Friday, 14 January 2022

नीच भंग राजयोग

 नीच भंग राजयोग

कुंडली में कोई ग्रह अपनी नीच राशि में स्थित हो तो वह अशुभ परिणाम देने वाला माना जाता है लेकिन यदि उस ग्रह का नीचत्व समाप्त अथवा भंग हो जाए अर्थात् नीच भंग राजयोग का निर्माण हो जाए तो वह ग्रह अपनी नीच अवस्था के फल ना देकर शुभ फल देने में सक्षम हो जाता है।
नीच भंग राजयोग वैदिक ज्योतिष के अनुसार एक प्रबल राजयोग है जो व्यक्ति को सक्षम और समर्थ बनाता है तथा अपने कर्मों के द्वारा व्यक्ति जीवन में सभी प्रकार की चुनौतियों को पीछे छोड़कर जीवन में सफलता के मार्ग पर अग्रसर होता है। जैसा कि नाम से ही पता चलता है कि नीच भंग राजयोग के लिए कुंडली में किसी ग्रह का नीच होना पहली अनिवार्य शर्त है।
नीचस्थितो जन्मनि यो ग्रहः स्यात्तद्राशिनाथोऽपि तदुच्चनाथः।
स चन्द्रलग्नाद्यदि केन्द्रवर्ती राजा भवेद्धार्मिकचकर्वर्ती ।।२६।।
नीच भंग राजयोग तब बनता ,है जब कुंडली में कोई नीच ग्रह इस प्रकार विराजमान हो कि उसकी नीच अवस्था समाप्त अर्थात् भंग हो जाए और वह प्रबल रूप से राजयोग कारक ग्रह बन जाए तो वह नीच भंग राजयोग कहलाने लगता है।
नीच भंग राजयोग की पहली शर्त यह होती है कि कोई ग्रह नीच राशि में स्थित होना चाहिए अर्थात् ग्रह जब नीच राशि में होगा, तभी हम इस राज योग के बारे में विचार कर सकते हैं। लेकिन किसी ग्रह का नीच राशि में होना सदैव भंग नहीं हो सकता, इसलिए नीच भंग होने के लिए कुछ आवश्यक शर्तों का होना भी जरूरी है, जिनकी उपस्थिति किसी भी ग्रह की नीच अवस्था को समाप्त या निष्फल कर देती है और वह ग्रह नीच स्थिति से बाहर निकलकर नीच भंग राजयोग के परिणाम देने लगता है। ये विशेष नियम जिनमें नीच भंग राजयोग का निर्माण होता है, आप निम्नलिखित विवरण के आधार पर आसानी से समझ सकते हैं:
नीच भंग राजयोग के लिए एक नियम यह है कि यदि किसी जन्म कुंडली में कोई ग्रह अपनी नीच राशि में स्थित है और उस राशि का स्वामी यदि चंद्रमा द्वारा अधिष्ठित राशि से केंद्र भाव में स्थित हो तो नीच भंग राजयोग का निर्माण होता है। अर्थात् वह ग्रह नीच अवस्था से बाहर निकल जाता है और अच्छे परिणाम देने लग जाता है।
एक अन्य नियम के अनुसार जब कोई ग्रह कुंडली में नीच राशि में स्थित हो तो उस नीच राशि का उच्च नाथ (जो ग्रह उच्च राशि में उच्च स्थिति में माना जाता हो) चंद्रमा से केंद्र भाव की राशि में स्थित हो तो नीच भंग राजयोग का निर्माण होता है।
एक अन्य नियम के अनुसार यदि कोई ग्रह नीच राशि में स्थित है लेकिन उस राशि का स्वामी ग्रह, जिसमें वह ग्रह नीच अवस्था में है, कुंडली के लग्न से केंद्र भाव में अर्थात् प्रथम, चतुर्थ, सप्तम या दशम भाव में विराजमान हो तो नीच भंग राजयोग बन जाता है।
एक नियम यह भी कहता है कि ग्रह जिस राशि में नीच अवस्था में है, उस नीच राशि का उच्च नाथ कुंडली के लग्न से केंद्र भाव में स्थित हो तो भी नीच भंग राज योग निर्मित होता है।
एक ग्रह अपनी नीच राशि में स्थित है और उस नीच राशि का स्वामी ग्रह अपनी उच्च राशि को देख रहा हो अर्थात् दृष्टि दे रहा हो तो नीच भंग राज योग निर्मित होता है।
वैदिक ज्योतिष के अनुसार जिस राशि में नीच अवस्था में कोई ग्रह बैठा हो, उस राशि में उच्च अवस्था में माने जाने वाला ग्रह चंद्रमा द्वारा अधिष्ठित राशि से केंद्र भाव में हो तो नीच भंग राज योग निर्मित होता है।
नीच भंग राजयोग के निर्माण की एक स्थिति यह भी है कि जिस राशि में नीच अवस्था में कोई ग्रह बैठा है, उस राशि में उच्च स्थिति वाला ग्रह कुंडली में लग्न से केंद्र भावों में स्थित हो तो ऐसी स्थिति में नीच भंग राजयोग बन जाता है और उस ग्रह का नीचत्त्व समाप्त हो जाता है।
नीच भंग राजयोग के निर्माण की एक स्थिति यह भी है कि जिस राशि में कोई ग्रह नीच अवस्था में स्थित है, उसी राशि में कोई ग्रह अपनी उच्च अवस्था में स्थित हो तो स्वतः ही नीच भंग राजयोग निर्मित हो जाता है।
वैदिक ज्योतिष में जन्म कुंडली के साथ-साथ नवमांश कुंडली उनको भी अत्यंत महत्व दिया गया है। इसी को ध्यान में रखते हुए एक अन्य नियम यह भी है कि यदि कोई ग्रह जन्म कुंडली में अपनी नीच राशि में स्थित है लेकिन नवमांश कुंडली में यदि वही ग्रह अपनी उच्च राशि में स्थित होता है तो नीच भंग राजयोग बन जाता है और उस ग्रह के नीच स्थिति के फलों की स्थिति में परिवर्तन आ जाता है और वह अच्छे परिणाम देने लगता है।
उपरोक्त के अतिरिक्त एक अन्य नियम यह भी है कि यदि कोई ग्रह नीच राशि में स्थित है और उस नीच राशि में जो ग्रह उच्च अवस्था में माना जाता हो, वे दोनों ग्रह एक दूसरे से केंद्र में हों तो नीच भंग राज योग निर्मित होता है।
किसी की कुंडली में राजयोग का निर्माण होना बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है क्योंकि किसी भी कुंडली में राजयोग जितने अधिक संख्या में विराजमान होते हैं अथवा ज्यादा मजबूत होते हैं तो वह व्यक्ति के जीवन स्तर को उतना ही उत्तम बना देते हैं और उसे जीवन में यश, महान सफलता, कीर्ति, लक्ष्मी सभी कुछ प्रदान करते हैं। यदि हम नीच भंग राजयोग के फलों की बात करें तो इस योग में जन्म लेने से आपको अनेक प्रकार के सुखों की प्राप्ति होती है और आप जीवन में कुछ समस्याओं के उपरांत प्रगति अवश्य करते हैं। आप किसी राजा के समान सुखों का भोग करते हैं और आपको अखंड लक्ष्मी की प्राप्ति होती है। नीच भंग राज योग के कारण आपके जीवन में धीरे धीरे सफलता आनी शुरू हो जाती है और आप काफी मजबूत स्थिति में खड़े होते हैं। यदि जन्म कुंडली में उचित समय पर नीच भंग राज योग निर्मित करने वाले ग्रह की महादशा अथवा अंतर्दशा आती है तो वह व्यक्ति को परिणाम देने में देर नहीं लगाती और व्यक्ति जीवन में सभी सफलताओं को प्राप्त करता है।

'संस्काराद्विज उच्यते' ...

 'संस्काराद्विज उच्यते' ...

कहकर प्रत्येक संस्कार का समान महत्व बताया है और समझाया है कि संस्कारों की शृंखला में यदि किसी एक का भी विलोप होने लगेगा तो धीरे-धीरे सब लुप्त हो जाएंगे। तथापि यह निश्चित है कि द्विजत्वाधायक मुख्य संस्कार मात्र 'उपनयन' ही है। हम इसी एक संस्कार के संकल्प में 'द्विजत्वसिद्धये' पढ़ते हैं। यह भी प्रत्यक्ष है कि यज्ञोपवीत के बाद ही बालक द्विज कहलाने का अधिकारी बनता है। उपनयन को ही द्विजत्वाधायक क्यों माना गया, इसका विवेचन शास्त्रों में अनेकत्र हुआ है। तथापि यहां संक्षेप में कहा जा सकता है कि यज्ञोपवीत के समय बटु, सर्वात्मना आचार्य के समर्पित हो जाता है और वह उसे नया जन्म देता है। माता-पिता के द्वारा तो बटुक के स्थूल शरोर का ही निर्माण होता है। उसका संस्कारात्मक शरीर निर्मित होता है आचार्य और उसके द्वारा प्रदत्त ज्ञान के द्वारा इसके उपनेता आचार्य को बटुक का उपनयन करने से पूर्व स्वयं भी त्रिरात्र कृच्छव्रत रखना होता है, इन दिनों में उसकी भावनाएं ऐसी बनी रहती हैं मानो वह स्वयं बटुक को (नया) जन्म दे रहा है। इस सम्बंध में वेद भगवान् ने सब कुछ स्वयं स्पष्ट कर दिया है...
" उपनयमानो ब्रह्मचारिणं कृणुते गर्भमन्तः ।
तं रावीस्तित्र उदरे विर्भात तं जातं द्रष्टुमभिसंयन्ति देवाः ।"
अर्थात् व्रतयुक्त आचार्य तीन रात्रि तक ऐसी भावना बनाए रहे कि उसने बटुक को अपने उदर में धारण किया हुआ है। इस प्रकार तीन रात्रि पश्चात् आचार्य के गर्भ से प्रकट हुए (नया जन्म ग्रहण किए हुए) उस ब्रह्मचारी को देखने के लिए स्वयं देवता भी आया करते हैं।
विष्णुस्मृति में वेद के उक्त आदेश को ही...
" कृच्छ्रत्रयं चोपनेता त्रींश्च कृच्छ्रान्बटुश्चरेत् ।"
अपने शब्दों में दुहराया गया है कालिदास ने भी....
"श्रुतेरिवार्थं स्मृतिरन्वगच्छत्"
कथन का समर्थन किया है। स्मरण रहे कि यज्ञोपवीत से पूर्व बटुक के लिए भक्ष्याभक्ष्य का विपयय हो गया हो, या असत्प्रतिग्रह ग्रहण कर लिया गया हो तो उसके प्रायश्चित्त के लिये ब्रह्मचारी एवं उसके पिता के लिये भी कृच्छत्रय का विधान किया गया है। बटुक का मुण्डन भी किया जाता है और उसे पंचगव्य आदि खिलाया. पिलाया जाता है। इस प्रकार जब सब प्रकार से शुद्ध, पवित्र और निर्मल रूप धारण किए बटुक विद्याध्ययन के प्रवेश द्वार के प्रतीक सावित्री उपदेश के लिए गुरु की सेवा में उपस्थित होता है तो लगता है कि सचमुच उसका नया जन्म हो रहा है या अब वह 'द्विज' बन रहा है।
यज्ञोपवीत और उसके तीन सूत्र....
'वेञ' तन्तु सन्ताने धातु का अर्थ है बुनना। इसीलिए कपड़ा बुनने वाले को तन्तुवाय (धागों से कपड़ा बुनने वाला) कहा जाता है। इसी आधार पर यह कल्पना की गई है कि आरम्भ में यज्ञोपवीत कोई कंधे पर धारण किया जाने वाला वस्त्र विशेष रहा होगा। किन्तु 'वीत' से ही पंजाबी और हिन्दी का भी 'बटना' भी तो बनता है। रस्सी और धागा बटा जाता है बुना नहीं जाता। इसी आधार पर यह भी कहा जा सकता है कि आरम्भ से ही उपवीत त्रिसूत्रात्मक रहा होगा। कुछ भी हो यह तो निश्चित है कि उपवीत से हमारा परिचय त्रिसूत्रात्मक रूप में ही हुआ है उससे पूर्व भले ही उसका कुछ भी रूप क्यों न रहा हो। यज्ञोपवीत के सूत्र तीन ही क्यों होते हैं, इसके लिए यू तो वृद्धसारस्वत ऋषि-प्रोक्त भगवती पराम्बा त्रिपुर सुन्दरी की स्तुति -
" देवानां वितयं नयी हुतभुजां शक्तिवयं त्रिस्वराः त्रैलोक्यं त्रिपदी त्रिपुष्करमथो विब्रह्म वर्णास्त्रयः । यत्किचिज्जगति विधा नियमितं वस्तु त्रिवर्गादिकम् तत्सर्वं त्रिपुरेति नाम भगवत्यन्वेति ते तत्त्वतः ॥"
के अनुसार विश्व का सम्पूर्ण त्रिरूप तत्त्व उपवीत के त्रिसूत्र में समाविष्ट है। इसके • अतिरिक्त भी आध्यात्मिक आदि अन्य अनेक व्याख्याएं भी यहाँ अभिप्रेत हैं। यज्ञो पवीत में ध्यान देने योग्य पहली बात यह है कि अलग-अलग तीन सूत्र नहीं होते। एक ही सूत्र त्रिगुणित होता है। इसमें सृष्टिविज्ञान निहित है। ब्रह्म क्यभावापन्न पूज्यपाद आचार्यचरण अमृतवाग्भव जी महाराज ने अपने आत्मविलास में सृष्टि विकास की प्रक्रिया समझाते हुए लिखा है कि मूल तत्त्व एक ही है आरम्भ में उससे दो तत्त्व (प्रकृति और पुरुष) विकसित होते हैं, ये तीनों सृष्टि-चक्र के आद्य तत्त्व हैं अर्थात् एक तीन बन जाता है। उपवीत में भी एक ही सूत्र त्रिगुणित है। यहां उस एक की प्रतीक ब्रह्मग्रन्थि भी सबसे ऊपर बनी रहती है। उपवीत के एक-एक में पुनः तीन-तीन तन्तु हैं। अभिप्राय यह है कि मूल त्रितत्त्व भी पुनः तीन-तीन की संख्या में विकसित होता है और इस प्रकार 'नव द्रव्यात्मक' जगत् का निर्माण होता
है। इसी के प्रतीक हैं यज्ञोपवीत नौ तन्तु नो की त्रिगुणित संख्या २७ है। साव्य योगोक्त २५ तत्त्वों के ऊपर सदाशिव और शिव तत्त्व है। इस प्रकार मूल तत्त्व हुए सत्ताइस। सृष्टि-चक्र के संचालन में इच्छा, ज्ञान और क्रिया को समन्विति होनी चाहिए। इनके पृथक् रहने से विश्व की एकांगी उन्नति भले हो हो जाय, सर्वागीण विकास नहीं हो पाता। श्रीयुत जयशंकर प्रसाद जो ने कामायनी में इच्छा, ज्ञान और किया इन तीनों बिन्दुओं के एकीकरण का वैज्ञानिक रहस्य समझाने का प्रयत्न किया है। यज्ञोपवीत की ब्रह्म ग्रन्थि के द्वारा इन तीनों सूत्रों के एकीकरण का यह भी एक रहस्य है। मूलाधार चक्र (जिसका संयोग गुदा से है) से मस्तिष्क प्रदेश की त्रिकुटि में स्थित आज्ञा चक्र तक सीधे स्थित मेरुदण्ड के सहारे हमारा शरीर टिका हुआ है और इस मेरुदण्ड में है इड़ा, पिंगला और सुषुम्णा नामक तीन नाड़ियां। सुषुम्णा में ही पट्चक्र हैं, जिनमें से ग्रीवा में स्थित पांचवे विशुद्धि चक्र से होकर आकाशगुणात्मक शब्द का प्रादुर्भाव होता है और शिव बाज्ञा चक्र से ऊपर सहस्रार दल में प्रतिष्ठित है। ब्रह्मरन्ध्र भी यही है। ऊपर ग्रीवा से नीचे कटि या गुदा तक आने वाले उपवीत के त्रिसूत्र इडा पिंगला और सुषुम्णा के बाह्य प्रतीक हैं। इन सबसे ऊपर विद्यमान ब्रह्मग्रन्थी है ब्रह्मरन्ध्र का सही सूचक, जहां त्रिगुणात्मक शिव का अधिष्ठान है, यहीं से त्रिगुणमयी ये तीनों नाड़ियां पृथक् होती हैं। ऊपर कष्ठ (विशुद्धि चक्र) से नीचे मूलाधार तक आने वाले उपबीत के त्रिसूत्र अपने में ऐसे अनेक तत्त्व समेटे हुए हैं। आरम्भ में भले ही उपवीत कोई वस्त्र-विशेष रहा हो, किन्तु सूत्रकाल में और विक्रम की प्रथम शती के आसपास के शूद्रक के समय में उपवीत अवश्य त्रिगुणात्मक ही था, क्योंकि मृच्छकटिक के पात्र शक्लिक को यज्ञोपवीत से सेंध नापने को डोरी का काम लेते हुए दिखाया गया है। कालिदास ने तो विक्रमोर्वशीय में नारद जी के लिये स्पष्ट शब्दों में कहा है कि उन्होंने चन्द्रमा के समान शुभ्र उपवीत सूत्र धारण किया हुआ था
"संलक्ष्यतेशशिकलामलवोतसूत्रः।" (विक्रमोवंशीय ५/१६)
साथ ही त्रिसूत्र व्यक्ति को सदा यह स्मरण दिलाते रहते हैं कि इन त्रिसूत्रों को धारण करने के लिये मुझे, मेरे पिता को और आचार्य को भी त्रिरात्र कृच्छ्रव्रत रखना पड़ा था, अतः इनकी पवित्रता सदा बनाए रखनी है, और इनके द्वारा विहित कर्मों का सदा पालन करना है, तभी इनकी सार्थकता है।
त्रिस्कंध ज्योतिर्विद् शशांक शेखर शुल्ब की वाल से साभार

प्राणेहि प्रजापतिः

 प्राण

वेदों में प्राणतत्व की महिमा का गान करते हुए उसे विश्व की सर्वोपरि शक्ति माना है।
प्राणों विराट प्राणो देष्ट्री प्राणं सर्व उपासते। प्राणो ह सूर्यश्चन्द्रमाः प्राण माहुः प्रजापतिम्॥ -अथर्ववेद
अर्थात्- प्राण विराट है, सबका प्रेरक है। इसी से सब उसकी उपासना करते हैं। प्राण ही सूर्य, चन्द्र और प्रजापति है।
प्राणाय नमो यस्य सर्व मिदं वशे। यो भूतः सर्वस्येश्वरो यस्मिन् सर्व प्रतिष्ठम्। -अथर्ववेद
अर्थात्- जिसके अधीन यह सारा जगत है, उस प्राण को नमस्कार है। वही सबका स्वामी है, उसी में सारा जगत प्रतिष्ठित है।
ब्राह्मण ग्रंथों और आरण्यकों में भी प्राण की महत्ता का गान एक स्वर से किया गया है- उसे ही विश्व का आदि निर्माण, सबमें व्यापक और पोषक माना है। जो कुछ भी हलचल इस जगत में दृष्टिगोचर होती है उसका मूल हेतु प्राण ही है।
कतम एको देव इति। प्राण इति स ब्रह्म नद्रित्याचक्षते। -बृहदारण्यक
अर्थात्- वह एकदेव कौन सा है? वह प्राण है। ऐसा कौषितकी ऋषि से व्यक्त किया है।
‘प्राणों ब्रह्म’ इति स्माहपैदृश्य।
अर्थात्- पैज्य ऋषि ने कहा है कि प्राण ही ब्रह्मा है।
प्राण एव प्रज्ञात्मा। इदं शरीरं परिगृह्यं उत्थापयति। यो व प्राणः सा प्रज्ञा, या वा प्रज्ञा स प्राणः। -शाखायन आरण्यक 5।3
अर्थात्- इस समस्त संसार में तथा इस शरीर में जो कुछ प्रज्ञा है, वह प्राण ही है। जो प्राण है, वही प्रज्ञा है। जो प्रज्ञा है वही प्राण है।
सोऽयमाकाशः प्राणेन वृहत्याविष्टव्धः तद्यथा यमाकाशः प्राणेन वृहत्या विष्टब्ध एवं सर्वाणि भूतानि आपि पीलिकाभ्यः प्राणेन वृहत्या विष्टव्धानी त्येवं विद्यात्। -एतरेय 2।1।6
अर्थात्- प्राण ही इस विश्व को धारण करने वाला है। प्राण की शक्ति से ही यह ब्रह्मांड अपने स्थान पर टिका हुआ है। चींटी से लेकर हाथी तक सब प्राणी इस प्राण के ही आश्रित हैं। यदि प्राण न होता तो जो कुछ हम देखते हैं कुछ भी न दीखता।
शतपथ ब्राह्मण में कहा गया है कि :--
प्राणेहि प्रजापतिः 4।5।5।13
प्राण उ वै प्रजापतिः 8।4।1।4
प्राणः प्रजापति 6।3।1।9
अर्थात्-प्राण ही प्रजापति परमेश्वर है।
सर्व ह्रीदं प्राणनावृतम्। -एतरेय
अर्थात्- यह सारा जगत प्राण से आदृत है।
उपनिषदों में
उपनिषदकार का कथन है-
प्राणोवा ज्येष्ठः श्रेष्ठश्च। - छान्दोग्य
अर्थात्- प्राण ही बड़ा है। प्राण ही श्रेष्ठ है।
प्रश्नोपनिषद में प्राणतत्व का अधिक विस्तारपूर्वक विवेचन किया गया है-
स प्राणमसृजत प्राणाच्छ्रद्धां खं वायुर्ज्योतिरापः पृथिवीन्द्रियं मनोऽन्नाद्धीर्य तपोमंत्राः कर्मलोकालोकेषु च नाम च। -प्रश्नोपनिषद् 6।4
अर्थात्- परमात्मा ने सबसे प्रथम प्राण की रचना की। इसके बाद श्रद्धा उत्पन्न की। तब आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी यह पाँच तत्व बनाये। इसके उपरान्त क्रमशः मन, इन्द्रिय, समूह, अन्न, वीर्य, तप, मंत्र, और कर्मों का निर्माण हुआ। तदन्तर विभिन्न लोक बने।
भृगुतंत्र में
प्राण शक्ति ने भाण्डागार वाले स्वरूप को जान लेने पर ऋषियों ने कहा है कि कुछ भी जानना शेष नहीं रहता है।
भृगुतंत्र में कहा गया है-
उत्पत्ति मायाति स्थानं विभुत्वं चैव पंचधा। अध्यात्म चैब प्राणस्य विज्ञाया मृत्यश्नुते॥
अर्थात्- प्राण कहाँ से उत्पन्न होता है? कहाँ से शरीर में आता है? कहाँ रहता है? किस प्रकार व्यापक होता है? उसका अध्यात्म क्या है? जो इन पाँच बातों को जान लेता है वह अमृतत्व को प्राप्त कर लेता है।

प्राण”

 व्यवहारिक रूपसे “प्राण” शब्द का उपयोग किया है

, परंतु हमे प्राण की वास्तविकता के बारे मे शायद ही पता हो , अथवा तो हम भ्रांति
से यह मानते है की प्राण का अर्थ जीव या जीवात्मा होता है , परंतु यह सत्य नही
है , प्राण वायु का एक रूप है , जब हवा आकाश में चलती है तो उसे वायु कहते है
, जब यही वायु हमारे शरीर में 10 भागों में काम करती है तो इसे “प्राण” कहते
है , वायु का पर्यायवाचि नाम ही प्राण है ।
मूल प्रकृति के स्पर्श गुण-वाले वायु में रज गुण प्रदान होने से वह चंचल ,
गतिशील और अद्रश्य है । पंच महाभूतों में प्रमुख तत्व वायु है । वात् , पित्त
कफ में वायु बलिष्ठ है , शरीर में हाथ-पाँव आदि कर्मेन्द्रियाँ , नेत्र –
श्रोत्र आदि ज्ञानेन्द्रियाँ तथा अन्य सब अवयव -अंग इस प्राण से ही शक्ति पाकर
समस्त कार्यों का संपादन करते है . वह अति सूक्ष्म होने से सूक्ष्म छिद्रों
में प्रविष्टित हो जाता है । प्राण को रुद्र और ब्रह्म भी कहते है ।
प्राण से ही भोजन का पाचन , रस , रक्त , माँस , मेद , अस्थि , मज्जा , वीर्य ,
रज , ओज , आदि धातुओं का निर्माण , फल्गु ( व्यर्थ ) पदार्थो का शरीर से बाहर
निकलना , उठना , बैठना , चलना , बोलना , चिंतन-मनन-स्मरण-ध्यान आदि समस्त स्थूल
व् सूक्ष्म क्रियाएँ होती है . प्राण की न्यूनता-निर्बलता होने पर शरीर के अवयव
( अंग-प्रत्यंग-इन्द्रियाँ आदि ) शिथिल व रुग्ण हो जाते है . प्राण के बलवान्
होने पर समस्त शरीर के अवयवों में बल , पराक्रम
आते है और पुरुषार्थ , साहस , उत्साह , धैर्य ,आशा , प्रसन्नता , तप , क्षमा
आदि की प्रवृति होती है .
शरीर के बलवान् , पुष्ट , सुगठित , सुन्दर , लावण्ययुक्त , निरोग व दीर्घायु
होने पर ही लौकिक व आध्यात्मिक लक्ष्यों की पूर्ति हो सकती है . इसलिए हमें
प्राणों की रक्षा करनी चाहिए अर्थात शुद्ध आहार , प्रगाढ़ निंद्रा , ब्रह्मचर्य
, प्राणायाम आदि के माध्यम से शरीर को प्राणवान् बनाना चाहिए .
परमपिता परमात्मा द्वारा निर्मित १६ कलाओं में एक कला प्राण भी है . ईश्वर इस
प्राण को जीवात्मा के उपयोग के लिए प्रदान करता है . ज्यों ही जीवात्मा किसी
शरीर में प्रवेश करता है , प्राण भी उसके साथ शरीर में प्रवेश कर जाता है तथा
ज्यों ही जीवात्मा किसी शरीर से निकलता है , प्राण भी उसके साथ निकल जाता है .
श्रुष्टि की आदि में परमात्मा ने सभी जीवो को सूक्ष्म शरीर और प्राण दिया जिससे
जीवात्मा प्रकृति से संयुक्त होकर शरीर धारण करता है । सजीव प्राणी नाक से
श्वास लेता है , तब वायु कण्ठ में जाकर विशिष्ठ रचना से वायु का
दश विभाग हो जाता है । शरीर में विशिष्ठ स्थान और कार्य से प्राण के विविध नाम
हो जाते है ।
प्रस्तुत चित्र में प्राणों के विभाग , नाम , स्थान , तथा कार्यों का वर्णन
किया गया है .
मुख्य प्राण ५ बताए गए है जिनके नाम इस प्रकार है ,
१. प्राण ,
२. अपान,
३. समान,
४. उदान
५. व्यान
और उपप्राण भी पाँच बताये गए है ,
१. नाग
२. कुर्म
३. कृकल
४. देवदत
५. धनज्जय
मुख्य प्राण :-
१. प्राण :- इसका स्थान नासिका से ह्रदय तक है . नेत्र , श्रोत्र , मुख आदि
अवयव इसी के सहयोग से कार्य करते है . यह सभी प्राणों का राजा है . जैसे राजा
अपने अधिकारीयों को विभिन्न स्थानों पर विभिन्न कार्यों के लिये
नियुक्त करता है , वैसे ही यह भी अन्य अपान आदि प्राणों को विभिन्न स्थानों पर
विभिन्न कार्यों के लिये नियुक्त करता है .
२. अपान :- इसका स्थान नाभि से पाँव तक है , यह गुदा इन्द्रिय द्वारा मल व
वायु को उपस्थ ( मुत्रेन्द्रिय) द्वारा मूत्र व वीर्य को योनी द्वारा रज व गर्भ
का कार्य करता है .
३. समान :- इसका स्थान ह्रदय से नाभि तक बताया गया है . यह खाए हुए अन्न
को पचाने तथा पचे हुए अन्न से रस , रक्त आदि धातुओं को बनाने का कार्य करता है
.
४. उदान :- यह कण्ठ से सिर ( मस्तिष्क ) तक के अवयवों में रहेता है ,
शब्दों का उच्चारण , वमन ( उल्टी ) को निकालना आदि कार्यों के अतिरिक्त यह
अच्छे कर्म करने वाली जीवात्मा को अच्छे लोक ( उत्तम योनि ) में , बुरे
कर्म करने वाली जीवात्मा को बुरे लोक ( अर्थात सूअर , कुत्ते आदि की योनि )
में तथा जिस आत्मा ने पाप – पुण्य बराबर किए हों , उसे मनुष्य लोक ( मानव योनि
) में ले जाता है ।
५. व्यान :- यह सम्पूर्ण शरीर में रहेता है । ह्रदय से मुख्य १०१ नाड़ीयाँ
निकलती है , प्रत्येक नाड़ी की १००-१०० शाखाएँ है तथा प्रत्येक शाखा की भी
७२००० उपशाखाएँ है । इस प्रकार कुल ७२७२१०२०१ नाड़ी शाखा- उपशाखाओं में
यह रहता है । समस्त शरीर में रक्त-संचार , प्राण-संचार का कार्य यही करता है
तथा अन्य प्राणों को उनके कार्यों में सहयोग भी देता है ।
उपप्राण :-
१. नाग :- यह कण्ठ से मुख तक रहता है । उदगार (डकार ) , हिचकी आदि कर्म
इसी के द्वारा होते है ।
२. कूर्म :- इसका स्थान मुख्य रूप से नेत्र गोलक है , यह नेत्रा गोलकों में
रहता हुआ उन्हे दाएँ -बाएँ , ऊपर-नीचे घुमाने की तथा पलकों को खोलने बंद करने
की किया करता है । आँसू भी इसी के सहयोग से निकलते है ।
३. कूकल :- यह मुख से ह्रदय तक के स्थान में रहता है तथा जृम्भा ( जंभाई
=उबासी ) , भूख , प्यास आदि को उत्पन्न करने का कार्य करता है ।
४. देवदत्त :- यह नासिका से कण्ठ तक के स्थान में रहता है । इसका कार्य
छिंक , आलस्य , तन्द्रा , निद्रा आदि को लाने का है ।
५. धनज्जय :- यह सम्पूर्ण शरीर में व्यापक रहता है , इसका कार्य शरीर के
अवयवों को खिचें रखना , माँसपेशियों को सुंदर बनाना आदि है । शरीर में से
जीवात्मा के निकल जाने पर यह भी बाहर निकल जाता है , फलतः इस प्राण
के अभाव में शरीर फूल जाता है ।
जब शरीर विश्राम करता है , ज्ञानेन्द्रियाँ , कर्मेन्द्रियाँ स्थिर हो जाती है
, मन शांत हो जाता है । तब प्राण और जीवात्मा जागता है । प्राण के संयोग से
जीवन और प्राण के वियोग से मृत्यु होती है ।
जीव का अंन्तिम साथी प्राण है ।
प्राण के नाम,स्थान और कार्य–विवरण को संक्षिप्त जानकारी के लिए कृपया संलग्न
चित्र को देखे ।
आभार :- आचार्य ज्ञानेश्वरार्य , दार्शनिक निबंध.

सूर्य मकर रेखा या मकर राशि में प्रवेश

बिना किसी अरबों खरबों के संयंत्र और apparatus का प्रयोग किये बिना ही हमारा सनातन वैदिक विज्ञान ये लाखों वर्षों से बताता चला आ रहा है कि पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा कर ऐसे स्थान विशेष पर पहुँचती है कि सूर्य मकर रेखा या मकर राशि में प्रवेश करता है जिसे आज का विज्ञान एक assumed line Tropic of Capricorn बोलता है ।
हमारे सनातन वैदिक विज्ञान को यह भी पता था कि पृथ्वी स्थैतिज्व ऐसी जगह पर होगा जब सूर्य , नक्षत्र द्वारा निकलने वाली किरणों का प्रभाव जल पर पड़कर उसे और भी अमृतमय और विशेष radiation युक्त करता है जिसमें नहाकर मनुष्य मानसिक एवं शारीरिक स्वास्थ्य लाभ प्राप्त कर सकता है ।
यह बात ध्यान रखिये की जितना विज्ञान अभी तक जान पाया है केवल उतना ही नहीं है , बल्कि विज्ञान मात्र 0.05% ही जान पाया है । विज्ञान मात्र कुछ ही radiations और निकलने वाली एनर्जी या waves को ही जान पाया है ।
जल पर खगोलीय पिंडों और उनके द्वारा निकलने वाली अनजान और अदृश्य किरणों या different wavelength के खगोलीय प्रकाश का क्या असर होता है यह पूर्णिमा के दौरान समुद्र के ज्वारभाटा से समझा जा सकता है ।
कितना सूक्ष्म विज्ञान था जिसमें हमारे ऋषि मुनि ( आज की भाषा में वैज्ञानिक ) ने मकर संक्रांति , पूर्णिमा , संक्रांति या किसी विशेष तिथि पर सरोवर , नदी ( खुला जलाशय ) इत्यादि में स्नान करने का विधान बनाया और उसे धर्म से जोड़ दिया , लोभ लालच दिखाया कि इसी बहाने यह मनुष्य उक्त क्रिया करके मानसिक , शारीरिक एवं आध्यात्मिक लाभ ले सकें ।
आप सनातन धर्म का कोई भी त्योहार ले लीजिए , सभी त्योहार किसी न किसी कारण से बनाये गए हैं और प्रत्येक कारण के पीछे खगोलीय पिंडों की गति, घूर्णन , परिधि , परिक्रमा या ऐसे विशेष कारणों पर आधारित है ।
कुछ भी मतलब कुछ भी randomly कोई भी त्योहार उठा लीजिये । मैं challenge के साथ कह सकता हूँ और प्रमाणित कर सकता हूँ कि सभी के पीछे खगोलीय घटना है ।
अब सोचिये कि हमारा वैदिक विज्ञान कितना आगे था । जो लोग अब ढूँढ रहे हैं उससे अरब गुना आगे हम पहले ही खोज कर बैठे हैं ।
लेकिन हमें तो अपने शास्त्रों को गाली देना , जलाना , जूते मारना और अपनी ही स्वाभिमान और शक्तियों पर शर्मिंदा होना जो सिखा दिया गया है तो हम उसी तरह बन गए हैं ।
अपने त्योहारों पर गर्व करना सीखिए और उसके अंतरंग कारणों को जानना सीखिए , तभी किसी त्योहार की सार्थकता होगी और उसका लाभ आप प्राप्त कर सकते हैं । अपने आने वाली generation और बच्चों को सभी त्योहारों का महत्व , कारण और उन पर गर्व करना सिखाईये ।
- Shwetabh Pathak ( श्वेताभ पाठक ) जी की वाल से साभार