मनुष्य का जीवन अग्निमय है। जब जीव अपनी माता के गर्भ में नौ माह तक रहता है तो सबसे पहले वह 'जठराग्नि' से सम्बन्ध स्थापित करता है। बाद में, जब वह माँ के गर्भ से बाहर आता है, तो 'सांसारिक अग्नि' के साथ उसका रिश्ता जीवन भर के लिए स्थिर हो जाता है और जब वह मृत्यु की स्थिति में पहुँच जाता है, तो वह 'क्रव्याद अग्नि' (चिताग्नि) से जुड़ जाता है, जिससे उसका शरीर जलाकर भस्म कर दिया जाता है: 'भस्मान्तं शरीरम्' (शु. य. 40.15)।
विशेष आश्चर्य की बात तो यह है कि जिस अग्निका प्राकृतिक धर्म जलाना है, वह मनुष्यके उदरमें सर्वदा रहते हुए भी उसे नहीं जलाता। इसका कारण यह है कि मनुष्य अपने उदरमें रहनेवाले 'जाठराग्नि' के लिये भोजनरूपी आहुति प्रतिदिन उचित मात्रा में डालता रहता है, जिससे उसकी 'जाठराग्नि' सर्वदा शान्त रहती है। और मनुष्यको किसी प्रकार कष्ट नहीं देती। यदि किसी दिन मनुष्य अपने उदरमें भोजनरूपी आहुति डालनेमें गड़बड़ी कर देता है, तो उसकी 'जाठराग्नि' प्रबलरूप धारण कर मनुष्यको बेचैन कर डालती है, जिससे मनुष्य बार-बार जल पीकर अथवा अन्य कोई औषध- विशेष खाकर अग्निको शान्त करता है । अतः उदरस्थित अग्निको शान्त रखनेके लिये भोजनरूपी आहुति पर विशेष ध्यान रखना चाहिये । अन्यथा मनुष्य मन्दाग्नि अथवा अन्य प्रकार के उदर रोगोंसे पीड़ित होकर शीघ्र ही मृत्युको प्राप्त हो जायगा ।
हमारे हिन्दू-धर्मशास्त्रोंमें द्विजके लिये जीवनपर्यन्त अग्निकी उपासना करनेके लिये कहा है । द्विज यज्ञोपवीत-संस्कारके बाद जब ब्रह्मचर्याश्रममें प्रवेश करता है, तभीसे उसे जीवनपर्यन्तके लिये अग्निकी उपासनाका व्रत ग्रहण करना पड़ता है और वह जीवन
पर्यंत पंचमहायज्ञादि के द्वारा अग्नि की पूजा करना जारी रखता है।
शास्त्रोंमें द्विजातिके लिये अग्निको प्रत्यक्ष 'देवता' और 'गुरु कहा है-
- अग्निर्देवो द्विजातीनाम् । ( लौगाक्षिस्मृति )
अग्निर्देवो द्विजातीनाम् । ( चाणक्यनीति ४।१६ )
गुरुरग्निर्द्विजातीनाम् । चाणक्यनीति ५।१ )
गुरुरग्निद्विजातीनाम् । पद्मपुराण, स्वर्ग ०५२.५१
गुरुरग्निद्विजातीनाम् । ( व्याघ्रपादस्मृति २०८ )
जो अग्नि द्विजातिके लिये प्रत्यक्ष देवता और गुरु है, उपासना द्विजातिको जीवनपर्यन्त करनी चाहिये । 'शतपथब्राह्मण (१।४।२।२ ) में ब्राह्मणको अग्नि,
जो अग्नि द्विजाति के लिए प्रत्यक्ष देवता और गुरु है, उसकी उपासना द्विजाति को जीवन भर करनी चाहिए।
'शतपथ ब्राह्मण (1.4.2.2) में ब्राह्मण को अग्नि कहा गया है, तैत्तिरीय ब्राह्मण (2.7.31) में ब्राह्मण को आग्नेय कहा गया है, भविष्य पुराण (ब्रह्मपर्व 13.36) में और महाभारत (शांतिपर्व 342.12) में ब्राह्मण को कहा गया है। अग्निदेव कहा जाता है.
ब्राह्मणके लिये कहा गया है कि उसे अग्निके गुणोंसे विभूषित होना चाहिये । अग्नि के गुणोंसे विभूषित होने के लिये ब्राह्मणको अग्निकी उपासना आवश्यक है। अग्निकी उपासना से ब्राह्मण अग्नि गुणोंसे विभूषित हो जाता है । जो ब्राह्मण अग्नि के गुणोंसे विभूषित हो जाता है, वही यथार्थरूप में 'ब्राह्मण' कहलाने का अधिकारी है ।
मनुष्यकी उत्पत्ति अग्निसे कही गई है । अतः प्रत्येक मनुष्यक सम्बन्ध अग्निसे जीवनपर्यन्त बना रहता है। मनुष्यकी जब मृत्य होती है, तो उसको अग्निसे जला दिया जाता है। मनुष्य का अग्नि साथ विशेष सम्बन्ध होनेका प्रधान कारण यह है कि उसकी शिखा के मूल में अग्नि का निवास होता है, अतः शिखा वाले व्यक्ति को आग्नेय कहा जाता है शिखा को अग्नि का विशेष चिह्र कहा गया है
अग्निचिह्नं शिखाकर्म
वेदेषु अग्निमहत्त्वविषये लिखितम्- १.
अग्निर्वै देवानामवमः । ( ऐतरेयब्रा० १।१।१ )
अग्निर्वै देवानां प्रथमः । ( ऐतरेयब्रा० २० |१|१ )
अग्निः सर्वा देवताः । ( तैत्तिरीयब्रा० १/४/५।२७ )
अग्निः सर्वा देवताः । ( तैत्तिरीयब्रा० १/८|१०|३७ )
अग्निः सर्वा देवताः । (निरुक्त, परिशिष्ट १४/३२)
अग्निः सर्वा देवताः । ( निरुक्त, दैवतकाण्ड १।१७)
अग्निः सर्वा देवताः । (शापथब्रा० ३।४।१।१९ )
अग्निर्वै सर्वा देवताः । ( शतपथब्रा० १।६।३।७ )
अग्निर्वै सर्वा देवताः । (शतपथब्रा० ३।१।३।१ )
No comments:
Post a Comment