पुरातन काल में भृगु नामक एक ऋषि हुए थे, जिन्होंने ब्रह्मविद्या को प्राप्त किया था । यह उनकी खोज की कहानी है । उनके पिता वरुण थे, जो पूर्ण ज्ञानी थे । एक बार भृगु पिता के पास गया और उनसे बोला, “पिताजी, मुझे ब्रह्मोपदेश करिए ।” पिता जैसे पहेलियों में बोले, “अन्न, प्राण, चक्षु, श्रोत्र, मन, वाणी (इन के द्वारा ही यह विद्या प्राप्त होगी) ।” आगे वे बोले, “जिससे यह सब प्राणी उत्पन्न होते है, जिससे उत्पन्न होकर जीते हैं, जिससे ये (इस लोक से) प्रयाण करते हैं और जिसमें (मरणोपरान्त) प्रवेश करते हैं, उसको जानने की इच्छा (=प्रयत्न) कर क्योंकि वही ब्रह्म है ।”
भृगु ने तप आरम्भ किया । उस तप से उसने जाना कि अन्न ही वह वस्तु है जिससे प्राणी उत्पन्न होते हैं, जीते हैं, जिसके बिना वे मृत्यु को प्राप्त करते हैं और, मरणोपरान्त, अन्न में ही समाविष्ट हो जाते हैं । उन्होंने पिता को अपनी खोज का परिणाम बताया । पिता ने कहा कि ठीक है, परन्तु यह अन्तिम उत्तर नहीं है । उन्होंने भृगु को और तप करने को कहा ।
भृगु ने पुनः घोर तपस्या की और जाना कि पिता ने जो पहला विचित्र वाक्य कहा था, उसी में पुनः उत्तर छुपा है, क्योंकि प्राण ही तो वह वस्तु है जिससे यह सब प्राणी उत्पन्न होते हैं, जिससे उत्पन्न होकर जीते हैं, जिसके निकल जाने पर इस लोक से वे प्रयाण कर देते हैं और उसी में विलीन हो जाते हैं । परन्तु पिता फिर भी सन्तुष्ट नहीं हुए और उससे और तप करने को कहा ।
अब की बार भृगु को ब्रह्म के रूप में मन ज्ञात हुआ, जिससे भी सब प्राणी उत्पन्न होते हैं, जिसकी सहायता से जीते हैं, जिसके न रहने पर मरते हैं, और अन्तकाल में उसी में विलीन हो जाते हैं । परन्तु इस उत्तर से भी पिता सन्तुष्ट नहीं हुए । तब भृगु को ब्रह्म के रूप में विज्ञान जान पड़ा, जिससे भी सब उपर्युक्त कार्य होते हैं । जब पिता ने और आगे ढूढ़ने की प्रेरणा दी, तो भृगु को आनन्द-रूपी ब्रह्म जान पड़ा । अब की बार वरुण सन्तुष्ट हुए । इन दोनों के तप से जानी गई यह विद्या भार्गवी-वारुणी विद्या कहलाई ।
भृगु की खोज के विभिन्न चरणों को देखकर, सम्भवतः आप अब तक जान गए हों कि वह वास्तव में क्या ढूढ़ रहा था और क्या पा रहा था । वस्तुतः, भृगु ने ध्यान-रूपी तप से शरीर के पंच कोशों का रहस्य ढूढ़ निकाला । ये पंच कोश हैं – अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनन्दमय कोश । ये जैसे शरीर की स्थूल से सूक्ष्मतर परते हैं, जो एक के अन्दर एक बैठी हैं ।
अन्नमय कोश स्थूल शरीर है, जो कि पंच महाभूतों का बना हुआ है । इसी को हम अधिकतर अनुभव करते हैं – भूख-प्यास, चोट, बल, आदि, स्थूल शरीर के लक्षण होते हैं ।
प्राणमय कोश में श्वास-निःश्वास ही नहीं, अपितु शरीर की सभी चेष्टाएं सम्मिलित हैं । प्राणों से ही रक्त को गति मिलती है और आंतों से शरीर में रस बहता है । ध्यान करते समय, पहले भौतिक शरीर के किसी अंश के बाद, हमें अपने प्राणों पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए । बृहदारण्यक में कहा गया है कि सभी इन्द्रियां, और मन भी, पाप-युक्त हो सकती हैं, परन्तु प्राण पाप से परे रहता है । प्राणों पर ध्यान लगाने से, हमारा मस्तिष्क पवित्र हो जाता है ।
और अन्दर जाने पर, योगी को मन का रूप स्पष्ट होता है – वह मन जो इन्द्रियों से बाह्य विषयों का ग्रहण करता है और फिर शरीर में चेष्टा उत्पन्न करने का संकल्प-विकल्प करता है ।
मनोमय कोश से भी सूक्ष्मतर होता है विज्ञानमय कोश, जो कि बुद्धि का पर्याय है । यहां हमारे गहन विचार स्थित होते हैं । जब हम किसी विचार में लीन होते हैं, तो अपने शरीर की सुध-बुध भूल जाते हैं, हमारा शरीर शिथिल पड़ जाता है, हमें अपने आस-पास की सुध भी नहीं रहती, हम किसी और ही संसार में होते हैं । वह विज्ञानमय कोश होता है । योगी भी इसमें प्रवेश करके शरीर और इन्द्रियों को भूल जाता है ।
इस कोश के अन्दर स्थित होता है आनन्दमय कोश । यह वह कोश है जहां आत्मा अपने को देखने लगता है, परमात्मा की झलक पाने लगता है । जैसे-जैसे वह इसमें प्रवेश करता जाता है, वैसे-वैसे प्रकृति का अंकुश उसपर से उठता जाता है, और वह अपने स्वरूप में प्रतिष्ठित होने लगता है । इस अवस्था में जिस आनन्द की अनुभूति उसे होती है, वह वर्णनातीत है, क्योंकि वर्णन में तो शारीरिक और मानसिक सुख-दुःख ही आते हैं । योगदर्शन में इसी स्थिति को आनन्दा समाधि कहा गया है, जिसके आगे अस्मिता समाधि में वह अपने में स्थित हो जाता है । यहीं पहुंच कर ब्रह्मलोक के द्वार खुलने लगते हैं और मोक्ष-मार्ग प्रशस्त होता है ।
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