श्राद्ध- एक ऋषि परम्परा
श्राद्ध का स्वरूप पृथ्वीचन्द्रयोदय में लिखा हैं कि, जो भोजन अपने को रूचता है वह प्रेत और पितरों के निमिŸा जब श्रद्धा से दिया जाय तब उसे श्राद्ध कहते हैं। मरीचि ने कहा है किः-
श्रद्धया दीयते यत्ऱ तच्छ्राद्धं परिकीर्तितम्।।
श्राद्ध मूलतः उन के लिए किया जाता है जो पितृ रूप में हैं। इसी संदर्भ में यह भी निरूपित किया गया हैं कि नश्वर स्थूल शरीर नष्ट होने पर भी उस योनि द्वारा संपादित किया हुआ कर्म नष्ट नहीं होता। हमारे सूक्ष्म शरीर में कर्म का प्रतिबिम्ब रह जाता हैं, यह सूक्ष्म शरीर बीज रूप से कर्म संस्कार स्मृतियों को लेकर एक स्थूल शरीर से दूसरे स्थूल शरीर में प्रवेश करता हैं। कठोपनिषद् में यमराज नचिकेता को कहते हैंः-
योनिमन्ये प्रपद्यन्ते शरीरत्वाय देहिनः। स्थाणुमन्यंऽनुसंयन्ति यथाकर्म यथाश्रुतम।।
यमराज कहते हैं, हे नचिकेता अपने-अपने शुभाशुभ कर्मो के अनुसार और शास्त्र, गुरू, संग, शिक्षा, ज्ञान, विवेक आदि के द्वारा देखे-सुने भावों से निर्मित अन्तः कालीन वासना के अनुसार मरने के पश्चात् कितने ही जीवात्मा दूसरा शरीर धारण करने के लिए वीर्य के साथ माता की योनि में प्रवेश कर जाते हैं। इनमे जिनके पुण्य-पाप समान होते हैं, वे मनुष्य का , जिनके पुण्य कम व पाप अधिक होते हैं वे पशु-पक्षी का शरीर धारण करके उत्पन्न होते हैं, और कितने ही, जिनके पाप अत्यधिक होते हैं वे स्थावर भाव को प्राप्त होते हैं अर्थात् वृक्ष, लता, तृण, पर्वत आदि शरीर में उत्पन्न होते हैं।
अलग-अलग ग्रन्थों में श्राद्ध के विभिन्न प्रकार बताये हैं। पर महर्षि विश्वामित्र ने प्रमुखतया बारह प्रकार के श्राद्धों का उल्लेख किया हैं, जो निम्न प्रकार हैं।
नित्यः-जो नित्य किया जाता हैं, इसमे विश्वदेव का आह्नान नहीं किया जाता हैं। असमर्थ मनुष्य जल से भी कर सकता हैं।
नैमिŸिाकः-यह एकोदिष्ट होता हैं। इसमे भी विश्वदेव का आह्नान नहीं किया जाता हैं। इसमे एक, तीन, पाँच ़ ़ ़ अयुग्म ब्राह्मणों को भोजन कराया जाता हैं।
काम्यः-किसी विशेष कामना से किया हुआ श्राद्ध काम्य श्राद्ध कहलाता हैं।
वृद्धिः-मांगलिक अवसरों पर पितरो की प्रसन्नता हेतु किया गया श्राद्ध, वृद्धि श्राद्ध कहलाता हैं। सपिंडीः-इसमे गंध, तिल व जल से युक्त चार पात्र अघ्र्य के निमिŸा बनावें। पितरों के पात्रों में प्रेत के पात्र जल को येस माना, समनसा इन दो मंत्रों से सींचन करें इसको सपिंडन कहते हैं। शेष कर्म नित्य श्राद्ध के समान होता हैं।
पार्वणः-यह संक्रान्ति, अष्टमी, चतुर्दशी, पूर्णिमा व अमावस्या के दिन किया जाता हैं।
गोष्ठीः-विष्णुपुराण में लिखा है कि , बहुत विद्वानों को सुख व पितृ तृप्ति हेतु समूह रूप में जो किया जाय उसे गोष्ठी श्राद्ध कहा जाता हैं।
शुद्धिः-किसी भी कार्य के पूर्व शुद्धि हेतु किया गया प्रायश्चित कर्म या ब्राह्मणों को कराया गया भोजन शुद्धि श्राद्ध कहा जाता हैं।
कर्मांगः-गर्भाधान, सीमंत, पुंसवन आदि कर्मो के अंगभूत होने से पितरों के प्रसन्नता हेतु किया जाता हैं।
दैविकः-देवों की प्रसन्नता हेतु किया जाता हैं, उसे दैविक श्राद्ध कहते हैं।
यात्राः-सफल तीर्थ यात्रा के उद्देश्य से किया जाता हैं, उसे यात्रा श्राद्ध कहते हैं।
पुष्टिः-शरीर को पुष्ट रखने के लिए या धन वृद्धि हेतु किया जाय उसे पुष्टि श्राद्ध हैं।
इनके अतिरिक्त निम्न श्राद्ध और भी हैं, जो ज्यादातर देखने में आते हैं।
एकोदिष्ट श्राद्धः-यह केवल एक प्रमुख पितर के निमिŸा किया जाता हैं।
महालय श्राद्धः-यह श्राद्ध आश्विन मास के कन्या गत भानु में कृष्ण पक्ष में किया जाता हैं। मुख्य रूप से वर्तमान में यही श्राद्ध देखने को मिलता हैं।
श्राद्ध के देशः-
प्रभास खण्ड में लिखा हैं कि, अपने घर में श्राद्ध के दाता को तीर्थ से आठ गुणा पुण्य प्राप्त होता हैं।
स्कन्द पुराण में लिखा हैं कि, तुलसी के वन की छाया जहां-जहां हो वहां-वहां पितरों की तृप्ति के निमिŸा श्राद्ध करें।
त्रिस्थलीसेतु में वायुपुराण का वाक्य हैं कि, शमी के पŸो के समान भी गयाशिर में जो पिंड देता है, वह सात गोत्र और एक सौ एक कुल का उद्धार करता हैं, सात गोत्र यह हैं, माता, पिता, भार्या, भगिनी, पुत्री, पिता व माता की भगिनी इन सात गोत्रों के 101 पितरो को कुल कहते हैं।
श्रद्धा से किया गया श्राद्ध पितरों को उसी रूप में मिलता है जिस रूप या योनि में पितृ होते हैं। जैसे:-यदि पितृ शुभ कर्म से देवता हुआ है तो उस देने वाले का अन्न अमृत होकर उसे प्राप्त होता हैं, यदि गन्धर्व हो तो भोग रूप से, पशु हो तो तृण रूप से, नाग होने पर वायु रूप से, यक्ष होने पर पान रूप से, राक्षस हो तो आमिष रूप से, दनुज हो तो मद्य रूप से, प्रेत हो तो रूधिरोधक, मनुष्य हो तो अन्नपानादि रूप से मिलता हैं।
अतः प्रत्येक गृहस्थी को पितरों के निमिŸा यथा शक्ति श्रद्धा से श्राद्ध करके पितरों को तृप्त करना चाहिएं।
श्राद्ध 5 सितम्बर मंगलवार से 20 सितम्बर बुधवार तक।
5 को पूर्णिमा श्राद्ध
6 को प्रतिपदा
7 को द्वितीया
8 को तृतीया
9 चतुर्थी
10 को पंचमी
11 को षष्ठी
12 को सप्तमी
13 को अष्टमी श्राद्ध
14 को सौभाग्यवती नवमी श्राद्ध
15 दशमी
16 को एकादशी
17 को द्वादशी व संयासीनां श्राद्ध
18 चतुर्दशी व शस्त्र से मृत्यु प्राप्त का श्राद्ध
19 सर्वपितृ अमावस्या श्राद्ध
20 को मातामह श्राद्ध
श्राद्ध का स्वरूप पृथ्वीचन्द्रयोदय में लिखा हैं कि, जो भोजन अपने को रूचता है वह प्रेत और पितरों के निमिŸा जब श्रद्धा से दिया जाय तब उसे श्राद्ध कहते हैं। मरीचि ने कहा है किः-
श्रद्धया दीयते यत्ऱ तच्छ्राद्धं परिकीर्तितम्।।
श्राद्ध मूलतः उन के लिए किया जाता है जो पितृ रूप में हैं। इसी संदर्भ में यह भी निरूपित किया गया हैं कि नश्वर स्थूल शरीर नष्ट होने पर भी उस योनि द्वारा संपादित किया हुआ कर्म नष्ट नहीं होता। हमारे सूक्ष्म शरीर में कर्म का प्रतिबिम्ब रह जाता हैं, यह सूक्ष्म शरीर बीज रूप से कर्म संस्कार स्मृतियों को लेकर एक स्थूल शरीर से दूसरे स्थूल शरीर में प्रवेश करता हैं। कठोपनिषद् में यमराज नचिकेता को कहते हैंः-
योनिमन्ये प्रपद्यन्ते शरीरत्वाय देहिनः। स्थाणुमन्यंऽनुसंयन्ति यथाकर्म यथाश्रुतम।।
यमराज कहते हैं, हे नचिकेता अपने-अपने शुभाशुभ कर्मो के अनुसार और शास्त्र, गुरू, संग, शिक्षा, ज्ञान, विवेक आदि के द्वारा देखे-सुने भावों से निर्मित अन्तः कालीन वासना के अनुसार मरने के पश्चात् कितने ही जीवात्मा दूसरा शरीर धारण करने के लिए वीर्य के साथ माता की योनि में प्रवेश कर जाते हैं। इनमे जिनके पुण्य-पाप समान होते हैं, वे मनुष्य का , जिनके पुण्य कम व पाप अधिक होते हैं वे पशु-पक्षी का शरीर धारण करके उत्पन्न होते हैं, और कितने ही, जिनके पाप अत्यधिक होते हैं वे स्थावर भाव को प्राप्त होते हैं अर्थात् वृक्ष, लता, तृण, पर्वत आदि शरीर में उत्पन्न होते हैं।
अलग-अलग ग्रन्थों में श्राद्ध के विभिन्न प्रकार बताये हैं। पर महर्षि विश्वामित्र ने प्रमुखतया बारह प्रकार के श्राद्धों का उल्लेख किया हैं, जो निम्न प्रकार हैं।
नित्यः-जो नित्य किया जाता हैं, इसमे विश्वदेव का आह्नान नहीं किया जाता हैं। असमर्थ मनुष्य जल से भी कर सकता हैं।
नैमिŸिाकः-यह एकोदिष्ट होता हैं। इसमे भी विश्वदेव का आह्नान नहीं किया जाता हैं। इसमे एक, तीन, पाँच ़ ़ ़ अयुग्म ब्राह्मणों को भोजन कराया जाता हैं।
काम्यः-किसी विशेष कामना से किया हुआ श्राद्ध काम्य श्राद्ध कहलाता हैं।
वृद्धिः-मांगलिक अवसरों पर पितरो की प्रसन्नता हेतु किया गया श्राद्ध, वृद्धि श्राद्ध कहलाता हैं। सपिंडीः-इसमे गंध, तिल व जल से युक्त चार पात्र अघ्र्य के निमिŸा बनावें। पितरों के पात्रों में प्रेत के पात्र जल को येस माना, समनसा इन दो मंत्रों से सींचन करें इसको सपिंडन कहते हैं। शेष कर्म नित्य श्राद्ध के समान होता हैं।
पार्वणः-यह संक्रान्ति, अष्टमी, चतुर्दशी, पूर्णिमा व अमावस्या के दिन किया जाता हैं।
गोष्ठीः-विष्णुपुराण में लिखा है कि , बहुत विद्वानों को सुख व पितृ तृप्ति हेतु समूह रूप में जो किया जाय उसे गोष्ठी श्राद्ध कहा जाता हैं।
शुद्धिः-किसी भी कार्य के पूर्व शुद्धि हेतु किया गया प्रायश्चित कर्म या ब्राह्मणों को कराया गया भोजन शुद्धि श्राद्ध कहा जाता हैं।
कर्मांगः-गर्भाधान, सीमंत, पुंसवन आदि कर्मो के अंगभूत होने से पितरों के प्रसन्नता हेतु किया जाता हैं।
दैविकः-देवों की प्रसन्नता हेतु किया जाता हैं, उसे दैविक श्राद्ध कहते हैं।
यात्राः-सफल तीर्थ यात्रा के उद्देश्य से किया जाता हैं, उसे यात्रा श्राद्ध कहते हैं।
पुष्टिः-शरीर को पुष्ट रखने के लिए या धन वृद्धि हेतु किया जाय उसे पुष्टि श्राद्ध हैं।
इनके अतिरिक्त निम्न श्राद्ध और भी हैं, जो ज्यादातर देखने में आते हैं।
एकोदिष्ट श्राद्धः-यह केवल एक प्रमुख पितर के निमिŸा किया जाता हैं।
महालय श्राद्धः-यह श्राद्ध आश्विन मास के कन्या गत भानु में कृष्ण पक्ष में किया जाता हैं। मुख्य रूप से वर्तमान में यही श्राद्ध देखने को मिलता हैं।
श्राद्ध के देशः-
प्रभास खण्ड में लिखा हैं कि, अपने घर में श्राद्ध के दाता को तीर्थ से आठ गुणा पुण्य प्राप्त होता हैं।
स्कन्द पुराण में लिखा हैं कि, तुलसी के वन की छाया जहां-जहां हो वहां-वहां पितरों की तृप्ति के निमिŸा श्राद्ध करें।
त्रिस्थलीसेतु में वायुपुराण का वाक्य हैं कि, शमी के पŸो के समान भी गयाशिर में जो पिंड देता है, वह सात गोत्र और एक सौ एक कुल का उद्धार करता हैं, सात गोत्र यह हैं, माता, पिता, भार्या, भगिनी, पुत्री, पिता व माता की भगिनी इन सात गोत्रों के 101 पितरो को कुल कहते हैं।
श्रद्धा से किया गया श्राद्ध पितरों को उसी रूप में मिलता है जिस रूप या योनि में पितृ होते हैं। जैसे:-यदि पितृ शुभ कर्म से देवता हुआ है तो उस देने वाले का अन्न अमृत होकर उसे प्राप्त होता हैं, यदि गन्धर्व हो तो भोग रूप से, पशु हो तो तृण रूप से, नाग होने पर वायु रूप से, यक्ष होने पर पान रूप से, राक्षस हो तो आमिष रूप से, दनुज हो तो मद्य रूप से, प्रेत हो तो रूधिरोधक, मनुष्य हो तो अन्नपानादि रूप से मिलता हैं।
अतः प्रत्येक गृहस्थी को पितरों के निमिŸा यथा शक्ति श्रद्धा से श्राद्ध करके पितरों को तृप्त करना चाहिएं।
श्राद्ध 5 सितम्बर मंगलवार से 20 सितम्बर बुधवार तक।
5 को पूर्णिमा श्राद्ध
6 को प्रतिपदा
7 को द्वितीया
8 को तृतीया
9 चतुर्थी
10 को पंचमी
11 को षष्ठी
12 को सप्तमी
13 को अष्टमी श्राद्ध
14 को सौभाग्यवती नवमी श्राद्ध
15 दशमी
16 को एकादशी
17 को द्वादशी व संयासीनां श्राद्ध
18 चतुर्दशी व शस्त्र से मृत्यु प्राप्त का श्राद्ध
19 सर्वपितृ अमावस्या श्राद्ध
20 को मातामह श्राद्ध