मातृ नवमी श्राद्ध निर्णय
भाद्रपद (लौकिक) आश्विन मास के कृष्ण पक्ष में आने वाले श्राद्धों में मातृनवमी श्राद्ध के बारें में कुछ भ्रांतियां है। 3 अक्टूम्बर, गुरुवार का पंचांगों में लिखा है कि अविधवा नवमी अर्थात् सौभाग्यवती स्त्रियों की मृत्यु होने पर ही श्राद्ध किया जाय। दूसरे शब्दों में पति के जीवित रहते हुए स्त्री की मृत्यु होने पर उसका श्राद्ध मातृनवमी को करें अन्यथा विधवा स्त्री की मृत्यु पर उसका श्राद्ध उसके मृत्यु तिथि को ही किया जाय।
निर्णय सिंधु के अनुसार सर्वासामेव मातृणां श्राद्धं कन्या गते रवौ। नवम्यां हि प्रदातव्यं ब्रह्मलब्धवरा यतः। अर्थात् कन्या के सूर्य में सब माताओं का श्राद्ध नवमी को करना जिससे उनको ब्रह्मा का वर प्राप्त है। इस वाक्य में सब माताओं का लिखा है अर्थात् वह विधवा है या अविधवा इसका अन्तर नहीं किया गया है।
श्राद्ध दीपकलिका में ब्रह्मपुराण का वाक्य है कि पिता और माता के कुल में उत्पन्न हुई जो स्त्री मृत्यु को प्राप्त हुई हो यह सब श्राद्ध के योग्य माता जाननी चाहिए। उनको श्राद्ध नवमी को दिया है। इसमें देश के आचार से व्यवस्था जाननी उचित है। यह श्राद्ध उसको भी करना चाहिए जिसका यज्ञोपवीत नहीं हुआ हो। सब कामना व फल देने वाले साधारण श्राद्ध को भार्या रहित परदेश में स्थित को भी नित्य करना चाहिए।
मार्कण्डेय पुराण में लिखा है कि माता का श्राद्ध आने पर ब्राह्मणों के संग सुवासिनियों को भी भोजन देना। मदालसा ने कहा है कि स्त्री के श्राद्ध में भूषण, मंजीरें, मेखला, कर्णिका, कंकण आदि देना उचित है। आश्वलायन ने लिखा है कि आठवें प्रहर में बैल के निमित्त घास लावें या अग्नि से तृण को जलावे इनसे भी अष्टका श्राद्ध होता है। माता के श्राद्ध में ब्राह्मण न मिले तो सुहागिन स्त्रियों को ही भोजन करावें यह अपरार्क में वृद्ध वशिष्ठ का कथन है। अन्वष्टका श्राद्ध न करने पर प्रायश्चित स्वरूप ‘एभिद्र्युभिः’ मंत्र को सौ बार जपें।
भाद्रपद (लौकिक) आश्विन मास के कृष्ण पक्ष में आने वाले श्राद्धों में मातृनवमी श्राद्ध के बारें में कुछ भ्रांतियां है। 3 अक्टूम्बर, गुरुवार का पंचांगों में लिखा है कि अविधवा नवमी अर्थात् सौभाग्यवती स्त्रियों की मृत्यु होने पर ही श्राद्ध किया जाय। दूसरे शब्दों में पति के जीवित रहते हुए स्त्री की मृत्यु होने पर उसका श्राद्ध मातृनवमी को करें अन्यथा विधवा स्त्री की मृत्यु पर उसका श्राद्ध उसके मृत्यु तिथि को ही किया जाय।
निर्णय सिंधु के अनुसार सर्वासामेव मातृणां श्राद्धं कन्या गते रवौ। नवम्यां हि प्रदातव्यं ब्रह्मलब्धवरा यतः। अर्थात् कन्या के सूर्य में सब माताओं का श्राद्ध नवमी को करना जिससे उनको ब्रह्मा का वर प्राप्त है। इस वाक्य में सब माताओं का लिखा है अर्थात् वह विधवा है या अविधवा इसका अन्तर नहीं किया गया है।
श्राद्ध दीपकलिका में ब्रह्मपुराण का वाक्य है कि पिता और माता के कुल में उत्पन्न हुई जो स्त्री मृत्यु को प्राप्त हुई हो यह सब श्राद्ध के योग्य माता जाननी चाहिए। उनको श्राद्ध नवमी को दिया है। इसमें देश के आचार से व्यवस्था जाननी उचित है। यह श्राद्ध उसको भी करना चाहिए जिसका यज्ञोपवीत नहीं हुआ हो। सब कामना व फल देने वाले साधारण श्राद्ध को भार्या रहित परदेश में स्थित को भी नित्य करना चाहिए।
मार्कण्डेय पुराण में लिखा है कि माता का श्राद्ध आने पर ब्राह्मणों के संग सुवासिनियों को भी भोजन देना। मदालसा ने कहा है कि स्त्री के श्राद्ध में भूषण, मंजीरें, मेखला, कर्णिका, कंकण आदि देना उचित है। आश्वलायन ने लिखा है कि आठवें प्रहर में बैल के निमित्त घास लावें या अग्नि से तृण को जलावे इनसे भी अष्टका श्राद्ध होता है। माता के श्राद्ध में ब्राह्मण न मिले तो सुहागिन स्त्रियों को ही भोजन करावें यह अपरार्क में वृद्ध वशिष्ठ का कथन है। अन्वष्टका श्राद्ध न करने पर प्रायश्चित स्वरूप ‘एभिद्र्युभिः’ मंत्र को सौ बार जपें।
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