'संस्काराद्विज उच्यते' ...
कहकर प्रत्येक संस्कार का समान महत्व बताया है और समझाया है कि संस्कारों की शृंखला में यदि किसी एक का भी विलोप होने लगेगा तो धीरे-धीरे सब लुप्त हो जाएंगे। तथापि यह निश्चित है कि द्विजत्वाधायक मुख्य संस्कार मात्र 'उपनयन' ही है। हम इसी एक संस्कार के संकल्प में 'द्विजत्वसिद्धये' पढ़ते हैं। यह भी प्रत्यक्ष है कि यज्ञोपवीत के बाद ही बालक द्विज कहलाने का अधिकारी बनता है। उपनयन को ही द्विजत्वाधायक क्यों माना गया, इसका विवेचन शास्त्रों में अनेकत्र हुआ है। तथापि यहां संक्षेप में कहा जा सकता है कि यज्ञोपवीत के समय बटु, सर्वात्मना आचार्य के समर्पित हो जाता है और वह उसे नया जन्म देता है। माता-पिता के द्वारा तो बटुक के स्थूल शरोर का ही निर्माण होता है। उसका संस्कारात्मक शरीर निर्मित होता है आचार्य और उसके द्वारा प्रदत्त ज्ञान के द्वारा इसके उपनेता आचार्य को बटुक का उपनयन करने से पूर्व स्वयं भी त्रिरात्र कृच्छव्रत रखना होता है, इन दिनों में उसकी भावनाएं ऐसी बनी रहती हैं मानो वह स्वयं बटुक को (नया) जन्म दे रहा है। इस सम्बंध में वेद भगवान् ने सब कुछ स्वयं स्पष्ट कर दिया है...
" उपनयमानो ब्रह्मचारिणं कृणुते गर्भमन्तः ।
तं रावीस्तित्र उदरे विर्भात तं जातं द्रष्टुमभिसंयन्ति देवाः ।"
अर्थात् व्रतयुक्त आचार्य तीन रात्रि तक ऐसी भावना बनाए रहे कि उसने बटुक को अपने उदर में धारण किया हुआ है। इस प्रकार तीन रात्रि पश्चात् आचार्य के गर्भ से प्रकट हुए (नया जन्म ग्रहण किए हुए) उस ब्रह्मचारी को देखने के लिए स्वयं देवता भी आया करते हैं।
विष्णुस्मृति में वेद के उक्त आदेश को ही...
" कृच्छ्रत्रयं चोपनेता त्रींश्च कृच्छ्रान्बटुश्चरेत् ।"
अपने शब्दों में दुहराया गया है कालिदास ने भी....
"श्रुतेरिवार्थं स्मृतिरन्वगच्छत्"
कथन का समर्थन किया है। स्मरण रहे कि यज्ञोपवीत से पूर्व बटुक के लिए भक्ष्याभक्ष्य का विपयय हो गया हो, या असत्प्रतिग्रह ग्रहण कर लिया गया हो तो उसके प्रायश्चित्त के लिये ब्रह्मचारी एवं उसके पिता के लिये भी कृच्छत्रय का विधान किया गया है। बटुक का मुण्डन भी किया जाता है और उसे पंचगव्य आदि खिलाया. पिलाया जाता है। इस प्रकार जब सब प्रकार से शुद्ध, पवित्र और निर्मल रूप धारण किए बटुक विद्याध्ययन के प्रवेश द्वार के प्रतीक सावित्री उपदेश के लिए गुरु की सेवा में उपस्थित होता है तो लगता है कि सचमुच उसका नया जन्म हो रहा है या अब वह 'द्विज' बन रहा है।
यज्ञोपवीत और उसके तीन सूत्र....
'वेञ' तन्तु सन्ताने धातु का अर्थ है बुनना। इसीलिए कपड़ा बुनने वाले को तन्तुवाय (धागों से कपड़ा बुनने वाला) कहा जाता है। इसी आधार पर यह कल्पना की गई है कि आरम्भ में यज्ञोपवीत कोई कंधे पर धारण किया जाने वाला वस्त्र विशेष रहा होगा। किन्तु 'वीत' से ही पंजाबी और हिन्दी का भी 'बटना' भी तो बनता है। रस्सी और धागा बटा जाता है बुना नहीं जाता। इसी आधार पर यह भी कहा जा सकता है कि आरम्भ से ही उपवीत त्रिसूत्रात्मक रहा होगा। कुछ भी हो यह तो निश्चित है कि उपवीत से हमारा परिचय त्रिसूत्रात्मक रूप में ही हुआ है उससे पूर्व भले ही उसका कुछ भी रूप क्यों न रहा हो। यज्ञोपवीत के सूत्र तीन ही क्यों होते हैं, इसके लिए यू तो वृद्धसारस्वत ऋषि-प्रोक्त भगवती पराम्बा त्रिपुर सुन्दरी की स्तुति -
" देवानां वितयं नयी हुतभुजां शक्तिवयं त्रिस्वराः त्रैलोक्यं त्रिपदी त्रिपुष्करमथो विब्रह्म वर्णास्त्रयः । यत्किचिज्जगति विधा नियमितं वस्तु त्रिवर्गादिकम् तत्सर्वं त्रिपुरेति नाम भगवत्यन्वेति ते तत्त्वतः ॥"
के अनुसार विश्व का सम्पूर्ण त्रिरूप तत्त्व उपवीत के त्रिसूत्र में समाविष्ट है। इसके • अतिरिक्त भी आध्यात्मिक आदि अन्य अनेक व्याख्याएं भी यहाँ अभिप्रेत हैं। यज्ञो पवीत में ध्यान देने योग्य पहली बात यह है कि अलग-अलग तीन सूत्र नहीं होते। एक ही सूत्र त्रिगुणित होता है। इसमें सृष्टिविज्ञान निहित है। ब्रह्म क्यभावापन्न पूज्यपाद आचार्यचरण अमृतवाग्भव जी महाराज ने अपने आत्मविलास में सृष्टि विकास की प्रक्रिया समझाते हुए लिखा है कि मूल तत्त्व एक ही है आरम्भ में उससे दो तत्त्व (प्रकृति और पुरुष) विकसित होते हैं, ये तीनों सृष्टि-चक्र के आद्य तत्त्व हैं अर्थात् एक तीन बन जाता है। उपवीत में भी एक ही सूत्र त्रिगुणित है। यहां उस एक की प्रतीक ब्रह्मग्रन्थि भी सबसे ऊपर बनी रहती है। उपवीत के एक-एक में पुनः तीन-तीन तन्तु हैं। अभिप्राय यह है कि मूल त्रितत्त्व भी पुनः तीन-तीन की संख्या में विकसित होता है और इस प्रकार 'नव द्रव्यात्मक' जगत् का निर्माण होता
है। इसी के प्रतीक हैं यज्ञोपवीत नौ तन्तु नो की त्रिगुणित संख्या २७ है। साव्य योगोक्त २५ तत्त्वों के ऊपर सदाशिव और शिव तत्त्व है। इस प्रकार मूल तत्त्व हुए सत्ताइस। सृष्टि-चक्र के संचालन में इच्छा, ज्ञान और क्रिया को समन्विति होनी चाहिए। इनके पृथक् रहने से विश्व की एकांगी उन्नति भले हो हो जाय, सर्वागीण विकास नहीं हो पाता। श्रीयुत जयशंकर प्रसाद जो ने कामायनी में इच्छा, ज्ञान और किया इन तीनों बिन्दुओं के एकीकरण का वैज्ञानिक रहस्य समझाने का प्रयत्न किया है। यज्ञोपवीत की ब्रह्म ग्रन्थि के द्वारा इन तीनों सूत्रों के एकीकरण का यह भी एक रहस्य है। मूलाधार चक्र (जिसका संयोग गुदा से है) से मस्तिष्क प्रदेश की त्रिकुटि में स्थित आज्ञा चक्र तक सीधे स्थित मेरुदण्ड के सहारे हमारा शरीर टिका हुआ है और इस मेरुदण्ड में है इड़ा, पिंगला और सुषुम्णा नामक तीन नाड़ियां। सुषुम्णा में ही पट्चक्र हैं, जिनमें से ग्रीवा में स्थित पांचवे विशुद्धि चक्र से होकर आकाशगुणात्मक शब्द का प्रादुर्भाव होता है और शिव बाज्ञा चक्र से ऊपर सहस्रार दल में प्रतिष्ठित है। ब्रह्मरन्ध्र भी यही है। ऊपर ग्रीवा से नीचे कटि या गुदा तक आने वाले उपवीत के त्रिसूत्र इडा पिंगला और सुषुम्णा के बाह्य प्रतीक हैं। इन सबसे ऊपर विद्यमान ब्रह्मग्रन्थी है ब्रह्मरन्ध्र का सही सूचक, जहां त्रिगुणात्मक शिव का अधिष्ठान है, यहीं से त्रिगुणमयी ये तीनों नाड़ियां पृथक् होती हैं। ऊपर कष्ठ (विशुद्धि चक्र) से नीचे मूलाधार तक आने वाले उपबीत के त्रिसूत्र अपने में ऐसे अनेक तत्त्व समेटे हुए हैं। आरम्भ में भले ही उपवीत कोई वस्त्र-विशेष रहा हो, किन्तु सूत्रकाल में और विक्रम की प्रथम शती के आसपास के शूद्रक के समय में उपवीत अवश्य त्रिगुणात्मक ही था, क्योंकि मृच्छकटिक के पात्र शक्लिक को यज्ञोपवीत से सेंध नापने को डोरी का काम लेते हुए दिखाया गया है। कालिदास ने तो विक्रमोर्वशीय में नारद जी के लिये स्पष्ट शब्दों में कहा है कि उन्होंने चन्द्रमा के समान शुभ्र उपवीत सूत्र धारण किया हुआ था
"संलक्ष्यतेशशिकलामलवोतसूत्रः।" (विक्रमोवंशीय ५/१६)
साथ ही त्रिसूत्र व्यक्ति को सदा यह स्मरण दिलाते रहते हैं कि इन त्रिसूत्रों को धारण करने के लिये मुझे, मेरे पिता को और आचार्य को भी त्रिरात्र कृच्छ्रव्रत रखना पड़ा था, अतः इनकी पवित्रता सदा बनाए रखनी है, और इनके द्वारा विहित कर्मों का सदा पालन करना है, तभी इनकी सार्थकता है।
त्रिस्कंध ज्योतिर्विद् शशांक शेखर शुल्ब की वाल से साभार
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