Saturday, 17 December 2016

माघ जयंती पर विशेष

माघ जयंती पर विशेष

संस्कृत के श्रेष्ठ कवियों में माघ की गणना की जाती है। उनका समय लगभग 675 ई. निर्धारित किया गया है। उनकी प्रसिद्ध रचना‘शिशुपालवध’ नामक महाकाव्य है। इसकी कथा भी महाभारत से ली गई है। इस ग्रंथ में युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ के अवसर पर चेदि नरेश शिशुपाल को कृष्ण द्वारा वध करने की कथा का काव्यात्मक चित्रण किया गया है। माघ वैष्णव मतानुयायी थे। इनकी ईच्छा अपने वैष्णव काव्य के माध्यम से शैव मतानुयायी भारवि से आगे बढ़ने की थी। इसके निमित्त उन्होंने कई प्रयत्न भी किये। उन्होंने अपने ग्रंथ की रचना किरातार्जुनीयम् की पद्धति पर की। किरात की भांति शिशुपालवध का प्रारंभ भी ‘श्री’ शब्द से होता है।
माघ अलंकृत काव्य शैली के आचार्य है तथा उन्होंने अलंकारों से सुसज्जित पदों का प्रयोग कुशलता से किया है। प्रकृति दृश्यों का वर्णन करने में भी वे दक्ष थे। भारतीय आलोचक उनमें कालिदास जैसी उपमा, भारवि जैसा अर्थ गौरव तथा दण्डी जैसा पदलालित्य, इन तीनों गुणों को देखते है।
माघ ने नवीन चमत्कारिक उपमाओं का सृजन किया है। माघ व्याकरण, दर्शन, राजनीति, काव्यशास्त्र, संगीत आदि के प्रकाण्ड पण्डित थे तथा उनके ग्रंथ में ये सभी विशेषताएं स्थान-स्थान पर देखने को मिलती है। उनका व्याकरण संबंधी ज्ञान तो अगाध था। पदों की रचना में उन्होंने नये-नये शब्दों का चयन किया है। उनका काव्य शब्दों का विश्वकोष प्रतीत होता है। माघ के विषय में उक्ति प्रसिद्ध है कि शिशुपालवध का नवां सर्ग समाप्त होने पर कोई नया शब्द शेष नहीं बचता है। उनका शब्द विन्यास विद्वतापूर्ण होने के साथ मधुर एवं सुन्दर भी है। माघ की कविता में ललित विन्यास भी देखने को मिलता है। कालान्तर में कवियों ने उनकी अलंकृत शैली का अनुकरण किया है।
महाकविमाघ का सामान्य परिचय
संस्कृत साहित्य के काव्यकारों में माघ का उत्कृष्ट स्थान रहा है। यही धारणा है कि उनके द्वारा विरचित ‘शिशुपालवध’ महाकाव्य को संस्कृत की वृहत्रयी में विशिष्ट स्थान मिला है। महाकवि माघ ने काव्य के 20 वें सर्ग के अन्त में प्रशक्ति के रूप में लिए हुए पांच श्लोकों में अपना स्वल्पपरिचय अंकित कर दिया है जिसके सहारे तथा काव्य में यत्र-तत्र निषद्ध संकेतों से तथा अन्य प्रमाणों के आधार पर कविवर माघ के जीवन की रूपरेखा अर्थात् उनका जन्म समय, जन्म स्थान तथा उनके राजाश्रय को जाना जा सकता है।
प्रसिद्ध टीकाकार मल्लिनाथ ने प्रशस्तिरूप में लिखे इन पांच श्लोकों की व्याख्या नहीं की है। केवल वल्लभदेव कृत व्याख्या ही हमें देखने को मिलती है। इसी प्रकार 15 वें सर्ग में 39 वें श्लोक के पश्चात् द्वयर्थक 34 श्लोक रखे गए है। इसके पश्चात् 40 वां श्लोक है।
‘कविवंश वर्णन के पांच श्लोक प्रक्षिप्त है’ यह कहना केवल कपोल कल्पना है।
इन्हीं श्लोकों से स्पष्ट होता है कि दत्तक के पुत्र माघ ने सुकवि कीर्ति को परास्त करने की अभिलाषा से शिशुपालवध’ नामक काव्य की रचना की है। जिसमें श्रीकृष्ण चरित वर्णित है और प्रति सर्ग की समाप्ति पर ‘श्री’ अथवा उसका पर्यायवाची अन्य कोई शब्द अवश्य दिया गया है। यहां ध्यातव्य यह है कि कवि ने 19 वें सर्ग के अन्तिम श्लोक ‘चक्रबंध’ में किसी रूप में बड़ी निपुणता से माकाव्यमिदम् शिशुपालवधम् तक अंकित कर दिया हैं। कविवर माघ का जन्म राजस्थान की पुण्य धरा भीनमाल में राजा वर्मलात के मंत्री सुप्रसिद्ध  ब्राह्मण सुप्रभदेव के पुत्र कुमुदपण्डित (दत्तक) की धर्म पत्नी वराही के गर्भ से माघ की पूर्णिमा को हुआ था। कहा जाता है कि इनके जन्म समय की कुण्डली देखकर ज्योतिषी ने कहा था कि यह बालक उद्भट विद्वान, अत्यन्त विनीत, दयालु, दानी और वैभव समपन्न होगा। किन्तु जीवन की अन्तिम अवस्था में यह निर्धन हो जायेगा। यह बालक पूर्ण आयु प्राप्त करके पैरों में सूजन आने पर दिवंगत हो जायेगा। ज्योतिषी की भविष्यवाणी पर विश्वास करके उनके पिता कुमुद पण्डित दत्तक ने जो एक ओष्ठी धनी थे, प्रभूतधनरत्नादि की सम्पत्ति को भूमि में घड़ों में भरकर गाड़ दिया था और शेष बचा हुआ धन माघ को दे दिया था। कहा जाता है कि ‘शिशुपालवध’ की कुछ रचना उन्होंने परदेश में रहते हुए की थी और शेष भाग की रचना वृद्धावस्था में घर पर रहकर ही की। अन्तिम अवस्था में वे अत्यधिक दरिद्रावस्था में थे। ‘भोज प्रबंध’ में उनकी पत्नी प्रलाप करती हुई कहती है कि जिसके द्वार पर एक दिन राजा आश्रय के लिए ठहरा करते थे आज वही व्यक्ति दाने-दाने के लिए तरस रहा है। क्षेमेन्द्रकृत ‘औचित्य विचार-विमर्श’ में पण्डित महाकवि माघ का अधोलिखित पद्य माघ की उक्त दशा का निदर्शक है-
बुभुक्षितैत्यकिरणं न भुज्यते न पीयते काव्यरसः पिपासितेः।
न विद्यया केनचिदुदूधृतं कुलं हिरण्यमेवार्जयन्हिफलः कियाः।।
उक्त वाक्य से ऐसा प्रतीत होता है कि दरिद्रता से धैर्यहीन हो जाने के कारण अत्यंत कातर हुए माघ की यह उक्ति है। कविवर माघ 120 वर्ष की पूर्ण आयु परास्त करके दिवंगत हुए साथ ही उनकी पत्नी सती हो गई। इनकी अन्तिम क्रिया तक करने वाला कोई व्यक्ति इनके परिवार में नहीं था। ‘भोजप्रबंध’, ‘प्रबंधचिंतामणि’ तथा ‘प्रभावकरित’ के अनुसार भोज की जीवित्तावस्था में दिवंगत हुए, क्योंकि भोज ने ही माघ का दाह संस्कार पुत्रवत् किया था।

माघ निःसन्देह आनंदवर्धन के पूर्ववर्ती है या समकालीन भी हो सकते है। क्यांकि यशोलिप्सा के कारण माघ स्थिर रूप में किसी एक स्थान पर न रह पाये हो उन्होंने निश्चित रूप से उत्तर भारत में कश्मीर तक भ्रमण किया था जिसका उल्लेख काव्य के प्रथम सर्ग का नारद मुनि की जटाओं का वर्णन है। यहीं पर संभव है ध्वन्यालोक में उद्धृत श्लोक को किसी काव्योष्ठी में श्री आनंदवर्धन ने माघ के मुख से सुने हो और उत्तम होने के कारण आनंदवर्धन ने ध्वन्यालोक में उन्हें उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया है।
एक शिलालेख से भी माघ के समय निर्धारण में सहायता मिलती है। राजा वर्मलात का शिलालेख वसन्त गढ़ (सिरोही राज्य में ) से प्राप्त हुआ। यह शिलालेख शक संवत 682 का है। शक संवत में 78 वर्ष जोड़ दिये जाते है तब ईस्वी सन् का ज्ञान होता है। इस प्रकार यह शिलालेख सन् 760 ई के आसपास होना चाहिए।
इस तरह माघ का काल प्रायः 8 वीं और 9 वीं शताब्दियों के बीच स्थिर होता है। इसमें संदेह नहीं किया जा सकता। भोज प्रबंध के अनुसार माघ भोज के समकालीन थे, क्योंकि भोज प्रबंध में माघ के संबंध में यह क्विदंती प्रचलित है कि एक बार माघ ने अपनी संपूर्ण संपत्ति दान कर दी थी। निर्धन स्थिति में उन्होंने एक श्लोक की रचना की जिसे उन्होंने राजा भोज के सभा में भेजा था। यह श्लोक इस प्रकार है।
कुमुदवनमपश्रि श्रीमदम्भोजखण्डे,
मुदति मुद मूलूकः प्रीतिमार्चक्रवाकः।
उदयमहिमरश्मिर्याति शीतांशुरस्तं,
हतविधिलीसतानां ही विचित्रो विपाकः।।
अर्थ- कुमुदवन श्रीहीन हो रहा है, कमल-समूह शोभायुक्त हो रहा है। उल्लू  (दिन में नहीं देख सकने के कारण) प्रसन्नता को तज रहा है, जबकि चकवा (दिन में प्रिया का संग होने के कारण) प्रेममग्न हो रहा है। सूर्य उदित हो रहा है तो चंद्रमा अस्त हो रहा है। दुर्देव की चेष्टाओं का परिणाम विचित्र होता है, कितना आश्चर्यजनक है।
जब राज सभा में उक्त श्लोक को पढ़कर सुनाया गया तो भोज अत्यंत प्रसन्न हुए उन्होंने माघ की पत्नी को बहुत सा धन देकर विदा किया माघ की पत्नी जब वापस लौट रही थी, तो रास्ते मे याचक माघ की दानशीलता की प्रशंसा करते हुए उससे भी मांगने लगे। माघ की पत्नी ने सारा धन याचकों में बांट दिया। जब पत्नी रिक्तहस्त घर पहुंची तो माघ को चिन्ता हुई कि अब कोई याचक आया तो उसे क्या देंगे? माघ की यह चिन्ताजनक स्थिति को देखकर याचक ने यह कहा था-
आश्वास्य पर्वतकुलं तपनोष्ण तप्त,
मुद्यामदामविधुराणि च काननानि।
नानानदीनदशतानि च पुरयित्वा,
रिक्तोऽसि यज्जलद सैव तवोत्तमा श्री।
अर्थ यह है कि ग्रीष्म से तप्त पर्वत समूह का संताप हरने हेतु दावाग्नि से जलते वन की तपन बुझाने में तथा सैकड़ों नदी, नद, नालों को भरने में बादल स्वयं रिक्त हो जाता है, यही उसकी श्रेष्ठ आभा है।
संस्कृत साहित्यकोश में महाकवि माघ एक जाज्वल्यमान के समान है जिन्होंने अपनी काव्यप्रतिभा से संस्कृत जगत् को चमत्कृत किया है। ये एक ओर कालिदास के समान रसवादी कवि है तो दूसरी ओर भारवि सदृश विचित्रमार्ग के पोषक भी। कवियों के मध्य महाकवि कालिदास सुप्रसिद्ध है तो काव्यों में माघ अपना एक विशिष्ट स्थान रखते है।
काव्येषु माघः कवि कालिदासः।
माघ अलंकृत शैली के पण्डित माने जाते है। जहां काव्य के आन्तरिक तत्व की अपेक्षा ब्राह्यतत्व शब्द और अर्थ के चमत्कार देखे जा सकते है। इनकी एकमात्र कृति ‘शिशुपालवधम्’ जिसे महाकाव्य भी कहा जाता है, वृहत्त्रयी में महत्वपूर्ण स्थान रखती है। इस महाकवि के आलोडन के पश्चात् किसी विद्वान ने इसकी महत्वा के विषय में कहा है-‘मेघे माघे गतं वयः।’ माघ विद्वानों के बीच पण्डित कवि के रूप में भी सुप्रसिद्ध है। समीक्षकों का कहना है कि माघ ने भारवि की प्रतिद्वन्दिता में ही महाकाव्य की रचना की क्योंकि माघ पर भारवि का स्पष्ट प्रभाव दिखाई देता है। भले ही माघ ने भारवि के अनुकरण पर अपने महाकाव्य की रचना की हो लेकिन माघ उनसे कहीं अधिक आगे बढ़ गए है इसलिए कहा जाता है-
तावद भा भारवेभीति यावन्माघस्यदोदयः।
माघ जिस शैली के प्रवर्तक थे उनमें प्रायः रस, भाव, अलंकार काव्य वैचित्य बहुलता आदि सभी बातें विद्यमान थी। महाकवि की कविता में हृदय और मस्तिष्क दोनों का अपूर्व मिश्रण था। माघकाव्य में प्राकृतिक वर्णन प्रचुर मात्रा में हुआ है। इनके काव्य में भावागाम्भीर्य भी है। ‘शिशुपालवधम्’ में कतिपय स्थलों पर भावागाम्भीर्य देखकर पाठक अक्सर चकित रह जाते है। कठिन पदोन्योस तथा शब्दबन्ध की सु Üलष्टता जैसी महाकाव्य में देखने को मिलती है वैसी अन्यत्र बहुत कम काव्यों में मिलती है। इनके काव्य को पढ़ते समय मस्तिष्क का पूरा व्यायाम हो जाता है।
कलापक्ष की दृष्टि से भी माघ परिपक्व कवि सिद्ध होते है। कवि के भाषा पक्ष को ही साहित्यकारों ने कलापक्ष नाम दिया है। महाकवि माघ की भाषा के स्वरूप और सौष्ठव को समझने के लिए उनके शब्दकोष, पदयोजना, व्याकरण शब्दशक्ति, प्रयोगकौशल तथा अलंकार आदि सभी को सूक्ष्म रूप से देखना होगा। कालिदास की सरल सुगम कविता की तुलना में माघ की पाण्डित्यपूर्ण कविता में प्रवेश पाने के लिए अध्येता को काव्यशास्त्रीय ज्ञान होना आवश्यक है। वाणी के पीछे अर्थ का स्वतः अनुगमन करने (वाचामर्थोऽनुधावति) की जो दृष्टि भवभूति की रही है तदनुरूप माघ का भी कहना है कि रस भाव के ज्ञाता कवि को ओज, प्रसाद आदि काव्यगुणों का अनुगमन करने की आवश्यकता नहीं है। वे तो कवि की वाणी का स्वतः अनुगमन करते है-
नैकमोजः प्रसादो वा रसभावाविदः कवेः।
माघ के प्रकृति चित्रण में भी उनका वैशिष्ट्य देखने को मिलता है। यद्यपि माघ ने सरोवर, वन, उपवन, पर्वत, नदी, वृक्ष, संध्या, प्रातः, रात्रि, अंधकार आदि का प्रकृति के विभिन्न रूपों का चित्रण उद्दीपन के रूप में किया है फिर भी वह इतना सजीव और हृदयस्पर्शी है कि कोई भी पाठक उसमें डूब जाता है।
माघ का श्रृंगार वर्णन भी उच्च कोटि का है। उन्होंने श्रृंगार के संयोगपक्ष का ही विस्तृत वर्णन किया है। वियोगपक्ष का नहीं। संयोग श्रृंगार का वर्णन भी उन्होंने आलम्बन के रूप में ही किया है।
माघ रसवाधि कवि होने के साथ ही विचित्य तथा चमत्कार से अपनी कविता को कलात्मक के उच्च शिखर पर पहुंचा दिया हैं। एक ही वर्ण में संपूर्ण श्लोक की रचना करना उनके पाण्डित्य का परिचायक है-
दाददो दुद्ददुद्दादी दादादो दूददीददोः।
दुद्दार्द दददे दुद्दे ददाऽददददोऽददः।।
इस प्रसंग में महाकवि माघ ने ‘द’ वर्ण का प्रयोग कर अपनी विद्वता का परिचय दिया है। इसी प्रकार उन्होंने केवल दो वर्णों से भी अनेक श्लोकों की रचना की है जिसका एक उदाहरण प्रस्तुत है।
वरदोऽविवरो वैरिविवारी वारिराऽऽरवः।
विववार वरो वैरं वीरो रविरिवौर्वरः।।
यहाँ केवल ‘व’ और ‘र’ वर्णों का प्रयोग कर कवि ने अपने वर्णनचातुर्य को प्रदर्शित किया है।
इसके अतिरिक्त अनेक अनुलोम-प्रतिलोम प्रयोग विशेष प्रसिद्ध है। इनके एकक्षरपादः, सर्वतोभद्र, गामुत्रिका, बंधःमुरजबंध और यर्थवाची तथा चतुरर्थवाची आदि जटिलतम चित्रबंधों की रचना तत्कालीन कवि समाज की परंपरा की द्योतक है। शिशुपालवधम् के उन्नासवें सर्ग में यही शब्दार्थ कौशल दिखायी पड़ता है।

शिशुपालवधम् की एक छोटी सी घटना को महाभारत के सभापर्व से ग्रहण कर विशालकाय बीस सर्गों के महाकाव्य की रचना माघ के अपूर्व वर्णन कौशल का परिचायक है। शिशुपालवधम् के तीसरे से तेरहवें सर्ग तक आठ सर्गों में माघ ने अपनी मौलिक कल्पना द्वारा वर्णनचातुर्य को प्रदर्शित किया है जहाँ मुख्य विषय गौण हो गया है। उन्होंने चतुर्थ और  पंचम सर्ग में केवल रैवतक पर्वत का वर्णन अत्यन्त ही रोचकतापूर्ण किया है। रेवतक पर्वत को गज के समान तथा दो घण्टे की तुलना चंद्र और सूर्य से कर माघ ने बहुत सुंदर निर्दशना प्रस्तुत की है, जिस पर समीक्षकों द्वारा माघ को ‘घण्टामाघ’ की उपाधि प्रदान की गयी है। रैवतक एक ऐसा पर्वत है जिसका वर्णन माघ के अतिरिक्त किसी दूसरे कवि ने अपने काव्य में नहीं किया है।
वर्णनकुशलता, अलंकारप्रियता, प्रकृति समुपासना के सा޺थ ही माघ एक सफल काव्यशास्त्र भी रहे है। उनके महाकाव्य के अनुशीलन से माघ के विविधशास्त्रविशेषज्ञ होने का ज्ञान होता है। उन्होंने अपने महाकाव्य के माध्यम से हृदय पाठकों एवं कवियों को प्रायः सभी शास्त्रों का सूक्ष्म ज्ञान करा दिया है। काव्यशास्त्रीय सभी विषयों में उनकी गति दिखायी पड़ती है। विविध विषयों जैसे-श्रुतिविषय (वेद), व्याकरणशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, दर्शनशास्त्र, योग, वेदांत, मीमांसा, बौद्ध, सामरिकज्ञान, नाट्यशास्त्र, आयुर्वेदशास्त्र, ज्योतिषशास्त्र, पशुविद्या, संगीतशास्त्र, कामशास्त्र, पाकशास्त्र, साहित्यशास्त्र, व्यावहारिकज्ञान और पौराणिकज्ञान इत्यादि का सूक्ष्म परिचय इस काव्य के अनुशीलन से प्राप्त होता है। माघ का कर्तृत्व
‘एकश्चंद्रस्तमोहन्ति’ उक्ति के अनुसार महाकवि माघ की कीर्ति उनके एकमात्र उपलब्ध महाकाव्य ‘शिशुपालवधम्’ पर आधारित है, जिसका बृहत्रयी और पंचमहाकाव्य में विशिष्ट स्थान है।
शिशुपालवधम् महाकाव्य के अतिरिक्त माघ की अन्य रचनाएं प्राप्त नहीं होती। यद्यपि सुभाषित ग्रंथों में माघ के नाम से कुछ फुटकर पद्य भी मिलते है जिनसे प्रतीत होता है कि माघ की और भी रचनाएं रही होगी जो कालांतर में नष्ट हो गयी। माघ के नाम से जिन ग्रंथों में उनके पद्य मिलते है उनका संदर्भ अधोलिखित है-
बुभुक्षितैव्यकिरण न भुज्यते पिपासितैः काव्यरसो न पीयते।
विधया केनचिदुद्धतं कुलं हिरण्यमेववार्जय निष्फलाः क्रियाः।।
प्रस्तुत श्लोक महाकवि क्षेमेन्द्र की औचित्यविचार चर्चा में माघ के नाम से उल्लिखित है जो शिशुपालवधम् महाकाव्य में नहीं मिलता। सुभाषिरत्न भण्डागार में यह पद्य नाम से प्राप्त होते है-
अर्थाः न सन्ति न च मुंचर्त मां दुराषा त्यागात संकुचित दुर्लवितं मनो मे।
यांचा च लाघवकारी स्ववधे च पापं प्राणः स्वयं व्रजत् किं नु विलम्बितेन।।
इसके अतिरिक्त इनमें ग्रीष्मवर्णनम्, सामान्य नीति, दरिद्रनिन्दा, तेजस्वीप्रशंसा, पानगोष्ठिवर्णनम्, सरलकेलिकथनम्, कथनम्, कुटानि तथा रत्ती स्वभाव इत्यादि में भी माघ के पद्य प्राप्त होते है। जीवन वार्ता में भी माघ के नाम से एक पद्य प्रयुक्त हुआ है।-
उपचरिलत्याः सन्तो यद्यपि कथयन्ति नैकमुपदेशम् यास्तेषां स्वैरकथास्ता एव भवन्ति शास्त्राणि।
उपर्युक्त सभी पद्यों के अतिरिक्त महाकवि माघ से संबंध अन्य पद्य भी है जो भोजप्रबंध और प्रबंधचिंतामणि में माघ के मुख द्वारा मुखरित हुए है। यह पद्य माघ विरचित किसी प्रकाशित या अप्रकाशित ग्रंथ से संबंध हो अथवा न हो क्योंकि माघ को अमरता प्रदान करने के लिए उनका ‘शिशुपालवधम्’ ही प्रर्याप्त है।

विशेष
‘पुरातन-प्रबंध-संग्रह’ में माघ द्वारा एकमात्र महाकाव्य की रचना किये जाने का कारण बताया गया है। माघ काव्य रचना करने के पश्चात् जब अपने पिता को दिखाते तत्व वे उनकी प्रशंसा करने के स्थान पर उनके काव्य की निन्दा किया करते थे। इसलिए माघ ने काव्य रचना करने के पश्चात् उसे रसोई घर में रख दिया कुछ समय पश्चात् जब वह पुस्तक एक प्राचीन पाण्डुलिपि के समान प्रतीत होने लगी तब माघ उसे अपने पिता के पास ले गये जिसको देखकर उनके पिता ने प्रसन्न होकर कहा कि यह वास्तविक कविता है किंतु जब माघ ने उन्हें संपूर्ण वस्तुस्थिति से अवगत करवाया तो उन्होंने क्रोधित होकर माघ को श्राप दिया कि तुमने मुझसे छल किया है, अतः तुम कुछ नहीं लिख पाओंगे। तत्पश्चात् उनके पिता का स्वर्गवास हो गया और अत्यंत धनी होने के कारण माघ का जीवन विलासिता पूर्ण हो गया किंतु उनके महाकाव्य ‘शिशुपालवधम्’  ने उनको प्रसिद्ध महाकवि की उपाधि से विभूषित कर दिया।
शिशुपालवधम् महाकाव्य 20 सर्गों में विभक्त है जिसमें 1650 पद्य है। माघ ने महाभारत को आधार बनाकर अपनी मौलिक कल्पनाओं द्वारा इस महाकाव्य की रचना की है।

‘काव्य’ शब्द भाषा में बहुत प्राचीन है जिसे ‘कवि’ के कर्म के रूप में देखा जाता है। ‘कवेः कर्म काव्यम्’ (कवि $ व्यत्) यह कवि शब्द च्कु  अथवा च्कव् धातु (भ्वादि आत्मनेपद-कवेट) से बना है जिसके तीन अर्थ है-
1.    ध्वनि करना,
2.    विवरण देना और
3.    चित्रण करना।
इस प्रकार शब्दों के द्वारा किसी विषय का आकर्षक विवरण देना या चित्रण करना ही काव्य कहलाता है।
शिशुपालवधम् के सर्गों में निबद्धता- इस काव्य के प्रत्येक सर्ग में न तो 50 से न्यून और नहीं 150 से अधिक श्लोक है। काव्य का प्रारंभ वस्तुनिर्देशात्मक मंगलाचरण से हुआ है-
श्रियः पतिः श्रीमति शासिंतु जगज्जगान्निवासो वसुदेवसद्यनि।
वसत्ददर्शावतरन्तमम्बराद्धिख्यगर्भाङ्गभुर्व मुनि हरिः।।
शिशुपालवधम् के प्रत्येक सर्ग में एक ही छन्द है तथा एक ही छन्द का प्रयोग मिलता है। सर्ग के अंत में लक्षणानुसार छन्द परिवर्तन किया गया है। केवल चतुर्थ सर्ग ही इसका अपवाद है जिसमें अनेक छन्दों का प्रयोग प्राप्त होता है। तृतीय सर्ग में द्वारिका नगरी और अष्टम सर्ग छः ऋतुओं के वर्णन से चमत्कृत है जहाँ पुष्प चयन और जल-क्रीड़ा का भी प्रसंग आया है। नवम् सर्ग में नायिका नायक एवं चंद्रोदय को वर्णित किया गया है। दशम सर्ग में रतिक्रीड़ा का वर्णन है। एकादश सर्ग प्राभाविक सौन्दर्य को दर्शाता है। द्वादश सर्ग में श्रीकृष्ण की सेना का रैवतक पर्वत से इन्द्रप्रस्थ की ओर प्रस्थान करने एवं यमुना नदी का वर्णन है। अन्तिम तीन सर्गों में युद्ध का वर्णन है।
माघ के पाण्डित्य ने शिशुपालवधम् महाकाव्य को आदर्श महाकाव्य का रूप प्रदान कर उसे उच्चकोटि के महाकाव्यों में स्थान दिलाया हैं। मल्लिनाथ ने शिशुपालवधम् महाकाव्य की विशिष्टता को इस प्रकार बताया है-
तेताऽस्मिन्यदुनन्दनः स भगवा वीर प्रधानोरसः
श्रृंगारादिभिरवान् विजयते पूर्णा पुनर्वर्णना।
इन्द्रपथ गमाद्युपायविषयष्चैद्यासादः फल धन्यो
महाकविवयं तु कृतिनस्तत्सूक्तिसंसेवनात्।।
उपर्युक्त विवेचन के आधार पर यह सिद्ध होता है कि शिशुपालवधम् संपूर्ण लक्षणों से युक्त एक महाकाव्य है। ऐसा प्रतीत होता है कि लक्षणकारों ने महाकाव्य को आधार बनाकर ही महाकाव्य के लक्षण निर्धारित किये हैं।


माघ की माता का नाम ब्राह्मी को संस्कृत में सरस्वती भी कहते है इसलिए माघ को सरस्वती पुत्र भी कहा जा सकता है। माघ का जन्म माघ सुदी पूर्णिमा को होने से इनका नाम माघ रखा गया।
माघ का विवाह माल्हणा नामक कन्या के साथ हुआ जो सुंदर एवं गुणवती थी।

माघ का अहंकार
एक बार राजा के साथ महाकवि माघ जंगल में रास्ता भटक गए और एक झोपड़ी  में पहुंचे जहां एक बूढ़ी स्त्री रहती थी। उससे महाकवि का वार्तालाप शुरू हुआ जो इस प्रकार है।
माघ-हे बूढ़ी स्त्री यह रास्ता कहाँ जाता है?
बूढ़ी स्त्री- मूर्ख! रास्ता कहीं नहीं जाता, रास्ते पर तो राहगीर जाते है।
माघ को इस प्रकार के उࢂत्तर की आशा नहीं थी। माघ तिलमिला गये। लेकिन मजबूरी थी, अंधेरा अधिक हो रहा था सो उसने फिर पूछा-
माघ- हम राहगीर है, अब बतादो मार्ग कहाँ जाता है?
बूढ़ी स्त्री- राहगीर तो दो ही है या तो सूर्य या फिर चंद्र। तुम इनमें से कौन हो।
माघ-अच्छा माई! हम राजा के आदमी है, अब तो बतादो।
बूढ़ी स्त्री- राजा तो दो ही है एक इन्द्र दूसरा यम। तुम किस राजा के आदमी हो।
माघ ने कहा-हम क्षमा करने वालों में है।
बूढ़ी स्त्री-क्षमा तो दो व्यक्ति ही करते है एक स्त्री और दूसरी पृथ्वी, तुम इनमें कौन हो?
माघ ने कहा- हम क्षणभंगुर है।
बूढ़ी स्त्री-क्षणभंगुर तो दो ही है एक नवयौवन दूसरा सम्पत्ति, तुम इनमें से किस में हो।
माघ ने हताश हो कर कहा- हम हारने वालों में है।
बूढ़ी स्त्री-हारते तो दो ही है एक जिसका चरित्र चला गया दूसरा जो ऋणि हो जाय। अब बताओं तुम्हारा क्या गया।
माघ उस बुढ़ियां के चरणों में गिर पड़ा और पैर पकड़ लिए। हे माँ तुम कौन हो।
तब उस बुढ़िया माता ने कहा -उठो महा कवि माघ।
कवि माघ चौक गए कि यह स्त्री हमें जानती थी।
-हा कवि माघ मैंने तुमको देखते ही पहचान लिया था, तुम्हारें अहंकार के बारें में भी जानती हूं। अपने अहम् के कारण तुम कुछ लोगों को ही प्रिय हो लेकिन यह अहंकार नहीं रहेगा तो सर्वप्रिय हो जाओंगे।


कहीं पर उनकी पत्नी का नाम विद्यावती भी आया है।

महाकवि माघ के पास कुछ नहीं रहा और जब लौट रहे दुखियों-पीड़ितों के चेहरे पर गहरी हो गई निराशा को देखकर माघ व्याकुल हो उठे। उनके हृदय की विह्वलता वाणी से फूट पड़ी-‘मेरे प्राणों!  तुम और कुछ नहीं दे सकते पर इनकी सहायतार्थ इनके साथ तो जा सकते हो। धन से न सही संभव है प्राणों से ही उनकी सेवा करने का सौभाग्य मिल जाय। ऐसा सुंदर अवसर न जाने फिर कब मिलेगा?’
इन अंतिम शब्दों के साथ महाकवि माघ की जीर्ण काया एक ओर लुढ़क गई। चेतना ने अपने पाँव समेट लिए और अनंत अंतरिक्ष में न जाने कहाँ विलीन हो गई।
माघ जयंती पर विशेष
संस्कृत के श्रेष्ठ कवियों में माघ की गणना की जाती है। उनका समय लगभग 675 ई. निर्धारित किया गया है। उनकी प्रसिद्ध रचना‘शिशुपालवध’ नामक महाकाव्य है। इसकी कथा भी महाभारत से ली गई है। इस ग्रंथ में युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ के अवसर पर चेदि नरेश शिशुपाल को कृष्ण द्वारा वध करने की कथा का काव्यात्मक चित्रण किया गया है। माघ वैष्णव मतानुयायी थे। इनकी ईच्छा अपने वैष्णव काव्य के माध्यम से शैव मतानुयायी भारवि से आगे बढ़ने की थी। इसके निमित्त उन्होंने कई प्रयत्न भी किये। उन्होंने अपने ग्रंथ की रचना किरातार्जुनीयम् की पद्धति पर की। किरात की भांति शिशुपालवध का प्रारंभ भी ‘श्री’ शब्द से होता है।
माघ अलंकृत काव्य शैली के आचार्य है तथा उन्होंने अलंकारों से सुसज्जित पदों का प्रयोग कुशलता से किया है। प्रकृति दृश्यों का वर्णन करने में भी वे दक्ष थे। भारतीय आलोचक उनमें कालिदास जैसी उपमा, भारवि जैसा अर्थ गौरव तथा दण्डी जैसा पदलालित्य, इन तीनों गुणों को देखते है।
माघ ने नवीन चमत्कारिक उपमाओं का सृजन किया है। माघ व्याकरण, दर्शन, राजनीति, काव्यशास्त्र, संगीत आदि के प्रकाण्ड पण्डित थे तथा उनके ग्रंथ में ये सभी विशेषताएं स्थान-स्थान पर देखने को मिलती है। उनका व्याकरण संबंधी ज्ञान तो अगाध था। पदों की रचना में उन्होंने नये-नये शब्दों का चयन किया है। उनका काव्य शब्दों का विश्वकोष प्रतीत होता है। माघ के विषय में उक्ति प्रसिद्ध है कि शिशुपालवध का नवां सर्ग समाप्त होने पर कोई नया शब्द शेष नहीं बचता है। उनका शब्द विन्यास विद्वतापूर्ण होने के साथ मधुर एवं सुन्दर भी है। माघ की कविता में ललित विन्यास भी देखने को मिलता है। कालान्तर में कवियों ने उनकी अलंकृत शैली का अनुकरण किया है।
महाकविमाघ का सामान्य परिचय
संस्कृत साहित्य के काव्यकारों में माघ का उत्कृष्ट स्थान रहा है। यही धारणा है कि उनके द्वारा विरचित ‘शिशुपालवध’ महाकाव्य को संस्कृत की वृहत्रयी में विशिष्ट स्थान मिला है। महाकवि माघ ने काव्य के 20 वें सर्ग के अन्त में प्रशक्ति के रूप में लिए हुए पांच श्लोकों में अपना स्वल्पपरिचय अंकित कर दिया है जिसके सहारे तथा काव्य में यत्र-तत्र निषद्ध संकेतों से तथा अन्य प्रमाणों के आधार पर कविवर माघ के जीवन की रूपरेखा अर्थात् उनका जन्म समय, जन्म स्थान तथा उनके राजाश्रय को जाना जा सकता है।
प्रसिद्ध टीकाकार मल्लिनाथ ने प्रशस्तिरूप में लिखे इन पांच श्लोकों की व्याख्या नहीं की है। केवल वल्लभदेव कृत व्याख्या ही हमें देखने को मिलती है। इसी प्रकार 15 वें सर्ग में 39 वें श्लोक के पश्चात् द्वयर्थक 34 श्लोक रखे गए है। इसके पश्चात् 40 वां श्लोक है।
‘कविवंश वर्णन के पांच श्लोक प्रक्षिप्त है’ यह कहना केवल कपोल कल्पना है।
इन्हीं श्लोकों से स्पष्ट होता है कि दत्तक के पुत्र माघ ने सुकवि कीर्ति को परास्त करने की अभिलाषा से शिशुपालवध’ नामक काव्य की रचना की है। जिसमें श्रीकृष्ण चरित वर्णित है और प्रति सर्ग की समाप्ति पर ‘श्री’ अथवा उसका पर्यायवाची अन्य कोई शब्द अवश्य दिया गया है। यहां ध्यातव्य यह है कि कवि ने 19 वें सर्ग के अन्तिम श्लोक ‘चक्रबंध’ में किसी रूप में बड़ी निपुणता से माकाव्यमिदम् शिशुपालवधम् तक अंकित कर दिया हैं। कविवर माघ का जन्म राजस्थान की पुण्य धरा भीनमाल में राजा वर्मलात के मंत्री सुप्रसिद्ध  ब्राह्मण सुप्रभदेव के पुत्र कुमुदपण्डित (दत्तक) की धर्म पत्नी वराही के गर्भ से माघ की पूर्णिमा को हुआ था। कहा जाता है कि इनके जन्म समय की कुण्डली देखकर ज्योतिषी ने कहा था कि यह बालक उद्भट विद्वान, अत्यन्त विनीत, दयालु, दानी और वैभव समपन्न होगा। किन्तु जीवन की अन्तिम अवस्था में यह निर्धन हो जायेगा। यह बालक पूर्ण आयु प्राप्त करके पैरों में सूजन आने पर दिवंगत हो जायेगा। ज्योतिषी की भविष्यवाणी पर विश्वास करके उनके पिता कुमुद पण्डित दत्तक ने जो एक ओष्ठी धनी थे, प्रभूतधनरत्नादि की सम्पत्ति को भूमि में घड़ों में भरकर गाड़ दिया था और शेष बचा हुआ धन माघ को दे दिया था। कहा जाता है कि ‘शिशुपालवध’ की कुछ रचना उन्होंने परदेश में रहते हुए की थी और शेष भाग की रचना वृद्धावस्था में घर पर रहकर ही की। अन्तिम अवस्था में वे अत्यधिक दरिद्रावस्था में थे। ‘भोज प्रबंध’ में उनकी पत्नी प्रलाप करती हुई कहती है कि जिसके द्वार पर एक दिन राजा आश्रय के लिए ठहरा करते थे आज वही व्यक्ति दाने-दाने के लिए तरस रहा है। क्षेमेन्द्रकृत ‘औचित्य विचार-विमर्श’ में पण्डित महाकवि माघ का अधोलिखित पद्य माघ की उक्त दशा का निदर्शक है-
बुभुक्षितैत्यकिरणं न भुज्यते न पीयते काव्यरसः पिपासितेः।
न विद्यया केनचिदुदूधृतं कुलं हिरण्यमेवार्जयन्हिफलः कियाः।।
उक्त वाक्य से ऐसा प्रतीत होता है कि दरिद्रता से धैर्यहीन हो जाने के कारण अत्यंत कातर हुए माघ की यह उक्ति है। कविवर माघ 120 वर्ष की पूर्ण आयु परास्त करके दिवंगत हुए साथ ही उनकी पत्नी सती हो गई। इनकी अन्तिम क्रिया तक करने वाला कोई व्यक्ति इनके परिवार में नहीं था। ‘भोजप्रबंध’, ‘प्रबंधचिंतामणि’ तथा ‘प्रभावकरित’ के अनुसार भोज की जीवित्तावस्था में दिवंगत हुए, क्योंकि भोज ने ही माघ का दाह संस्कार पुत्रवत् किया था।

माघ निःसन्देह आनंदवर्धन के पूर्ववर्ती है या समकालीन भी हो सकते है। क्यांकि यशोलिप्सा के कारण माघ स्थिर रूप में किसी एक स्थान पर न रह पाये हो उन्होंने निश्चित रूप से उत्तर भारत में कश्मीर तक भ्रमण किया था जिसका उल्लेख काव्य के प्रथम सर्ग का नारद मुनि की जटाओं का वर्णन है। यहीं पर संभव है ध्वन्यालोक में उद्धृत श्लोक को किसी काव्योष्ठी में श्री आनंदवर्धन ने माघ के मुख से सुने हो और उत्तम होने के कारण आनंदवर्धन ने ध्वन्यालोक में उन्हें उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया है।
एक शिलालेख से भी माघ के समय निर्धारण में सहायता मिलती है। राजा वर्मलात का शिलालेख वसन्त गढ़ (सिरोही राज्य में ) से प्राप्त हुआ। यह शिलालेख शक संवत 682 का है। शक संवत में 78 वर्ष जोड़ दिये जाते है तब ईस्वी सन् का ज्ञान होता है। इस प्रकार यह शिलालेख सन् 760 ई के आसपास होना चाहिए।
इस तरह माघ का काल प्रायः 8 वीं और 9 वीं शताब्दियों के बीच स्थिर होता है। इसमें संदेह नहीं किया जा सकता। भोज प्रबंध के अनुसार माघ भोज के समकालीन थे, क्योंकि भोज प्रबंध में माघ के संबंध में यह क्विदंती प्रचलित है कि एक बार माघ ने अपनी संपूर्ण संपत्ति दान कर दी थी। निर्धन स्थिति में उन्होंने एक श्लोक की रचना की जिसे उन्होंने राजा भोज के सभा में भेजा था। यह श्लोक इस प्रकार है।
कुमुदवनमपश्रि श्रीमदम्भोजखण्डे,
मुदति मुद मूलूकः प्रीतिमार्चक्रवाकः।
उदयमहिमरश्मिर्याति शीतांशुरस्तं,
हतविधिलीसतानां ही विचित्रो विपाकः।।
अर्थ- कुमुदवन श्रीहीन हो रहा है, कमल-समूह शोभायुक्त हो रहा है। उल्लू  (दिन में नहीं देख सकने के कारण) प्रसन्नता को तज रहा है, जबकि चकवा (दिन में प्रिया का संग होने के कारण) प्रेममग्न हो रहा है। सूर्य उदित हो रहा है तो चंद्रमा अस्त हो रहा है। दुर्देव की चेष्टाओं का परिणाम विचित्र होता है, कितना आश्चर्यजनक है।
जब राज सभा में उक्त श्लोक को पढ़कर सुनाया गया तो भोज अत्यंत प्रसन्न हुए उन्होंने माघ की पत्नी को बहुत सा धन देकर विदा किया माघ की पत्नी जब वापस लौट रही थी, तो रास्ते मे याचक माघ की दानशीलता की प्रशंसा करते हुए उससे भी मांगने लगे। माघ की पत्नी ने सारा धन याचकों में बांट दिया। जब पत्नी रिक्तहस्त घर पहुंची तो माघ को चिन्ता हुई कि अब कोई याचक आया तो उसे क्या देंगे? माघ की यह चिन्ताजनक स्थिति को देखकर याचक ने यह कहा था-
आश्वास्य पर्वतकुलं तपनोष्ण तप्त,
मुद्यामदामविधुराणि च काननानि।
नानानदीनदशतानि च पुरयित्वा,
रिक्तोऽसि यज्जलद सैव तवोत्तमा श्री।
अर्थ यह है कि ग्रीष्म से तप्त पर्वत समूह का संताप हरने हेतु दावाग्नि से जलते वन की तपन बुझाने में तथा सैकड़ों नदी, नद, नालों को भरने में बादल स्वयं रिक्त हो जाता है, यही उसकी श्रेष्ठ आभा है।
संस्कृत साहित्यकोश में महाकवि माघ एक जाज्वल्यमान के समान है जिन्होंने अपनी काव्यप्रतिभा से संस्कृत जगत् को चमत्कृत किया है। ये एक ओर कालिदास के समान रसवादी कवि है तो दूसरी ओर भारवि सदृश विचित्रमार्ग के पोषक भी। कवियों के मध्य महाकवि कालिदास सुप्रसिद्ध है तो काव्यों में माघ अपना एक विशिष्ट स्थान रखते है।
काव्येषु माघः कवि कालिदासः।
माघ अलंकृत शैली के पण्डित माने जाते है। जहां काव्य के आन्तरिक तत्व की अपेक्षा ब्राह्यतत्व शब्द और अर्थ के चमत्कार देखे जा सकते है। इनकी एकमात्र कृति ‘शिशुपालवधम्’ जिसे महाकाव्य भी कहा जाता है, वृहत्त्रयी में महत्वपूर्ण स्थान रखती है। इस महाकवि के आलोडन के पश्चात् किसी विद्वान ने इसकी महत्वा के विषय में कहा है-‘मेघे माघे गतं वयः।’ माघ विद्वानों के बीच पण्डित कवि के रूप में भी सुप्रसिद्ध है। समीक्षकों का कहना है कि माघ ने भारवि की प्रतिद्वन्दिता में ही महाकाव्य की रचना की क्योंकि माघ पर भारवि का स्पष्ट प्रभाव दिखाई देता है। भले ही माघ ने भारवि के अनुकरण पर अपने महाकाव्य की रचना की हो लेकिन माघ उनसे कहीं अधिक आगे बढ़ गए है इसलिए कहा जाता है-
तावद भा भारवेभीति यावन्माघस्यदोदयः।
माघ जिस शैली के प्रवर्तक थे उनमें प्रायः रस, भाव, अलंकार काव्य वैचित्य बहुलता आदि सभी बातें विद्यमान थी। महाकवि की कविता में हृदय और मस्तिष्क दोनों का अपूर्व मिश्रण था। माघकाव्य में प्राकृतिक वर्णन प्रचुर मात्रा में हुआ है। इनके काव्य में भावागाम्भीर्य भी है। ‘शिशुपालवधम्’ में कतिपय स्थलों पर भावागाम्भीर्य देखकर पाठक अक्सर चकित रह जाते है। कठिन पदोन्योस तथा शब्दबन्ध की सु Üलष्टता जैसी महाकाव्य में देखने को मिलती है वैसी अन्यत्र बहुत कम काव्यों में मिलती है। इनके काव्य को पढ़ते समय मस्तिष्क का पूरा व्यायाम हो जाता है।
कलापक्ष की दृष्टि से भी माघ परिपक्व कवि सिद्ध होते है। कवि के भाषा पक्ष को ही साहित्यकारों ने कलापक्ष नाम दिया है। महाकवि माघ की भाषा के स्वरूप और सौष्ठव को समझने के लिए उनके शब्दकोष, पदयोजना, व्याकरण शब्दशक्ति, प्रयोगकौशल तथा अलंकार आदि सभी को सूक्ष्म रूप से देखना होगा। कालिदास की सरल सुगम कविता की तुलना में माघ की पाण्डित्यपूर्ण कविता में प्रवेश पाने के लिए अध्येता को काव्यशास्त्रीय ज्ञान होना आवश्यक है। वाणी के पीछे अर्थ का स्वतः अनुगमन करने (वाचामर्थोऽनुधावति) की जो दृष्टि भवभूति की रही है तदनुरूप माघ का भी कहना है कि रस भाव के ज्ञाता कवि को ओज, प्रसाद आदि काव्यगुणों का अनुगमन करने की आवश्यकता नहीं है। वे तो कवि की वाणी का स्वतः अनुगमन करते है-
नैकमोजः प्रसादो वा रसभावाविदः कवेः।
माघ के प्रकृति चित्रण में भी उनका वैशिष्ट्य देखने को मिलता है। यद्यपि माघ ने सरोवर, वन, उपवन, पर्वत, नदी, वृक्ष, संध्या, प्रातः, रात्रि, अंधकार आदि का प्रकृति के विभिन्न रूपों का चित्रण उद्दीपन के रूप में किया है फिर भी वह इतना सजीव और हृदयस्पर्शी है कि कोई भी पाठक उसमें डूब जाता है।
माघ का श्रृंगार वर्णन भी उच्च कोटि का है। उन्होंने श्रृंगार के संयोगपक्ष का ही विस्तृत वर्णन किया है। वियोगपक्ष का नहीं। संयोग श्रृंगार का वर्णन भी उन्होंने आलम्बन के रूप में ही किया है।
माघ रसवाधि कवि होने के साथ ही विचित्य तथा चमत्कार से अपनी कविता को कलात्मक के उच्च शिखर पर पहुंचा दिया हैं। एक ही वर्ण में संपूर्ण श्लोक की रचना करना उनके पाण्डित्य का परिचायक है-
दाददो दुद्ददुद्दादी दादादो दूददीददोः।
दुद्दार्द दददे दुद्दे ददाऽददददोऽददः।।
इस प्रसंग में महाकवि माघ ने ‘द’ वर्ण का प्रयोग कर अपनी विद्वता का परिचय दिया है। इसी प्रकार उन्होंने केवल दो वर्णों से भी अनेक श्लोकों की रचना की है जिसका एक उदाहरण प्रस्तुत है।
वरदोऽविवरो वैरिविवारी वारिराऽऽरवः।
विववार वरो वैरं वीरो रविरिवौर्वरः।।
यहाँ केवल ‘व’ और ‘र’ वर्णों का प्रयोग कर कवि ने अपने वर्णनचातुर्य को प्रदर्शित किया है।
इसके अतिरिक्त अनेक अनुलोम-प्रतिलोम प्रयोग विशेष प्रसिद्ध है। इनके एकक्षरपादः, सर्वतोभद्र, गामुत्रिका, बंधःमुरजबंध और यर्थवाची तथा चतुरर्थवाची आदि जटिलतम चित्रबंधों की रचना तत्कालीन कवि समाज की परंपरा की द्योतक है। शिशुपालवधम् के उन्नासवें सर्ग में यही शब्दार्थ कौशल दिखायी पड़ता है।

शिशुपालवधम् की एक छोटी सी घटना को महाभारत के सभापर्व से ग्रहण कर विशालकाय बीस सर्गों के महाकाव्य की रचना माघ के अपूर्व वर्णन कौशल का परिचायक है। शिशुपालवधम् के तीसरे से तेरहवें सर्ग तक आठ सर्गों में माघ ने अपनी मौलिक कल्पना द्वारा वर्णनचातुर्य को प्रदर्शित किया है जहाँ मुख्य विषय गौण हो गया है। उन्होंने चतुर्थ और  पंचम सर्ग में केवल रैवतक पर्वत का वर्णन अत्यन्त ही रोचकतापूर्ण किया है। रेवतक पर्वत को गज के समान तथा दो घण्टे की तुलना चंद्र और सूर्य से कर माघ ने बहुत सुंदर निर्दशना प्रस्तुत की है, जिस पर समीक्षकों द्वारा माघ को ‘घण्टामाघ’ की उपाधि प्रदान की गयी है। रैवतक एक ऐसा पर्वत है जिसका वर्णन माघ के अतिरिक्त किसी दूसरे कवि ने अपने काव्य में नहीं किया है।
वर्णनकुशलता, अलंकारप्रियता, प्रकृति समुपासना के सा޺थ ही माघ एक सफल काव्यशास्त्र भी रहे है। उनके महाकाव्य के अनुशीलन से माघ के विविधशास्त्रविशेषज्ञ होने का ज्ञान होता है। उन्होंने अपने महाकाव्य के माध्यम से हृदय पाठकों एवं कवियों को प्रायः सभी शास्त्रों का सूक्ष्म ज्ञान करा दिया है। काव्यशास्त्रीय सभी विषयों में उनकी गति दिखायी पड़ती है। विविध विषयों जैसे-श्रुतिविषय (वेद), व्याकरणशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, दर्शनशास्त्र, योग, वेदांत, मीमांसा, बौद्ध, सामरिकज्ञान, नाट्यशास्त्र, आयुर्वेदशास्त्र, ज्योतिषशास्त्र, पशुविद्या, संगीतशास्त्र, कामशास्त्र, पाकशास्त्र, साहित्यशास्त्र, व्यावहारिकज्ञान और पौराणिकज्ञान इत्यादि का सूक्ष्म परिचय इस काव्य के अनुशीलन से प्राप्त होता है। माघ का कर्तृत्व
‘एकश्चंद्रस्तमोहन्ति’ उक्ति के अनुसार महाकवि माघ की कीर्ति उनके एकमात्र उपलब्ध महाकाव्य ‘शिशुपालवधम्’ पर आधारित है, जिसका बृहत्रयी और पंचमहाकाव्य में विशिष्ट स्थान है।
शिशुपालवधम् महाकाव्य के अतिरिक्त माघ की अन्य रचनाएं प्राप्त नहीं होती। यद्यपि सुभाषित ग्रंथों में माघ के नाम से कुछ फुटकर पद्य भी मिलते है जिनसे प्रतीत होता है कि माघ की और भी रचनाएं रही होगी जो कालांतर में नष्ट हो गयी। माघ के नाम से जिन ग्रंथों में उनके पद्य मिलते है उनका संदर्भ अधोलिखित है-
बुभुक्षितैव्यकिरण न भुज्यते पिपासितैः काव्यरसो न पीयते।
विधया केनचिदुद्धतं कुलं हिरण्यमेववार्जय निष्फलाः क्रियाः।।
प्रस्तुत श्लोक महाकवि क्षेमेन्द्र की औचित्यविचार चर्चा में माघ के नाम से उल्लिखित है जो शिशुपालवधम् महाकाव्य में नहीं मिलता। सुभाषिरत्न भण्डागार में यह पद्य नाम से प्राप्त होते है-
अर्थाः न सन्ति न च मुंचर्त मां दुराषा त्यागात संकुचित दुर्लवितं मनो मे।
यांचा च लाघवकारी स्ववधे च पापं प्राणः स्वयं व्रजत् किं नु विलम्बितेन।।
इसके अतिरिक्त इनमें ग्रीष्मवर्णनम्, सामान्य नीति, दरिद्रनिन्दा, तेजस्वीप्रशंसा, पानगोष्ठिवर्णनम्, सरलकेलिकथनम्, कथनम्, कुटानि तथा रत्ती स्वभाव इत्यादि में भी माघ के पद्य प्राप्त होते है। जीवन वार्ता में भी माघ के नाम से एक पद्य प्रयुक्त हुआ है।-
उपचरिलत्याः सन्तो यद्यपि कथयन्ति नैकमुपदेशम् यास्तेषां स्वैरकथास्ता एव भवन्ति शास्त्राणि।
उपर्युक्त सभी पद्यों के अतिरिक्त महाकवि माघ से संबंध अन्य पद्य भी है जो भोजप्रबंध और प्रबंधचिंतामणि में माघ के मुख द्वारा मुखरित हुए है। यह पद्य माघ विरचित किसी प्रकाशित या अप्रकाशित ग्रंथ से संबंध हो अथवा न हो क्योंकि माघ को अमरता प्रदान करने के लिए उनका ‘शिशुपालवधम्’ ही प्रर्याप्त है।

विशेष
‘पुरातन-प्रबंध-संग्रह’ में माघ द्वारा एकमात्र महाकाव्य की रचना किये जाने का कारण बताया गया है। माघ काव्य रचना करने के पश्चात् जब अपने पिता को दिखाते तत्व वे उनकी प्रशंसा करने के स्थान पर उनके काव्य की निन्दा किया करते थे। इसलिए माघ ने काव्य रचना करने के पश्चात् उसे रसोई घर में रख दिया कुछ समय पश्चात् जब वह पुस्तक एक प्राचीन पाण्डुलिपि के समान प्रतीत होने लगी तब माघ उसे अपने पिता के पास ले गये जिसको देखकर उनके पिता ने प्रसन्न होकर कहा कि यह वास्तविक कविता है किंतु जब माघ ने उन्हें संपूर्ण वस्तुस्थिति से अवगत करवाया तो उन्होंने क्रोधित होकर माघ को श्राप दिया कि तुमने मुझसे छल किया है, अतः तुम कुछ नहीं लिख पाओंगे। तत्पश्चात् उनके पिता का स्वर्गवास हो गया और अत्यंत धनी होने के कारण माघ का जीवन विलासिता पूर्ण हो गया किंतु उनके महाकाव्य ‘शिशुपालवधम्’  ने उनको प्रसिद्ध महाकवि की उपाधि से विभूषित कर दिया।
शिशुपालवधम् महाकाव्य 20 सर्गों में विभक्त है जिसमें 1650 पद्य है। माघ ने महाभारत को आधार बनाकर अपनी मौलिक कल्पनाओं द्वारा इस महाकाव्य की रचना की है।

‘काव्य’ शब्द भाषा में बहुत प्राचीन है जिसे ‘कवि’ के कर्म के रूप में देखा जाता है। ‘कवेः कर्म काव्यम्’ (कवि $ व्यत्) यह कवि शब्द च्कु  अथवा च्कव् धातु (भ्वादि आत्मनेपद-कवेट) से बना है जिसके तीन अर्थ है-
1.    ध्वनि करना,
2.    विवरण देना और
3.    चित्रण करना।
इस प्रकार शब्दों के द्वारा किसी विषय का आकर्षक विवरण देना या चित्रण करना ही काव्य कहलाता है।
शिशुपालवधम् के सर्गों में निबद्धता- इस काव्य के प्रत्येक सर्ग में न तो 50 से न्यून और नहीं 150 से अधिक श्लोक है। काव्य का प्रारंभ वस्तुनिर्देशात्मक मंगलाचरण से हुआ है-
श्रियः पतिः श्रीमति शासिंतु जगज्जगान्निवासो वसुदेवसद्यनि।
वसत्ददर्शावतरन्तमम्बराद्धिख्यगर्भाङ्गभुर्व मुनि हरिः।।
शिशुपालवधम् के प्रत्येक सर्ग में एक ही छन्द है तथा एक ही छन्द का प्रयोग मिलता है। सर्ग के अंत में लक्षणानुसार छन्द परिवर्तन किया गया है। केवल चतुर्थ सर्ग ही इसका अपवाद है जिसमें अनेक छन्दों का प्रयोग प्राप्त होता है। तृतीय सर्ग में द्वारिका नगरी और अष्टम सर्ग छः ऋतुओं के वर्णन से चमत्कृत है जहाँ पुष्प चयन और जल-क्रीड़ा का भी प्रसंग आया है। नवम् सर्ग में नायिका नायक एवं चंद्रोदय को वर्णित किया गया है। दशम सर्ग में रतिक्रीड़ा का वर्णन है। एकादश सर्ग प्राभाविक सौन्दर्य को दर्शाता है। द्वादश सर्ग में श्रीकृष्ण की सेना का रैवतक पर्वत से इन्द्रप्रस्थ की ओर प्रस्थान करने एवं यमुना नदी का वर्णन है। अन्तिम तीन सर्गों में युद्ध का वर्णन है।
माघ के पाण्डित्य ने शिशुपालवधम् महाकाव्य को आदर्श महाकाव्य का रूप प्रदान कर उसे उच्चकोटि के महाकाव्यों में स्थान दिलाया हैं। मल्लिनाथ ने शिशुपालवधम् महाकाव्य की विशिष्टता को इस प्रकार बताया है-
तेताऽस्मिन्यदुनन्दनः स भगवा वीर प्रधानोरसः
श्रृंगारादिभिरवान् विजयते पूर्णा पुनर्वर्णना।
इन्द्रपथ गमाद्युपायविषयष्चैद्यासादः फल धन्यो
महाकविवयं तु कृतिनस्तत्सूक्तिसंसेवनात्।।
उपर्युक्त विवेचन के आधार पर यह सिद्ध होता है कि शिशुपालवधम् संपूर्ण लक्षणों से युक्त एक महाकाव्य है। ऐसा प्रतीत होता है कि लक्षणकारों ने महाकाव्य को आधार बनाकर ही महाकाव्य के लक्षण निर्धारित किये हैं।


माघ की माता का नाम ब्राह्मी को संस्कृत में सरस्वती भी कहते है इसलिए माघ को सरस्वती पुत्र भी कहा जा सकता है। माघ का जन्म माघ सुदी पूर्णिमा को होने से इनका नाम माघ रखा गया।
माघ का विवाह माल्हणा नामक कन्या के साथ हुआ जो सुंदर एवं गुणवती थी।

माघ का अहंकार
एक बार राजा के साथ महाकवि माघ जंगल में रास्ता भटक गए और एक झोपड़ी  में पहुंचे जहां एक बूढ़ी स्त्री रहती थी। उससे महाकवि का वार्तालाप शुरू हुआ जो इस प्रकार है।
माघ-हे बूढ़ी स्त्री यह रास्ता कहाँ जाता है?
बूढ़ी स्त्री- मूर्ख! रास्ता कहीं नहीं जाता, रास्ते पर तो राहगीर जाते है।
माघ को इस प्रकार के उࢂत्तर की आशा नहीं थी। माघ तिलमिला गये। लेकिन मजबूरी थी, अंधेरा अधिक हो रहा था सो उसने फिर पूछा-
माघ- हम राहगीर है, अब बतादो मार्ग कहाँ जाता है?
बूढ़ी स्त्री- राहगीर तो दो ही है या तो सूर्य या फिर चंद्र। तुम इनमें से कौन हो।
माघ-अच्छा माई! हम राजा के आदमी है, अब तो बतादो।
बूढ़ी स्त्री- राजा तो दो ही है एक इन्द्र दूसरा यम। तुम किस राजा के आदमी हो।
माघ ने कहा-हम क्षमा करने वालों में है।
बूढ़ी स्त्री-क्षमा तो दो व्यक्ति ही करते है एक स्त्री और दूसरी पृथ्वी, तुम इनमें कौन हो?
माघ ने कहा- हम क्षणभंगुर है।
बूढ़ी स्त्री-क्षणभंगुर तो दो ही है एक नवयौवन दूसरा सम्पत्ति, तुम इनमें से किस में हो।
माघ ने हताश हो कर कहा- हम हारने वालों में है।
बूढ़ी स्त्री-हारते तो दो ही है एक जिसका चरित्र चला गया दूसरा जो ऋणि हो जाय। अब बताओं तुम्हारा क्या गया।
माघ उस बुढ़ियां के चरणों में गिर पड़ा और पैर पकड़ लिए। हे माँ तुम कौन हो।
तब उस बुढ़िया माता ने कहा -उठो महा कवि माघ।
कवि माघ चौक गए कि यह स्त्री हमें जानती थी।
-हा कवि माघ मैंने तुमको देखते ही पहचान लिया था, तुम्हारें अहंकार के बारें में भी जानती हूं। अपने अहम् के कारण तुम कुछ लोगों को ही प्रिय हो लेकिन यह अहंकार नहीं रहेगा तो सर्वप्रिय हो जाओंगे।


कहीं पर उनकी पत्नी का नाम विद्यावती भी आया है।

महाकवि माघ के पास कुछ नहीं रहा और जब लौट रहे दुखियों-पीड़ितों के चेहरे पर गहरी हो गई निराशा को देखकर माघ व्याकुल हो उठे। उनके हृदय की विह्वलता वाणी से फूट पड़ी-‘मेरे प्राणों!  तुम और कुछ नहीं दे सकते पर इनकी सहायतार्थ इनके साथ तो जा सकते हो। धन से न सही संभव है प्राणों से ही उनकी सेवा करने का सौभाग्य मिल जाय। ऐसा सुंदर अवसर न जाने फिर कब मिलेगा?’
इन अंतिम शब्दों के साथ महाकवि माघ की जीर्ण काया एक ओर लुढ़क गई। चेतना ने अपने पाँव समेट लिए और अनंत अंतरिक्ष में न जाने कहाँ विलीन हो गई।
 कृतिदेव यहां माघ जयंती पर विशेष
संस्कृत के श्रेष्ठ कवियों में माघ की गणना की जाती है। उनका समय लगभग 675 ई. निर्धारित किया गया है। उनकी प्रसिद्ध रचना‘शिशुपालवध’ नामक महाकाव्य है। इसकी कथा भी महाभारत से ली गई है। इस ग्रंथ में युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ के अवसर पर चेदि नरेश शिशुपाल को कृष्ण द्वारा वध करने की कथा का काव्यात्मक चित्रण किया गया है। माघ वैष्णव मतानुयायी थे। इनकी ईच्छा अपने वैष्णव काव्य के माध्यम से शैव मतानुयायी भारवि से आगे बढ़ने की थी। इसके निमित्त उन्होंने कई प्रयत्न भी किये। उन्होंने अपने ग्रंथ की रचना किरातार्जुनीयम् की पद्धति पर की। किरात की भांति शिशुपालवध का प्रारंभ भी ‘श्री’ शब्द से होता है।
माघ अलंकृत काव्य शैली के आचार्य है तथा उन्होंने अलंकारों से सुसज्जित पदों का प्रयोग कुशलता से किया है। प्रकृति दृश्यों का वर्णन करने में भी वे दक्ष थे। भारतीय आलोचक उनमें कालिदास जैसी उपमा, भारवि जैसा अर्थ गौरव तथा दण्डी जैसा पदलालित्य, इन तीनों गुणों को देखते है।
माघ ने नवीन चमत्कारिक उपमाओं का सृजन किया है। माघ व्याकरण, दर्शन, राजनीति, काव्यशास्त्र, संगीत आदि के प्रकाण्ड पण्डित थे तथा उनके ग्रंथ में ये सभी विशेषताएं स्थान-स्थान पर देखने को मिलती है। उनका व्याकरण संबंधी ज्ञान तो अगाध था। पदों की रचना में उन्होंने नये-नये शब्दों का चयन किया है। उनका काव्य शब्दों का विश्वकोष प्रतीत होता है। माघ के विषय में उक्ति प्रसिद्ध है कि शिशुपालवध का नवां सर्ग समाप्त होने पर कोई नया शब्द शेष नहीं बचता है। उनका शब्द विन्यास विद्वतापूर्ण होने के साथ मधुर एवं सुन्दर भी है। माघ की कविता में ललित विन्यास भी देखने को मिलता है। कालान्तर में कवियों ने उनकी अलंकृत शैली का अनुकरण किया है।
महाकविमाघ का सामान्य परिचय
संस्कृत साहित्य के काव्यकारों में माघ का उत्कृष्ट स्थान रहा है। यही धारणा है कि उनके द्वारा विरचित ‘शिशुपालवध’ महाकाव्य को संस्कृत की वृहत्रयी में विशिष्ट स्थान मिला है। महाकवि माघ ने काव्य के 20 वें सर्ग के अन्त में प्रशक्ति के रूप में लिए हुए पांच श्लोकों में अपना स्वल्पपरिचय अंकित कर दिया है जिसके सहारे तथा काव्य में यत्र-तत्र निषद्ध संकेतों से तथा अन्य प्रमाणों के आधार पर कविवर माघ के जीवन की रूपरेखा अर्थात् उनका जन्म समय, जन्म स्थान तथा उनके राजाश्रय को जाना जा सकता है।
प्रसिद्ध टीकाकार मल्लिनाथ ने प्रशस्तिरूप में लिखे इन पांच श्लोकों की व्याख्या नहीं की है। केवल वल्लभदेव कृत व्याख्या ही हमें देखने को मिलती है। इसी प्रकार 15 वें सर्ग में 39 वें श्लोक के पश्चात् द्वयर्थक 34 श्लोक रखे गए है। इसके पश्चात् 40 वां श्लोक है।
‘कविवंश वर्णन के पांच श्लोक प्रक्षिप्त है’ यह कहना केवल कपोल कल्पना है।
इन्हीं श्लोकों से स्पष्ट होता है कि दत्तक के पुत्र माघ ने सुकवि कीर्ति को परास्त करने की अभिलाषा से शिशुपालवध’ नामक काव्य की रचना की है। जिसमें श्रीकृष्ण चरित वर्णित है और प्रति सर्ग की समाप्ति पर ‘श्री’ अथवा उसका पर्यायवाची अन्य कोई शब्द अवश्य दिया गया है। यहां ध्यातव्य यह है कि कवि ने 19 वें सर्ग के अन्तिम श्लोक ‘चक्रबंध’ में किसी रूप में बड़ी निपुणता से माकाव्यमिदम् शिशुपालवधम् तक अंकित कर दिया हैं। कविवर माघ का जन्म राजस्थान की पुण्य धरा भीनमाल में राजा वर्मलात के मंत्री सुप्रसिद्ध  ब्राह्मण सुप्रभदेव के पुत्र कुमुदपण्डित (दत्तक) की धर्म पत्नी वराही के गर्भ से माघ की पूर्णिमा को हुआ था। कहा जाता है कि इनके जन्म समय की कुण्डली देखकर ज्योतिषी ने कहा था कि यह बालक उद्भट विद्वान, अत्यन्त विनीत, दयालु, दानी और वैभव समपन्न होगा। किन्तु जीवन की अन्तिम अवस्था में यह निर्धन हो जायेगा। यह बालक पूर्ण आयु प्राप्त करके पैरों में सूजन आने पर दिवंगत हो जायेगा। ज्योतिषी की भविष्यवाणी पर विश्वास करके उनके पिता कुमुद पण्डित दत्तक ने जो एक ओष्ठी धनी थे, प्रभूतधनरत्नादि की सम्पत्ति को भूमि में घड़ों में भरकर गाड़ दिया था और शेष बचा हुआ धन माघ को दे दिया था। कहा जाता है कि ‘शिशुपालवध’ की कुछ रचना उन्होंने परदेश में रहते हुए की थी और शेष भाग की रचना वृद्धावस्था में घर पर रहकर ही की। अन्तिम अवस्था में वे अत्यधिक दरिद्रावस्था में थे। ‘भोज प्रबंध’ में उनकी पत्नी प्रलाप करती हुई कहती है कि जिसके द्वार पर एक दिन राजा आश्रय के लिए ठहरा करते थे आज वही व्यक्ति दाने-दाने के लिए तरस रहा है। क्षेमेन्द्रकृत ‘औचित्य विचार-विमर्श’ में पण्डित महाकवि माघ का अधोलिखित पद्य माघ की उक्त दशा का निदर्शक है-
बुभुक्षितैत्यकिरणं न भुज्यते न पीयते काव्यरसः पिपासितेः।
न विद्यया केनचिदुदूधृतं कुलं हिरण्यमेवार्जयन्हिफलः कियाः।।
उक्त वाक्य से ऐसा प्रतीत होता है कि दरिद्रता से धैर्यहीन हो जाने के कारण अत्यंत कातर हुए माघ की यह उक्ति है। कविवर माघ 120 वर्ष की पूर्ण आयु परास्त करके दिवंगत हुए साथ ही उनकी पत्नी सती हो गई। इनकी अन्तिम क्रिया तक करने वाला कोई व्यक्ति इनके परिवार में नहीं था। ‘भोजप्रबंध’, ‘प्रबंधचिंतामणि’ तथा ‘प्रभावकरित’ के अनुसार भोज की जीवित्तावस्था में दिवंगत हुए, क्योंकि भोज ने ही माघ का दाह संस्कार पुत्रवत् किया था।

माघ निःसन्देह आनंदवर्धन के पूर्ववर्ती है या समकालीन भी हो सकते है। क्यांकि यशोलिप्सा के कारण माघ स्थिर रूप में किसी एक स्थान पर न रह पाये हो उन्होंने निश्चित रूप से उत्तर भारत में कश्मीर तक भ्रमण किया था जिसका उल्लेख काव्य के प्रथम सर्ग का नारद मुनि की जटाओं का वर्णन है। यहीं पर संभव है ध्वन्यालोक में उद्धृत श्लोक को किसी काव्योष्ठी में श्री आनंदवर्धन ने माघ के मुख से सुने हो और उत्तम होने के कारण आनंदवर्धन ने ध्वन्यालोक में उन्हें उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया है।
एक शिलालेख से भी माघ के समय निर्धारण में सहायता मिलती है। राजा वर्मलात का शिलालेख वसन्त गढ़ (सिरोही राज्य में ) से प्राप्त हुआ। यह शिलालेख शक संवत 682 का है। शक संवत में 78 वर्ष जोड़ दिये जाते है तब ईस्वी सन् का ज्ञान होता है। इस प्रकार यह शिलालेख सन् 760 ई के आसपास होना चाहिए।
इस तरह माघ का काल प्रायः 8 वीं और 9 वीं शताब्दियों के बीच स्थिर होता है। इसमें संदेह नहीं किया जा सकता। भोज प्रबंध के अनुसार माघ भोज के समकालीन थे, क्योंकि भोज प्रबंध में माघ के संबंध में यह क्विदंती प्रचलित है कि एक बार माघ ने अपनी संपूर्ण संपत्ति दान कर दी थी। निर्धन स्थिति में उन्होंने एक श्लोक की रचना की जिसे उन्होंने राजा भोज के सभा में भेजा था। यह श्लोक इस प्रकार है।
कुमुदवनमपश्रि श्रीमदम्भोजखण्डे,
मुदति मुद मूलूकः प्रीतिमार्चक्रवाकः।
उदयमहिमरश्मिर्याति शीतांशुरस्तं,
हतविधिलीसतानां ही विचित्रो विपाकः।।
अर्थ- कुमुदवन श्रीहीन हो रहा है, कमल-समूह शोभायुक्त हो रहा है। उल्लू  (दिन में नहीं देख सकने के कारण) प्रसन्नता को तज रहा है, जबकि चकवा (दिन में प्रिया का संग होने के कारण) प्रेममग्न हो रहा है। सूर्य उदित हो रहा है तो चंद्रमा अस्त हो रहा है। दुर्देव की चेष्टाओं का परिणाम विचित्र होता है, कितना आश्चर्यजनक है।
जब राज सभा में उक्त श्लोक को पढ़कर सुनाया गया तो भोज अत्यंत प्रसन्न हुए उन्होंने माघ की पत्नी को बहुत सा धन देकर विदा किया माघ की पत्नी जब वापस लौट रही थी, तो रास्ते मे याचक माघ की दानशीलता की प्रशंसा करते हुए उससे भी मांगने लगे। माघ की पत्नी ने सारा धन याचकों में बांट दिया। जब पत्नी रिक्तहस्त घर पहुंची तो माघ को चिन्ता हुई कि अब कोई याचक आया तो उसे क्या देंगे? माघ की यह चिन्ताजनक स्थिति को देखकर याचक ने यह कहा था-
आश्वास्य पर्वतकुलं तपनोष्ण तप्त,
मुद्यामदामविधुराणि च काननानि।
नानानदीनदशतानि च पुरयित्वा,
रिक्तोऽसि यज्जलद सैव तवोत्तमा श्री।
अर्थ यह है कि ग्रीष्म से तप्त पर्वत समूह का संताप हरने हेतु दावाग्नि से जलते वन की तपन बुझाने में तथा सैकड़ों नदी, नद, नालों को भरने में बादल स्वयं रिक्त हो जाता है, यही उसकी श्रेष्ठ आभा है।
संस्कृत साहित्यकोश में महाकवि माघ एक जाज्वल्यमान के समान है जिन्होंने अपनी काव्यप्रतिभा से संस्कृत जगत् को चमत्कृत किया है। ये एक ओर कालिदास के समान रसवादी कवि है तो दूसरी ओर भारवि सदृश विचित्रमार्ग के पोषक भी। कवियों के मध्य महाकवि कालिदास सुप्रसिद्ध है तो काव्यों में माघ अपना एक विशिष्ट स्थान रखते है।
काव्येषु माघः कवि कालिदासः।
माघ अलंकृत शैली के पण्डित माने जाते है। जहां काव्य के आन्तरिक तत्व की अपेक्षा ब्राह्यतत्व शब्द और अर्थ के चमत्कार देखे जा सकते है। इनकी एकमात्र कृति ‘शिशुपालवधम्’ जिसे महाकाव्य भी कहा जाता है, वृहत्त्रयी में महत्वपूर्ण स्थान रखती है। इस महाकवि के आलोडन के पश्चात् किसी विद्वान ने इसकी महत्वा के विषय में कहा है-‘मेघे माघे गतं वयः।’ माघ विद्वानों के बीच पण्डित कवि के रूप में भी सुप्रसिद्ध है। समीक्षकों का कहना है कि माघ ने भारवि की प्रतिद्वन्दिता में ही महाकाव्य की रचना की क्योंकि माघ पर भारवि का स्पष्ट प्रभाव दिखाई देता है। भले ही माघ ने भारवि के अनुकरण पर अपने महाकाव्य की रचना की हो लेकिन माघ उनसे कहीं अधिक आगे बढ़ गए है इसलिए कहा जाता है-
तावद भा भारवेभीति यावन्माघस्यदोदयः।
माघ जिस शैली के प्रवर्तक थे उनमें प्रायः रस, भाव, अलंकार काव्य वैचित्य बहुलता आदि सभी बातें विद्यमान थी। महाकवि की कविता में हृदय और मस्तिष्क दोनों का अपूर्व मिश्रण था। माघकाव्य में प्राकृतिक वर्णन प्रचुर मात्रा में हुआ है। इनके काव्य में भावागाम्भीर्य भी है। ‘शिशुपालवधम्’ में कतिपय स्थलों पर भावागाम्भीर्य देखकर पाठक अक्सर चकित रह जाते है। कठिन पदोन्योस तथा शब्दबन्ध की सु Üलष्टता जैसी महाकाव्य में देखने को मिलती है वैसी अन्यत्र बहुत कम काव्यों में मिलती है। इनके काव्य को पढ़ते समय मस्तिष्क का पूरा व्यायाम हो जाता है।
कलापक्ष की दृष्टि से भी माघ परिपक्व कवि सिद्ध होते है। कवि के भाषा पक्ष को ही साहित्यकारों ने कलापक्ष नाम दिया है। महाकवि माघ की भाषा के स्वरूप और सौष्ठव को समझने के लिए उनके शब्दकोष, पदयोजना, व्याकरण शब्दशक्ति, प्रयोगकौशल तथा अलंकार आदि सभी को सूक्ष्म रूप से देखना होगा। कालिदास की सरल सुगम कविता की तुलना में माघ की पाण्डित्यपूर्ण कविता में प्रवेश पाने के लिए अध्येता को काव्यशास्त्रीय ज्ञान होना आवश्यक है। वाणी के पीछे अर्थ का स्वतः अनुगमन करने (वाचामर्थोऽनुधावति) की जो दृष्टि भवभूति की रही है तदनुरूप माघ का भी कहना है कि रस भाव के ज्ञाता कवि को ओज, प्रसाद आदि काव्यगुणों का अनुगमन करने की आवश्यकता नहीं है। वे तो कवि की वाणी का स्वतः अनुगमन करते है-
नैकमोजः प्रसादो वा रसभावाविदः कवेः।
माघ के प्रकृति चित्रण में भी उनका वैशिष्ट्य देखने को मिलता है। यद्यपि माघ ने सरोवर, वन, उपवन, पर्वत, नदी, वृक्ष, संध्या, प्रातः, रात्रि, अंधकार आदि का प्रकृति के विभिन्न रूपों का चित्रण उद्दीपन के रूप में किया है फिर भी वह इतना सजीव और हृदयस्पर्शी है कि कोई भी पाठक उसमें डूब जाता है।
माघ का श्रृंगार वर्णन भी उच्च कोटि का है। उन्होंने श्रृंगार के संयोगपक्ष का ही विस्तृत वर्णन किया है। वियोगपक्ष का नहीं। संयोग श्रृंगार का वर्णन भी उन्होंने आलम्बन के रूप में ही किया है।
माघ रसवाधि कवि होने के साथ ही विचित्य तथा चमत्कार से अपनी कविता को कलात्मक के उच्च शिखर पर पहुंचा दिया हैं। एक ही वर्ण में संपूर्ण श्लोक की रचना करना उनके पाण्डित्य का परिचायक है-
दाददो दुद्ददुद्दादी दादादो दूददीददोः।
दुद्दार्द दददे दुद्दे ददाऽददददोऽददः।।
इस प्रसंग में महाकवि माघ ने ‘द’ वर्ण का प्रयोग कर अपनी विद्वता का परिचय दिया है। इसी प्रकार उन्होंने केवल दो वर्णों से भी अनेक श्लोकों की रचना की है जिसका एक उदाहरण प्रस्तुत है।
वरदोऽविवरो वैरिविवारी वारिराऽऽरवः।
विववार वरो वैरं वीरो रविरिवौर्वरः।।
यहाँ केवल ‘व’ और ‘र’ वर्णों का प्रयोग कर कवि ने अपने वर्णनचातुर्य को प्रदर्शित किया है।
इसके अतिरिक्त अनेक अनुलोम-प्रतिलोम प्रयोग विशेष प्रसिद्ध है। इनके एकक्षरपादः, सर्वतोभद्र, गामुत्रिका, बंधःमुरजबंध और यर्थवाची तथा चतुरर्थवाची आदि जटिलतम चित्रबंधों की रचना तत्कालीन कवि समाज की परंपरा की द्योतक है। शिशुपालवधम् के उन्नासवें सर्ग में यही शब्दार्थ कौशल दिखायी पड़ता है।

शिशुपालवधम् की एक छोटी सी घटना को महाभारत के सभापर्व से ग्रहण कर विशालकाय बीस सर्गों के महाकाव्य की रचना माघ के अपूर्व वर्णन कौशल का परिचायक है। शिशुपालवधम् के तीसरे से तेरहवें सर्ग तक आठ सर्गों में माघ ने अपनी मौलिक कल्पना द्वारा वर्णनचातुर्य को प्रदर्शित किया है जहाँ मुख्य विषय गौण हो गया है। उन्होंने चतुर्थ और  पंचम सर्ग में केवल रैवतक पर्वत का वर्णन अत्यन्त ही रोचकतापूर्ण किया है। रेवतक पर्वत को गज के समान तथा दो घण्टे की तुलना चंद्र और सूर्य से कर माघ ने बहुत सुंदर निर्दशना प्रस्तुत की है, जिस पर समीक्षकों द्वारा माघ को ‘घण्टामाघ’ की उपाधि प्रदान की गयी है। रैवतक एक ऐसा पर्वत है जिसका वर्णन माघ के अतिरिक्त किसी दूसरे कवि ने अपने काव्य में नहीं किया है।
वर्णनकुशलता, अलंकारप्रियता, प्रकृति समुपासना के सा޺थ ही माघ एक सफल काव्यशास्त्र भी रहे है। उनके महाकाव्य के अनुशीलन से माघ के विविधशास्त्रविशेषज्ञ होने का ज्ञान होता है। उन्होंने अपने महाकाव्य के माध्यम से हृदय पाठकों एवं कवियों को प्रायः सभी शास्त्रों का सूक्ष्म ज्ञान करा दिया है। काव्यशास्त्रीय सभी विषयों में उनकी गति दिखायी पड़ती है। विविध विषयों जैसे-श्रुतिविषय (वेद), व्याकरणशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, दर्शनशास्त्र, योग, वेदांत, मीमांसा, बौद्ध, सामरिकज्ञान, नाट्यशास्त्र, आयुर्वेदशास्त्र, ज्योतिषशास्त्र, पशुविद्या, संगीतशास्त्र, कामशास्त्र, पाकशास्त्र, साहित्यशास्त्र, व्यावहारिकज्ञान और पौराणिकज्ञान इत्यादि का सूक्ष्म परिचय इस काव्य के अनुशीलन से प्राप्त होता है। माघ का कर्तृत्व
‘एकश्चंद्रस्तमोहन्ति’ उक्ति के अनुसार महाकवि माघ की कीर्ति उनके एकमात्र उपलब्ध महाकाव्य ‘शिशुपालवधम्’ पर आधारित है, जिसका बृहत्रयी और पंचमहाकाव्य में विशिष्ट स्थान है।
शिशुपालवधम् महाकाव्य के अतिरिक्त माघ की अन्य रचनाएं प्राप्त नहीं होती। यद्यपि सुभाषित ग्रंथों में माघ के नाम से कुछ फुटकर पद्य भी मिलते है जिनसे प्रतीत होता है कि माघ की और भी रचनाएं रही होगी जो कालांतर में नष्ट हो गयी। माघ के नाम से जिन ग्रंथों में उनके पद्य मिलते है उनका संदर्भ अधोलिखित है-
बुभुक्षितैव्यकिरण न भुज्यते पिपासितैः काव्यरसो न पीयते।
विधया केनचिदुद्धतं कुलं हिरण्यमेववार्जय निष्फलाः क्रियाः।।
प्रस्तुत श्लोक महाकवि क्षेमेन्द्र की औचित्यविचार चर्चा में माघ के नाम से उल्लिखित है जो शिशुपालवधम् महाकाव्य में नहीं मिलता। सुभाषिरत्न भण्डागार में यह पद्य नाम से प्राप्त होते है-
अर्थाः न सन्ति न च मुंचर्त मां दुराषा त्यागात संकुचित दुर्लवितं मनो मे।
यांचा च लाघवकारी स्ववधे च पापं प्राणः स्वयं व्रजत् किं नु विलम्बितेन।।
इसके अतिरिक्त इनमें ग्रीष्मवर्णनम्, सामान्य नीति, दरिद्रनिन्दा, तेजस्वीप्रशंसा, पानगोष्ठिवर्णनम्, सरलकेलिकथनम्, कथनम्, कुटानि तथा रत्ती स्वभाव इत्यादि में भी माघ के पद्य प्राप्त होते है। जीवन वार्ता में भी माघ के नाम से एक पद्य प्रयुक्त हुआ है।-
उपचरिलत्याः सन्तो यद्यपि कथयन्ति नैकमुपदेशम् यास्तेषां स्वैरकथास्ता एव भवन्ति शास्त्राणि।
उपर्युक्त सभी पद्यों के अतिरिक्त महाकवि माघ से संबंध अन्य पद्य भी है जो भोजप्रबंध और प्रबंधचिंतामणि में माघ के मुख द्वारा मुखरित हुए है। यह पद्य माघ विरचित किसी प्रकाशित या अप्रकाशित ग्रंथ से संबंध हो अथवा न हो क्योंकि माघ को अमरता प्रदान करने के लिए उनका ‘शिशुपालवधम्’ ही प्रर्याप्त है।

विशेष
‘पुरातन-प्रबंध-संग्रह’ में माघ द्वारा एकमात्र महाकाव्य की रचना किये जाने का कारण बताया गया है। माघ काव्य रचना करने के पश्चात् जब अपने पिता को दिखाते तत्व वे उनकी प्रशंसा करने के स्थान पर उनके काव्य की निन्दा किया करते थे। इसलिए माघ ने काव्य रचना करने के पश्चात् उसे रसोई घर में रख दिया कुछ समय पश्चात् जब वह पुस्तक एक प्राचीन पाण्डुलिपि के समान प्रतीत होने लगी तब माघ उसे अपने पिता के पास ले गये जिसको देखकर उनके पिता ने प्रसन्न होकर कहा कि यह वास्तविक कविता है किंतु जब माघ ने उन्हें संपूर्ण वस्तुस्थिति से अवगत करवाया तो उन्होंने क्रोधित होकर माघ को श्राप दिया कि तुमने मुझसे छल किया है, अतः तुम कुछ नहीं लिख पाओंगे। तत्पश्चात् उनके पिता का स्वर्गवास हो गया और अत्यंत धनी होने के कारण माघ का जीवन विलासिता पूर्ण हो गया किंतु उनके महाकाव्य ‘शिशुपालवधम्’  ने उनको प्रसिद्ध महाकवि की उपाधि से विभूषित कर दिया।
शिशुपालवधम् महाकाव्य 20 सर्गों में विभक्त है जिसमें 1650 पद्य है। माघ ने महाभारत को आधार बनाकर अपनी मौलिक कल्पनाओं द्वारा इस महाकाव्य की रचना की है।

‘काव्य’ शब्द भाषा में बहुत प्राचीन है जिसे ‘कवि’ के कर्म के रूप में देखा जाता है। ‘कवेः कर्म काव्यम्’ (कवि $ व्यत्) यह कवि शब्द च्कु  अथवा च्कव् धातु (भ्वादि आत्मनेपद-कवेट) से बना है जिसके तीन अर्थ है-
1.    ध्वनि करना,
2.    विवरण देना और
3.    चित्रण करना।
इस प्रकार शब्दों के द्वारा किसी विषय का आकर्षक विवरण देना या चित्रण करना ही काव्य कहलाता है।
शिशुपालवधम् के सर्गों में निबद्धता- इस काव्य के प्रत्येक सर्ग में न तो 50 से न्यून और नहीं 150 से अधिक श्लोक है। काव्य का प्रारंभ वस्तुनिर्देशात्मक मंगलाचरण से हुआ है-
श्रियः पतिः श्रीमति शासिंतु जगज्जगान्निवासो वसुदेवसद्यनि।
वसत्ददर्शावतरन्तमम्बराद्धिख्यगर्भाङ्गभुर्व मुनि हरिः।।
शिशुपालवधम् के प्रत्येक सर्ग में एक ही छन्द है तथा एक ही छन्द का प्रयोग मिलता है। सर्ग के अंत में लक्षणानुसार छन्द परिवर्तन किया गया है। केवल चतुर्थ सर्ग ही इसका अपवाद है जिसमें अनेक छन्दों का प्रयोग प्राप्त होता है। तृतीय सर्ग में द्वारिका नगरी और अष्टम सर्ग छः ऋतुओं के वर्णन से चमत्कृत है जहाँ पुष्प चयन और जल-क्रीड़ा का भी प्रसंग आया है। नवम् सर्ग में नायिका नायक एवं चंद्रोदय को वर्णित किया गया है। दशम सर्ग में रतिक्रीड़ा का वर्णन है। एकादश सर्ग प्राभाविक सौन्दर्य को दर्शाता है। द्वादश सर्ग में श्रीकृष्ण की सेना का रैवतक पर्वत से इन्द्रप्रस्थ की ओर प्रस्थान करने एवं यमुना नदी का वर्णन है। अन्तिम तीन सर्गों में युद्ध का वर्णन है।
माघ के पाण्डित्य ने शिशुपालवधम् महाकाव्य को आदर्श महाकाव्य का रूप प्रदान कर उसे उच्चकोटि के महाकाव्यों में स्थान दिलाया हैं। मल्लिनाथ ने शिशुपालवधम् महाकाव्य की विशिष्टता को इस प्रकार बताया है-
तेताऽस्मिन्यदुनन्दनः स भगवा वीर प्रधानोरसः
श्रृंगारादिभिरवान् विजयते पूर्णा पुनर्वर्णना।
इन्द्रपथ गमाद्युपायविषयष्चैद्यासादः फल धन्यो
महाकविवयं तु कृतिनस्तत्सूक्तिसंसेवनात्।।
उपर्युक्त विवेचन के आधार पर यह सिद्ध होता है कि शिशुपालवधम् संपूर्ण लक्षणों से युक्त एक महाकाव्य है। ऐसा प्रतीत होता है कि लक्षणकारों ने महाकाव्य को आधार बनाकर ही महाकाव्य के लक्षण निर्धारित किये हैं।


माघ की माता का नाम ब्राह्मी को संस्कृत में सरस्वती भी कहते है इसलिए माघ को सरस्वती पुत्र भी कहा जा सकता है। माघ का जन्म माघ सुदी पूर्णिमा को होने से इनका नाम माघ रखा गया।
माघ का विवाह माल्हणा नामक कन्या के साथ हुआ जो सुंदर एवं गुणवती थी।

माघ का अहंकार
एक बार राजा के साथ महाकवि माघ जंगल में रास्ता भटक गए और एक झोपड़ी  में पहुंचे जहां एक बूढ़ी स्त्री रहती थी। उससे महाकवि का वार्तालाप शुरू हुआ जो इस प्रकार है।
माघ-हे बूढ़ी स्त्री यह रास्ता कहाँ जाता है?
बूढ़ी स्त्री- मूर्ख! रास्ता कहीं नहीं जाता, रास्ते पर तो राहगीर जाते है।
माघ को इस प्रकार के उࢂत्तर की आशा नहीं थी। माघ तिलमिला गये। लेकिन मजबूरी थी, अंधेरा अधिक हो रहा था सो उसने फिर पूछा-
माघ- हम राहगीर है, अब बतादो मार्ग कहाँ जाता है?
बूढ़ी स्त्री- राहगीर तो दो ही है या तो सूर्य या फिर चंद्र। तुम इनमें से कौन हो।
माघ-अच्छा माई! हम राजा के आदमी है, अब तो बतादो।
बूढ़ी स्त्री- राजा तो दो ही है एक इन्द्र दूसरा यम। तुम किस राजा के आदमी हो।
माघ ने कहा-हम क्षमा करने वालों में है।
बूढ़ी स्त्री-क्षमा तो दो व्यक्ति ही करते है एक स्त्री और दूसरी पृथ्वी, तुम इनमें कौन हो?
माघ ने कहा- हम क्षणभंगुर है।
बूढ़ी स्त्री-क्षणभंगुर तो दो ही है एक नवयौवन दूसरा सम्पत्ति, तुम इनमें से किस में हो।
माघ ने हताश हो कर कहा- हम हारने वालों में है।
बूढ़ी स्त्री-हारते तो दो ही है एक जिसका चरित्र चला गया दूसरा जो ऋणि हो जाय। अब बताओं तुम्हारा क्या गया।
माघ उस बुढ़ियां के चरणों में गिर पड़ा और पैर पकड़ लिए। हे माँ तुम कौन हो।
तब उस बुढ़िया माता ने कहा -उठो महा कवि माघ।
कवि माघ चौक गए कि यह स्त्री हमें जानती थी।
-हा कवि माघ मैंने तुमको देखते ही पहचान लिया था, तुम्हारें अहंकार के बारें में भी जानती हूं। अपने अहम् के कारण तुम कुछ लोगों को ही प्रिय हो लेकिन यह अहंकार नहीं रहेगा तो सर्वप्रिय हो जाओंगे।


कहीं पर उनकी पत्नी का नाम विद्यावती भी आया है।

महाकवि माघ के पास कुछ नहीं रहा और जब लौट रहे दुखियों-पीड़ितों के चेहरे पर गहरी हो गई निराशा को देखकर माघ व्याकुल हो उठे। उनके हृदय की विह्वलता वाणी से फूट पड़ी-‘मेरे प्राणों!  तुम और कुछ नहीं दे सकते पर इनकी सहायतार्थ इनके साथ तो जा सकते हो। धन से न सही संभव है प्राणों से ही उनकी सेवा करने का सौभाग्य मिल जाय। ऐसा सुंदर अवसर न जाने फिर कब मिलेगा?’
इन अंतिम शब्दों के साथ महाकवि माघ की जीर्ण काया एक ओर लुढ़क गई। चेतना ने अपने पाँव समेट लिए और अनंत अंतरिक्ष में न जाने कहाँ विलीन हो गई।
माघ जयंती पर विशेष
संस्कृत के श्रेष्ठ कवियों में माघ की गणना की जाती है। उनका समय लगभग 675 ई. निर्धारित किया गया है। उनकी प्रसिद्ध रचना‘शिशुपालवध’ नामक महाकाव्य है। इसकी कथा भी महाभारत से ली गई है। इस ग्रंथ में युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ के अवसर पर चेदि नरेश शिशुपाल को कृष्ण द्वारा वध करने की कथा का काव्यात्मक चित्रण किया गया है। माघ वैष्णव मतानुयायी थे। इनकी ईच्छा अपने वैष्णव काव्य के माध्यम से शैव मतानुयायी भारवि से आगे बढ़ने की थी। इसके निमित्त उन्होंने कई प्रयत्न भी किये। उन्होंने अपने ग्रंथ की रचना किरातार्जुनीयम् की पद्धति पर की। किरात की भांति शिशुपालवध का प्रारंभ भी ‘श्री’ शब्द से होता है।
माघ अलंकृत काव्य शैली के आचार्य है तथा उन्होंने अलंकारों से सुसज्जित पदों का प्रयोग कुशलता से किया है। प्रकृति दृश्यों का वर्णन करने में भी वे दक्ष थे। भारतीय आलोचक उनमें कालिदास जैसी उपमा, भारवि जैसा अर्थ गौरव तथा दण्डी जैसा पदलालित्य, इन तीनों गुणों को देखते है।
माघ ने नवीन चमत्कारिक उपमाओं का सृजन किया है। माघ व्याकरण, दर्शन, राजनीति, काव्यशास्त्र, संगीत आदि के प्रकाण्ड पण्डित थे तथा उनके ग्रंथ में ये सभी विशेषताएं स्थान-स्थान पर देखने को मिलती है। उनका व्याकरण संबंधी ज्ञान तो अगाध था। पदों की रचना में उन्होंने नये-नये शब्दों का चयन किया है। उनका काव्य शब्दों का विश्वकोष प्रतीत होता है। माघ के विषय में उक्ति प्रसिद्ध है कि शिशुपालवध का नवां सर्ग समाप्त होने पर कोई नया शब्द शेष नहीं बचता है। उनका शब्द विन्यास विद्वतापूर्ण होने के साथ मधुर एवं सुन्दर भी है। माघ की कविता में ललित विन्यास भी देखने को मिलता है। कालान्तर में कवियों ने उनकी अलंकृत शैली का अनुकरण किया है।
महाकविमाघ का सामान्य परिचय
संस्कृत साहित्य के काव्यकारों में माघ का उत्कृष्ट स्थान रहा है। यही धारणा है कि उनके द्वारा विरचित ‘शिशुपालवध’ महाकाव्य को संस्कृत की वृहत्रयी में विशिष्ट स्थान मिला है। महाकवि माघ ने काव्य के 20 वें सर्ग के अन्त में प्रशक्ति के रूप में लिए हुए पांच श्लोकों में अपना स्वल्पपरिचय अंकित कर दिया है जिसके सहारे तथा काव्य में यत्र-तत्र निषद्ध संकेतों से तथा अन्य प्रमाणों के आधार पर कविवर माघ के जीवन की रूपरेखा अर्थात् उनका जन्म समय, जन्म स्थान तथा उनके राजाश्रय को जाना जा सकता है।
प्रसिद्ध टीकाकार मल्लिनाथ ने प्रशस्तिरूप में लिखे इन पांच श्लोकों की व्याख्या नहीं की है। केवल वल्लभदेव कृत व्याख्या ही हमें देखने को मिलती है। इसी प्रकार 15 वें सर्ग में 39 वें श्लोक के पश्चात् द्वयर्थक 34 श्लोक रखे गए है। इसके पश्चात् 40 वां श्लोक है।
‘कविवंश वर्णन के पांच श्लोक प्रक्षिप्त है’ यह कहना केवल कपोल कल्पना है।
इन्हीं श्लोकों से स्पष्ट होता है कि दत्तक के पुत्र माघ ने सुकवि कीर्ति को परास्त करने की अभिलाषा से शिशुपालवध’ नामक काव्य की रचना की है। जिसमें श्रीकृष्ण चरित वर्णित है और प्रति सर्ग की समाप्ति पर ‘श्री’ अथवा उसका पर्यायवाची अन्य कोई शब्द अवश्य दिया गया है। यहां ध्यातव्य यह है कि कवि ने 19 वें सर्ग के अन्तिम श्लोक ‘चक्रबंध’ में किसी रूप में बड़ी निपुणता से माकाव्यमिदम् शिशुपालवधम् तक अंकित कर दिया हैं। कविवर माघ का जन्म राजस्थान की पुण्य धरा भीनमाल में राजा वर्मलात के मंत्री सुप्रसिद्ध  ब्राह्मण सुप्रभदेव के पुत्र कुमुदपण्डित (दत्तक) की धर्म पत्नी वराही के गर्भ से माघ की पूर्णिमा को हुआ था। कहा जाता है कि इनके जन्म समय की कुण्डली देखकर ज्योतिषी ने कहा था कि यह बालक उद्भट विद्वान, अत्यन्त विनीत, दयालु, दानी और वैभव समपन्न होगा। किन्तु जीवन की अन्तिम अवस्था में यह निर्धन हो जायेगा। यह बालक पूर्ण आयु प्राप्त करके पैरों में सूजन आने पर दिवंगत हो जायेगा। ज्योतिषी की भविष्यवाणी पर विश्वास करके उनके पिता कुमुद पण्डित दत्तक ने जो एक ओष्ठी धनी थे, प्रभूतधनरत्नादि की सम्पत्ति को भूमि में घड़ों में भरकर गाड़ दिया था और शेष बचा हुआ धन माघ को दे दिया था। कहा जाता है कि ‘शिशुपालवध’ की कुछ रचना उन्होंने परदेश में रहते हुए की थी और शेष भाग की रचना वृद्धावस्था में घर पर रहकर ही की। अन्तिम अवस्था में वे अत्यधिक दरिद्रावस्था में थे। ‘भोज प्रबंध’ में उनकी पत्नी प्रलाप करती हुई कहती है कि जिसके द्वार पर एक दिन राजा आश्रय के लिए ठहरा करते थे आज वही व्यक्ति दाने-दाने के लिए तरस रहा है। क्षेमेन्द्रकृत ‘औचित्य विचार-विमर्श’ में पण्डित महाकवि माघ का अधोलिखित पद्य माघ की उक्त दशा का निदर्शक है-
बुभुक्षितैत्यकिरणं न भुज्यते न पीयते काव्यरसः पिपासितेः।
न विद्यया केनचिदुदूधृतं कुलं हिरण्यमेवार्जयन्हिफलः कियाः।।
उक्त वाक्य से ऐसा प्रतीत होता है कि दरिद्रता से धैर्यहीन हो जाने के कारण अत्यंत कातर हुए माघ की यह उक्ति है। कविवर माघ 120 वर्ष की पूर्ण आयु परास्त करके दिवंगत हुए साथ ही उनकी पत्नी सती हो गई। इनकी अन्तिम क्रिया तक करने वाला कोई व्यक्ति इनके परिवार में नहीं था। ‘भोजप्रबंध’, ‘प्रबंधचिंतामणि’ तथा ‘प्रभावकरित’ के अनुसार भोज की जीवित्तावस्था में दिवंगत हुए, क्योंकि भोज ने ही माघ का दाह संस्कार पुत्रवत् किया था।

माघ निःसन्देह आनंदवर्धन के पूर्ववर्ती है या समकालीन भी हो सकते है। क्यांकि यशोलिप्सा के कारण माघ स्थिर रूप में किसी एक स्थान पर न रह पाये हो उन्होंने निश्चित रूप से उत्तर भारत में कश्मीर तक भ्रमण किया था जिसका उल्लेख काव्य के प्रथम सर्ग का नारद मुनि की जटाओं का वर्णन है। यहीं पर संभव है ध्वन्यालोक में उद्धृत श्लोक को किसी काव्योष्ठी में श्री आनंदवर्धन ने माघ के मुख से सुने हो और उत्तम होने के कारण आनंदवर्धन ने ध्वन्यालोक में उन्हें उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया है।
एक शिलालेख से भी माघ के समय निर्धारण में सहायता मिलती है। राजा वर्मलात का शिलालेख वसन्त गढ़ (सिरोही राज्य में ) से प्राप्त हुआ। यह शिलालेख शक संवत 682 का है। शक संवत में 78 वर्ष जोड़ दिये जाते है तब ईस्वी सन् का ज्ञान होता है। इस प्रकार यह शिलालेख सन् 760 ई के आसपास होना चाहिए।
इस तरह माघ का काल प्रायः 8 वीं और 9 वीं शताब्दियों के बीच स्थिर होता है। इसमें संदेह नहीं किया जा सकता। भोज प्रबंध के अनुसार माघ भोज के समकालीन थे, क्योंकि भोज प्रबंध में माघ के संबंध में यह क्विदंती प्रचलित है कि एक बार माघ ने अपनी संपूर्ण संपत्ति दान कर दी थी। निर्धन स्थिति में उन्होंने एक श्लोक की रचना की जिसे उन्होंने राजा भोज के सभा में भेजा था। यह श्लोक इस प्रकार है।
कुमुदवनमपश्रि श्रीमदम्भोजखण्डे,
मुदति मुद मूलूकः प्रीतिमार्चक्रवाकः।
उदयमहिमरश्मिर्याति शीतांशुरस्तं,
हतविधिलीसतानां ही विचित्रो विपाकः।।
अर्थ- कुमुदवन श्रीहीन हो रहा है, कमल-समूह शोभायुक्त हो रहा है। उल्लू  (दिन में नहीं देख सकने के कारण) प्रसन्नता को तज रहा है, जबकि चकवा (दिन में प्रिया का संग होने के कारण) प्रेममग्न हो रहा है। सूर्य उदित हो रहा है तो चंद्रमा अस्त हो रहा है। दुर्देव की चेष्टाओं का परिणाम विचित्र होता है, कितना आश्चर्यजनक है।
जब राज सभा में उक्त श्लोक को पढ़कर सुनाया गया तो भोज अत्यंत प्रसन्न हुए उन्होंने माघ की पत्नी को बहुत सा धन देकर विदा किया माघ की पत्नी जब वापस लौट रही थी, तो रास्ते मे याचक माघ की दानशीलता की प्रशंसा करते हुए उससे भी मांगने लगे। माघ की पत्नी ने सारा धन याचकों में बांट दिया। जब पत्नी रिक्तहस्त घर पहुंची तो माघ को चिन्ता हुई कि अब कोई याचक आया तो उसे क्या देंगे? माघ की यह चिन्ताजनक स्थिति को देखकर याचक ने यह कहा था-
आश्वास्य पर्वतकुलं तपनोष्ण तप्त,
मुद्यामदामविधुराणि च काननानि।
नानानदीनदशतानि च पुरयित्वा,
रिक्तोऽसि यज्जलद सैव तवोत्तमा श्री।
अर्थ यह है कि ग्रीष्म से तप्त पर्वत समूह का संताप हरने हेतु दावाग्नि से जलते वन की तपन बुझाने में तथा सैकड़ों नदी, नद, नालों को भरने में बादल स्वयं रिक्त हो जाता है, यही उसकी श्रेष्ठ आभा है।
संस्कृत साहित्यकोश में महाकवि माघ एक जाज्वल्यमान के समान है जिन्होंने अपनी काव्यप्रतिभा से संस्कृत जगत् को चमत्कृत किया है। ये एक ओर कालिदास के समान रसवादी कवि है तो दूसरी ओर भारवि सदृश विचित्रमार्ग के पोषक भी। कवियों के मध्य महाकवि कालिदास सुप्रसिद्ध है तो काव्यों में माघ अपना एक विशिष्ट स्थान रखते है।
काव्येषु माघः कवि कालिदासः।
माघ अलंकृत शैली के पण्डित माने जाते है। जहां काव्य के आन्तरिक तत्व की अपेक्षा ब्राह्यतत्व शब्द और अर्थ के चमत्कार देखे जा सकते है। इनकी एकमात्र कृति ‘शिशुपालवधम्’ जिसे महाकाव्य भी कहा जाता है, वृहत्त्रयी में महत्वपूर्ण स्थान रखती है। इस महाकवि के आलोडन के पश्चात् किसी विद्वान ने इसकी महत्वा के विषय में कहा है-‘मेघे माघे गतं वयः।’ माघ विद्वानों के बीच पण्डित कवि के रूप में भी सुप्रसिद्ध है। समीक्षकों का कहना है कि माघ ने भारवि की प्रतिद्वन्दिता में ही महाकाव्य की रचना की क्योंकि माघ पर भारवि का स्पष्ट प्रभाव दिखाई देता है। भले ही माघ ने भारवि के अनुकरण पर अपने महाकाव्य की रचना की हो लेकिन माघ उनसे कहीं अधिक आगे बढ़ गए है इसलिए कहा जाता है-
तावद भा भारवेभीति यावन्माघस्यदोदयः।
माघ जिस शैली के प्रवर्तक थे उनमें प्रायः रस, भाव, अलंकार काव्य वैचित्य बहुलता आदि सभी बातें विद्यमान थी। महाकवि की कविता में हृदय और मस्तिष्क दोनों का अपूर्व मिश्रण था। माघकाव्य में प्राकृतिक वर्णन प्रचुर मात्रा में हुआ है। इनके काव्य में भावागाम्भीर्य भी है। ‘शिशुपालवधम्’ में कतिपय स्थलों पर भावागाम्भीर्य देखकर पाठक अक्सर चकित रह जाते है। कठिन पदोन्योस तथा शब्दबन्ध की सु Üलष्टता जैसी महाकाव्य में देखने को मिलती है वैसी अन्यत्र बहुत कम काव्यों में मिलती है। इनके काव्य को पढ़ते समय मस्तिष्क का पूरा व्यायाम हो जाता है।
कलापक्ष की दृष्टि से भी माघ परिपक्व कवि सिद्ध होते है। कवि के भाषा पक्ष को ही साहित्यकारों ने कलापक्ष नाम दिया है। महाकवि माघ की भाषा के स्वरूप और सौष्ठव को समझने के लिए उनके शब्दकोष, पदयोजना, व्याकरण शब्दशक्ति, प्रयोगकौशल तथा अलंकार आदि सभी को सूक्ष्म रूप से देखना होगा। कालिदास की सरल सुगम कविता की तुलना में माघ की पाण्डित्यपूर्ण कविता में प्रवेश पाने के लिए अध्येता को काव्यशास्त्रीय ज्ञान होना आवश्यक है। वाणी के पीछे अर्थ का स्वतः अनुगमन करने (वाचामर्थोऽनुधावति) की जो दृष्टि भवभूति की रही है तदनुरूप माघ का भी कहना है कि रस भाव के ज्ञाता कवि को ओज, प्रसाद आदि काव्यगुणों का अनुगमन करने की आवश्यकता नहीं है। वे तो कवि की वाणी का स्वतः अनुगमन करते है-
नैकमोजः प्रसादो वा रसभावाविदः कवेः।
माघ के प्रकृति चित्रण में भी उनका वैशिष्ट्य देखने को मिलता है। यद्यपि माघ ने सरोवर, वन, उपवन, पर्वत, नदी, वृक्ष, संध्या, प्रातः, रात्रि, अंधकार आदि का प्रकृति के विभिन्न रूपों का चित्रण उद्दीपन के रूप में किया है फिर भी वह इतना सजीव और हृदयस्पर्शी है कि कोई भी पाठक उसमें डूब जाता है।
माघ का श्रृंगार वर्णन भी उच्च कोटि का है। उन्होंने श्रृंगार के संयोगपक्ष का ही विस्तृत वर्णन किया है। वियोगपक्ष का नहीं। संयोग श्रृंगार का वर्णन भी उन्होंने आलम्बन के रूप में ही किया है।
माघ रसवाधि कवि होने के साथ ही विचित्य तथा चमत्कार से अपनी कविता को कलात्मक के उच्च शिखर पर पहुंचा दिया हैं। एक ही वर्ण में संपूर्ण श्लोक की रचना करना उनके पाण्डित्य का परिचायक है-
दाददो दुद्ददुद्दादी दादादो दूददीददोः।
दुद्दार्द दददे दुद्दे ददाऽददददोऽददः।।
इस प्रसंग में महाकवि माघ ने ‘द’ वर्ण का प्रयोग कर अपनी विद्वता का परिचय दिया है। इसी प्रकार उन्होंने केवल दो वर्णों से भी अनेक श्लोकों की रचना की है जिसका एक उदाहरण प्रस्तुत है।
वरदोऽविवरो वैरिविवारी वारिराऽऽरवः।
विववार वरो वैरं वीरो रविरिवौर्वरः।।
यहाँ केवल ‘व’ और ‘र’ वर्णों का प्रयोग कर कवि ने अपने वर्णनचातुर्य को प्रदर्शित किया है।
इसके अतिरिक्त अनेक अनुलोम-प्रतिलोम प्रयोग विशेष प्रसिद्ध है। इनके एकक्षरपादः, सर्वतोभद्र, गामुत्रिका, बंधःमुरजबंध और यर्थवाची तथा चतुरर्थवाची आदि जटिलतम चित्रबंधों की रचना तत्कालीन कवि समाज की परंपरा की द्योतक है। शिशुपालवधम् के उन्नासवें सर्ग में यही शब्दार्थ कौशल दिखायी पड़ता है।

शिशुपालवधम् की एक छोटी सी घटना को महाभारत के सभापर्व से ग्रहण कर विशालकाय बीस सर्गों के महाकाव्य की रचना माघ के अपूर्व वर्णन कौशल का परिचायक है। शिशुपालवधम् के तीसरे से तेरहवें सर्ग तक आठ सर्गों में माघ ने अपनी मौलिक कल्पना द्वारा वर्णनचातुर्य को प्रदर्शित किया है जहाँ मुख्य विषय गौण हो गया है। उन्होंने चतुर्थ और  पंचम सर्ग में केवल रैवतक पर्वत का वर्णन अत्यन्त ही रोचकतापूर्ण किया है। रेवतक पर्वत को गज के समान तथा दो घण्टे की तुलना चंद्र और सूर्य से कर माघ ने बहुत सुंदर निर्दशना प्रस्तुत की है, जिस पर समीक्षकों द्वारा माघ को ‘घण्टामाघ’ की उपाधि प्रदान की गयी है। रैवतक एक ऐसा पर्वत है जिसका वर्णन माघ के अतिरिक्त किसी दूसरे कवि ने अपने काव्य में नहीं किया है।
वर्णनकुशलता, अलंकारप्रियता, प्रकृति समुपासना के सा޺थ ही माघ एक सफल काव्यशास्त्र भी रहे है। उनके महाकाव्य के अनुशीलन से माघ के विविधशास्त्रविशेषज्ञ होने का ज्ञान होता है। उन्होंने अपने महाकाव्य के माध्यम से हृदय पाठकों एवं कवियों को प्रायः सभी शास्त्रों का सूक्ष्म ज्ञान करा दिया है। काव्यशास्त्रीय सभी विषयों में उनकी गति दिखायी पड़ती है। विविध विषयों जैसे-श्रुतिविषय (वेद), व्याकरणशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, दर्शनशास्त्र, योग, वेदांत, मीमांसा, बौद्ध, सामरिकज्ञान, नाट्यशास्त्र, आयुर्वेदशास्त्र, ज्योतिषशास्त्र, पशुविद्या, संगीतशास्त्र, कामशास्त्र, पाकशास्त्र, साहित्यशास्त्र, व्यावहारिकज्ञान और पौराणिकज्ञान इत्यादि का सूक्ष्म परिचय इस काव्य के अनुशीलन से प्राप्त होता है। माघ का कर्तृत्व
‘एकश्चंद्रस्तमोहन्ति’ उक्ति के अनुसार महाकवि माघ की कीर्ति उनके एकमात्र उपलब्ध महाकाव्य ‘शिशुपालवधम्’ पर आधारित है, जिसका बृहत्रयी और पंचमहाकाव्य में विशिष्ट स्थान है।
शिशुपालवधम् महाकाव्य के अतिरिक्त माघ की अन्य रचनाएं प्राप्त नहीं होती। यद्यपि सुभाषित ग्रंथों में माघ के नाम से कुछ फुटकर पद्य भी मिलते है जिनसे प्रतीत होता है कि माघ की और भी रचनाएं रही होगी जो कालांतर में नष्ट हो गयी। माघ के नाम से जिन ग्रंथों में उनके पद्य मिलते है उनका संदर्भ अधोलिखित है-
बुभुक्षितैव्यकिरण न भुज्यते पिपासितैः काव्यरसो न पीयते।
विधया केनचिदुद्धतं कुलं हिरण्यमेववार्जय निष्फलाः क्रियाः।।
प्रस्तुत श्लोक महाकवि क्षेमेन्द्र की औचित्यविचार चर्चा में माघ के नाम से उल्लिखित है जो शिशुपालवधम् महाकाव्य में नहीं मिलता। सुभाषिरत्न भण्डागार में यह पद्य नाम से प्राप्त होते है-
अर्थाः न सन्ति न च मुंचर्त मां दुराषा त्यागात संकुचित दुर्लवितं मनो मे।
यांचा च लाघवकारी स्ववधे च पापं प्राणः स्वयं व्रजत् किं नु विलम्बितेन।।
इसके अतिरिक्त इनमें ग्रीष्मवर्णनम्, सामान्य नीति, दरिद्रनिन्दा, तेजस्वीप्रशंसा, पानगोष्ठिवर्णनम्, सरलकेलिकथनम्, कथनम्, कुटानि तथा रत्ती स्वभाव इत्यादि में भी माघ के पद्य प्राप्त होते है। जीवन वार्ता में भी माघ के नाम से एक पद्य प्रयुक्त हुआ है।-
उपचरिलत्याः सन्तो यद्यपि कथयन्ति नैकमुपदेशम् यास्तेषां स्वैरकथास्ता एव भवन्ति शास्त्राणि।
उपर्युक्त सभी पद्यों के अतिरिक्त महाकवि माघ से संबंध अन्य पद्य भी है जो भोजप्रबंध और प्रबंधचिंतामणि में माघ के मुख द्वारा मुखरित हुए है। यह पद्य माघ विरचित किसी प्रकाशित या अप्रकाशित ग्रंथ से संबंध हो अथवा न हो क्योंकि माघ को अमरता प्रदान करने के लिए उनका ‘शिशुपालवधम्’ ही प्रर्याप्त है।

विशेष
‘पुरातन-प्रबंध-संग्रह’ में माघ द्वारा एकमात्र महाकाव्य की रचना किये जाने का कारण बताया गया है। माघ काव्य रचना करने के पश्चात् जब अपने पिता को दिखाते तत्व वे उनकी प्रशंसा करने के स्थान पर उनके काव्य की निन्दा किया करते थे। इसलिए माघ ने काव्य रचना करने के पश्चात् उसे रसोई घर में रख दिया कुछ समय पश्चात् जब वह पुस्तक एक प्राचीन पाण्डुलिपि के समान प्रतीत होने लगी तब माघ उसे अपने पिता के पास ले गये जिसको देखकर उनके पिता ने प्रसन्न होकर कहा कि यह वास्तविक कविता है किंतु जब माघ ने उन्हें संपूर्ण वस्तुस्थिति से अवगत करवाया तो उन्होंने क्रोधित होकर माघ को श्राप दिया कि तुमने मुझसे छल किया है, अतः तुम कुछ नहीं लिख पाओंगे। तत्पश्चात् उनके पिता का स्वर्गवास हो गया और अत्यंत धनी होने के कारण माघ का जीवन विलासिता पूर्ण हो गया किंतु उनके महाकाव्य ‘शिशुपालवधम्’  ने उनको प्रसिद्ध महाकवि की उपाधि से विभूषित कर दिया।
शिशुपालवधम् महाकाव्य 20 सर्गों में विभक्त है जिसमें 1650 पद्य है। माघ ने महाभारत को आधार बनाकर अपनी मौलिक कल्पनाओं द्वारा इस महाकाव्य की रचना की है।

‘काव्य’ शब्द भाषा में बहुत प्राचीन है जिसे ‘कवि’ के कर्म के रूप में देखा जाता है। ‘कवेः कर्म काव्यम्’ (कवि $ व्यत्) यह कवि शब्द च्कु  अथवा च्कव् धातु (भ्वादि आत्मनेपद-कवेट) से बना है जिसके तीन अर्थ है-
1.    ध्वनि करना,
2.    विवरण देना और
3.    चित्रण करना।
इस प्रकार शब्दों के द्वारा किसी विषय का आकर्षक विवरण देना या चित्रण करना ही काव्य कहलाता है।
शिशुपालवधम् के सर्गों में निबद्धता- इस काव्य के प्रत्येक सर्ग में न तो 50 से न्यून और नहीं 150 से अधिक श्लोक है। काव्य का प्रारंभ वस्तुनिर्देशात्मक मंगलाचरण से हुआ है-
श्रियः पतिः श्रीमति शासिंतु जगज्जगान्निवासो वसुदेवसद्यनि।
वसत्ददर्शावतरन्तमम्बराद्धिख्यगर्भाङ्गभुर्व मुनि हरिः।।
शिशुपालवधम् के प्रत्येक सर्ग में एक ही छन्द है तथा एक ही छन्द का प्रयोग मिलता है। सर्ग के अंत में लक्षणानुसार छन्द परिवर्तन किया गया है। केवल चतुर्थ सर्ग ही इसका अपवाद है जिसमें अनेक छन्दों का प्रयोग प्राप्त होता है। तृतीय सर्ग में द्वारिका नगरी और अष्टम सर्ग छः ऋतुओं के वर्णन से चमत्कृत है जहाँ पुष्प चयन और जल-क्रीड़ा का भी प्रसंग आया है। नवम् सर्ग में नायिका नायक एवं चंद्रोदय को वर्णित किया गया है। दशम सर्ग में रतिक्रीड़ा का वर्णन है। एकादश सर्ग प्राभाविक सौन्दर्य को दर्शाता है। द्वादश सर्ग में श्रीकृष्ण की सेना का रैवतक पर्वत से इन्द्रप्रस्थ की ओर प्रस्थान करने एवं यमुना नदी का वर्णन है। अन्तिम तीन सर्गों में युद्ध का वर्णन है।
माघ के पाण्डित्य ने शिशुपालवधम् महाकाव्य को आदर्श महाकाव्य का रूप प्रदान कर उसे उच्चकोटि के महाकाव्यों में स्थान दिलाया हैं। मल्लिनाथ ने शिशुपालवधम् महाकाव्य की विशिष्टता को इस प्रकार बताया है-
तेताऽस्मिन्यदुनन्दनः स भगवा वीर प्रधानोरसः
श्रृंगारादिभिरवान् विजयते पूर्णा पुनर्वर्णना।
इन्द्रपथ गमाद्युपायविषयष्चैद्यासादः फल धन्यो
महाकविवयं तु कृतिनस्तत्सूक्तिसंसेवनात्।।
उपर्युक्त विवेचन के आधार पर यह सिद्ध होता है कि शिशुपालवधम् संपूर्ण लक्षणों से युक्त एक महाकाव्य है। ऐसा प्रतीत होता है कि लक्षणकारों ने महाकाव्य को आधार बनाकर ही महाकाव्य के लक्षण निर्धारित किये हैं।


माघ की माता का नाम ब्राह्मी को संस्कृत में सरस्वती भी कहते है इसलिए माघ को सरस्वती पुत्र भी कहा जा सकता है। माघ का जन्म माघ सुदी पूर्णिमा को होने से इनका नाम माघ रखा गया।
माघ का विवाह माल्हणा नामक कन्या के साथ हुआ जो सुंदर एवं गुणवती थी।

माघ का अहंकार
एक बार राजा के साथ महाकवि माघ जंगल में रास्ता भटक गए और एक झोपड़ी  में पहुंचे जहां एक बूढ़ी स्त्री रहती थी। उससे महाकवि का वार्तालाप शुरू हुआ जो इस प्रकार है।
माघ-हे बूढ़ी स्त्री यह रास्ता कहाँ जाता है?
बूढ़ी स्त्री- मूर्ख! रास्ता कहीं नहीं जाता, रास्ते पर तो राहगीर जाते है।
माघ को इस प्रकार के उࢂत्तर की आशा नहीं थी। माघ तिलमिला गये। लेकिन मजबूरी थी, अंधेरा अधिक हो रहा था सो उसने फिर पूछा-
माघ- हम राहगीर है, अब बतादो मार्ग कहाँ जाता है?
बूढ़ी स्त्री- राहगीर तो दो ही है या तो सूर्य या फिर चंद्र। तुम इनमें से कौन हो।
माघ-अच्छा माई! हम राजा के आदमी है, अब तो बतादो।
बूढ़ी स्त्री- राजा तो दो ही है एक इन्द्र दूसरा यम। तुम किस राजा के आदमी हो।
माघ ने कहा-हम क्षमा करने वालों में है।
बूढ़ी स्त्री-क्षमा तो दो व्यक्ति ही करते है एक स्त्री और दूसरी पृथ्वी, तुम इनमें कौन हो?
माघ ने कहा- हम क्षणभंगुर है।
बूढ़ी स्त्री-क्षणभंगुर तो दो ही है एक नवयौवन दूसरा सम्पत्ति, तुम इनमें से किस में हो।
माघ ने हताश हो कर कहा- हम हारने वालों में है।
बूढ़ी स्त्री-हारते तो दो ही है एक जिसका चरित्र चला गया दूसरा जो ऋणि हो जाय। अब बताओं तुम्हारा क्या गया।
माघ उस बुढ़ियां के चरणों में गिर पड़ा और पैर पकड़ लिए। हे माँ तुम कौन हो।
तब उस बुढ़िया माता ने कहा -उठो महा कवि माघ।
कवि माघ चौक गए कि यह स्त्री हमें जानती थी।
-हा कवि माघ मैंने तुमको देखते ही पहचान लिया था, तुम्हारें अहंकार के बारें में भी जानती हूं। अपने अहम् के कारण तुम कुछ लोगों को ही प्रिय हो लेकिन यह अहंकार नहीं रहेगा तो सर्वप्रिय हो जाओंगे।


कहीं पर उनकी पत्नी का नाम विद्यावती भी आया है।

महाकवि माघ के पास कुछ नहीं रहा और जब लौट रहे दुखियों-पीड़ितों के चेहरे पर गहरी हो गई निराशा को देखकर माघ व्याकुल हो उठे। उनके हृदय की विह्वलता वाणी से फूट पड़ी-‘मेरे प्राणों!  तुम और कुछ नहीं दे सकते पर इनकी सहायतार्थ इनके साथ तो जा सकते हो। धन से न सही संभव है प्राणों से ही उनकी सेवा करने का सौभाग्य मिल जाय। ऐसा सुंदर अवसर न जाने फिर कब मिलेगा?’
इन अंतिम शब्दों के साथ महाकवि माघ की जीर्ण काया एक ओर लुढ़क गई। चेतना ने अपने पाँव समेट लिए और अनंत अंतरिक्ष में न जाने कहाँ विलीन हो गई।
 

Saturday, 19 November 2016

श्रीमाल नगर की प्रतिभाओं का पुष्कर में हुआ सम्मान

भीनमाल।
श्रीमाल नगर की प्रतिभाओं का पुष्कर में हुआ सम्मान
अखिल भारतवर्षीय श्रीमाली ब्राह्मण समाज संस्था पुष्कर द्वारा भीनमाल की विविध क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य करने वाली प्रतिभाओं का सम्मान किया गया है।
राष्टीय अध्यक्ष चिरंजीलाल दवे ने बताया कि तीर्थराज पुष्कर में पंच दिवसीय स्नेह मिलन समारोह में 12 नवम्बर को आयोजित अखिल भारत स्तरीय सम्मान समारोह में न्यायाधीश महेन्द्र कुमार दवे के मुख्य आतिथ्य में समाज रत्न से विभूषित श्रीनिवास श्रीमाली द्वारा ब्रह्मकर्म पुस्तक के प्रकाशक शास्त्री प्रवीण त्रिवेदी को ब्रह्मनारायण स्मृति पुरस्कार से, सुरेन्द्र त्रिवेदी को समाज सेवा पुरस्कार से एवं रामचंद्र एच दवे को श्री पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
इस अवसर पर दिनेश दवे नवीन, गजेन्द्र दवे, लीलाधर व्यास, जटाशंकर त्रिवेदी, महेन्द्र दवे, मार्कण्ड दवे, भरत दवे, रवि दवे, वैभव त्रिवेदी, कार्तिक त्रिवेदी, चंदन दवे, राजेश व्यास, रेखा त्रिवेदी, भावना दवे, जोशना दवे, पुष्पा त्रिवेदी, हेमलता दवे, सोनल दवे, आदि पूरे भारत से श्रीमाली बन्धु, माता व बहिनें उपस्थित थे।


Thursday, 20 October 2016

ब्रह्मकर्म

ब्रह्मकर्म

शास्त्री प्रवीण जटाशंकर जी त्रिवेदी द्वारा संकलित ग्रंथ
इसमें है।
संध्या
ग्रहशान्ति ( चतुर्वेदोक्त)
कुशकण्डिका हिन्दी भाषा टीका सहित
स्थापित देव पूजन समंत्रक व नाम मंत्रक सहित
शिव पूजन, पार्थिव चिन्तामणि
पंचवक्रपूजन, रुद्राष्टाध्यायी
रुद्रस्वाहाकार
हेमाद्रि, दशविधि स्नान सहित
देवीराजोपचार पूजा
देवी सप्तशती
बीजमंत्र दुर्गासप्तशती
श्रीमाली ब्राह्मणों के विवाह विधि सहित 16 संस्कार
नक्षत्र पूजा विधान
अर्क व कुम्भ विवाह विधि
कालसर्प पूजा
आरतियों व विविध उपयोगी सामग्री सहित
मण्डल व मुद्रा के फोटो सहित
संपर्क सूत्र 9820488163
9414153628
shreemaal@yahoo.co.in

दीपावली के मुख्य पांच त्यौहार 2016

दीपावली के मुख्य पांच त्यौहार

धनतेरस - शुक्रवार, 28.10.2016
नरकचतुर्दशी-शनिवार,  29.10.2016
दीपावली- रविवार, 30.10.2016
नूतन वर्श- सोमवार, 31.10.2016
भाई दूज-मंगलवार, 01.11.2016
धनतेरस
आयुर्वेद व चिकित्सा जगत के गुरु भगवान धन्वंतरि माने गए है। वैद्य व चिकित्सक आज के दिन धन्वंतरि की पूजा करते है व व्यापारी भी इस दिन गादी बिछाते है।
  श्री कुबेर पूजा
संवत् 2073 कार्तिक कृश्णा 13 शुक्रवार ता. 28.10.2016 को शुभ समय
प्रातः 6.47 से 8.12 चर
सुबह 8.12 से 9.36 लाभ
सुबह 9.36 से 11.00 अमृत
  दोपहर 12.25 से 13.49 शुभ
       शाम 4.38 से 6.02 चर
  रात्रि 9.14 से 10.49 लाभ
नरकचतुर्दशी
शनि वार को नरक चतुर्दशी व रूप चौदस मनाई जायेगी। रूप निखारने के लिए यह दिन शुभ माना गया है। इस दिन दीप दान का महत्व है।
 सुबह 8.12 से 9.36 शुभ वेला।
12.25 से 13.49 चर
13.49 से 15.13 लाभ
15.13 से 16.37 अमृत
दीपावली

दीपावली मनाने का सामान्यतः कारण यह माना जाता है कि भगवान राम 14 वर्श का वनवास पूरा करके अयोध्या आये थे परन्तु इस के अलावा भी निम्न दस कारण माने जा सकते है-
1. लक्ष्मी अवतरण- कार्तिक मास की अमावस्या तिथि को मां लक्ष्मी समुद्र मंथन द्वारा धरती पर प्रकट हुई थी। इस लिए इस पर्व को लक्ष्मी के स्वागत के रूप में मनाते है और लक्ष्मी कें स्वागत हेतु घर को सजाया व संवारा जाता है। 
2. भगवान विश्णु द्वारा लक्ष्मी को बचाना- इस घटना का उल्लेख शास्त्रों में मिलता है कि इस दिन भगवान विश्णु ने वामन अवतार लेकर राजा बलि से माता लक्ष्मी को मुक्त करवाया था।
3. भगवान राम की विजय- रामायण के अनुसार इस दिन भगवान राम, सीता व लक्ष्मण सहित 14 वर्श का वनवास पूर्ण कर अयोध्या वापिस लौटे थे। उनके स्वागत में अयोध्या को दीप माला से सजाया था।
4. नरकासुर वध- भगवान श्रीकृश्ण ने नरकासुर का वध कर 16000 नारियों को मुक्त करवाया था। इस खुशी में दीपावली का त्यौहार दो दिन तक मनाया गया।
5. पाण्डवों की वापसी- महाभारत के अनुसार जब इसी दिन पाण्डव 12 वर्श का वनवास व 13 वा वर्श अज्ञात वास भोग कर वापस आये थे।
6. विक्रमादित्य का राजतिलक- राजा विक्रमादित्य का प्रसंग भी इसी दिन से जुड़ा है। बताया जाता है कि राजा विक्रमादित्य का राजतिलक इस दिन किया गया था।
7. आर्य समाज की स्थापना-स्वामी दयानंद सरस्वती ने इसी दिन आर्य समाज की स्थापना की थी।
8. जैन धर्म- दीपावली के दिन भगवान महावीर को निर्वाण प्राप्त हुआ था।
9. सिक्ख धर्म के अनुसार इस दिन सिक्ख धर्म के तीसरे गुरु अमरदास जी ने लाल पत्र दिवस के रूप में मनाया था जिसमें सभी श्रद्धालु गुरु से आशीर्वाद लेने पहुंचे। इसके अलावा सन् 1577 में अमृतसर के हरिमंदिर साहिब का शिलान्यास भी दीपावली के दिन ही किया गया था।
10. सन् 1619 में सिक्ख गुरु हरगोविन्द जी को ग्वालियर के किले में 52 राजाओं के साथ मुक्त किया जाना भी इस दिन की प्रमुख ऐतिहासिक घटना रही है। इस लिए सिक्ख समाज बंदी दिवस के रूप में भी मनाते है। इनको मुगल बादशाह जहांगीर ने नजरबंद किया हुआ था।
दीपावली, भारत में हिन्दुओं द्वारा मनाया जाने वाला सबसे बड़ा त्यौहार है। दीपों का खास पर्व होने के कारण इसे दीपावली या दीवाली नाम दिया गया है। दीपावली का अर्थ होता है, दीपों की अवलि यानि पंक्ति। इस प्रकार दीपों की पंक्तियों से सुसज्जित इस त्यौहार को दीपावली कहा जाता है।
ब्रह्मपुराण के अनुसार कार्तिक अमावस्या की इस अंधेरी रात्रि में महालक्ष्मी स्वयं भूलोक में आती है और प्रत्येक सद्गृहस्थ के घर में विचरण करती है। जो घर हर प्रकार से स्वच्छ, शुद्ध होता है वहां निवास करती है।
भारतीय संस्कृति में दीपक को सत्य और ज्ञान का द्योतक माना जाता है। क्योंकि स्वयं जलता है पर दूसरों को प्रकाश देता है। दीपक की इसी विशेशता के कारण धार्मिक पुस्तकों में इसे ब्रह्म स्वरूप माना जाता है। यह भी कहा जाता है कि दीपदान से शारीरिक व आध्यात्मिक शक्ति प्राप्त होती है। जहां सूर्य का प्रकाश नहीं पहुंच सकता वहां दीपक का प्रकाश पहंच जाता है। इसलिए ही दीपक को सूर्य का भाग ‘सूर्यांश संभवो दीपः’ कहा जाता है।
स्कंद पुराण के अनुसार दीपक का जन्म यज्ञ से हुआ है। यज्ञ देवताओं व मनुश्यों के बीच संवाद साधने का माध्यम है। यज्ञ की अग्नि से जन्मे दीपक पूजा का महत्वपूर्ण भाग है।
दीपावली के मुख्य बिन्दु
सुपारी में कलावा लपेटकर लक्ष्मी पूजा करें फिर अक्षत, पुश्प, रोली से पूजा करें तत्पश्चात उसे धन रखने के स्थान पर रख दें।
लक्ष्मी पूजा में श्रीयन्त्र, कुबेर यंत्र एकाक्षी नारियल आदि रखकर विधिवत पूजन करने से मां लक्ष्मी की कृपा बनी रहती है।
दीपावली पर श्वेतार्क गणेश जी को घर लायें फिर विधिवत पूजा करें।
मां लक्ष्मी को दक्षिणावर्ती शंख अति प्रिय है, इसलिए दीपावली के दिन दक्षिणावर्ती शंख लाकर पूजा करें व घर में रखें।  
दीपावली के दिन लक्ष्मी पूजा के दौरान एक साबूत हल्दी की गांठ पूजन करने से घर में धन बना रहता है।
लक्ष्मी पूजा के दिन एक नारियल को हरे कपड़ें में लपेटकर उस पर रोली से स्वास्तिक बनायें व पूजा स्थल पर कलश पर रखें।
दीपावली की रात्रि पीली कौड़ियों, रोली, कुमकुम, अक्षत व पुश्प से पूजा करने से मां लक्ष्मी प्रसन्न होती है।
अष्टलक्ष्मी की पूजा करें।
धनलक्ष्मी, यशलक्ष्मी, आयु लक्ष्मी, वाहनलक्ष्मी, स्थिरलक्ष्मी, सत्यलक्ष्मी, संतानलक्ष्मी व गृहलक्ष्मी।
मतांतर से- धन या वैभवलक्ष्मी, गजलक्ष्मी, अधिलक्ष्मी, विजयलक्ष्मी, ऐश्वर्यलक्ष्मी, वीरलक्ष्मी, धान्यलक्ष्मी व संतानलक्ष्मी।


संवत् 2073 कार्तिक कृश्णा 30 रविवार ता. 30.10.2016 गादी स्थापना, स्याही भरना, कलम दवात संवारना
प्रातः 08.13 से 9.37 चर
प्रातः 9.37 से 11.01 लाभ
सुबह 11.01 से 12.25 अमृत
                        दोपहर 1.49 से 3.13 शुभ
       शाम 6.01 से 7.37 शुभ
शाम 7.37 से 9.13 अमृत
रात्रि 9.13 से 10.49 चर
               रात्रि 02.01 से 03.37 लाभ

श्री पूजन

वृश्चिक लग्न प्रातः 07.59 से 10.13 तक,
धन लग्न प्रातः 10.13 से 12.20 तक
अभिजित् मुहूर्त 11.58 से 12.46,
 कुम्भ लग्न दोपहर 02.09 से 03.46 तक,
 वृशभ लग्न शाम 19.04 से 21.04 तक,
मिथुन लग्न रात्रि 21.04 से 23.17 तक।
सिंह लग्न अर्द्ध रात्रि 01.33 से 03.41 तक
नूतन वर्ष
गुजरात से लेकर दक्षिण भारत में इस दिन से नवीन विक्रम संवत्सर व वर्श शुरू होता है। इस दिन सभी रिश्तेदार व मित्र वर्ग एक दूसरे के घर जाकर नये वर्श की बधाईयां देते है। व्यापारी नवीन वर्श की रोकड़ बहीं शुरू करते है।
श्री रोकड़ मिलान लेखन
संवत् 2073 कार्तिक शुक्ला 1 सोमवार, ता. 31.10.2016
प्रातः 06.49 से 08.13 अमृत वेला,
09.37 से 11.01 तक शुभ वेला

भाई दूज


भाई दूज का त्यौहार भाई बहन के स्नेह को सुदृढ करता है। यह त्यौहार के दो दिन बाद मनाया जाता है।
हिन्दु धर्म में भाई बहन के प्रतीक दो त्यौहार मनाये जाते है। एक रक्षा बंधन जिसमें भाई बहन की रक्षा की प्रतिज्ञा करता है। व दूसरा भाई दूज इसमें बहनें भाई की लम्बी आयु की प्रार्थना करती है। 
भाई दूज के दिन बहनें भाई के स्वस्थ व दीर्घायु होने की मंगल कामना करके तिलक लगाती है। इस दिन बहने भाईयों को तेल मलकर गंगा यमुना में स्नान भी कराती है। यदि गंगा यमुना जाना नहीं हो तो भाई को बहन के घर नहाना चाहिए।
यदि बहनें भाई को अपने हाथ से भोजन कराये तो भाई की उम्र बढ़ती है और जीवन के कश्ट दूर होते है। इस दिन चावल खिलाए। बहन चचेरी या ममेरी कोई भी हो सकती है। यदि बहन पास में नहीं हो तो गाय, नदी आदि स्त्री तत्व पदार्थ का ध्यान करके उनके समीप बैठकर भोजन करना भी शुभ माना जाता है।
इस दिन यमराज व यमुना जी की कथा सुनकर पूजा करनी चाहिए।