Monday, 30 August 2021

मरणासन्न अवस्थामें करनेयोग्य कार्य।।

 देह-त्यागके पहलेके कृत्यमृत्युके अवसरपर सावधान हो जाय!

जब कोई व्यक्ति कहीं जाने लगता है तब उसके परिवारके सदस्य उसकी उस यात्राको सुखमय बनानेके
लिये तन-मन और धनसे जुट जाते हैं। किंतु प्राय: देखा जाता है कि लोग अपने परिवारके किसी सदस्यकी
मृत्युके अवसरपर शोकमें डूब जाते हैं और रोना-धोना प्रारम्भ कर देते हैं। वे भूल जाते हैं कि मृत्यु भी एक यात्रा है !
और इसको भी उन्हें सुखमय बनानेका प्रयास करना चाहिये। सच तो यह है कि मृत्यु 'यात्रा' ही नहीं, अपितु 'महायात्रा' है। इसलिये परिवारके प्रत्येक सदस्यका यह कर्तव्य हो जाता है कि अपने प्रियजनकी इस महायात्राको सुखमय बनानेके लिये पहलेसे भी अधिक प्रयास करे।
यदि कोई व्यक्ति मृत्युके अवसरपर मरणासन्नसे एक बार भी ॐ, राम, कृष्ण, शिव, नारायण' आदि नामका मनसे भी स्मरण और उच्चारण करवा देता है तो उसने सचमुच अपने प्रियजनकी इस महायात्राको पूर्ण सफल बना दिया।
जिस लक्ष्यको पानेके लिये यह मरणासन्न प्राणी अनादि कालसे यात्रा-पर-यात्रा करता चला आ रहा था, उस लक्ष्यको इस आत्मीयने नामोच्चारण करवाकर प्राप्त करा दिया। अतः सभी परिजनोंको अन्तिम समयमें उच्च स्वरसे भगवन्नामका संकीर्तन करना चाहिये तथा मरणासन्न व्यक्तिके कानमें भगवन्नाम-स्मरण करनेकी प्रेरणा करनी चाहिये।
#विशेष--क्या न करे?
भूलकर भी रोये नहीं; क्योंकि इस अवसरपर रोना मृत प्राणीको घोर यन्त्रणा प्रदान करता है।
रोनेसे जो आँसू और कफ निकलते हैं, इन्हें उस मृत प्राणीको विवश होकर पीना पड़ता है। यह साधारण
यात्रा तो है नहीं, साधारण यात्रामें यात्री सब कामके लिये स्वतन्त्र होता है। वह चाहे तो आत्मीयजनोंके
दिये पाथेयको खाये या न खाये, परंतु मरनेपर उसकी यह स्वतन्त्रता छिन जाती है और आत्मीयोंके दिये
हुए पाथेयको ही उसे खाना पड़ता है। शास्त्रने बताया है
"श्लेष्माश्रु बान्धवैर्मुक्तं प्रेतो भुङ्क्ते यतोऽवशः ।
अतो न रोदितव्यं हि क्रियाः कार्याः स्वशक्तितः"॥
(याज्ञवल्क्यस्मृति, प्रायश्चित्ताध्याय १ । ११; ग०पु०, प्रे० १५ । ५८)
अर्थात् मृत प्राणीके लिये आत्मीयजनोंको भूलकर भी नहीं रोना चाहिये, अपितु उसके परलोकको
सुधारनेके लिये डटकर प्रयास करना चाहिये। रोनेसे आँखोंसे जो आँसू और नाक एवं मुँहसे जो कफ निकलते
हैं, मृत प्राणीको इन्हें ही विवश होकर खाना-पीना पड़ता है।
इस अवसरपर रोकर हम अपने मृतजनको केवल कफ और आँसू-जैसी घृणित वस्तु ही नहीं खिलातेपिलाते अपितु स्वर्गसे भी नीचे गिरा देते हैं
"शोचमानास्तु सस्नेहा बान्धवाः सुहृदस्तथा ।
पातयन्ति गतं स्वर्गमश्रुपातेन राघव'॥
(वाल्मीकीय रामायण)
"ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन् मामनुस्मरन् ।
यः प्रयाति त्यजन् देहं स याति परमां गतिम्"॥
(गीता ८।१३)
(ॐकारका यह उच्चारण योगियों और संन्यासियोंके लिये विहित है।)
"प्राणप्रयाणसमये यस्य नाम सकत्स्मरन ॥
नरस्तीत्वा भवाम्भोधिमपारं याति तत्पदम"। (अध्या०रामा०, सन्दरका०१४-५)
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प्राण-प्रयाणके समय जिनके नामका एक बार स्मरण करनेसे ही मनुष्य अपार संसार-सागरको पारकर उनके परम धामको चला
जाता है
#विशेष--मरणासन्न अवस्थामें करनेयोग्य कार्य।।
कहाँ तो मृतात्मा अपने पुण्यके बलसे स्वर्ग जा पहुँचा था और कहाँ हमारे रोनेकी भूलने उसे वहाँसे
खींचकर नीचे गिरा दिया। यह भूल कितनी पीड़ा देनेवाली हो गयी? अतः नरावतार अर्जुनकी तरह शोकमोहको दूरकर मृत व्यक्तिका परलोक सँभालनेके प्रयासमें डट जाना चाहिये। मरणासन्न रोगीके सामने
शोकका प्रदर्शन होना ही नहीं चाहिये।
शास्त्रने रोनेका भी विधान किया है, किंतु कब? जब दाहक्रियाके द्वारा उसके शरीरको संस्कृत करने
लगते हैं; तब कपालक्रिया करनेके बाद परिजनोंको उच्च स्वरमें रोना चाहिये। अब उसे अपने जनोंके प्रेमका
स्वाद चाहिये। इस अवसरपर अपने प्रियजनोंके प्रेमाश्रुका आस्वाद पाकर वह प्रफुल्लित हो उठता है
रोदितव्यं ततो गाढमेवं तस्य सुखं भवेत्।
(गरुडपुराण, प्रेतखण्ड १५।५१)
देखा जाता है कि कुछ लोग शोक के आवेश में आकर मरणासन्न प्राणीसे पूछते हैं-'आप मुझे
पहचान रहे हैं ? मैं आपका पुत्र हूँ', 'मैं आपका मित्र हूँ' आदि-ऐसी चेष्टा कभी न करे; क्योंकि यह
भयावह भूल है। इस कुकार्यसे हम मृतात्माको दुनियामें घसीट लाते हैं, बन्धनमें डाल देते हैं। हमारी चेष्टा
तो ऐसी होनी चाहिये कि जिससे मरणासन्नको सतत भगवान्का ही स्मरण होता रहे ताकि संसारकी एक
क्षणके लिये भी उसे स्मृति न हो। अतः भगवान्के नामोंका ही स्मरण करायें।
जबतक गाँवमें, पास-पड़ोसमें अथवा घरके समीप शव विद्यमान हो तबतक आहार_विहार निषिद्ध है।
मरणासन्न व्यक्तिको आकाशतलमें, ऊपरके तलपर अथवा खाट आदिपर नहीं सुलाना चाहिये।
अन्तिम समयमें पोलरहित नीचेकी भूमिपर ही सुलाना चाहिये।
(आ) क्या करे?
(१) प्राणोत्सर्गसे पूर्व यदि सम्भव हो तो प्राणीको गंगाके पावन तटपर ले जाय। उस समय नारायण, श्रीराम, श्रीकृष्ण, हरि, शिव आदि नामका उच्चारण निरन्तर होता रहे।
(२) गंगातटपर ले जाना सम्भव न हो तो घरपर ही पोलरहित नीचेकी भूमिपर गोबर-मिट्टी तथा गंगाजल से भूमिको शुद्ध कर दक्षिणाग्र कुश बिछा दे तथा तिल और कुश बिखेर दे। सम्भव हो तो कुशासन बिछाकर नयी अथवा धोयी हुई सफेद चादर बिछा दे, जिसमें नीला- _काला निशान न हो।
(३) यथासम्भव गोमूत्र, गोबर तथा तीर्थके जलसे, कुशके जलसे और गंगाजल आदिसे स्नान करा
दे अथवा गीले वस्त्रसे बदन पोंछकर शुद्ध कर दे।
(४) यदि नहानेकी स्थिति न हो तो कुशसे जल छिड़ककर मार्जन करा दे तथा नयी धोयी हुई धोती पहना दे।
(५) यज्ञोपवीतधारी व्यक्ति हो तो उसे एक जोड़ा नूतन यज्ञोपवीत भी पहना दे।
(६) तुलसीकी जड़की मिट्टी और इसके काष्ठका चन्दन घिसकर सम्पूर्ण शरीरमें लगा दे। इससे सारे पाप नष्ट हो जाते हैं और विष्णुलोक प्राप्त होता है।
१. रोगिणोऽन्तिकमासाद्य शोचनीयं न बान्धवैः ॥ (गरुडपुराण)
२. ज्ञानतोऽज्ञानतो वापि कामतोऽकामतोऽपि वा । गङ्गायां च मृतो मर्त्यः स्वर्ग मोक्षं च विन्दति ॥ (ब्रह्मपुराण)
ज्ञानसे अथवा अज्ञानसे, इच्छासे अथवा अनिच्छासे जो गंगामें मरता है वह स्वर्ग तथा मोक्ष प्राप्त करता है।
भाद्रपद कृष्ण चतुर्दशीको जल जहाँतक पहुँचता है, उस भूमिको गर्भ कहते हैं। गर्भसे डेढ़ सौ हाथतककी भूमिको तीर (तट) कहते हैं, तोरसे दो कोसतककी भूमिको क्षेत्र कहते हैं।
३. आसन्नमरणं ज्ञात्वा पुरुषं स्नापयेत् ततः । गोमूत्रगोमयसुमृत्तीर्थोदककुशोदकैः॥
वाससी परिधाथि धौते तु शुचिनी शुभे।
दर्भाण्यादी समास्तीर्य दक्षिणाग्रान्विकीर्य च ॥ (गरुडपुराण, प्रेतखण्ड ३२।८५-८६)
४. श्राद्धविवेक।
५. तुलसीमृत्तिकाऽऽलिप्तो यदि प्राणान् विमुञ्चति ।
याति विष्वन्तिकं नित्यं यदि पापशतैर्युतः ॥
(गरुडपुराण, वी०मि०पू०)
मृतिकाले तु सम्प्राप्ते तुलसीतरुचन्दनम्।
भवेच यस्य देहे तु हरिभूत्वा हरिं व्रजेत् ॥ (पद्मपुराण)
(७) भस्म, गंगाकी मिट्टी, गोपीचन्दन लगा दे।
(८) गोबरसे लिपी हुई और तिल बिखेरी गयी भूमिपर दक्षिणाग्र-कुशोंको बिछाकर मरणासन्नको उत्तर
या पूर्वकी ओर सिर करके लिटा दे।
(९) सिरपर तुलसीदल रख दे। चारों ओर तुलसीके गमलोंको सजाकर रख दे।
(१०) ऊँची जगहपर शालग्रामशिलाको स्थापित कर दे।
(११) घीका दीपक जला दे।
(१२) भगवान्के नामका निरन्तर उद्घोष होता रहे।
(१३) यदि मरणासन्न व्यक्ति समर्थ हो तो उसीके हाथोंसे भगवान्की पूजा करा दे अथवा उसके
पारिवारिकजन पूजा करें।
(१४) मुखमें शालग्रामका चरणामृत डालता रहे। बीच-बीचमें तुलसीदल मिलाकर गंगाजल भी डालता
रहे। इससे उस प्राणीके सम्पूर्ण पाप नष्ट होते हैं और वह वैकुण्ठलोकको प्राप्त करता है।
(१५) उपनिषद्, गीता, भागवत, रामायण आदिका पाठ होता रहे।
(१६) किसी व्रत आदिका उद्यापन न हो सका हो तो उसे भी कर लेना चाहिये।
(१७) अन्तिम समयमें दशमहादान-अष्टमहादान तथा पंचधेनुदान करना चाहिये। शीघ्रतामें यदि प्रत्यक्ष
वस्तुएँ उपलब्ध न हों तो अपनी शक्तिके अनुसार निष्क्रय-द्रव्यका उन वस्तुओंके निमित्त संकल्प कर
ब्राह्मणको दे दे।
(१८) प्रत्येक दानमें प्रतिज्ञासंकल्प, जिस ब्राह्मणको दान दिया जाय उसका वरणसंकल्प, दानका मुख्य
संकल्प तथा अन्तमें दानप्रतिष्ठाके निमित्त सांगतासिद्धिका संकल्प करना चाहिये।
१. दर्भाण्यादौ समास्तीर्य दक्षिणाग्रान्विकीर्य च॥
तिलान् गोमयलिप्तायां भूमौ तत्र निवेशयेत् ॥
प्रागुदक् शिरसं वापि । (गरुडपुराण, प्रेतखण्ड ३२।८६-८८)
२. (क) शालग्रामशिला तत्र तुलसी च खगेश्वर ॥
विधेया सन्निधौ सर्पिर्दीपं प्रज्वालयेत् पुनः ।
नमो भगवते वासुदेवायेति जपस्तथा ॥
समभ्यर्च्य हृषीकेशं पुष्पधूपादिभिस्ततः ॥
प्रणिपातैः स्तवैः पुष्पैनियोगेन पूजयेत् ।
(गरुडपुराण, प्रेतखण्ड ३२।८८-९१)
शालग्रामशिला यत्र तत्र सन्निहितो हरिः ।
तत्सन्निधौ त्यजेत् प्राणान् याति विष्णोः परं पदम् ॥ (शुद्धितत्त्व, पूजारलाकर)
तुलसीकानने जन्तोर्यदि मृत्युभवेत् क्वचित्।
स निर्भत्स्य यमं पापी लीलयैव हरिं व्रजेत् ॥ (शुद्धितत्त्व)
शालग्रामशिलातोयं यः पिबेद् बिन्दुमात्रकम् ।
स सर्वपापनिर्मुक्तो वैकुण्ठभुवनं व्रजेत् ॥
ततो गङ्गाजलं दद्यात् । (गरुडपुराण-सारोद्धार ९।२२-२३)
प्रयाणकाले यस्यास्ये दीयते तुलसीदलम् ।
निर्वाणं याति पक्षीन्द्र पापकोटियुतोऽपि वा॥
(गरुडपुराण, वी०मि०पू०)
जय महादेव
Arun Shastri की वाल से साभार

अष्टाङ्गयोग

 अष्टाङ्गयोगके आठ अंग कौन-कौन से हैं ?

पातंजल योग दर्शन में इनका वर्णन इस प्रकार आता है
'यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहा
धारणा ध्यानसमाधयोऽष्टावङ्गानि
यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि—ये योगके आठ अङ्ग हैं
इनमें यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार– ये बहिरङ्ग और धारणा, ध्यान, समाधि ये तीन अन्तरङ्ग साधन हैं।
'त्रयमेकत्र संयमः (योग०3/4)
इन तीनोंके समुदायको 'संयम' कहते हैं।
'अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्या परिग्रहा यमाः
(योग० २।३०)
किसी भी प्राणीको किसी प्रकार किञ्चिन्मात्र कभी कष्ट न देना (अहिंसा); हितकी भावनासे कपटरहित प्रिय शब्दोंमें यथार्थ भाषण (सत्य); किसी प्रकारसे भी किसीके स्वत्व- हक को न चुराना और न छीनना (अस्तेय); मन, वाणी और शरीरसे सम्पूर्ण अवस्थाओंमें सदा सर्वदा सब प्रकारके मैथुनोंका त्याग करना (ब्रह्मचर्य); और शरीरनिर्वाहके अतिरिक्त भोग्यसामग्रीका कभी संग्रह न करना (अपरिग्रह) – इन पाँचों का नाम यम है।
'शौचसन्तोषतपः स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः ।' (योग० २।३२)
सब प्रकार से बाहर और भीतरकी पवित्रता (शौच); प्रिय अप्रिय, सुख-दुःख आदिके प्राप्त होनेपर सदा सर्वदा सन्तुष्ट रहना (सन्तोष); एकादशी आदि व्रत-उपवास करना (तप); कल्याणप्रद शास्त्रोंका अध्ययन तथा ईश्वरके अर्पण करके उनकी आज्ञाका पालन करना (ईश्वरप्रणिधान) इन पाँचोंका नाम नियम है।
'स्थिरसुखमासनम्' (योग० २।४६)
सुखपूर्वक स्थिरतासे बैठनेका नाम आसन है।
'तस्मिन् सति श्वासप्रश्वासयोर्गतिविच्छेदः प्राणायामः ।' (योग० २। ४९)
आसनके सिद्ध हो जानेपर श्वास और प्रश्वासकी गतिके रोकनेका नाम प्राणायाम है। बाहरी वायुका भीतर प्रवेश करना श्वास है और भीतरकी वायुका बाहर निकलना प्रश्वास है; इन दोनोंके रोकनेका नाम प्राणायाम है।
'बाह्याभ्यन्तरस्तम्भवृत्तिर्देशकालसंख्याभिः परिदृष्टो दीर्घसूक्ष्मः।' (योग० २।५०)
देश, काल और संख्या (मात्रा) के सम्बन्धसे बाह्य, आभ्यन्तर और स्तम्भवृत्तिवाले ये तीनों प्रणायाम दीर्घ और सूक्ष्म होते हैं।
भीतरके श्वासको बाहर निकालकर बाहर ही रोक रखना 'बाह्य कुम्भक' कहलाता है। इसकी विधि यह है— आठ प्रणव (ॐ) से रेचक करके सोलहसे बाह्य कुम्भक करना और फिर चारसे पूरक करना – इस प्रकारसे रेचक-पूरकके सहित बाहर कुम्भक करनेका नाम बाह्यवृत्ति प्राणायाम है।
बाहर के श्वास को भीतर खींचकर भीतर रोकनेको 'आभ्यन्तर कुम्भक कहते हैं। इसकी विधि यह है कि चार प्रणव से पूरक करके सोलहसे आभ्यन्तर कुम्भक करें, फिर आठ से रेचक करे। इस प्रकार पूरक रेचक के सहित कुम्भक करने का नाम आभ्यन्तरवृत्ति प्राणायाम है।
बाहर या भीतर, जहाँ कहीं भी सुखपूर्वक प्राणोके रोकनेका नाम स्तम्भवृत्ति प्राणायाम है। चार प्रणवसे पूरक करके आठसे रेचक करें, इस प्रकार पूरक रेचक करते-करते सुखपूर्वक जहाँ कहीं प्राणोको रोकनेका नाम स्तम्भवृत्ति प्राणायाम है।
इनके और भी बहुत-से भेद हैं; जितनी संख्याऔर जितना काल पूरकमें लगाया जाय, उतनी ही संख्या और उतना ही काल रेचक और कुम्भकमें भी लगा सकते हैं।
प्राणवायुके लिये नाभि, हृदय, कण्ठ या नासिकाके भीतरके भाग तक का नाम 'आभ्यन्तर देश' है और नासापुटसे बाहर सोलह अङ्गुल तक बाहरी देश' है। जो साधक पूरक प्राणायाम करते समय नाभितक श्वासको खींचता है, वह सोलह अङ्गुल तक बाहर फेंके; जो हृदयतक कर अंदर खींचता है; वह बारह अङ्गुल तक बाहर फेंके; जो कण्ठतक श्वासको खींचता है, वह आठ -अङ्गुल बाहर निकाले और जो नासिकाके अंदर और फिर ऊपरी अन्तिम भागतक ही श्वास खींचता है, वह चार अङ्गुल बाहरतक श्वास फेंके। इसमें पूर्व - पूर्वसे उत्तर-उत्तरवालेको 'सूक्ष्म' और पूर्व पूर्ववालेको 'दीर्घ' समझना चाहिये।
प्राणायाम में संख्या और काल का परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध होने कारण इनके नियम में व्यतिक्रम नहीं होना चाहिये।
जैसे चार प्रणव से पूरक करते समय एक सेकण्ड समय लगा तो सोलह प्रणवसे कुम्भक करते समय दो सेकण्ड समय लगना कहलाता चाहिये। मन्त्र की गणनाका नाम 'संख्या या मात्रा' हैं, उसमें लगनेवाले समयका नाम 'काल' हैं, यदि सुखपूर्वक हो सके तो साधक ऊपर बतलाये काल और मात्रा को दुगुनी, तिगुनी, चौगुनी जितनी चाहे यथासाध्य बढ़ा सकता हैं, काल और मात्राकी अधिकता एवं न्यूनतासे भी प्राणायाम दीर्घ और सूक्ष्म होता है। 'बाह्याभ्यन्तरविषयाक्षेपी चतुर्थः
(योग० २।५१)
शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध जो इन्द्रियोंके बाहरी विषय हैं और संकल्प- विकल्पादि जो अन्तःकरणके विषय हैं, उनके त्यागसे—उनकी उपेक्षा करनेपर अर्थात् विषयोंका चिन्तन न करनेपर प्राणोंकी गति का जो स्वतः अवरोध होता हैं, उसका नाम चतुर्थ प्राणायाम है।
पूर्वसूत्रमें बतलाये हुए प्राणायामोंमें प्राणोंके निरोधसे मनका संयम हैं और यहाँ मन और इन्द्रियोंके संयमसे प्राणोंका संयम है। यहाँ प्राणोंके रुकनेका कोई निर्दिष्ट स्थान नहीं है- जहाँ कहीं भी रुक सकते हैं तथा काल और संख्याका भी रहती है। समाधि विधान नहीं है।
स्वविषयासम्प्रयोगे चित्तस्वरूपानुकार
इवेन्द्रियाणां प्रत्याहारः (योग० ५४)
अपने-अपने विषयोंके संयोगसे रहित इन्द्रियोंका चित्तके-से रूपमें अवस्थित हो जाना प्रत्याहार है।
'देशबन्धश्चित्तस्य धारणा।
(योग0 3/1)
चित्तको किसी एक देश-विशेष में स्थिर करनेका नाम धारणा है। अर्थात् स्थूल-सूक्ष्म या बाह्य-आभ्यन्तर- किसी एक ध्येय स्थानमें चित्तको बाँध देना, स्थिर कर देना या लगा देना धारणा कहलाता है।
यहाँ विषय परमेश्वरका है, इसलिये धारणा, ध्यान और समाधि परमेश्वरमें ही करने चाहिये।
'तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानम् ।'
(योग०३।२)
उस पूर्वोक्त ध्येय वस्तुमें चित्तवृत्तिकी एकतानताका नाम ध्यान है। अर्थात् चित्तवृत्तिका गङ्गाके प्रवाहकी भाँति या तैलधारावत् अविच्छिन्नरूपसे ध्येय वस्तुमें ही लगा रहना ध्यान कहलाता है।
'तदेवार्थमात्रनिर्भासं स्वरूपशून्यमिव समाधिः ।'
(योग० ३।३)
जिस समय केवल ध्येय स्वरूपका ही भान होता है और अपने स्वरूपके भानका अभाव-सा रहता है, उस समय वह ध्यान ही समाधि हो जाता है। ध्यान करते-करते जब योगीका चित्त ध्येयाकारको प्राप्त हो जाता है और वह स्वयं भी ध्येयमें तन्मय-सा बन जाता है, ध्येयसे अपने-आपका भी ज्ञान उसे नहीं-सा रह जाता है— उस स्थितिका नाम समाधि है।
ध्यानमें ध्याता, ध्यान, ध्येय- यह त्रिपुटी रहती है। समाधिमें केवल अर्थमात्र वस्तु – ध्येय वस्तु ही रहती है अर्थात् ध्याता, ध्यान, ध्येय तीनोंकी एकता हो जाती है।

सपने में सांप देखने का अर्थ

 सपने में सांप देखने का अर्थ

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सपने में सांप दिखाई देना शुभ अशुभ दोनों हो सकता है यह निर्भर करता है कि स्वप्न में आपको सांप किस अवस्था में दिखाई दिया। कुछ लोग सपने में सांप को मार देते हैं और कुछ को सांप सपने में डस लेता है।
राहू का सांप से सम्बन्ध
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जब राहु की आहट जीवन में होती है तो सांप जरूर दिखाई देता है इसका अर्थ है कि राहु आपको फल देने वाला है यह किसी के लिए शुभ होता है और किसी के लिए अशुभ। जब तक स्वपन पूरा न हो कुछ कहा नहीं जा सकता।
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स्वप्न में सांप का काटना
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सांप द्वारा यदि आप डस लिए गए हैं या सांप ने काट लिया है तो डसे जाने वाले व्यक्ति के लिए चेतावनी है क्योंकि राहु शनि द्वारा संचालित होता है। शनि का आदेश है कि राहु सांप के रूप में दिखाई दे, ये संकेत है कि अचानक होने वाली घटना घटित होने जा रही है।
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सपने में सांप को मारना
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यदि आप सांप को मार रहे हैं या आप सांप को मरा हुआ देख रहे हैं तो इसका अर्थ है आपने राहु के फल को पूरी तरह भोग लिया है आपके कष्ट समाप्त हो गए हैं अब राहु आपको परेशान नहीं करेगा।
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सपने में सांप को देखना
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सपने में सांप के मात्र दर्शन होना इस बात का प्रमाण है कि राहु की दशा चल रही है या राहु की दशा आने वाली है या फिर राहू गोचर में आप के राशि पर प्रभाव दाल रहा है।
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ज्योतिष के अनुसार सपने में सांप का दिखना
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अक्सर जब लग्न के 12वें घर में राहु आता है तो सपने में सांप दिखाई देता है जिनको जीवन में बार बार सांप दिखाई दे उनकी जन्म कुंडली के लग्न में या 12वें घर में राहु विराजमान है या लग्नेश के साथ राहु विराजमान है अथवा कुंडली मे कालसर्प दोष है।
जब स्वप्न में सांप दिखाई दे तो करें यह उपाय
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चाहे आप स्वप्न में या वास्तविक जीवन में सांप से भयभीत रहते हैं या फिर यदि आपको लग रहा है की सांप के दिखाई देने के आप के स्वप्न का फल बुरा हो सकता है तो शिव मंदिर में जाएँ और उनकी पूजा अर्चना करें रुद्राभिषेक करवाएं या शिव मंदिर में जाकर शिव महिम्न स्त्रोत का पाठ करें।
महाभारत ग्रन्थ के शुरुआत में ही सर्प सत्र नाम से अध्याय है उसका पठन और श्रवण मात्र से व्यक्ति को सर्पों से जीवन में किसी प्रकार का भय नहीं रहता।
चन्द्रमा और सूर्य के कहने पर राहू नामक राक्षस का भगवान विष्णु ने सर काट दिया था उस राक्षस के सर का नाम राहू और धड़ का नाम केतु है।
उसी समय से राहू की सूर्य और चंद्रमा से शत्रुता है। जो लोग सूर्य और चन्द्रमा की दशा और राहू के अंतर में होते हैं उन्हें भी राहू से भय होता है जिस कारण स्वप्न में सांप दिखाई देते हैं।
ऐसे लोगों को विष्णु की शरण में जाना चाहिए श्री विष्णु का मंत्र है,
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय।
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इस मन्त्र का मन ही मन पाठ करने से केवल इक्कीस दिनों में आप राहू के बुरे फल को शुभ फल में बदल सकते हैं।
किसी भी शुक्ल पक्ष के प्रथम सोमवार से आरम्भ कर लगातार 41 दिन भुजंग स्तोत्र का पाठ सर्व प्रकार के सर्प भय से मुक्ति दिलाता है।
नवनाग पूजन उपरांत राहु केतु के वैदिक जप और दशांश हवन से भी सर्प दोषों से मुक्ति मिलती है।
आचार्य पण्डित गोविंद मिश्र जी की वाल से साभार

क्या मौली (कलावा) बांधने शरीर की रक्षा होती है?

 क्या मौली (कलावा) बांधने शरीर की रक्षा होती है?

मौली बांधना वैदिक परंपरा का हिस्सा है। यज्ञ के दौरान इसे बांधे जाने की परंपरा तो पहले से ही रही है, लेकिन इसको संकल्प सूत्र के साथ ही रक्षा-सूत्र के रूप में तब से बांधा जाने लगा, जबसे असुरों के दानवीर राजा बलि की अमरता के लिए भगवान वामन ने उनकी कलाई पर रक्षा-सूत्र बांधा था। इसे रक्षाबंधन का भी प्रतीक माना जाता है, जबकि देवी लक्ष्मी ने राजा बलि के हाथों में अपने पति की रक्षा के लिए यह बंधन बांधा था। मौली को हर हिन्दू बांधता है। इसे मूलत: रक्षा सूत्र कहते हैं।
मौली का अर्थ
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मौली' का शाब्दिक अर्थ है 'सबसे ऊपर'। मौली का तात्पर्य सिर से भी है। मौली को कलाई में बांधने के कारण इसे कलावा भी कहते हैं। इसका वैदिक नाम उप मणिबंध भी है। मौली के भी प्रकार हैं। शंकर भगवान के सिर पर चन्द्रमा विराजमान है इसीलिए उन्हें चंद्रमौली भी कहा जाता है।
कैसी होती है मौली?
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मौली कच्चे धागे (सूत) से बनाई जाती है जिसमें मूलत: 3 रंग के धागे होते हैं- लाल, पीला और हरा, लेकिन कभी-कभी यह 5 धागों की भी बनती है जिसमें नीला और सफेद भी होता है। 3 और 5 का मतलब कभी त्रिदेव के नाम की, तो कभी पंचदेव।
कहां-कहां बांधते हैं मौली?
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मौली को हाथ की कलाई, गले और कमर में बांधा जाता है। इसके अलावा मन्नत के लिए किसी देवी-देवता के स्थान पर भी बांधा जाता है और जब मन्नत पूरी हो जाती है तो इसे खोल दिया जाता है। इसे घर में लाई गई नई वस्तु को भी बांधा जाता और इसे पशुओं को भी बांधा जाता है।
डॉ0 विजय शंकर मिश्र:
मौली बांधने के नियम
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शास्त्रों के अनुसार पुरुषों एवं अविवाहित कन्याओं को दाएं हाथ में कलावा बांधना चाहिए। विवाहित स्त्रियों के लिए बाएं हाथ में कलावा बांधने का नियम है।
कलावा बंधवाते समय जिस हाथ में कलावा बंधवा रहे हों, उसकी मुट्ठी बंधी होनी चाहिए और दूसरा हाथ सिर पर होना चाहिए।
मौली कहीं पर भी बांधें, एक बात का हमेशा ध्यान रहे कि इस सूत्र को केवल 3 बार ही लपेटना चाहिए व इसके बांधने में वैदिक विधि का प्रयोग करना चाहिए।
कब बांधी जाती है मौली?
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पर्व-त्योहार के अलावा किसी अन्य दिन कलावा बांधने के लिए मंगलवार और शनिवार का दिन शुभ माना जाता है।
हर मंगलवार और शनिवार को पुरानी मौली को उतारकर नई मौली बांधना उचित माना गया है। उतारी हुई पुरानी मौली को पीपल के वृक्ष के पास रख दें या किसी बहते हुए जल में बहा दें।
प्रतिवर्ष की संक्रांति के दिन, यज्ञ की शुरुआत में, कोई इच्छित कार्य के प्रारंभ में, मांगलिक कार्य, विवाह आदि हिन्दू संस्कारों के दौरान मौली बांधी जाती है।
क्यों बांधते हैं मौली?
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मौली को धार्मिक आस्था का प्रतीक माना जाता है।
किसी अच्छे कार्य की शुरुआत में संकल्प के लिए भी बांधते हैं।
किसी देवी या देवता के मंदिर में मन्नत के लिए भी बांधते हैं।
मौली बांधने के 3 कारण हैं- पहला आध्यात्मिक, दूसरा चिकित्सीय और तीसरा मनोवैज्ञानिक।
किसी भी शुभ कार्य की शुरुआत करते समय या नई वस्तु खरीदने पर हम उसे मौली बांधते हैं ताकि वह हमारे जीवन में शुभता प्रदान करे।
हिन्दू धर्म में प्रत्येक धार्मिक कर्म यानी पूजा-पाठ, उद्घाटन, यज्ञ, हवन, संस्कार आदि के पूर्व पुरोहितों द्वारा यजमान के दाएं हाथ में मौली बांधी जाती है।
इसके अलावा पालतू पशुओं में हमारे गाय, बैल और भैंस को भी पड़वा, गोवर्धन और होली के दिन मौली बांधी जाती है।
डॉ0 विजय शंकर मिश्र:
मौली करती है रक्षा
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मौली को कलाई में बांधने पर कलावा या उप मणिबंध करते हैं। हाथ के मूल में 3 रेखाएं होती हैं जिनको मणिबंध कहते हैं। भाग्य व जीवनरेखा का उद्गम स्थल भी मणिबंध ही है। इन तीनों रेखाओं में दैहिक, दैविक व भौतिक जैसे त्रिविध तापों को देने व मुक्त करने की शक्ति रहती है।
इन मणिबंधों के नाम शिव, विष्णु व ब्रह्मा हैं। इसी तरह शक्ति, लक्ष्मी व सरस्वती का भी यहां साक्षात वास रहता है। जब हम कलावा का मंत्र रक्षा हेतु पढ़कर कलाई में बांधते हैं तो यह तीन धागों का सूत्र त्रिदेवों व त्रिशक्तियों को समर्पित हो जाता है जिससे रक्षा-सूत्र धारण करने वाले प्राणी की सब प्रकार से रक्षा होती है। इस रक्षा-सूत्र को संकल्पपूर्वक बांधने से व्यक्ति पर मारण, मोहन, विद्वेषण, उच्चाटन, भूत-प्रेत और जादू-टोने का असर नहीं होता।
आध्यात्मिक पक्ष
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शास्त्रों का ऐसा मत है कि मौली बांधने से त्रिदेव- ब्रह्मा, विष्णु व महेश तथा तीनों देवियों- लक्ष्मी, पार्वती व सरस्वती की कृपा प्राप्त होती है। ब्रह्मा की कृपा से कीर्ति, विष्णु की कृपा से रक्षा तथा शिव की कृपा से दुर्गुणों का नाश होता है। इसी प्रकार लक्ष्मी से धन, दुर्गा से शक्ति एवं सरस्वती की कृपा से बुद्धि प्राप्त होती है।
यह मौली किसी देवी या देवता के नाम पर भी बांधी जाती है जिससे संकटों और विपत्तियों से व्यक्ति की रक्षा होती है। यह मंदिरों में मन्नत के लिए भी बांधी जाती है।
इसमें संकल्प निहित होता है। मौली बांधकर किए गए संकल्प का उल्लंघन करना अनुचित और संकट में डालने वाला सिद्ध हो सकता है। यदि आपने किसी देवी या देवता के नाम की यह मौली बांधी है तो उसकी पवित्रता का ध्यान रखना भी जरूरी हो जाता है।
कमर पर बांधी गई मौली के संबंध में विद्वान लोग कहते हैं कि इससे सूक्ष्म शरीर स्थिर रहता है और कोई दूसरी बुरी आत्मा आपके शरीर में प्रवेश नहीं कर सकती है। बच्चों को अक्सर कमर में मौली बांधी जाती है। यह काला धागा भी होता है। इससे पेट में किसी भी प्रकार के रोग नहीं होते।
डॉ0 विजय शंकर मिश्र:
चिकित्सीय पक्ष
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प्राचीनकाल से ही कलाई, पैर, कमर और गले में भी मौली बांधे जाने की परंपरा के चिकित्सीय लाभ भी हैं। शरीर विज्ञान के अनुसार इससे त्रिदोष अर्थात वात, पित्त और कफ का संतुलन बना रहता है। पुराने वैद्य और घर-परिवार के बुजुर्ग लोग हाथ, कमर, गले व पैर के अंगूठे में मौली का उपयोग करते थे, जो शरीर के लिए लाभकारी था। ब्लड प्रेशर, हार्टअटैक, डायबिटीज और लकवा जैसे रोगों से बचाव के लिए मौली बांधना हितकर बताया गया है।
हाथ में बांधे जाने का लाभ
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शरीर की संरचना का प्रमुख नियंत्रण हाथ की कलाई में होता है अतः यहां मौली बांधने से व्यक्ति स्वस्थ रहता है। उसकी ऊर्जा का ज्यादा क्षय नहीं होता है। शरीर विज्ञान के अनुसार शरीर के कई प्रमुख अंगों तक पहुंचने वाली नसें कलाई से होकर गुजरती हैं। कलाई पर कलावा बांधने से इन नसों की क्रिया नियंत्रित रहती है।
कमर पर बांधी गई मौली
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कमर पर बांधी गई मौली के संबंध में विद्वान लोग कहते हैं कि इससे सूक्ष्म शरीर स्थिर रहता है और कोई दूसरी बुरी आत्मा आपके शरीर में प्रवेश नहीं कर सकती है। बच्चों को अक्सर कमर में मौली बांधी जाती है। यह काला धागा भी होता है। इससे पेट में किसी भी प्रकार के रोग नहीं होते।
मनोवैज्ञानिक लाभ
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मौली बांधने से उसके पवित्र और शक्तिशाली बंधन होने का अहसास होता रहता है और इससे मन में शांति और पवित्रता बनी रहती है। व्यक्ति के मन और मस्तिष्क में बुरे विचार नहीं आते और वह गलत रास्तों पर नहीं भटकता है। कई मौकों पर इससे व्यक्ति गलत कार्य करने से बच जाता है।
आचार्य डॉ0 विजय शंकर मिश्र: