Friday, 28 August 2020

श्राद्ध- एक ऋषि परम्परा

 भीनमाल।

श्राद्ध- एक ऋषि परम्परा 1 सितम्बर से 17 सितम्बर 2020 तक 

श्राद्ध का स्वरूप पृथ्वीचन्द्रयोदय में लिखा हैं कि, जो भोजन अपने को रूचता है वह प्रेत और पितरों के निमिŸा जब श्रद्धा से दिया जाय तब उसे श्राद्ध कहते हैं। मरीचि ने कहा है किः-

श्रद्धया दीयते यत्ऱ तच्छ्राद्धं परिकीर्तितम्।।

ब्रह्मकर्म प्रकाशक शास्त्री प्रवीण त्रिवेदी ने बताया कि श्राद्ध मूलतः उन के लिए किया जाता है जो पितृ रूप में हैं। इसी संदर्भ में यह भी निरूपित किया गया हैं कि नश्वर स्थूल शरीर नष्ट होने पर भी उस योनि द्वारा संपादित किया हुआ कर्म नष्ट नहीं होता। हमारे सूक्ष्म शरीर में कर्म का प्रतिबिम्ब रह जाता हैं, यह सूक्ष्म शरीर बीज रूप से कर्म संस्कार स्मृतियों को लेकर एक स्थूल शरीर से दूसरे स्थूल शरीर में प्रवेश करता हैं। कठोपनिषद् में यमराज नचिकेता को कहते हैंः-

योनिमन्ये प्रपद्यन्ते शरीरत्वाय देहिनः। स्थाणुमन्यंऽनुसंयन्ति यथाकर्म यथाश्रुतम।।

यमराज कहते हैं, हे नचिकेता अपने-अपने शुभाशुभ कर्मो के अनुसार और शास्त्र, गुरू, संग, शिक्षा, ज्ञान, विवेक आदि के द्वारा देखे-सुने भावों से निर्मित अन्तः कालीन वासना के अनुसार मरने के पश्चात् कितने ही जीवात्मा दूसरा शरीर धारण करने के लिए वीर्य के साथ माता की योनि में प्रवेश कर जाते हैं। इनमे जिनके पुण्य-पाप समान होते हैं, वे मनुष्य का , जिनके पुण्य कम व पाप अधिक होते हैं वे पशु-पक्षी का शरीर धारण करके उत्पन्न होते हैं, और कितने ही, जिनके पाप अत्यधिक होते हैं वे स्थावर भाव को प्राप्त होते हैं अर्थात् वृक्ष, लता, तृण, पर्वत आदि शरीर में उत्पन्न होते हैं। 

त्रिवेदी ने बताया कि अलग-अलग ग्रन्थों में श्राद्ध के विभिन्न प्रकार बताये हैं। पर महर्षि विश्वामित्र ने प्रमुखतया बारह प्रकार के श्राद्धों का उल्लेख किया हैं, जो निम्न प्रकार हैं।

नित्य, नैमिŸिाक, काम्य, वृद्धि, पार्वण, गोष्ठी, शुद्धि, कर्मांग, दैविक,यात्रा, पुष्टि,  त्रिवेदी ने बताया कि इनके अतिरिक्त निम्न श्राद्ध और भी हैं, जो ज्यादातर देखने में आते हैं।

एकोदिष्ट श्राद्ध, महालय श्राद्ध श्राद्ध के देशः-

प्रभास खण्ड में लिखा हैं कि, अपने घर में श्राद्ध के दाता को तीर्थ से आठ गुणा पुण्य प्राप्त होता हैं।

स्कन्द पुराण में लिखा हैं कि, तुलसी के वन की छाया जहां-जहां हो वहां-वहां पितरों की तृप्ति के निमिŸा श्राद्ध करें।

त्रिस्थलीसेतु में वायुपुराण का वाक्य हैं कि, शमी के पŸो के समान भी गयाशिर में जो पिंड देता है, वह सात गोत्र और एक सौ एक कुल का उद्धार करता हैं, सात गोत्र यह हैं, माता, पिता, भार्या, भगिनी, पुत्री, पिता व माता की भगिनी इन सात गोत्रों के 101 पितरो को कुल कहते हैं।

श्रद्धा से किया गया श्राद्ध पितरों को उसी रूप में मिलता है जिस रूप या योनि में पितृ होते हैं। जैसे:-यदि पितृ शुभ कर्म से देवता हुआ है तो उस देने वाले का अन्न अमृत होकर उसे प्राप्त होता हैं, यदि गन्धर्व हो तो भोग रूप से, पशु हो तो तृण रूप से, नाग होने पर वायु रूप से, यक्ष होने पर पान रूप से, राक्षस हो तो आमिष रूप से, दनुज हो तो मद्य रूप से, प्रेत हो तो रूधिरोधक, मनुष्य हो तो अन्नपानादि रूप से मिलता हैं। 

अतः प्रत्येक गृहस्थी को पितरों के निमिŸा यथा शक्ति श्रद्धा से श्राद्ध करके पितरों को तृप्त करना चाहिएं।



त्रिवेदी ने बताया कि श्राद्ध में कदापि उपयोग न करें-

मसूर, राजमा, प्याज, चणा, कपित्थ, अलसी, तीसी, सन, बासी भोजन और समुद्र जल से बना नमक। भैंस, हिरणी, ऊंटनी, भेड़ आदि का दूध भी वर्जित है। श्राद्ध किसी दूसरे के घर में, दूसरे की भूमि में कभी नहीं किया जाता है। 


1/2 को पूर्णिमा श्राद्ध

2 को प्रतिपदा श्राद्ध

3 को द्वितीया श्राद्ध

5 को तृतीया श्राद्ध 16.32 तक

6 को चतुर्थी श्राद्ध

7 को पंचमी श्राद्ध

8 को षष्ठी श्राद्ध

9 को सप्तमी श्राद्ध

10 को अष्टमी श्राद्ध

11 को मातृ नवमी श्राद्ध

12 को दशमी श्राद्ध

13 को एकादशी श्राद्ध 

14 को द्वादशी श्राद्ध

15 को त्रयोदशी श्राद्ध

16 को चतुर्दशी श्राद्ध

17 को सर्वपितृ अमावस्या श्राद्ध


सामवेदी श्रावणी उपाकर्म 22 अगस्त, शनिवार को मनाया गया।

 भीनमाल।

सामवेदी श्रावणी उपाकर्म 22 अगस्त, शनिवार को मनाया गया।

ब्राह्मणों का सर्वश्रेष्ठ त्यौहार साम श्रावणी उपाकर्म शनिवार, 22 अगस्त को मनाया गया। वेदविभूषण सामवेदी वैभव त्रिवेदी के आचार्यत्व में सामवेद के घोष से श्रावणी उपाकर्म मनाया गया। प्रकृति की गोद में कल-कल करते झरनों के बीच इन्द्र की उपस्थिति में श्रीमाली ब्राह्मण मण्डल द्वारा प्रायश्चित रूप में हेमाद्रि स्नान संकल्प किया गया। गंगादि नदियों को अघ्र्य देकर मध्याह्न संध्या करके गाय के दूध, दही, घी, गोबर, गोमूत्र, गोरज, कुशा, फल, सुवर्ण, मृतिका व सर्वोषधि आदि से दशविधि स्नान किया गया। उसी के साथ ब्राह्मणों द्वारा भासादि सामवेद पाठ, ब्रह्मयज्ञ, देव पितृ तर्पण, विष्णु तर्पण और सूर्योपस्थान किया गया।  उसके बाद गोभिलाचार्य, गौतम, भरद्वाज, विश्वामित्र, जमदग्नि, वशिष्ठ, कश्यप, अत्रि व अरूंधति का ऋषि तर्पण, ऋषि श्राद्ध, प्लव व अरिष्टवर्ग सामपाठ किया गया। त्रिवेदी ने बताया कि  अरुंधति, गोभिल सहित सप्त ऋषियों तथा यज्ञोपवीत का षोडशोपचार पूजन किया गया। उसके बाद नवीन यज्ञोपवीत धारण किये जाते है। 

इस अवसर पर शास्त्री प्रवीण त्रिवेदी, मितेन्द्र बोहरा, रवि ठाकुर, अनिल व्यास, दिनेश ओझा, मुकेश बोहरा, कैलाश बोहरा, शिवाभाई दवे, अनिल ठाकुर, रमेश दवे, आनंदीलाल ठाकुर, शचिकांत, राजु दवे, दिनेश एडवोकेट, निरंजन व्यास, मफतलाल दवे आदि श्रीमाली ब्राह्मण मण्डल उपस्थित थे।

सेवा जड़ शरीर की या चेतन आत्मा की

तीन साधकों में "सेवा जड़ शरीर की या चेतन आत्मा की?" इस विषय को लेकर मत भेद था। अतः वे तीनो निर्णय के लिए श्रीगङ्गाजी के तट पर एक सन्त के पास गये। सन्त ने जो निर्णय दिया उसे सम्वाद शैली में लिखते हैं। इससे विषय गम्भीर होने पर भी सरलता से समझ में आजाता है।
अस्तु:--
सन्त ने कहा --पहले आप लोग अपना अपना पक्ष रखें।
उनमें से एक ने कहा---
जड़ अन्न वस्त्र औषध आदि से जड़ शरीर की ही सेवा होती है, क्योंकि अन्न जल आदि जड़ शरीर में ही लगते हैं, चेतन जीवात्मा में नहीं। अतः जड़ अन्न वस्त्र आदि से जड़ शरीर की ही सेवा की जाती है। ऐसा मानने से जड़ का सम्बन्ध जड़ से ही होगा, चेतन आत्मा असङ्ग होकर मुक्त हो जाएगा।
उनकी बात को सुनकर सन्त ने कहा---
कोई व्यक्ति भूखा प्यासा था, और आपने उसे अन्न-जल खिला-पिला दिया। आपके मतानुसार जड़ अन्न-जल तो जड़ शरीर में लग गए। इस प्रकार जड़ से जड़ की सेवा हो गई। दूसरे दिन फिर उसी भूखे प्यासे व्यक्ति के पास पुनः अन्न-जल लेकर सेवा के लिए गये। उसी क्षण चेतन जीवात्मा निकल गया। क्या अब जड़ अन्न-जल को चेतन जीवात्मारहित जड़ शरीर में डालेंगे? या डालेंगे तो सेवा हो जाएगी??
सन्त के इस प्रश्न को सुनकर प्रथम साधक ने कहा--
जीवात्मा रहित जड़ शरीर में नहीं डालेंगे डालेंगे तो सेवा नहीं होगी, वल्कि अन्न-जल का दुरुपयोग ही होगा।
उसके उत्तर को सुनकर सन्त ने कहा--
आपके उत्तर से ही यह विल्कुल स्पष्ट सिद्ध होगया कि--जड़ से जड़ की सेवा नहीं होती।यदि जड़ से जड़ की सेवा होती तो चेतन जीवात्मारहित जड़ शरीर तो अभी भी विद्यमान है। उसमें अन्न-जल आदि डालने से तो सेवा हो जानी चाहिए??
सन्त की बात सुनकर अपने मत का समर्थन करने के लिए उस साधक ने यह तर्क दिया---
जड़ अन्न-जल आदि जड़ शरीर में ही लगते हैं, चेतन जीवात्मा में नहीं।
इस पर सन्त ने कहा-- जिस सन्त की कुटिया या गरीब की झोपड़ी का जीर्णोद्धार कराना है। आपने सीमेन्ट लोहा लकड़ी आदि सामग्री कुटिया में लगाकर जीर्णोद्धार कर दिया। इससे आपने जड़ कुटिया झोपड़ी की यह सेवा की है या चेतन सन्त गरीब की सेवा की है?
प्रथम साधक ने कहा--मेरे द्वारा चेतन सन्त या गरीब की ही सेवा की गई, जड़ कुटिया, झोपड़ी की नहीं। क्योंकि उससे सुख तो चेतन सन्त गरीब को ही होगा, जड़ कुटिया झोपड़ी को नही।
सन्त ने कहा--
आपके उत्तर से ही विल्कुल स्पष्ट सिद्ध होगया कि--भले ही जड़ पदार्थ कहीं लगें, सेवा तो सुख पाने वाले चेतन जीवात्मा को ही होती है। जड़ शरीर या कुटिया की नही।
इस प्रकार आपके ही उत्तरों से यह सिद्ध हो जाता है कि जड़ ण् आदि से जड़ शरीर की सेवा की जानी चाहिए या होती है, यह सिद्धान्त ठीक नहीं है।

दूसरे साधक ने कहा--संसार में अपना कुछ नहीं है, अतः संसार के पदार्थों को संसार की सेवा की जाये। ऐसा मेरा मत है। इससे संसार के पदार्थों का प्रवाह संसार की ओर हो जाएगा, और हम असङ्ग होकर मुक्त हो जायेंगे।
सन्त ने कहा--दीखिये; बाजार में कपड़े की दुकान है।आपकी मान्यता के अनुसार कपड़े संसार के पदार्थ हैं। इन्हें आप संसार की सेवा में लगा दें तो क्या सेवा हो जायेगी?? पुलिस दण्ड नहीं देगी? अधर्म नहीं होगा??
द्वितीय साधक ने कहा--पुलिस अवश्य पकड़ेगी। अधर्म भी अवश्य होगा। सेवा नहीं होगी। क्योंकि--वे कपड़े मेरे नहीं हैं, इस लिए उन्हें संसार की सेवा में लगाने का मुझे कोई अधिकार नहीं है।
सन्त ने कहा---आपके उत्तर से तो यही सिद्ध होता है कि "अपनी वस्तु से ही संसार की सेवा करनी चाहिए/की जा सकती है। इससे तो "अपना कुछ नहीं" ऐसी जो आपकी मान्यता है, वह ठीक नहीं सिद्ध होती।
आप यह बतायें-- शर्दी से व्याकुल एक व्यक्ति को आपने अपने वस्त्र से ढक दिया। आपके मत के अनुसार संसार के पदार्थ वस्त्र से संसार की सेवा हो गई। किसी दूसरे व्यक्ति के पास आप वस्त्र लेकर आप पहुँचे। उसी क्षण चेतन जीवात्मा शरीर से निकल गया।अब आप उस संसार रूप शरीर को वस्त्र से ढँक दें, तो क्या संसार की सेवा हो जायेगी??
द्वितीय साधक ने कहा--
सेवा तो नहीं होगी, वस्त्र का दुरुपयोग अवश्य होगा।
सन्त ने कहा--आपके उत्तर से तो यही स्पष्ट सिद्ध हुआ कि--संसार के पदार्थों से संसार की सेवा नहीं होती। यदि होती तो चेतन जीवात्मा रहित जड़ शरीर भी संसार ही है, वह अभी विद्यमान ही है। अतः उसे वस्त्र से ढँक देने से सेवा तो होनी चाहिए थी। पर होती नहीं। इससे सिद्ध होता है कि-- सेवा जड़ संसार की नहीं वल्कि चेतन जीवात्मा की होती है।
इस प्रकार विचार करने पर--" जड़ से जड़ की सेवा तथा संसार के पदार्थ से संसार की सेवा" ये दोनों सिद्धान्त सारहीन हैं। शास्त्र में इनका कथन होने से अशास्त्रीय भी हैं।

तीसरे साधक ने कहा---हमारे प्रारब्ध कर्मानुसार ईश्वर ने हमे जो तन मन बुद्धि धन आदि पदार्थ दिये हैं, उन अपने पदार्थों से चेतन जीवात्मा की सेवा करनी चाहिए। ऐसा मेरा मानना है। ऐसा करने से मुझ पर भगवान् की कृपा होगी, जिससे मैं मुक्त हो जाऊँगा।
सन्त ने कहा--शरीर इन्द्रिय प्राण रहित केवल चेतन जीवात्मा की आप सेवा कैसे करेंगे? क्योंकि शरीर इन्द्रिय प्राण आदि युक्त चेतन जीवात्मा को ही भूख-प्यास आदि लगने पर अन्न-जल वस्त्र आदि से सेवा की जाती है।
तृतीय साधक ने कहा---यद्यपि यह सत्य है कि शरीर इन्द्रिय प्राणयुक्त होने पर ही जीवात्मा को भूख प्यास आदि लगतीं हैं, जिससे अन्न-जल आदि देकर सेवा की जाती है। फिर भी शरीर इन्द्रिय प्राण मन आदि सभी जड़ हैं, चेतन जीवात्मा के भोग के साधन हैं। अधिकरण या करण हैं। इनके द्वारा सुख तो चेतन जीवात्मा को ही मिलता है। वही सुख का भोक्ता है। शरीरादि जड़ होने से भोक्ता नहीं हो सकते। भोक्ता की ही शास्त्र विहित हितकर भोग्य पदार्थों द्वारा सेवा होती है। इस लिए चेतन जीवात्मा की ही सेवा होती है/ की जानी चाहिए" ऐसा मेरा मानना है।
सन्त ने कहा--आपका मन्तव्य ठीक है, शास्त्रसम्मत है। गीता जी में कहा है--# "सर्वभूत हिते रताः" यहाँ भूत शब्द चेतन जीवात्माओं के लिए प्रयुक्त हुआ है। गीता १८/४६ में भी चेतन की ही सेवा को स्वकर्म के अन्तर्गत कहा गया है।
साभार फेसबुक