Monday, 16 October 2017

देवीय शक्ति से साक्षात्कार कराते मंत्र

देवीय शक्ति से साक्षात्कार कराते मंत्र
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मंत्रों का प्रयोग मानव ने अपने कल्याण के साथ-साथ दैनिक जीवन की संपूर्ण समस्याओं के समाधान हेतु यथासमय किया है और उसमें सफलता भी पाई है, परंतु आज के भौतिकवादी युग में यह विधा मात्र कुछ ही व्यक्तियों के प्रयोग की वस्तु बनकर रह गई है।
मंत्रों में छुपी अलौकिक शक्ति का प्रयोग कर जीवन को सफल एवं सार्थक बनाया जा सकता है। सबसे पहले प्रश्न यह उठता है कि 'मंत्र' क्या है, इसे कैसे परिभाषित किया जा सकता है। इस संदर्भ में यह कहना उचित होगा कि मंत्र का वास्तविक अर्थ असीमित है। किसी देवी-देवता को प्रसन्न करने के लिए प्रयुक्त शब्द समूह मंत्र कहलाता है।
जो शब्द जिस देवता या शक्ति को प्रकट करता है उसे उस देवता या शक्ति का मंत्र कहते हैं। मंत्र एक ऐसी गुप्त ऊर्जा है, जिसे हम जागृत कर इस अखिल ब्रह्मांड में पहले से ही उपस्थित इसी प्रकार की ऊर्जा से एकात्म कर उस ऊर्जा के लिए देवता (शक्ति) से सीधा साक्षात्कार कर सकते हैं।
ऊर्जा अविनाशिता के नियमानुसार ऊर्जा कभी भी नष्ट नहीं होती है, वरन्‌ एक रूप से दूसरे रूप में परिवर्तित होती रहती है। अतः जब हम मंत्रों का उच्चारण करते हैं तो उससे उत्पन्न ध्वनि एक ऊर्जा के रूप में ब्रह्मांड में प्रेषित होकर जब उसी प्रकार की ऊर्जा से संयोग करती है तब हमें उस ऊर्जा में छुपी शक्ति का आभास होने लगता है। ज्योतिषीय संदर्भ में यह निर्विवाद सत्य है कि इस धरा पर रहने वाले सभी प्राणियों पर ग्रहों का अवश्य प्रभाव पड़ता है।
चंद्रमा मन का कारक ग्रह है और यह पृथ्वी के सबसे नजदीक होने के कारण खगोल में अपनी स्थिति के अनुसार मानव मन को अत्यधिक प्रभावित करता है। अतः इसके अनुसार जो मन का त्राण (दुःख) हरे उसे मंत्र कहते हैं। मंत्रों में प्रयुक्त स्वर, व्यंजन, नाद व बिंदु देवताओं या शक्ति के विभिन्न रूप एवं गुणों को प्रदर्शित करते हैं। मंत्राक्षरों, नाद, बिंदुओं में दैवीय शक्ति छुपी रहती है।
मंत्र उच्चारण से ध्वनि उत्पन्न होती है, उत्पन्न ध्वनि का मंत्र के साथ विशेष प्रभाव होता है। जिस प्रकार किसी व्यक्ति, स्थान, वस्तु के ज्ञानर्थ कुछ संकेत प्रयुक्त किए जाते हैं, ठीक उसी प्रकार मंत्रों से संबंधित देवी-देवताओं को संकेत द्वारा संबंधित किया जाता है, इसे बीज कहते हैं। विभिन्न बीज मंत्र इस प्रकार हैं :
ॐ- परमपिता परमेश्वर की शक्ति का प्रतीक है।
ह्रीं- माया बीज,
श्रीं- लक्ष्मी बीज,
क्रीं- काली बीज,
ऐं- सरस्वती बीज,
क्लीं- कृष्ण बीज।
मंत्रों में देवी-देवताओं के नाम भी संकेत मात्र से दर्शाए जाते हैं, जैसे राम के लिए 'रां', हनुमानजी के लिए 'हं', गणेशजी के लिए 'गं', दुर्गाजी के लिए 'दुं' का प्रयोग किया जाता है। इन बीजाक्षरों में जो अनुस्वार (ं) या अनुनासिक (जं) संकेत लगाए जाते हैं, उन्हें 'नाद' कहते हैं। नाद द्वारा देवी-देवताओं की अप्रकट शक्ति को प्रकट किया जाता है।
लिंगों के अनुसार मंत्रों के तीन भेद होते हैं-
पुर्लिंग : जिन मंत्रों के अंत में हूं या फट लगा होता है।
स्त्रीलिंग : जिन मंत्रों के अंत में 'स्वाहा' का प्रयोग होता है।
नपुंसक लिंग : जिन मंत्रों के अंत में 'नमः' प्रयुक्त होता है।
अतः आवश्यकतानुसार मंत्रों को चुनकर उनमें स्थित अक्षुण्ण ऊर्जा की तीव्र विस्फोटक एवं प्रभावकारी शक्ति को प्राप्त किया जा सकता है। मंत्र, साधक व ईश्वर को मिलाने में मध्यस्थ का कार्य करता है। मंत्र की साधना करने से पूर्व मंत्र पर पूर्ण श्रद्धा, भाव, विश्वास होना आवश्यक है तथा मंत्र का सही उच्चारण अति आवश्यक है। मंत्र लय, नादयोग के अंतर्गत आता है।
मंत्रों के प्रयोग से आर्थिक, सामाजिक, दैहिक, दैनिक, भौतिक तापों से उत्पन्न व्याधियों से छुटकारा पाया जा सकता है। रोग निवारण में मंत्र का प्रयोग रामबाण औषधि का कार्य करता है। मानव शरीर में 108 जैविकीय केंद्र (साइकिक सेंटर) होते हैं जिसके कारण मस्तिष्क से 108 तरंग दैर्ध्य (वेवलेंथ) उत्सर्जित करता है।
शायद इसीलिए हमारे ऋषि-मुनियों ने मंत्रों की साधना के लिए 108 मनकों की माला तथा मंत्रों के जाप की आकृति निश्चित की है। मंत्रों के बीज मंत्र उच्चारण की 125 विधियाँ हैं। मंत्रोच्चारण से या जाप करने से शरीर के 6 प्रमुख जैविकीय ऊर्जा केंद्रों से 6250 की संख्या में विद्युत चुम्बकीय ऊर्जा तरंगें उत्सर्जित होती हैं, जो इस प्रकार हैं :
मूलाधार 4×125=500
स्वधिष्ठान 6×125=750
मनिपुरं 10×125=1250
हृदयचक्र 13×125=1500
विध्रहिचक्र 16×125=2000
आज्ञाचक्र 2×125=250
कुल योग 6250 (विद्युत चुम्बकीय ऊर्जा तरंगों की संख्या)
भारतीय कुंडलिनी विज्ञान के अनुसार मानव के स्थूल शरीर के साथ-साथ 6 अन्य सूक्ष्म शरीर भी होते हैं। विशेष पद्धति से सूक्ष्म शरीर के फोटोग्राफ लेने से वर्तमान तथा भविष्य में होने वाली बीमारियों या रोग के बारे में पता लगाया जा सकता है। सूक्ष्म शरीर के ज्ञान के बारे में जानकारी न होने पर मंत्र शास्त्र को जानना अत्यंत कठिन होगा।
मानव, जीव-जंतु, वनस्पतियों पर प्रयोगों द्वारा ध्वनि परिवर्तन (मंत्रों) से सूक्ष्म ऊर्जा तरंगों के उत्पन्न होने को प्रमाणित कर लिया गया है। मानव शरीर से 64 तरह की सूक्ष्म ऊर्जा तरंगें उत्सर्जित होती हैं जिन्हें 'धी' ऊर्जा कहते हैं। जब धी का क्षरण होता है तो शरीर में व्याधि एकत्र हो जाती है।
मंत्रों का प्रभाव वनस्पतियों पर भी पड़ता है। जैसा कि बताया गया है कि चारों वेदों में कुल मिलाकर 20 हजार 389 मंत्र हैं, प्रत्येक वेद का अधिष्ठाता देवता है। ऋग्वेद का अधिष्ठाता ग्रह गुरु है। यजुर्वेद का देवता ग्रह शुक्र, सामवेद का मंगल तथा अथर्ववेद का अधिपति ग्रह बुध है।
मंत्रों का प्रयोग ज्योतिषीय संदर्भ में अशुभ ग्रहों द्वारा उत्पन्न अशुभ फलों के निवारणार्थ किया जाता है। ज्योतिष वेदों का अंग माना गया है। इसे वेदों का नेत्र कहा गया है। भूत ग्रहों से उत्पन्न अशुभ फलों के शमनार्थ वेदमंत्रों, स्तोत्रों का प्रयोग अत्यन्त प्रभावशाली माना गया है।
उदाहरणार्थ आदित्य हृदयस्तोत्र सूर्य के लिए, दुर्गास्तोत्र चंद्रमा के लिए, रामायण पाठ गुरु के लिए, ग्राम देवता स्तोत्र राहु के लिए, विष्णु सहस्रनाम, गायत्री मंत्रजाप, महामृत्युंजय जाप, क्रमशः बुध, शनि एवं केतु के लिए, लक्ष्मीस्तोत्र शुक्र के लिए और मंगलस्रोत मंगल के लिए। मंत्रों का चयन प्राचीन ऐतिहासिक ग्रंथों से किया गया है।
वैज्ञानिक रूप से यह प्रमाणित हो चुका है कि ध्वनि उत्पन्न करने में नाड़ी संस्थान की 72 नसें आवश्यक रूप से क्रियाशील रहती हैं। अतः मंत्रों के उच्चारण से सभी नाड़ी संस्थान क्रियाशील रहते हैं।

Friday, 29 September 2017

विजयादशमी को करें शमी (खेजड़ी) पूजन

अमंगलानां च शमनीं शमनीं दुष्कृतस्य च।
दुस्वप्ननाशिनीं धन्या प्रपद्येहं शमीं शुभाम्


विजयादशमी को करें शमी (खेजड़ी) पूजन

ब्रह्मकर्म रचयिता शास्त्री प्रवीण त्रिवेदी भीनमाल ने बताया कि दशहरे को दशानन को अग्नि को समर्पित करने के साथ और भी पूजन किया जाता है।
स्कंदपुराण के अनुसार विजयादशमी को अपराजिता देवी का पूजन करना चाहिए। यह पूजन घर के उत्तर-पूर्व दिशा में अपराह्न के समय में विजय व कल्याण की भावना से करना चाहिए। पूजन के ईशान कोण में साफ व स्वच्छ स्थान को गोबर आदि से लीप कर शुद्ध करना चाहिए। उसके बाद चावल आदि से अष्टदल बनाकर संकल्प लें। उसके बाद बीच में अपराजिता देवी की स्थापना करें। उसके दायें व बायें जया व विजया देवी का भी आवाहन कर क्रिया शक्ति व उमा शक्ति को नमस्कार कर षोडशोपचार (आवाह्न, आसन, पाद्यं, अघ्र्यं, स्नान, पंचामृत, गंधोदकादि स्नान, अभिषेक, वस्त्र,यज्ञोपवीत,चंदन,अक्षत,पुष्पं, सौभाग्यद्रव्याणि, धूपं, दीपं, नैवेद्यं, ताम्बूलं, फल, दक्षिणा, आरति, पुष्पांजलि, प्रदक्षिणा, नमस्कार )पूजन करें। पूजन के पश्चात् शमी वृक्ष के पास जाकर उनका पूजन करें। लौकिक भाषा में शमी को खेजड़ी भी कहते है। ऐसा करने के बाद शमी वृक्ष के नीचे चावल, सुपारी व ताम्बें का सिक्का रखें फिर वृक्ष की प्रदक्षिणा कर उसकी जड़ के पास की मिट्टी व कुछ पत्तें घर लेकर आये व पवित्र स्थान पर रखे।


त्रिवेदी ने बताया कि यह पूजन शमी का अर्थ शत्रुओं का नाश करने वाला होता है।
शमी शमयते पापं शमी लोहितकण्टका। धारिण्यर्जुनबाणानां रामस्य प्रियवादिनी।
करिष्यमाणयात्रायां यथाकाल सुखं मया। तत्रनिर्विघ्नकत्र्रीत्वंभव श्रीरामपूजिते।।
अर्थ- शमी पापों का शमन करती है। शमी के कांटें तांबे के रंग के होते है, यह अर्जुन के बाणों को धारण करती है। हे शमी! राम ने तुम्हारी पूजा की है, मैं यथा काल विजय यात्रा पर ही निकलूंगा। तुम मेरी इस यात्रा को निर्विघ्न कारक व सुख कारक बनाओं।
त्रिवेदी ने बताया कि
भगवान राम के पूर्वज महाराज रघु ने विश्वजीत यज्ञ कर अपनी समस्त धन सम्पदा दान कर पर्णकुटी में निवास करने लगे थे। ऐसे में अपनी गुरु दक्षिणा के ऋण से मुक्त होने के लिए कौत्स मुनि वहां पधारें व राजा रघु से चैदह करोड़ स्वर्ण मुद्रायें मांगी। ऐसे समय रघु ने ब्राह्मण बालक को धन देने हेतु कुबेर पर आक्रमण किया तब कुबेर ने शमी व अश्मंतक के वृक्ष पर स्वर्णमुद्राओं की बारीश की। तब से शमी व अश्मंतक की पूजा की जाती है। पूजा के बाद अश्मंतक के पत्ते घर लाकर स्वर्ण मानकर लोगों में बांटने का रिवाज प्रचलित हुआ।
शमी के नीचे दीपक जलाने से शत्रु पक्ष से युद्ध व मुकदमों में विजय मिलती है।

अन्य कारण।
भगवान राम ने लंका पर विजय हेतु शमी वृक्ष की पूजा की थी।
पाण्डवों ने वनवास के अज्ञात वास के समय अपने शस्त्रों को शमी वृक्ष पर छिपा कर रखा था तब से इसकी पूजा की जाती है।
विजयादशमी के दिन क्षत्रिय अस्त्र व शस्त्रों की पूजा करते है, वहीं ब्राह्मण वर्ग शमी (खेजड़ी) जिसने पाण्डवों के शस्त्रों को अपने पास रखा था, की पूजा करते है।


Tuesday, 29 August 2017

श्राद्ध- एक ऋषि परम्परा

श्राद्ध- एक ऋषि परम्परा
श्राद्ध का स्वरूप पृथ्वीचन्द्रयोदय में लिखा हैं कि, जो भोजन अपने को रूचता है वह प्रेत और पितरों के निमिŸा जब श्रद्धा से दिया जाय तब उसे श्राद्ध कहते हैं। मरीचि ने कहा है किः-
श्रद्धया दीयते यत्ऱ तच्छ्राद्धं परिकीर्तितम्।।
श्राद्ध मूलतः उन के लिए किया जाता है जो पितृ रूप में हैं। इसी संदर्भ में यह भी निरूपित किया गया हैं कि नश्वर स्थूल शरीर नष्ट होने पर भी उस योनि द्वारा संपादित किया हुआ कर्म नष्ट नहीं होता। हमारे सूक्ष्म शरीर में कर्म का प्रतिबिम्ब रह जाता हैं, यह सूक्ष्म शरीर बीज रूप से कर्म संस्कार स्मृतियों को लेकर एक स्थूल शरीर से दूसरे स्थूल शरीर में प्रवेश करता हैं। कठोपनिषद् में यमराज नचिकेता को कहते हैंः-
योनिमन्ये प्रपद्यन्ते शरीरत्वाय देहिनः। स्थाणुमन्यंऽनुसंयन्ति यथाकर्म यथाश्रुतम।।
यमराज कहते हैं, हे नचिकेता अपने-अपने शुभाशुभ कर्मो के अनुसार और शास्त्र, गुरू, संग, शिक्षा, ज्ञान, विवेक आदि के द्वारा देखे-सुने भावों से निर्मित अन्तः कालीन वासना के अनुसार मरने के पश्चात् कितने ही जीवात्मा दूसरा शरीर धारण करने के लिए वीर्य के साथ माता की योनि में प्रवेश कर जाते हैं। इनमे जिनके पुण्य-पाप समान होते हैं, वे मनुष्य का , जिनके पुण्य कम व पाप अधिक होते हैं वे पशु-पक्षी का शरीर धारण करके उत्पन्न होते हैं, और कितने ही, जिनके पाप अत्यधिक होते हैं वे स्थावर भाव को प्राप्त होते हैं अर्थात् वृक्ष, लता, तृण, पर्वत आदि शरीर में उत्पन्न होते हैं।
अलग-अलग ग्रन्थों में श्राद्ध के विभिन्न प्रकार बताये हैं। पर महर्षि विश्वामित्र ने प्रमुखतया बारह प्रकार के श्राद्धों का उल्लेख किया हैं, जो निम्न प्रकार हैं।
नित्यः-जो नित्य किया जाता हैं, इसमे विश्वदेव का आह्नान नहीं किया जाता हैं। असमर्थ मनुष्य जल से भी कर सकता हैं।
नैमिŸिाकः-यह एकोदिष्ट होता हैं। इसमे भी विश्वदेव का आह्नान नहीं किया जाता हैं। इसमे एक, तीन, पाँच ़ ़ ़ अयुग्म ब्राह्मणों को भोजन कराया जाता हैं।
काम्यः-किसी विशेष कामना से किया हुआ श्राद्ध काम्य श्राद्ध कहलाता हैं।
वृद्धिः-मांगलिक अवसरों पर पितरो की प्रसन्नता हेतु किया गया श्राद्ध, वृद्धि श्राद्ध कहलाता हैं।  सपिंडीः-इसमे गंध, तिल व जल से युक्त चार पात्र अघ्र्य के निमिŸा बनावें। पितरों के पात्रों में प्रेत के पात्र जल को  येस माना, समनसा इन दो मंत्रों से सींचन करें इसको सपिंडन कहते हैं। शेष कर्म नित्य श्राद्ध के समान होता हैं।
पार्वणः-यह संक्रान्ति, अष्टमी, चतुर्दशी, पूर्णिमा व अमावस्या के दिन किया जाता हैं।
गोष्ठीः-विष्णुपुराण में लिखा है कि , बहुत विद्वानों को सुख व पितृ तृप्ति हेतु समूह रूप में जो किया जाय उसे गोष्ठी श्राद्ध कहा जाता हैं।
शुद्धिः-किसी भी कार्य के पूर्व शुद्धि हेतु किया गया प्रायश्चित कर्म या ब्राह्मणों को कराया गया भोजन शुद्धि श्राद्ध कहा जाता हैं।
कर्मांगः-गर्भाधान, सीमंत, पुंसवन आदि कर्मो के अंगभूत होने से पितरों के प्रसन्नता हेतु किया जाता हैं।
दैविकः-देवों की प्रसन्नता हेतु किया जाता हैं, उसे दैविक श्राद्ध कहते हैं।  
यात्राः-सफल तीर्थ यात्रा के उद्देश्य से किया जाता हैं, उसे यात्रा श्राद्ध कहते हैं।
पुष्टिः-शरीर को पुष्ट रखने के लिए या धन वृद्धि हेतु किया जाय उसे पुष्टि श्राद्ध हैं।
इनके अतिरिक्त निम्न श्राद्ध और भी हैं, जो ज्यादातर देखने में आते हैं।
एकोदिष्ट श्राद्धः-यह केवल एक प्रमुख पितर के निमिŸा किया जाता हैं।
महालय श्राद्धः-यह श्राद्ध आश्विन मास के कन्या गत भानु में कृष्ण पक्ष में किया जाता हैं। मुख्य रूप से वर्तमान में यही श्राद्ध देखने को मिलता हैं।
श्राद्ध के देशः-
प्रभास खण्ड में लिखा हैं कि, अपने घर में श्राद्ध के दाता को तीर्थ से आठ गुणा पुण्य प्राप्त होता हैं।
स्कन्द पुराण में लिखा हैं कि, तुलसी के वन की छाया जहां-जहां हो वहां-वहां पितरों की तृप्ति के निमिŸा श्राद्ध करें।
त्रिस्थलीसेतु में वायुपुराण का वाक्य हैं कि, शमी के पŸो के समान भी गयाशिर में जो पिंड देता है, वह सात गोत्र और एक सौ एक कुल का उद्धार करता हैं, सात गोत्र यह हैं, माता, पिता, भार्या, भगिनी, पुत्री, पिता व माता की भगिनी इन सात गोत्रों के 101 पितरो को कुल कहते हैं।
श्रद्धा से किया गया श्राद्ध पितरों को उसी रूप में मिलता है जिस रूप या योनि में पितृ होते हैं। जैसे:-यदि पितृ शुभ कर्म से देवता हुआ है तो उस देने वाले का अन्न अमृत होकर उसे प्राप्त होता हैं, यदि गन्धर्व हो तो भोग रूप से, पशु हो तो तृण रूप से, नाग होने पर वायु रूप से, यक्ष होने पर पान रूप से, राक्षस हो तो आमिष रूप से, दनुज हो तो मद्य रूप से, प्रेत हो तो रूधिरोधक, मनुष्य हो तो अन्नपानादि रूप से मिलता हैं।
अतः प्रत्येक गृहस्थी को पितरों के निमिŸा यथा शक्ति श्रद्धा से श्राद्ध करके पितरों को तृप्त करना चाहिएं।

श्राद्ध  5 सितम्बर  मंगलवार से 20 सितम्बर बुधवार तक।
5 को पूर्णिमा श्राद्ध
6 को प्रतिपदा
7 को द्वितीया
8 को तृतीया
9 चतुर्थी
10 को पंचमी
11 को षष्ठी
12 को सप्तमी
13 को अष्टमी श्राद्ध
14 को सौभाग्यवती नवमी श्राद्ध
15 दशमी
16 को एकादशी
17 को द्वादशी व संयासीनां श्राद्ध
18 चतुर्दशी व शस्त्र से मृत्यु प्राप्त का श्राद्ध
19 सर्वपितृ अमावस्या श्राद्ध
20 को मातामह श्राद्ध

Tuesday, 15 August 2017

वनस्पति से ग्रह शांति

वनस्पति से ग्रह शांति

संसार में मानव मात्र यही चाहता कि वह हमेशा सुखी रहे पर ऐसा हमेशा नहीं होता हैं और व्यक्ति किसी न किसी उलझनों में जूझता ही रहता हैं। ज्योतिष शास्त्र कहता है कि यह सब ग्रहों का असर है एवं उसका निदान ढूंढा जा सकता हैं।
श्री दर्शन पंचांग कर्Ÿाा शास्त्री प्रवीण त्रिवेदी कहते है कि जिस प्रकार पृथ्वी की गुरूत्वाकर्षण शक्ति अन्य वस्तुआंे को अपनी ओर खिचती है, चन्द्रमा की शक्ति से पृथ्वी पर स्थित समन्दर में ज्वार भाटा देखा जा सकता है। ठीक वैसी ही सभी ग्रहों की अपनी अपनी गुरूत्वाकर्षण और चुम्बकीय शक्ति होती है जिसका असर एक दूसरे पर होने से ब्रह्माण्ड के सभी पिण्ड अपनी निश्चित परिधि या स्थान पर स्थित रहते है, वही गुरूत्वाकर्षण एवं चुम्बकीय तरंगों का प्रभाव जब पृथ्वी पर पड़ता है, उसके समन्दरों पर पड़ता है तो वही प्रभाव उस पर निवास करने वाले प्राणि मात्र पर पड़ता है।
त्रिवेदी कहते है कि उन्हीं तरंगों का मानव पर पड़ने वाले प्रभाव या असर को बताने वाला शास्त्र ज्योतिष विज्ञान कहलाता है। जिसमें सर्वाधिक असर करने वाले हमारी पृथ्वी के नजदीकी पिण्डों में से ग्रहों व नक्षत्रों के आधार व प्रभाव को जानने हेतु हमारें तत्वज्ञों ने ज्योतिष शास्त्र का निर्माण किया जिसमें जब शिशु का जन्म होता है उस समय आकाश में रहे हुए ग्रहों की स्थिति बताने वाले चक्र को कुण्डली का रूप दिया गया।
इसी जन्म कुण्डली में स्थित ग्रहों का मानव पर अच्छे एवं बुरे दोनों ही प्रकार के प्रभाव को दर्शाने हेतु फलित ज्योतिष बनाया गया। जिसके अनुसार जब कोई ग्रह आप पर प्रतिकूल असर डालता है तो उसके निदान हेतु कई प्रकार के उपचार बताये गए है जिसमें वनस्पतियों द्वारा ग्रह शांति को इस प्रकार किया जा सकता है-
सूर्य ग्रह की शांति हेतु बेल की जड़ दाहिनें हाथ में गुलाबी धागे में बांधकर रविवार के दिन पुष्य आदि अच्छे नक्षत्र व समय में धारण करें।
चन्द्र ग्रह की शांति हेतु खिरनी या सत्यानाशी की जड़ दाहिनें हाथ में सफेद धागे में बांधकर सोमवार के दिन पुष्य आदि अच्छे नक्षत्र व समय में धारण करें।
मंगल ग्रह की शांति हेतु अनन्त मूल या नागजिन्दा की जड़ दाहिनें हाथ में लाल धागे में बांधकर मंगलवार के दिन पुष्य आदि अच्छे नक्षत्र व समय में धारण करें।
बुध ग्रह की शांति हेतु विधारा या तांबेसर की जड़ दाहिनें हाथ में हरे धागे में बांधकर बुधवार के दिन पुष्य आदि अच्छे नक्षत्र व समय में धारण करें।
बृहस्पति ग्रह की शांति हेतु मोगरा या केले की जड़ दाहिनें हाथ में पीले धागे में बांधकर गुरूवार के दिन पुष्य आदि अच्छे नक्षत्र व समय में धारण करें।
शुक्र ग्रह की शांति हेतु सप्तपर्णी या सरपंखा की जड़ दाहिनें हाथ में श्वेत चमकीले धागे में बांधकर शुक्रवार के दिन पुष्य आदि अच्छे नक्षत्र व समय में धारण करें। इसमें सप्तपर्णी की जड़ शनिवार को धारण करने तो ज्यादा उŸाम रहेगा।
शनि ग्रह की शांति हेतु बिच्छू की जड़ दाहिनें हाथ में काले धागे में बांधकर शनिवार के दिन पुष्य आदि अच्छे नक्षत्र व समय में धारण करें।
राहु ग्रह की शांति हेतु श्वेत चंदन की जड़ दाहिनें हाथ में नीले धागे में बांधकर बुधवार के दिन पुष्य आदि अच्छे नक्षत्र व समय में धारण करें।
केतु ग्रह की शांति हेतु असगंध की जड़ दाहिनें हाथ में आसमानी धागे में बांधकर गुरूवार के दिन पुष्य आदि अच्छे नक्षत्र व समय में धारण करें।
जो व्यक्ति ग्रह दोष हेतु महंगे खर्च नहीं कर पाते उनके लिए यह उपाय कारगर सिद्ध हो सकता है।

Thursday, 15 June 2017

शनि वक्री होकर वृश्चिक राशि में

शनि वक्री होकर वृश्चिक राशि में बुधवार, 21 जून 2017 को प्रातः 5.03 पर प्रवेश करेगा, उस समय चंद्र मेष राशि पर होने से विभिन्न राशि के जातकों पर निम्न प्रभाव पड़ेगा।
तुला राशि के जातकों के ताम्र पाद पर पनोती लक्ष्मीदायक रहेगी।
वृश्चिक राशि के जातकों के सुवर्ण पाद पर पनोती चिंता कारक रहेगी।
धनु राशि के जातकों के चांदी के पाद पर पनोती धनदायक रहेगी।
मेष राशि के जातकों के सुवर्ण पाद पर पनोती चिंताकारक रहेगी।
सिंह राशि के जातकों के चांदी के पाद पर पनोती धनदायक रहेगी।

Saturday, 6 May 2017

मंगल से भय की आवश्यकता नहीं।

मंगल से भय की आवश्यकता नहीं।
सामान्यतः लोगों की जुबान पर यह सुनने को मिलता है कि अमुक वर या अमुक कन्या मंगलिक होने से विवाह सम्बन्ध देख कर करना होगा अन्यथा मुसिबत खड़ी हो सकती है। इस कठिनाई से निजात पाने हेतु प्रथम यह समझ लेना आवश्यक है कि मंगलिक क्या होता है एवं कैसे देखा जाता है।
किसी भी पुरूष या महिला की जन्म कुण्डली में प्रथम, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम व द्वादश भाव में यदि मंगल स्थित हो तो उसे मंगलिक कहा जाता है। यह स्थिति वर के हो तो उसे पाघड़ियें मंगल कहते है तथा कन्या की कुण्डली में स्थिति हो तो उसे चूनड़ियें मंगल की उपमा दी जाती है। इस स्थिति को और भी विस्तार रूप में देखने पर जन्म कुण्डली के अलावा चन्द्र या शुक्र कुण्डली अर्थात् जहां चन्द्र व शुक्र स्थित हो उस भाव को लग्न मानकर भी 1-4-7-8-12 भावों में मंगल हो तो उसे मंगलिक माना जाता है।
ज्योतिषियों एवं लोगों में मंगल को लेकर धारणा ?
सामान्यतः यह मंगल को लेकर यह धारण बनी हुई हैं कि मंगलिक होने का सीधा अर्थ यह है कि वर के मंगल दोष हो तो विदुर होगा एवं कन्या के हो तो विधवा होगी। परन्तु दोनों ही मंगलिक हो तो एक दूसरे के दोष काट देने से दोनों का जीवन सुखमय होगा।
क्या वास्तव में ऐसा होता है ?
नहीं! ऐसे कई लोग होंगे जिन्होने कुण्डली मिलान करके विवाह किया होगा पर उनमें सामंजस्य की कमी है। दोनों मंगलिक होने के बावजूद भी उनमें तनाव, तलाक व विदुर आदि दोष की स्थितियां देखी गई हैं। परन्तु बिना कुण्डली मिलान के भी विवाह करने वालों या एक मंगलिक व दूसरें के मंगलिक नहीं होने की स्थिति में भी प्रेम व दीर्घायु योग देखे गए है। परन्तु लोगों व ज्योतिषियों में जो आम धारणा मंगल को लेकर बनी हुई है उसे सही कहना सार्थक नहीं होगा। इसका निर्णय आप स्वयं कर सकते हो, भले ही आप ज्योतिष का ज्ञान नहीं रखते हो पर मेरे निम्न प्रश्नोंं या बिन्दुओं पर आपको अध्ययन करना होगा।
1 क्या मंगल लग्न भाव में वहीं फल देगा जो चतुर्थ भाव में देगा ?
2 क्या मंगल 1-4-7-8-12 भावों में किसी भी भाव में होने पर विदुर या विधवा योग ही बनाता हैं ?
3 क्या मंगल मेष, वृषभ आदि किसी भी लग्न में एक जैसा ही फल देने वाला है ?
4 क्या मंगल मेष आदि किसी भी राशि पर 1-4-7-8-12 भावों में एक जैसा फल देगा ?
5 क्या मंगल अकेला हो, किसी एक ग्रह के साथ हो, दो, तीन, चार, पांच, छः या सात ग्रहों के साथ होकर 1-4-7-8-12 भावों में होने पर सिर्फ एक ही फल देगा कि मानव विदुर या विधवा होगा।
6 क्या मंगल उच्च, नीच, अस्त, उदय होने पर एक जैसा ही फल देगा ?
7 क्या मंगल एक डीग्री, दस डीग्री या पच्चीस डीग्री पर होने पर भी एक ही फल देगा ?
8 क्या मंगल बाल, युवा या वृद्ध होने पर भी एक ही फल देगा ?
9 क्या मंगल स्वगृही, मित्रक्षेत्री, शत्रु क्षेत्री में से किसी भी स्थिति में होने पर एक ही फल देगा ?
10 क्या मंगल मार्गी या वक्री होने पर भी एक जैसा ही फल देगा ?
11 क्या मंगल नवमांश में किस स्थिति में है, उसका कोई प्रभाव नहीं होगा ?
        उपर्युक्त सभी प्रश्नों का उŸार आता है-नहीं।
सामान्य व्यक्ति भी इस बात से सहमत नहीं होगा कि सभी प्रकार की स्थितियों में मंगल का एक ही अर्थ निकालकर कि जातक विदुर या विधवा होगा कहना समुचित नहीं है। इस प्रकार स्पष्ट होता है कि 1-4-7-8-12 भावों में किसी भी भाव व स्थिति में स्थित मंगल को मांगलिक बताकर लोगों में भय की स्थापना करना कितना अनुचित होगा।                    
                                                                

Saturday, 22 April 2017

अक्षय तृतीया

भीनमाल।
आगामी 28 अप्रेल, शुक्रवार को अक्षय तृतीया है। भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि अक्षय तृतीया परम पुण्य तिथि है। शास्त्री प्रवीण त्रिवेदी ने बताया कि इस दिन दोपहर से पूर्व स्नान, जप, तप, होम, स्वाध्याय, पितृ तर्पण तथा दान करने वाला महाभाग अ़़़क्षय पुण्यफल का भागी होता है।
इस दिन समुद्र या गंगा स्नान करना चाहिए। प्रातः पंखा, चावल, नमक, घी, शक्कर, सब्जी, इमली, फल, वस्त्र, मटका और खरबूजे के दान करके ब्राह्मणों को भोजन व दक्षिणा देनी चाहिए। इस दिन सत्तू अवश्य खाना चाहिए। इस दिन नवीन वस्त्र, आभूषण बनवाना या धारण करना चाहिए।
त्रिवेदी ने बताया कि इस दिन से सतयुग व त्रेतायुग का प्रारंभ माना जाता है। इसी दिन चारों धाम में से एक बद्रीनारायण के पट खुलते है। नर-नारायण ने इसी दिन अवतार लिया था।  वेद व्यास एवं गणेश द्वारा महाभारत ग्रंथ के लेखन का प्रारंभ दिन है। महाभारत के युद्ध का समापन दिन है। परशुराम का अवतरण भी इसी दिन हुआ था। द्वापर युग का समापन दिन है। माता गंगा का पृथ्वी पर आगमन दिन है। हयग्रीव का अवतार भी इसी दिन हुआ था। ब्रह्मा के पुत्र अक्षय कुमार का आविर्भाव अर्थात् उदीयमान दिन है।  वृंदावन के बांके बिहारी के मंदिन में केवल इसी दिन श्रीविग्रह के चरण-दर्शन होते है, अन्यथा पूरे वर्ष वस्त्रों से ढंके रहते है।

Wednesday, 22 March 2017

प्रतिपदा निर्णय
अमायुक्ता न कर्तव्या प्रतिवत्पूजने मम।
मुहूर्तमात्रा कर्तव्या द्वितीयादिगुणान्विता।।
अमावस्या से युक्त प्रतिपदा में पूजन न करे, मुहूर्त मात्र भी द्वितीया से युक्त करें।
अमायुक्ता न कर्तव्या प्रतिपच्चण्डिकार्चने।
आदि आदि लिखा है कि अमावस्या से युक्त प्रतिपदा ग्रहण न करे। द्वितीया से युक्त ही प्रतिपदा सुख देने वाली है।
परन्तु दूसरे दिन प्रतिपदा मुहूर्त मात्र होनी चाहिए।
इस नव वर्ष में 29 मार्च को प्रतिपदा सूर्योदय को स्पर्श भी नहीं करती है इसलिए अमायुक्ता ही ग्रहण करनी होगी।
जिसका प्रमाण
अमायुक्ता प्रकर्तव्या, इत्यादिनि नृसिंहप्रसादे वचनानि।
अन्य
परदिने प्रतिपदोत्यन्तासत्त्वे तु दर्शयुताsपि पूर्वैव ग्राह्या।
दूसरे दिन प्रतिपदा अत्यंत सर्वथा न रहने पर अमायुक्त भी पूर्वा ही ग्रहण करें।

Monday, 20 February 2017

महाशिवरात्रि

महाशिवरात्रि 24 फरवरी को है।
गरूड पुराण के अनुसार शिवरात्रि से एक दिन पूर्व त्रयोदशी तिथि में शिवजी की पूजा करनी चाहिए और और व्रत का संकल्प लेना चाहिए । इसके उपरांत चतुर्दशी तिथि को निराहार रहना चाहिए। महाशिवरात्रि के दिन भगवान शिव को गंगा जल चढ़ाने से विशेष पुण्य प्राप्त होता है।   महाशिवरात्रि के दिन भगवान शिव की मूर्ति या शिवलिंग को पंचामृत से स्नान कराकर ओम नमः शिवाय मंत्र से पूजा करनी चाहिए। इसके बाद रात्रि के चारो प्रहर में शिव जी की पूजा करनी चाहिए और अगले दिन प्रातः काल ब्राह्मणों को दान दक्षिणा देकर व्रत का पारणा करना चाहिए।
भगवान शिव की पूजा अर्चन करने के लिए यह दिन सबसे शुभ होता है। वैसे प्रतिमास शिवरात्रि आती है, परन्तु सबसे बड़ी शिवरात्रि को महाशिवरात्रि कहते है। सूर्य के मकर राशि में प्रवेश के बाद महाशिवरात्रि का आगमन होता है। भगवान शिव पंचमुखी होकर 10 भुजाओं से युक्त है एवं पृथ्वी, आकाश और पाताल तीनों लोकांे के एक मात्र स्वामी है। शिव का ज्योतिर्मय रूप भौतिकी शिव के नाम से जाना जाता है जिसकी हम सभी आराधना करते है। ज्योतिर्मय शिव पंचतत्वों से निर्मित है। भौतिकी शिव का वैदिक रीति से अभिषेक एवं स्तुति आदि से स्तवन किया जाता है। तत्वों के आधार पर शिव परिवार के वाहन सुनिश्चित है। शिव स्वयं पंचतत्व मिश्रित जल प्रधान है। इनका वाहन नंदी आकाश तत्व की प्रधानता लिए हुए है। शिव दर्शन करने के पूर्व नंदीदेव के सींगों के बीच में से शिव दर्शन करते है। क्योंकि शिव ज्योतिर्मय भी है और सीधे दर्शन करने पर उनका तेज सहन नहीं किया जा सकता है। नंदी देव आकाश तत्व होने से वे शिव के तेज को सहन करने की पूर्ण क्षमता रखते है। माता गौरी अग्नि तत्व की प्रधानता लिए हुए है। इनका वाहन सिंह भी अग्नितत्व है। स्वामी कार्तिकेय वायु तत्व है जिनका वाहन मयूर भी वायुतत्व है। गणेश पृथ्वी तत्व एवं इनका वाहन मूषक भी पृथ्वी तत्व है।
भगवान शिव को शंख से जल, केतकी का पुष्प तथा कंकु नहीं चढ़ाना चाहिए। परन्तु शिवरात्रि को अर्धरात्रि के समय सूखा कंकु चढ़ाया जा सकता है। हरतालिका को केतकी का पुष्प।

शिव जी के विभिन्न द्रव्यों से अभिषेक के फल
जल से वृष्टि होती है।
कुशोदक से व्याधि शान्ति होती है।
इक्षुरस से श्री की प्राप्ति
दुध से पुत्र प्राप्ति
जलधारा से ज्वर शान्ति
वंश वृद्धि के लिए घृतधारा
शर्करा युक्त दुध से जड़बुद्धि का विकास
सरसों के तेल से शत्रु नाश
मधु से राज्य प्राप्ति


शिव नीलकण्ठ क्यों बनें

भगवान आशुतोष को महादेव के नाम से जाना जाता है। क्योंकि वे देवों के देव है। तथा यह नाम उन्हें वैसे ही प्राप्त नहीं हुआ होगा। इसके लिए कोई न कोई कारण अवश्य रहा होगा। उन्हीं श्रृंखला में एक कारण यह भी रहा होगा कि समुद्र मंथन से उत्पन्न हलाहल नाम का विष पान शिवजी ने ही किया था। इस सम्बन्ध निम्न उदाहरण दृष्टव्य हैं।
एक बार राजदरबार में शिवजी के विषपान करते हुए चित्र को देखकर राजा भोज के दिमाग में कालिदास से प्रश्न करने की सुझी और उन्होंने कालिदास से पूछा, किम् कारणमपिवत हर हलाहलं ? (महादेव ने विष पान क्यों किया ?) कवि ने विचार किया कि अवश्य ही राजेन्द्र को आशुतोष नीलकण्ठ के चित्र को देखकर कोई विनोद सूझा हैं, अन्यथा क्या उन्हें शिव द्वारा विषपान का कारण ज्ञात नहीं ! महाकवि कालिदास ने मां शारदा का स्मरण किया व इस प्रकार निवेदन किया,
वृषभो प्रपलायते प्रतिदिनं सिंहावलोकादभया पश्यन्
मŸामयूरमन्तिक चरं, भूषा भुजंग व्रजः कृŸिां कृन्तति
मूषकोऽपि रजनौ भिक्षान्तमाक्षयन
दुखेनेतिदिगम्बरः स्मरहरो हलाहलं पीतवान।
अर्थात् पार्वती के वाहन सिंह के भय से अपना वाहन प्रतिदिन कांपता प्रलाप करता रहता हैं, अपने स्वयं के आभूषण भुजंग को अपने पुत्र कार्तिकेय का वाहन मयूर को देखकर बार-बार उधर लपकता हैं अथवा मयूर को देखकर भुजंग भयाक्रांत हो भागता है, गणेश का वाहन मूषक भिक्षा से प्राप्त अन्न को काटता कुतरता रहता है, इससे रात्रि में नींद नहीं आती, इसी दुःख के कारण दिगम्बर हो रहने पर भी दुखी कामरी महादेव ने विष पीकर आत्महत्या करनी चाही थी। सारी सभा धन्य! धन्य!! के शब्दों से गूंज उठी परन्तु राजा भोज के श्रृंगार रस से परिपूर्ण तृप्ति नहीं हुई, उनके मुख मण्डल पर मुस्कराहट फैली फिर भी बोले, अप्यन्श्व ? अर्थात् क्या कोई और भी कारण हैं ? महाकवि के अधरों पर भी मुस्कान उभरी। उन्होंने राजा को नत मस्तक करके एक छन्द और पढ़ा
अŸाुं वाच्छति वाहनं गणपतेराखुं क्षुधार्तः फणी तज्व
कौंचपतेः शिखी, च गिरिजा सिंहोऽपि नागाननम्।
गौरी जह्नु सुता मसूयति कलानाथं कपालाऽनिलो
निर्विष्णः सपपौ कुटुम्ब कहलादी शोऽपि हलाहलम्।
अर्थात् हे राजन्! अपने पुत्र गणेश के वाहन चूहे को स्वयं का प्रिय भूषण सर्प निगल लेना चाहता है और अपने उसी अंलकार भुजंग को दूसरे पुत्र कार्तिकेय का वाहन मोर, मार डालना चाहता हैं, अपनी पत्नी का वाहन सिंह अपने पुत्र गजानन को हाथी समझकर उसका अन्त करने के लिए व्याकुल रहता है। पार्वती अपने पति के सिर चढ़ी गंगा को देख कर सौतिया डाह से जलती रहती है और जटाजूट पर लटका चन्द्रमा बेचारा तृतीय नैत्र की ज्वाला से दग्ध तनमना होकर निस्तेज बन रहा हैं, हे राजा! अपने कुटुम्ब के भीतर ऐसा भीषण कलह देख कर ही ईश्वर कहलाने वाले शिव को भी विष पीना पड़ा था।
महराजा भोज ने महाकवि को अपने गले से लगाकर बहुमूल्य मणिमाल उनको उपहार में पहना दी।



Friday, 13 January 2017

ब्रह्मगुप्त

ब्रह्मगुप्त
ब्रह्मगुप्त का जन्म 520 शक (655 विक्रम संवत या 589 ए.डी.) रेवाह के राजा व्याघ्रमुख के समकालीन थे।
ब्रह्मगुप्त के पिता का नाम जिस्नुगुप्त था।
30 वर्ष की उम्रं में ब्रह्मस्फूटसिद्धांत ग्रंथ 550 शक में लिखा था।
587 शके में खण्डखाद्यक ग्रंथ लिखा।
दादा का नाम विष्णुगुप्त था
श्रीचापवंशखिलके श्रीव्याघ्रमुखे नृपे शकनृपाणाम्।
पंचाषत्यसंयुक्तै र्वर्षशतैः पंचभिरतीतैः।
ब्राह्मःस्फुटसिद्धान्तः सज्जनगणितज्ञगोलयीत्प्रीत्यै।
त्रिंशद्वर्षेण कृते जिष्णुसुतब्रह्मगुप्तेन।।
ब्राह्मस्फुट सिद्धांत के संज्ञाध्याय में आचार्य की इस उक्ति के अनुसार 520 शाकवर्ष में आचार्य ब्रह्मगुप्त का जन्म हुआ। 30 वर्ष की आयु में ही उन्होने ब्राह्मस्फुट सिद्धांत नामक ज्योतिष के इस महान सिद्धांत ग्रंथ का प्रणयन किया। इसी से रीवा नरेश व्याघ्रभटेश्वर ने इन्हें अपना प्रधान ज्योतिषी बनाकर सम्मानित किया।
इनका जन्म गुर्जर देशान्तर्गत भीनमाल नामक गांव में हुआ। गुर्जर प्रदेश की उत्तर सीमा में मालव (मारवाड़) देश से दक्षिण दिशा की ओर आबूपर्वत और लूणी नदी के मध्यवर्ती पर्वत से वायव्य कोण में भीनमाल में इनका जन्म हुआ।
आचार्य ने स्वयं स्पष्ट किया है कि विष्णुधर्मोत्तर पुराण के अन्तर्गत अति प्राचीन सिद्धांत को ही आगम मानकर उसका संशोधन करके नवीन ब्राह्मस्फुट सिद्धांत की रचना की।
इनकी कुल तीन रचनाए थी-1 ब्राह्मस्फुट सिद्धांत, 2 खण्डखाद्यक , 3 ध्यानग्रहोपदेश
ब्रह्मगुप्त प्रसिद्ध भारतीय गणितज्ञ थे, ये अच्छे वेधकर्ता थे और इन्होंने वेधों के अनुकूल भगणों की कल्पना की हैं। मध्यकालीन यात्री अलबरूनी ने भी ब्रह्मगुप्त का उल्लेख किया है। इनके दो ग्रंथों का अनुवाद अरबी भाषा में अनुमानतः खलीफा मंसूर के समय, सिंदहिंद और अल अकरंद के नाम से हुआ।
ब्राह्मस्फुटसिद्धांत उनका सबसे पहला ग्रंथ माना जाता है जिसमें शून्य का अलग अंक के रूप में उल्लेख किया गया है। यही नहीं , बल्कि इस ग्रंथ में ऋणात्मक अंकां और शून्य पर गणित करने के सभी नियमों का वर्णन भी किया गया है। यह नियम आज भी अपनाए जाते है। हां एक अन्तर अवश्य है कि उन्होंने शून्य से भाग करने का नियम सही नहीं दे पाये। 0/0 बराबर 0
ब्रह्मस्फुटसिद्धांत के साढ़े चार अध्याय मूलभूत गणित को समर्पित है।
बीजगणित केजिस प्रकरण में अनिर्धार्य समीकरणों का अध्ययन किया जाता है, उसका पुराना नाम ‘कुट्टक’ है। इस पर ही इस विज्ञान का नाम सन् 628 ई. में कुट्टक गणित रखा। उन्होंने द्विघातीय अनिर्धार्य समीकरणों के हल की विधि भी खोज निकाली, जिसका नाम चक्रवाल विधि है।
इनके ब्राह्मस्फुटसिद्धांत के द्वारा ही अरबों को भारतीय ज्योतिष का पता लगा। अब्बासिद खलीफा अल-मंसूर (712-775 ईस्वी) ने बगदाद की स्थापना की और इसे शिक्षा के केन्द्र के रूप में विकसित किया। उसने उज्जैन के कंकः को आमंत्रित किया जिसने ब्राह्मस्फुटसिद्धांत के सहारे भारतीय ज्योतिष की व्याख्या की। अब्बासिद के आदेश पर अल-फजरी ने इसका अनुवाद अरबी भाषा में किया।
ब्रह्मगुप्त ने किसी वृत्त के क्षेत्रफल को उसके समान क्षेत्रफल वाले वर्ग से स्थानांतरित करने का भी यत्न किया।
ब्रह्मगुप्त ने पृथ्वी की परिधि ज्ञात की थी, जो आधुनिक मान के निकट है।
ब्रह्मगुप्त ने पाई का मान 10 के वर्गमूल (3.16227766) के बराबर माना था।
ब्रह्मगुप्त अनावर्त वित भिन्नों के सिद्धांत से परिचित थे। इन्होंने एक घातीय अनिर्धार्य समीकरण का पूर्णांकों में व्यापक हल दिया, जो आधुनिक पुस्तकों में इसी रूप में पाया जाता है।
ब्रह्मगुप्त का सबसे महत्वपूर्ण योगदान चक्रीय चतुर्भुज पर है। जिसमें विकर्ण परस्पर लम्बवत होते है। उन्होंने चक्रीय चतुर्भुज के क्षेत्रफल निकालने का सन्निकट सूत्र ;ंचचतवगपउंजमद्ध तथा यथातथ सूत्र ;मगंबज वितउनसंद्ध भी दिया है। 


प्राचीन ब्रह्मसिद्धांत तीन प्रकार के उपलब्ध होते है। 1 शाकल्यसंहितान्तर्गत, 2 विष्णुधर्मोत्तरपुराणान्तर्गत, 3 पंचवर्षमययुगवर्णनात्मक। वराहमिहिरकृत पंचसिद्धांतान्तकान्तर्गत, इन तीनों में ब्रह्मगुप्ताचार्य किसको स्फूट कहते है, यह स्पष्टरूप से नहीं कह सकते तथापि ग्रभगणविमानों के समत्व के कारण विष्णुधर्मोत्तरपुराणान्तर्गत ही ब्रह्मसिद्धांत के ब्रह्मगुप्त आगमत्य करके स्वीकार करते है। पंचवर्षमय युग के तन्त्रपरीक्षाध्याय में ‘युगमाहुःपंचाब्द’ इत्यादि से संहिताकार क ेमत को वर्णनन करते हुए ब्रह्मगुप्त के मत में ज्योतिष वेदांग ब्रह्ममत नहीं है, यह स्पष्ट है। वराहमिहिराचार्यके मत से यह विरूद्ध है।
इस (ब्राह्मस्फुट सिद्धांत) की चतुर्वेदाचार्य कृत ‘तिलक’ नाम की टीका प्रसिद्ध थी, जो वर्तमान में संपूर्ण उपलब्ध नहीं है।
‘कोलबू्रक’ नामक पाश्चात्य विद्वान के पास संपूर्ण टीका उपलब्ध थी। इसी कारण उसके आधार पर इस ग्रंथ के बारहवें (व्यक्त) अध्याय और अठारहवें (अव्यक्तगणित) अध्याय का आंग्ल भाषा में अनुवाद सन् 1817 में ही उपलब्ध हो गया था।
इस ग्रंथ (ब्राह्मस्फुट सिद्धांत) में 1008 श्लोक (आर्यावृत्त) है। पूर्वाध और उत्तरार्ध नामक दो भागों में बटा हुआ है। पूर्वाध में 1 मध्यगति, 2 स्फुटगति, 3 त्रिप्रश्नाध्याय, 4 चंद्रग्रहणाध्याय, 5 सूर्यग्रहणाध्याय, 6 उदयास्तमयाध्याय, 7 चंद्रश्रृंगोन्नत्यध्याय, 8 चंद्राच्छायाध्याय, 9 ग्रहयुत्यध्याय और 10 भग्रहयुत्यध्याय यह दस अध्याय है।
उत्तरार्ध में 1 तन्त्रपरीक्षाध्याय, 2 गणिताध्याय, 3 मध्यमत्युत्तराध्याय, 4 स्फुटगत्युत्तराध्याय, 5 त्रिप्रश्नोत्तराध्याय, 6 ग्रहणोत्तराध्याय, 7 छेद्यकाध्याय, 8 श्रृंगोन्नत्युत्तराध्याय, 9 कुट्टाकाराध्याय, 10 छन्दश्चित्युत्तराध्याय, 11 गोलाध्याय, 12 यन्त्राध्याय, 13 मानाध्याय और 14 संज्ञाध्याय। यह चौदह अध्याय है। कुल मिलाकर 24 अध्याय है।
इन अध्यायों में तन्त्रपरीक्षाध्याय बहुत विचारणीय है। क्योंकि इस अध्याय में आचार्य ने और अनेक आचार्यों के नामों और उनके मतों का उल्लेख किया है।
वराहमिहिराचार्य के बाद और ब्रह्मगुप्त से पूर्व 426 और 550 शाक वर्ष के मध्य दो आचार्य श्रीषेण और विष्णुचंद्र ने ज्योतिषसिद्धांत के विशाल ग्रंथों की रचना की थी।
भास्काराचार्य ने अपने सिद्धांत शिरोमणि के गणिताध्याय के आरंभ में आचार्य ब्रह्मगुप्त को अभिवादन किया तथा अनेक स्थानों पर ब्रह्मगुप्त के मत का उल्लेख किया अर्थात् अनुकरण किया। यथा
यथाऽत्र ग्रंथे ब्रह्मगुप्त स्वीकृतानमोऽङ्गीकृतः।
उस अश्विन्यादि में क्रांतिपात था, इसलिए अश्विन्यादि से नक्षत्रों की गणना प्रवृत्त हुई, जो आज तक यही प्रक्रिया प्रचलित है। क्रांतिपात पश्चिम में प्रायः 65 वर्ष में एक अंश चलता है, जिससे इसका ज्ञान अल्पसमय में असंभव होने से ब्रह्मगुप्त भी अयनचलन की उपलब्धि नहीं कर सकें।
37 वर्ष की आयु में ब्रह्मगप्त ने ‘खण्डखाद्यक’ ग्रंथ की रचना का प्रणयन किया। उस समय सर्वत्र मनुष्यों के व्यवहारों में प्रचलित आर्यभट मत का निराकरण करना अत्यंत कठीन था। इसलिए आर्यभट मतानुसार व्यवहार करते हुए मनुष्यों के उपकारार्थ व्यावहारिक ‘खण्डखाद्यक’ नामक करण ग्रंथ की रचना ब्रह्मगुप्त ने की।
भास्कराचार्य के अनुसार ब्रह्मगुप्त का बहुत बड़ा बीजगणित का ग्रंथ था, परन्तु यह गं्रथ आज प्राप्य नहीं है।
ब्रह्मगुप्त ही औरों की अपेक्षा श्रीपति का श्रेष्ठतर आदर्श है। श्रीपति ने ब्राह्मस्फुट सिद्धांत और शिष्यधीवृद्धि गं्रथों का परिशीलन करने के पश्चात् ही सिद्धांतशेखर की रचना की।
विशेष
ब्रह्मगुप्त ने एक बहुत विलक्षण विषय को अपनी रचना में स्थान दिया है। यह है-‘नतकर्म’।
मंदफल शीघ्रफल भुजान्तरादि संस्कार करने से जो स्पष्टग्रह आते है वे स्वगोलीय (ग्रहगोलीय) स्पष्ट ग्रह होते है, जिनको हम लोग देखते है वे हम लोगों के लिए स्पष्ट ग्रह होते है। स्वगोलीय स्पष्टग्रह में जितना संस्कार करने से हम लोगों के स्पष्ट ग्रह होते है उसी संस्कार का नाम ‘नतकर्म’ है। इस ‘नतकर्म’ के बारें में पूर्ववर्ती किसी भी आचार्य ने कुछ भी नहीं लिखा है। इससे स्पष्ट होता है कि नतकर्म का आविष्कर्त्ता ब्रह्मगुप्त ही है।

ब्राह्मस्फुट सिद्धांत में बहुत से स्थलों में वर्णन की स्थूलता अवश्य है, तथापि नाना प्रकार के विषयों का अपूर्व समावेश है। अतएव ब्राह्मस्फुट सिद्धांत सर्वश्रेष्ठ ग्रंथ है। इस कथन में किसी प्रकार की प्रतिपत्ति (विरोध) प्रतीत नहीं होती हैं।
 

Saturday, 7 January 2017

शनि पनोती

शनि पनोती
शनि को आंग्ल भाषा में सेटर्न कहते हैं। सेट (स्थिर) व्यक्ति को जो टर्न (घुमाव) दे उसी का नाम है-सेटर्न। क्योंकि शनि मूलभूत रूप से कर्मवाद से जुड़ा हुआ ग्रह हैं। सेटर्न मिन्स मेनेजमेण्ट ऑफ्टर डिस्टक्शन अर्थात् सर्वनाश के बाद आयोजन।
पुराणों में उल्लेख आता है कि शनि जाते हुए अच्छे लगते है यानि शनि अपनी पनोती में कष्ट देते है, परन्तु जब पनोती पूरी होती है तो आपको लाभ देने वाले बनते हैं। दूसरे शब्दों में व्यक्ति सोलह कलाओं से खिल उठता है। इतिहास साक्षी है कि प्रत्येक सफल व्यक्ति को पनोती के बाद ही सफलता प्राप्त हुई है।
वर्तमान में शनि मंगल की राशि वृश्चिक पर परिभ्रमण कर रहे है, परन्तु 26 जनवरी 2017 से धनु राशि में प्रवेश करने जा रहे है। धनु राशि बृहस्पति की स्वगृही राशि है जिसमें शनि अपना तटस्थ प्रभाव शुरू करेंगे क्योंकि शनि व बृहस्पति दोनों ग्रह एक दूसरे के लिए न्यूटल ग्रह है। 
कहते है कि संस्कृत के प्रकाण्ड पंडित रावण ने अपने पुत्र मेघनाद के जन्म के पूर्व उसके अमरता के लिए सभी नौ ग्रहों को अपने अनुकूल बना लिया था परन्तु मेघनाद के जन्म से पूर्व शनि ने अपनी चाल बदल दी जिससे रावण ने शनि को बंदी बना दिया था जिसे कालान्तर में हनुमान ने मुक्त कराया था। इसलिए शनि की पनोती के समय हनुमान की पूजा करने से शनि के प्रकोप से बचा जा सकता है।
मूल रूप से शनि अशुभ फल दाता ही नहीं होता है। शनि मूल रूप से न्यायाधिपति है अर्थात् प्राणि मात्र के द्वारा किये गये शुभ व अशुभ कर्मों के अनुसार दण्ड व सुफल देते है।
शनि को शनिश्चर भी कहा जाता है। शनि राशि चक्र में सभी ग्रहों की अपेक्षा अति मन्द गति से चलने वाला होने से इसे मन्द भी कहते है। शनि के चारों ओर तीन रिंग है। यह तीनों रिंग एक दूसरे के कुछ दूरी पर है। प्रत्येक दो रिंग के बीच में काले रंग जैसी खाली जगह है। शनि तीन पीलें रिंग या घेरे सहित आसमानी गेंद की तरह दिखाई देता है।
शनि, सूर्य से 886 मिलियन माइल्स दूर है। यह बृहस्पति से छोटा है, इसका व्यास 75000 मील हैं। इसके नौ चंद्रमा यानि उपग्रह है। शनि, पृथ्वी से आयतन में 700 गुणा बड़ा है, पर वजन में 100 गुणा से कुछ कम है। सूर्य पुत्र शनि को सूर्य की परिक्रमा करने में लगभग 29) वर्ष का समय लगता है। जिससे शनि एक राशि पर लगभग 30 महिनें का यानि 2) वर्ष का समय लेता है।

शनि का धन राशि में आगमन 30 वर्ष में हो रहा है। 26.01.2017 को 19 बजकर 38 मिनट पर शनि धनु राशि में प्रवेश करेगा। सामान्य नियम प्रमाण से शनि ढाई वर्ष एक राशि पर प्रभाव करता है। शनिदेव की समाज व राष्टव्यक्तित्व पर सबसे ज्यादा असर होती है। स्थिर ग्रहों पर शनि किसी भी राशि में होने पर अपने स्थान से तीसरे, सातवें व दसवें भाव पर पूर्ण दृष्टि से देखता है, अर्थात् जन्मकुण्डली में जातक के स्थानों का असरकारक होता है।
पिछले समय अर्थात् 02.11.2014 से मंगल के घर में जलतत्व के शनि ने भूमंडल को ऊपर नीचे कर दिया। राजकारण के राजा शनि ने अति उत्तम नेता दिये। साथ ही प्रजा में कुछ अशांति भी फैली।
अभी धनु राशि में शनि के प्रभाव से अनेक देशों में क्रांति व नये युग का प्रारंभ होगा।
इस वर्ष शनि दो नक्षत्रों पर भ्रमण करेगा जिससे देश में नेताओं में परस्पर मतभेद, शस्त्र कोप, शत्रु भय, रोग वृद्धि व वर्षा में विषमता होगी।
 शनि का धनु राशि में प्रवेश 26.1.2017 को 19.38 पर होगा। उस समय चंद्र पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र व धनु राशि पर है, जिसका प्रभाव विभिन्न राशियों पर निम्न प्रकार से होगा।
विशेष- शनि पनोती का असर स्थूल रूप से दिया गया है, सूक्ष्म फल हेतु जन्मपत्रिका से देखे।

राशि अनुसार फल
मेष- इस राशि के जातकों को छोटी पनोती से मुक्ति मिलेगी। तथा भाग्य भाव में जाने से लम्बी यात्रा प्रवास, भाई-बहिन के सुख में वृद्धि, नौकरी में स्थानान्तरण, पदौन्नति, रोग से मुक्ति एवं कोर्ट मामलों में राहत मिलेगी।
वृषभ- इस राशि वालें जातकों के छोटी पनोती लौह पाद पर कष्टदायक रहेगी। नजदीकी संबंधी के अशुभ समाचार, छोटी बीमारी, ऋण की बढ़त आदि कष्ट होंगे।
मिथुन-इस राशि वालों के सातवें शनि रहकर देह भाव पर दृष्टि से रोग उत्पन्न करेगा। शनि संधि, हड्डी व रक्त को मंद करने का काम करता है जिससे रोग होता है। वायु प्रकृति वालों को विशेष ध्यान रखना है। दाम्पत्य जीवन पर भी अशुभ फल दायक रहेगा।
कर्क-इस राशि वालों के शनि छठे भाव में होने से शत्रु पर विजय, नौकरी में स्थानान्तरण, पदौन्नति, पैतृक सम्पत्ति, पुराने कर्ज व छोटी यात्रा में लाभ होगा।
सिंह-इस राशि वालों के शनि पांचवें भाव में रहकर दाम्पत्य जीवन की असमझ में सुधार, अविवाहितों के लिए संबंध बनने, भाग्य में परिवर्तन लायेगा परन्तु पढ़ाई हेतु समस्याग्रस्त रहेगा।
कन्या- इस राशि वालें जातकों के छोटी पनोती लौह पाद पर कष्टदायक रहेगी।  जमीन-जायदाद के मामलों में सावधानी बरतें। छाती या हृदय में कुछ भी दर्द होतो तुरंत चिकित्सक से सलाह ले।
तुला- इस राशि के जातकों को साढे़साती पनोती से मुक्ति मिलेगी। नवीन सर्जन, राज सुख, नौकरी आदि में पदौन्नति, रिश्तेदारों से संबंध व संतानों संबंधी शुभ समाचार आदि में लाभ प्राप्त होगा।
वृश्चिक- इस राशि वालें जातकों के साढ़ेसाती का अन्तिम भाग यानि पैरों पर चांदी के पाद पर शुरू होगा जो लाभदायक रहेगा। परन्तु अनीति पर चलने वालों के लिए समय दिन में तारें भी दिखा सकता है।
धनु- इस राशि वालें जातकों के साढ़ेसाती का मध्य भाग यानि छाती पर सुवर्ण के पाद पर शुरू होगा जो चिंता कारक रहेगा। शरीर में वायु विकार, दाम्पत्य जीवन में संघर्ष, भागीदारी में नुकसान व भाग्य का साथ कम रहेगा।
मकर- इस राशि वालें जातकों के साढ़ेसाती का प्रथम भाग यानि सिर पर लौह पाद पर कष्ट दायक रहेगा। बड़ा खर्च, शत्रु भय, रिश्तेदारों के अशुभ समाचार, रोग व देवप्रकोप में वृद्धि आदि से सावधानी बरतें।
कुंभ-इस राशि वालों के शनिदेव ग्यारहवें भाव में होने से मित्र वर्ग, वाहन, संतान प्रगति, होगी। चतुर्दिक लाभ व शुभ समाचार मिलेंगे।
मीन-इस राशि वालों के छोटी यात्रा, फालतु खर्च, व्यापार में परिवर्तन, गुप्त शत्रु का आगमन आदि होगा। छोटे रोग पर तुरंत ईलाज लेवे।