अष्टाङ्गयोगके आठ अंग कौन-कौन से हैं ?
पातंजल योग दर्शन में इनका वर्णन इस प्रकार आता है
'यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहा
धारणा ध्यानसमाधयोऽष्टावङ्गानि
यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि—ये योगके आठ अङ्ग हैं
इनमें यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार– ये बहिरङ्ग और धारणा, ध्यान, समाधि ये तीन अन्तरङ्ग साधन हैं।
'त्रयमेकत्र संयमः (योग०3/4)
इन तीनोंके समुदायको 'संयम' कहते हैं।
'अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्या परिग्रहा यमाः
(योग० २।३०)
किसी भी प्राणीको किसी प्रकार किञ्चिन्मात्र कभी कष्ट न देना (अहिंसा); हितकी भावनासे कपटरहित प्रिय शब्दोंमें यथार्थ भाषण (सत्य); किसी प्रकारसे भी किसीके स्वत्व- हक को न चुराना और न छीनना (अस्तेय); मन, वाणी और शरीरसे सम्पूर्ण अवस्थाओंमें सदा सर्वदा सब प्रकारके मैथुनोंका त्याग करना (ब्रह्मचर्य); और शरीरनिर्वाहके अतिरिक्त भोग्यसामग्रीका कभी संग्रह न करना (अपरिग्रह) – इन पाँचों का नाम यम है।
'शौचसन्तोषतपः स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः ।' (योग० २।३२)
सब प्रकार से बाहर और भीतरकी पवित्रता (शौच); प्रिय अप्रिय, सुख-दुःख आदिके प्राप्त होनेपर सदा सर्वदा सन्तुष्ट रहना (सन्तोष); एकादशी आदि व्रत-उपवास करना (तप); कल्याणप्रद शास्त्रोंका अध्ययन तथा ईश्वरके अर्पण करके उनकी आज्ञाका पालन करना (ईश्वरप्रणिधान) इन पाँचोंका नाम नियम है।
'स्थिरसुखमासनम्' (योग० २।४६)
सुखपूर्वक स्थिरतासे बैठनेका नाम आसन है।
'तस्मिन् सति श्वासप्रश्वासयोर्गतिविच्छेदः प्राणायामः ।' (योग० २। ४९)
आसनके सिद्ध हो जानेपर श्वास और प्रश्वासकी गतिके रोकनेका नाम प्राणायाम है। बाहरी वायुका भीतर प्रवेश करना श्वास है और भीतरकी वायुका बाहर निकलना प्रश्वास है; इन दोनोंके रोकनेका नाम प्राणायाम है।
'बाह्याभ्यन्तरस्तम्भवृत्तिर्देशकालसंख्याभिः परिदृष्टो दीर्घसूक्ष्मः।' (योग० २।५०)
देश, काल और संख्या (मात्रा) के सम्बन्धसे बाह्य, आभ्यन्तर और स्तम्भवृत्तिवाले ये तीनों प्रणायाम दीर्घ और सूक्ष्म होते हैं।
भीतरके श्वासको बाहर निकालकर बाहर ही रोक रखना 'बाह्य कुम्भक' कहलाता है। इसकी विधि यह है— आठ प्रणव (ॐ) से रेचक करके सोलहसे बाह्य कुम्भक करना और फिर चारसे पूरक करना – इस प्रकारसे रेचक-पूरकके सहित बाहर कुम्भक करनेका नाम बाह्यवृत्ति प्राणायाम है।
बाहर के श्वास को भीतर खींचकर भीतर रोकनेको 'आभ्यन्तर कुम्भक कहते हैं। इसकी विधि यह है कि चार प्रणव से पूरक करके सोलहसे आभ्यन्तर कुम्भक करें, फिर आठ से रेचक करे। इस प्रकार पूरक रेचक के सहित कुम्भक करने का नाम आभ्यन्तरवृत्ति प्राणायाम है।
बाहर या भीतर, जहाँ कहीं भी सुखपूर्वक प्राणोके रोकनेका नाम स्तम्भवृत्ति प्राणायाम है। चार प्रणवसे पूरक करके आठसे रेचक करें, इस प्रकार पूरक रेचक करते-करते सुखपूर्वक जहाँ कहीं प्राणोको रोकनेका नाम स्तम्भवृत्ति प्राणायाम है।
इनके और भी बहुत-से भेद हैं; जितनी संख्याऔर जितना काल पूरकमें लगाया जाय, उतनी ही संख्या और उतना ही काल रेचक और कुम्भकमें भी लगा सकते हैं।
प्राणवायुके लिये नाभि, हृदय, कण्ठ या नासिकाके भीतरके भाग तक का नाम 'आभ्यन्तर देश' है और नासापुटसे बाहर सोलह अङ्गुल तक बाहरी देश' है। जो साधक पूरक प्राणायाम करते समय नाभितक श्वासको खींचता है, वह सोलह अङ्गुल तक बाहर फेंके; जो हृदयतक कर अंदर खींचता है; वह बारह अङ्गुल तक बाहर फेंके; जो कण्ठतक श्वासको खींचता है, वह आठ -अङ्गुल बाहर निकाले और जो नासिकाके अंदर और फिर ऊपरी अन्तिम भागतक ही श्वास खींचता है, वह चार अङ्गुल बाहरतक श्वास फेंके। इसमें पूर्व - पूर्वसे उत्तर-उत्तरवालेको 'सूक्ष्म' और पूर्व पूर्ववालेको 'दीर्घ' समझना चाहिये।
प्राणायाम में संख्या और काल का परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध होने कारण इनके नियम में व्यतिक्रम नहीं होना चाहिये।
जैसे चार प्रणव से पूरक करते समय एक सेकण्ड समय लगा तो सोलह प्रणवसे कुम्भक करते समय दो सेकण्ड समय लगना कहलाता चाहिये। मन्त्र की गणनाका नाम 'संख्या या मात्रा' हैं, उसमें लगनेवाले समयका नाम 'काल' हैं, यदि सुखपूर्वक हो सके तो साधक ऊपर बतलाये काल और मात्रा को दुगुनी, तिगुनी, चौगुनी जितनी चाहे यथासाध्य बढ़ा सकता हैं, काल और मात्राकी अधिकता एवं न्यूनतासे भी प्राणायाम दीर्घ और सूक्ष्म होता है। 'बाह्याभ्यन्तरविषयाक्षेपी चतुर्थः
(योग० २।५१)
शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध जो इन्द्रियोंके बाहरी विषय हैं और संकल्प- विकल्पादि जो अन्तःकरणके विषय हैं, उनके त्यागसे—उनकी उपेक्षा करनेपर अर्थात् विषयोंका चिन्तन न करनेपर प्राणोंकी गति का जो स्वतः अवरोध होता हैं, उसका नाम चतुर्थ प्राणायाम है।
पूर्वसूत्रमें बतलाये हुए प्राणायामोंमें प्राणोंके निरोधसे मनका संयम हैं और यहाँ मन और इन्द्रियोंके संयमसे प्राणोंका संयम है। यहाँ प्राणोंके रुकनेका कोई निर्दिष्ट स्थान नहीं है- जहाँ कहीं भी रुक सकते हैं तथा काल और संख्याका भी रहती है। समाधि विधान नहीं है।
स्वविषयासम्प्रयोगे चित्तस्वरूपानुकार
इवेन्द्रियाणां प्रत्याहारः (योग० ५४)
अपने-अपने विषयोंके संयोगसे रहित इन्द्रियोंका चित्तके-से रूपमें अवस्थित हो जाना प्रत्याहार है।
'देशबन्धश्चित्तस्य धारणा।
(योग0 3/1)
चित्तको किसी एक देश-विशेष में स्थिर करनेका नाम धारणा है। अर्थात् स्थूल-सूक्ष्म या बाह्य-आभ्यन्तर- किसी एक ध्येय स्थानमें चित्तको बाँध देना, स्थिर कर देना या लगा देना धारणा कहलाता है।
यहाँ विषय परमेश्वरका है, इसलिये धारणा, ध्यान और समाधि परमेश्वरमें ही करने चाहिये।
'तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानम् ।'
(योग०३।२)
उस पूर्वोक्त ध्येय वस्तुमें चित्तवृत्तिकी एकतानताका नाम ध्यान है। अर्थात् चित्तवृत्तिका गङ्गाके प्रवाहकी भाँति या तैलधारावत् अविच्छिन्नरूपसे ध्येय वस्तुमें ही लगा रहना ध्यान कहलाता है।
'तदेवार्थमात्रनिर्भासं स्वरूपशून्यमिव समाधिः ।'
(योग० ३।३)
जिस समय केवल ध्येय स्वरूपका ही भान होता है और अपने स्वरूपके भानका अभाव-सा रहता है, उस समय वह ध्यान ही समाधि हो जाता है। ध्यान करते-करते जब योगीका चित्त ध्येयाकारको प्राप्त हो जाता है और वह स्वयं भी ध्येयमें तन्मय-सा बन जाता है, ध्येयसे अपने-आपका भी ज्ञान उसे नहीं-सा रह जाता है— उस स्थितिका नाम समाधि है।
ध्यानमें ध्याता, ध्यान, ध्येय- यह त्रिपुटी रहती है। समाधिमें केवल अर्थमात्र वस्तु – ध्येय वस्तु ही रहती है अर्थात् ध्याता, ध्यान, ध्येय तीनोंकी एकता हो जाती है।
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