंकि यहां शुक्र तृतीयेश व दशमेश होता है।
6. कन्या लग्न में सप्तमस्थ शुक्र उच्च के होते हैं अतः जातक अत्यधिक सुखी होता है व उसे सभी प्रकार के वैवाहिक सुखों की प्राप्ति होती है। क्योंकि यहां शुक्र द्वितीयेश व भाग्येश होता है।
7. तुला लग्न में सप्तमस्थ शुक्र जातक को अत्यधिक व्यसनी बनाता है। जातक कामांध होकर अपने जीवन का नाश करता है, क्योंकि यहां शुक्र अष्टमेष होते हुए सप्तमस्थ होता है व लग्नेश भी।
8. वृश्चिक लग्न में सप्तमस्थ शुक्र जातक को सौभाग्यशाली जीवन देता है परंतु जातक को जीवनसाथी से वियोग अवश्य ही भोगना पड़ता है, के मामलों में तो जातक वैराग्य भी अपना लेता है। क्योंकि यहां शुक्र सप्तमेश व द्वादशेश होता है।
9. धनु लग्न में सप्तमस्थ शुक्र जातक को परस्त्री गामी बनाता है क्योंकि ऐसे जातक को परस्त्री से ही इच्छाओं की पूर्ति होती है। इस स्थिति में जातक षष्टेश व एकादशेश होता है।
10. मकर लग्न में सप्तमस्थ शुक्र जातक को प्रेम अवश्य करवाता है व जातक यदि सौभाग्यशाली हुआ तो जातक एक सुखी जीवन जीता है। क्योंकि यहां शुक्र पँचमेश व दशमेश होता है।
11. कुम्भ लग्न में सप्तमस्थ शुक्र जातक को सुखी जिएं अवश्य देता है परंतु जातक वैवाहिक सुखों से असंतुष्ट रहता है। क्योंकि यहां शुक्र चतुर्थेश व भाग्येश होता है।
12. मीन लग्न में सप्तमस्थ शुक्र जातक को वैवाहिक सुखों से सदैव वंचित रखता है। जातक को जीवनसाथी से वियोग भी होता है। क्योंकि यहां शुक्र नीच होते हुए तृतीयेश व अष्टमेष होता है।

ब्राह्मण और अग्नि

 मनुष्य का जीवन अग्निमय है। जब जीव अपनी माता के गर्भ में नौ माह तक रहता है तो सबसे पहले वह 'जठराग्नि' से सम्बन्ध स्थापित करता है। बाद में, जब वह माँ के गर्भ से बाहर आता है, तो 'सांसारिक अग्नि' के साथ उसका रिश्ता जीवन भर के लिए स्थिर हो जाता है और जब वह मृत्यु की स्थिति में पहुँच जाता है, तो वह 'क्रव्याद अग्नि' (चिताग्नि) से जुड़ जाता है, जिससे उसका शरीर जलाकर भस्म कर दिया जाता है: 'भस्मान्तं शरीरम्' (शु. य. 40.15)।

विशेष आश्चर्य की बात तो यह है कि जिस अग्निका प्राकृतिक धर्म जलाना है, वह मनुष्यके उदरमें सर्वदा रहते हुए भी उसे नहीं जलाता। इसका कारण यह है कि मनुष्य अपने उदरमें रहनेवाले 'जाठराग्नि' के लिये भोजनरूपी आहुति प्रतिदिन उचित मात्रा में डालता रहता है, जिससे उसकी 'जाठराग्नि' सर्वदा शान्त रहती है। और मनुष्यको किसी प्रकार कष्ट नहीं देती। यदि किसी दिन मनुष्य अपने उदरमें भोजनरूपी आहुति डालनेमें गड़बड़ी कर देता है, तो उसकी 'जाठराग्नि' प्रबलरूप धारण कर मनुष्यको बेचैन कर डालती है, जिससे मनुष्य बार-बार जल पीकर अथवा अन्य कोई औषध- विशेष खाकर अग्निको शान्त करता है । अतः उदरस्थित अग्निको शान्त रखनेके लिये भोजनरूपी आहुति पर विशेष ध्यान रखना चाहिये । अन्यथा मनुष्य मन्दाग्नि अथवा अन्य प्रकार के उदर रोगोंसे पीड़ित होकर शीघ्र ही मृत्युको प्राप्त हो जायगा ।
हमारे हिन्दू-धर्मशास्त्रोंमें द्विजके लिये जीवनपर्यन्त अग्निकी उपासना करनेके लिये कहा है । द्विज यज्ञोपवीत-संस्कारके बाद जब ब्रह्मचर्याश्रममें प्रवेश करता है, तभीसे उसे जीवनपर्यन्तके लिये अग्निकी उपासनाका व्रत ग्रहण करना पड़ता है और वह जीवन
पर्यंत पंचमहायज्ञादि के द्वारा अग्नि की पूजा करना जारी रखता है।
शास्त्रोंमें द्विजातिके लिये अग्निको प्रत्यक्ष 'देवता' और 'गुरु कहा है-
- अग्निर्देवो द्विजातीनाम् । ( लौगाक्षिस्मृति )
अग्निर्देवो द्विजातीनाम् । ( चाणक्यनीति ४।१६ )
गुरुरग्निर्द्विजातीनाम् । चाणक्यनीति ५।१ )
गुरुरग्निद्विजातीनाम् । पद्मपुराण, स्वर्ग ०५२.५१
गुरुरग्निद्विजातीनाम् । ( व्याघ्रपादस्मृति २०८ )
जो अग्नि द्विजातिके लिये प्रत्यक्ष देवता और गुरु है, उपासना द्विजातिको जीवनपर्यन्त करनी चाहिये । 'शतपथब्राह्मण (१।४।२।२ ) में ब्राह्मणको अग्नि,
जो अग्नि द्विजाति के लिए प्रत्यक्ष देवता और गुरु है, उसकी उपासना द्विजाति को जीवन भर करनी चाहिए।
'शतपथ ब्राह्मण (1.4.2.2) में ब्राह्मण को अग्नि कहा गया है, तैत्तिरीय ब्राह्मण (2.7.31) में ब्राह्मण को आग्नेय कहा गया है, भविष्य पुराण (ब्रह्मपर्व 13.36) में और महाभारत (शांतिपर्व 342.12) में ब्राह्मण को कहा गया है। अग्निदेव कहा जाता है.
ब्राह्मणके लिये कहा गया है कि उसे अग्निके गुणोंसे विभूषित होना चाहिये । अग्नि के गुणोंसे विभूषित होने के लिये ब्राह्मणको अग्निकी उपासना आवश्यक है। अग्निकी उपासना से ब्राह्मण अग्नि गुणोंसे विभूषित हो जाता है । जो ब्राह्मण अग्नि के गुणोंसे विभूषित हो जाता है, वही यथार्थरूप में 'ब्राह्मण' कहलाने का अधिकारी है ।
मनुष्यकी उत्पत्ति अग्निसे कही गई है । अतः प्रत्येक मनुष्यक सम्बन्ध अग्निसे जीवनपर्यन्त बना रहता है। मनुष्यकी जब मृत्य होती है, तो उसको अग्निसे जला दिया जाता है। मनुष्य का अग्नि साथ विशेष सम्बन्ध होनेका प्रधान कारण यह है कि उसकी शिखा के मूल में अग्नि का निवास होता है, अतः शिखा वाले व्यक्ति को आग्नेय कहा जाता है शिखा को अग्नि का विशेष चिह्र कहा गया है
अग्निचिह्नं शिखाकर्म
वेदेषु अग्निमहत्त्वविषये लिखितम्- १.
अग्निर्वै देवानामवमः । ( ऐतरेयब्रा० १।१।१ )
अग्निर्वै देवानां प्रथमः । ( ऐतरेयब्रा० २० |१|१ )
अग्निः सर्वा देवताः । ( तैत्तिरीयब्रा० १/४/५।२७ )
अग्निः सर्वा देवताः । ( तैत्तिरीयब्रा० १/८|१०|३७ )
अग्निः सर्वा देवताः । (निरुक्त, परिशिष्ट १४/३२)
अग्निः सर्वा देवताः । ( निरुक्त, दैवतकाण्ड १।१७)
अग्निः सर्वा देवताः । (शापथब्रा० ३।४।१।१९ )
अग्निर्वै सर्वा देवताः । ( शतपथब्रा० १।६।३।७ )
अग्निर्वै सर्वा देवताः । (शतपथब्रा० ३।१।३।१ )

सन्ध्योपासनादि

सन्ध्योपासनादि वैश्वदेव पर्यन्त के नित्यकर्मो को करनेवाले एवं शौचाचार सम्पन्न वाले द्विजाति को ही पके हुए अन्नादि का भोग लगाना अधिकार हैं। इस रहस्य को जानने के लिए यह जानना आवश्यक हैं कि वैश्वदेव करने के पश्चात् ही क्यों ? और वैश्वदेव की विधा क्या हैं ?
बिना वैश्वदेव किये सिद्धान्न रूप भोग-नैवेद्य देवता ग्रहण नहीं करते -
लघ्वाश्वालयनस्मृति १/१४५
"अकृत्वा देवयज्ञं च नैवेद्यं यो निवेदयेत्।
तदन्नं नैव गृह्णन्ति देवताश्चापि सर्वथा।।"
संस्काररत्नमालायाम् मनुः -
"वैश्वदेवविशुद्धोऽसौ विष्णवेऽन्नं निवेदयेत्।।"
तत्रैव स्मृतौ -
वैश्वदेवं पुरा कृत्वा नैवेद्यं विनिवेदयेत्
अकृत्वा वैश्वदेवं यो नैवेद्यं विनिवेदयेत्।।
तदन्नं न गृह्णन्ति देवा विष्ण्वादयो ध्रुवम्।।"
तथा च प्रयोगसागरे स्मृत्यन्तरे -
"देवार्थमन्नमुद्धृत्य वैश्वदेवं समाचरेत्।
नैवेद्यमर्पयेत्पश्चान्नृयज्ञं तु ततश्चरेत्।।"
कुलपारम्परिक स्वशाखासूत्र में जिस प्रकार की पद्धति द्वारा विधा उचित हो ऐसी ही विधा से वैश्वदेव करना चाहिये -
एवं तत्रैव व्यासः -
"वैश्वदेवं प्रकुर्वीत स्वशाखाविहितं ततः।।"
अब कोई कहते हैं कि हम तो सन्ध्योपासना करते हैं तो प्रश्न उठता हैं कि क्या (१)पारम्परिक शाखासूत्रविधा से करते हैं ?(२) सन्ध्योपासना करने के लिए भी अधिकृत हैं कि नहीं ? और (३) कितने समय से सन्ध्योपासना करते आये हैं उपनयन के दिन से ही या बिच में कुछ सप्ताहतक विराम क्या कारण रहा सब विचारणीय हैं।
क्योंकि सन्ध्योपासना भी स्वशाखासूत्रविधा से ही करनी चाहिये -
विश्वामित्र स्मृति १/१११ -स्मृतिसन्दर्भ पृष्ठ २६५६---
"स्वसूत्रोक्त विधानेन सन्ध्यावन्दनमाचरेत्।
अन्यथा यस्तु कुरुते आसुरीं तनुमाप्नुयात्।।
स्कं०पुराण वै०ख० अयोध्यामाहा० ५/२०-
"ततः सन्ध्यामुपासीत स्वसूत्रोक्तेन वर्त्मना।
ततः कार्यो जपो देव्या यावदर्कोदयो भवेत्।। तत्रैव ब्राह्मखण्ड धर्मारण्यमाहात्म्ये ५/९६-९७---
"उपस्थानं ततः कुर्याच्छाखोक्तविधिना ततः। सहस्रकृत्वो गायत्र्या शतकृत्वोऽथवा पुनः।। दशकृत्वोऽथ देव्यैव कुर्यात् सौरीमुपस्थितिम्।।"
वृद्धहारितस्मृति ४/४६-४७--
"स्वगृह्योक्तविधानेन सन्ध्योपास्तिं समाचरेत्। ध्यात्वा नारायणं देवं रविमण्डलमध्यगम्।।"
सन्ध्योपासना के अधिकार हेतु भी दो प्रश्न उठते हैं (१) उपनयन समय स्वशाखा के मन्त्रोच्चारविधासे गायत्री का उपदेश प्राप्त हुआ था या नहीं और (२) उपनयन स्वशाखासूत्र विहित पद्धतिविधा से हुआ हैं या नहीं।
कुछ सप्ताह सन्ध्योपासना विराम हो जानेपर प्रायश्चित्तपूर्वक पुनरुपनयन करवाना उचित हैं।
(१) प्रत्येक वेदशाखा की शिक्षा कल्प के अनुसार ही किसी भी वेदमन्त्रोच्चार करना उचित हैं और (२) जब उपनयन करना ही अनुपनीतकुमार की पारम्परिक शाखासूत्रानुसार हैं तो फिर गायत्र्युपदेश करना भी तच्छाखानुसार ही सिद्ध होता हैं--
अपरार्क-
गृह्योक्तकर्मणा येन समीपं नीयते गुरोः। बालो वेदाय तद् योगाद् बालस्योपनयनं विदुः।।"
औशनसस्मृतौ -
"कृतोपनयनो वेदानधीयीत द्विजोत्तमः। गर्भाष्टमे व्यष्टमे वा स्वसूत्रोक्त विधानतः।।"
तैत्तरीयारण्यक २/१५/७ के अनुसार वेद का अध्ययन स्वशाखा से आरम्भ करना चाहिये अब वेद का आरम्भ भी स्वशाखोक्त गायत्री मन्त्रोच्चार के बिना आरम्भ किये नहीं होता -
याज्ञवलक्यशिक्षायाम् --
"ओङ्कारपूर्विकास्तिस्रो
महाव्याहृतयोऽव्ययाः।
त्रिपदी चैव गायत्री
विज्ञेयं ब्राह्मणो मुखम्।।"
इस प्रकार उस स्वशाखीयोपनीत कुमार का गायत्र्युपदेश भी स्वशाखाविहित शिक्षा के उच्चारणविधा से ही होता हैं।
उपनयन का क्या प्रयोजन हैं ?
द्विजत्व को प्राप्त करना और द्विजकर्माधिकारी होकर कर्तव्य परायण होना -
स्मृतिसंग्रहे संस्काररत्नमालायाम् --
"उपनीतेः फलं त्वेतद् द्विजतासिद्धिपूर्विका।।"
जब उपनयन स्वशाखासूत्रविधा से न हुआ हो तो फिर द्विजत्व की प्राप्ति होना ही संभव नहीं हैं क्योंकि परशाखीय उपनयन या गायत्र्युपदेश के कारण कृतोपनयन निष्फल हो जाता हैं --
ज्योतिर्निबन्धे--
"यो न मन्त्रैः स्वशाखोक्तैः संस्कृतोनाधिकारिणा। #नाऽसौ_द्विजत्वमाप्नोति पुनः संस्करणं विना।।" यथा जाबालिः-
"स्वशाखाविधिमुत्सृज्य
संस्कुर्यादन्यशाखया।
प्राजापत्यत्रयं कृत्वा
पुनः संस्कारमर्हति।। इदन्त्वोपनयनचरमावधिकालात्पूर्वम् , अत ऊर्ध्वं व्रात्याः भवन्ति।
चतुर्वर्गचिंतामणि प्राय०ख० गौतमः-
"यः स्वशाखां परित्यज्य अन्य शाखामनुस्मरन् । उपनयनादिकं तत्र कुर्वन् विप्रो यदा भवेत्। शाखारण्डः स विज्ञेयो सर्ववर्णबहिष्कृतः।।"
अंगिरा संस्काररत्ने अत्र्याश्वालयनौ -
"स्वे स्वे गृह्ये यथा प्रोक्तास्तथा संस्कृतयोऽखिलाः। कर्तव्या भूतिकामेन नान्यथा सिद्धिमृच्छति।।"
छांदोग्यपरिशिष्टे कात्यायनः -
"अक्रिया त्रिविधा प्रोक्ता विद्वद्भिः कर्मकारिणाम्। अक्रिया च परोक्ता च तृतीया चाऽयथाक्रिया।। तत्रैव परिशिष्टप्रकाशे - १ अकरणं २ परशाखोक्तकरणम् ३ विहितेतरप्रकारेण क्रमान्तरादिनाकरणं_ त्रिविधैव कर्मणामक्रिया निष्फलत्वात्।।"
फिर कोई कहेगे कि हमारा उपनयन भी स्वशाखानुसार हुआ हैं और गायत्र्युपदेश भी तो अन्य शंका उठती हैं कि गायत्रीमन्त्र का उच्चार क्या शाखा सम्मत हैं ? अथवा किसी (ब्राह्मण)के भी पास से खरीदे हुए सूत्र से जनेऊ से उपनयन हुआ था ?
(१) सामान्यतः माध्यंदिनी शाखावाले के उपनयन भले ही स्वशाखीय विधा से हुआ हो परंतु याज्ञवलक्य शिक्षा के अनुसार कुछ उच्चार की भिन्नता हैं उस भिन्नता को पारम्परिक गुरुमुख से वेदाध्ययन करनेवाले माध्यंदिनीय स्वाध्यायी ही जान सकते हैं इस लिये उसका उच्चार वाचिक परिक्षण से पता चलेगा (२) बिना उपवास किये एवं अनध्याय में निर्मित तथा किसी के पाससे खरीदे हुए जनेऊ को पहनकर जो जो कर्म किये जाएगे वह निष्फल होगे अतः सिद्ध हैं कि खरीदे हुए जनेऊ के बाद ही ब्रह्मोदेश करना सभी शाखा में उक्त विधा हैं इसलिये स्वशाखीय गायत्र्युपदेश आदि जो जो भी जनेऊ धारण करने के बाद उपनयनप्रधान दण्डाजिनमेखलाधारण ब्रह्मोपदेश अंजलिक्षारण उपस्थान हृदयालम्भन अग्निपरिचर्या संधुक्षणसमिदाधान भिक्षाचर्या आदि जो जो कर्म हैं वह सब निष्फल होते हैं इसलिये अङ्गवैकल्यता के कारण सम्पूर्ण उपनयन निष्फल हो जाता हैं -
"चतुर्वर्गचिंतामणि प्रा०खण्ड ब्रह्माण्डपुराण
अनध्याये तु यत्सूत्रं
यत्सूत्रं रण्डया कृतम्।
यत्सूत्रं दारुसम्भृतं --------------
#क्रीतं यद्ब्रह्मसूत्रकम् ।
व्रात्यादिभिस्तथा दत्तं
तत्सूत्रं परिवर्जयेत्।
अन्यच्च देवलः -
विधवा रचितं #सूत्रमनध्यायकृतं च यत्।
विच्छिन्नं #चाप्यधोयातं #भुक्त्वा निर्मितमुत्सृजेत्" इति।।"
कोई यह विचार करते हैं कि सब कुछ ठिक ठिक स्वशाखासूत्र विधा से ही हुआ हैं तो भी विचारणीय हैं कि उपनयन किस आचार्य ने किया था पतित ने , विदेशयात्रीने , शाखारण्ड ने या पुनरुपनयननिमित्तवाले किसी द्विजत्वहीन द्विजभ्रष्टात्माने ? - यदि इन में से कोई दोष हैं तो भी कृतोपनयन व्यर्थ हो जाता हैं।
चलो मान लिजिए कि आचार्य भी अयाज्ययाजन करनेवाले नहीं थे ४६ प्रकार के पुनरुपनयन-निमित्तों -->
द्विजत्वभ्रष्ट नहीं हुए थे वयोवृद्ध आचारसम्पन्न थे फिर भी शास्त्र की आज्ञा हैं कि बिना परिक्षण के उपनयन आदि न किया जाय तो परिक्षण तो होता ही हैं। परिक्षण करने की विधा क्या हैं -->
उक्त सब विधिनिषेधो को ध्यान में रखकर यही निष्कर्ष निकलेगा कि उपनयन से पूर्व परिक्षण में जो अनुत्तीर्ण रहे वे वैश्वदेवकर्म तक अनधिकारी ही रहेगे इस प्रकार से वैश्वदेव के पूर्व जो जो नित्यकर्म हैं या द्विजाधिकृत जो जो भी वैदिकयजन , किसी भी प्रकार का याजन, अध्यापन , वेदवेदांगो का अध्ययन, समन्त्रक दान और प्रतिग्रह के साथ साथ मधुपर्कार्हणविधा से आतिथ्यसत्कार में भी अनधिकारी हैं।
ब्रह्मचारी को स्वयंपाक कर वैश्वदेवाधिकार न होने से वे भी पक्व अन्न के नैवेद्य का भोग नहीं लगा सकते, आजकल द्विजों का पतन होने से एवं स्ववर्णाश्रमधर्म के पालन करवाने करने में गुरुशिष्यों दोनों का प्रमाद हैं, इस कारण से भिक्षाचर्या का लोप हो चूका हैं, इसलिये ब्रह्मचारीलोग कहीं कहीं स्वयंपाक कर लेतें हैं मातान्नपूर्णा से भिक्षाचर्या का भाव करते हैं, उन ब्रह्मचारीओं को नैवेद्य में फल आदि आमान्न पक्वान्न से भिन्न नैवेद्य का ही भोग लगाना चाहिये।
यदि अथ से लेकर इति तक सब ठिक हैं परन्तु शौचारशून्य एवं उच्छिष्टानुच्छिष्ट आदि आचारपालन में अनभिज्ञ हैं तो भी देवता को नमक जल और अग्निसंयोग से बने सिद्धान्न के भोग-नैवेद्य लगाने में अनधिकार हैं।
( प्रथम लेख👇का प्रामाणिक विस्तार 👆🏼-
शास्त्री पुलकित जी की वाल से साभार