Monday, 29 January 2018

माघ व भारवि

माघ व भारवि
देववाणी संस्कृत के शीर्षस्थ कवियों में महाकवि माघ व भारवि दोनों का नाम सम्मान से लिया जाता है। महाकवि भारवि कृत किरातार्जुनीयम् व महाकवि  माघ विरचित शिशुपालवधम् कलापक्ष के लिहाज से संस्कृत के श्रेष्ठतम महाकाव्य हैं। प्रबुद्ध श्रोताओं के समक्ष मैं ‘‘ तितीर्षुर्दुस्तरं मोहादुडुपेनास्मि सागरम्‘‘ भाव से  माघ व भारवि के द्वारा रचित महाकाव्यों का तुलनात्मक वैशिष्ट्य प्रस्तुत करने का प्रयास मात्र कर रहा हूँ।
भारवि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व
संस्कृत -साहित्य के समालोचनात्मक इतिहास में महाकाव्यकारों में भारवि को महत्वपूर्ण स्थान दिया जाता है। संस्कृत महाकाव्यों में रचना-कौशल और भावाभिव्यंजना की उत्कृष्टता के लिए दो त्रयी प्रसिद्ध है-लघुत्रयी और बृहत्त्रयी।  बृहत्त्रयी में सम्मिलित महाकाव्यों में भारवि को सबसे पहला स्थान प्राप्त है। भारवि से पूर्व संस्कृत-काव्यों में भावपक्ष को अधिक महत्त्व दिया था। परन्तु भारवि ने कलापक्ष की उत्कृष्टता से इस काव्यधारा को एक नया मोड़ प्रदान किया। उन्होेंने काव्य की रचना में भावाभिव्यंजना के साथ-साथ कलापक्ष को भी महत्त्व किया। काव्य में दो पक्ष होते हैं-भावपक्ष और कलापक्ष। भारवि का मत था कि कविता-कामिनी में केवल भावात्मक सौन्दर्य ही पर्याप्त नहीं है। उसको सुन्दर अलंकारों में सजाया जाना भी आवश्यक है। भारवि ने अपने काव्य में इस मान्यता को समुचित रूप से निभाया है। उनके काव्य में एक ओर सुन्दर भावों की अभिव्यक्ति है और पदों के अर्थों का गाम्भीर्य है, तो दूसरी ओर विविध मनोरम अलंकारों की शोभा का चमत्कार भी है। कुछ आलोचकों ने भारवि को विकृत रुचि का दोषी ठहराया है।  कुछ आलोचकों के मत से भारवि ने महाकवि कालिदास की काव्य-परम्परा का उत्तराधिकारी होकर भी भावपक्ष की मार्मिकता की ओर समुचित ध्यान नहीं दिया। कुछ आलोचकों का मत है कि भारवि का काव्य संस्कृत की काव्य-परम्परा को स्वाभाविकता से कृत्रिमता की ओर ले जाने वाला हुआ और इस प्रकार भारवि ने संस्कृत काव्य के ह्रास युग को प्रारंभ किया। उनका कहना है कि भारवि ने काव्य सौन्दर्य को प्रदर्शित करने की अपेक्षा पाण्डित्य के प्रदर्शन की ओर ज्यादा ध्यान दिया। परन्तु ऐसी कुटु आलोचनायें भारवि के महत्त्व को कम नहीं करती। भारवि के पदों में जो अर्थ की गरिमा है, पदों का सुन्दर विन्यास है और चमत्कारपूर्ण अलंकारों की सजावट है, ये सभी तत्त्व अन्य स्थानों पर एक साथ कठिनता से ही दृष्टिगोचर हो सकेंगे।
वस्तुतः भारवि की कविता का आस्वादन करने के लिए कुछ परिश्रम करने की आवश्यकता होती है। उनकी कविता में विविध रसों का माधुर्य तो भरा हुआ है परन्तु उसका आस्वादन करने के लिए हृदय के साथ साथ बुद्धि की भी प्रबल आवश्यकता होती है। उनका काव्य उस नारियल की गिरि के समान मधुर है जो कठोर छिलके से ढका है तथा उस छिलके को तोड़कर ही उसे चखा जा सकता है। टीकाकार मल्लिनाथ ने ठीक कहा है-
नारिकेलफलसम्मितं वचो भारवेः सपदि तद् विभज्यते।
स्वादयन्तु रसगर्भनिर्भरं सारमस्य रसिका यथेप्सितम्।।
भारवि की मेधा की दीप्ति सभी जगह अर्थगौरव प्रकाशित करती हैै। केवल एकाक्षर से ही भारवि ने एक श्लोक की रचना की है इसी विशेषता के आधार पर तत्त्वज्ञों ने इसको ‘‘भारवेर्थगौरवम्’’ की संज्ञा दी हैं।
भारवि का एकाक्षर पद्य
न नोननुन्नो नुन्नोनो नाना नानानना ननु।
नुन्नोऽनुन्नो ननुन्नेनो नानेना नुन्ननुन्ननुत्।।
महाकवि भारवि की कीर्तिलता उनकी एकमात्र कृति ‘किरातार्जुनीयम्’’ महाकाव्य रूप वट वृक्ष पर अवलम्बित है। इस एक ही काव्य ने कवि को अक्षय यश प्रदान किया है और इसलिए इनकी गणना संस्कृत के श्रेष्ठ कवियों में की जाती है। इस महाकाव्य का कथानक बहुत छोटा है किन्तु भारवि ने अपनी काव्य प्रतिभा तथा कल्पना से बढ़ा-चढ़ाकर 18 सर्गों के महाकाव्य का वितान पल्लवित किया है। जिसमें भारवि ने पाण्डित्य का प्रदर्शन किया है।
‘किरातार्जुनीयम्’’  महाकाव्य में प्रधानतया किरात और अर्जुन का ही वर्णन है। काव्य का प्रमुख उद्देश्य अर्जुन द्वारा किरातवेशधारी शिव से विजय हेतु दिव्यास्त्र प्राप्त करना है। इसी आशय से इस काव्य का नाम ‘किरातार्जुनीयम्’ रखा गया। इसकी व्युत्पत्ति इस प्रकार हैं।
किरातश्च अर्जुनश्च किरातार्जुनौ, तौ अधिकृत्यं कृतं काव्यम् ‘किरातार्जुनीयम्’। यहाँ किरातार्जुन समस्त पद से ‘छ’ प्रत्यय होता है और ‘छ’ को ‘ईय’ आदेश होकर ‘किरातार्जुनीय तथा नपुंसकलिंग में ‘अय्’ आदेश होकर ‘किरातार्जुनीयम्’ रूप बनता है।  इसकी कथा मूलरूपेण महाभारत के वनपर्व में सताईसवें अध्याय से लेकर इकतालीसवें अध्याय तक वर्णित है।
स्पष्टतः इस महाकाव्य में प्रकृति-वर्णन, क्रीड़ादि-वर्णन एवं युद्ध-वर्णन के द्वारा मुख्य कथानक का विस्तार किया गया है। इस महाकाव्य का प्रारंभ -श्रियः’ शब्द से होता है। प्रत्येक सर्ग के अन्तिम पद्य में ‘लक्ष्मी’ शब्द भी प्रयुक्त है। इस प्रकार मांगलिक शब्द का आदि मध्यावसान में प्रयोग करके महाकाव्य को मंगलमय बनाया है। माघ ने इस काव्य की सभी विशिष्टताओं का अनुकरण करके ‘शिशुपालवध’ की रचना की। भारवि के विषय में कुछ उक्तियाँ प्रचलित हैं जैसे- भारवेर्थगौरवम्; भारवेरिव भारवेः, प्रकृतिमधुरा भारविगिरः (अभिनन्द), नारिकेलफलसम्मितं वचो भारवेः (मल्लिनाथ) इत्यादि।
इस महाकाव्य के पंचम सर्ग में द्रुतविलम्बित छन्द का प्रयोग करते हुए कवि ने ‘यमक’ अलंकार का ऐसा प्रयोग किया है कि माघ इसके अनुकरण के लिए उत्सुक हो उठे। हिमालय का वर्णन करते हुए कवि कहते हैं-
पृथुकदम्ब-कदम्बक-राजितं ग्रथित-माल-तमाल-वनाकुलम्।
लघु-तुषार-तुषारजलच्युतं घृतं-सदान-सादनन-दन्तिनम्।।
अर्थात् यह हिमालय बड़े-बड़े कदम्ब पुष्पों के समूह से शोभित है, पंक्तियों में निबद्ध तमालवनों से भरा है, यहाँ बूँद-बूँद करके हिम जल चू रहा है और सुन्दर मुख वाले मतवाले हाथियों को यह धारण करता है।
 अर्थगाम्भीर्य की दृष्टि से भारवि मानदण्ड के रूप में स्थित हैं, अतएव भारवि के अर्थगाम्भीर्य की बात माघ के लिए कही गयी है।  मल्लिनाथ ने कहा है कि आचार्यों के द्वारा प्रतिपादित दसों गुण इसमें वर्तमान है-
विकच-कमल-गन्धैरन्धयन् भृंगमालाः सुरभित-मकरन्द मन्दमावाति वातः।
प्रमद-मदन-माद्यद्-यौवनोद्दाम-रामा-रमण-रभस-खेद-स्वेद-विच्छेद-दक्षः।।
विकसित कमलों की गंध से भ्रमर-पंक्तियों को अंधा बनाने वाला वह प्रातः पवन मकरंद को सुरभित करते हुए मन्द-मन्द बह रहा है जो हर्ष और काम से उन्मत तथा युवावस्था के कारण अनियन्त्रित (उद्दाम) सुन्दरियों के रति वेग की थकावट से उत्पन्न स्वेद को दूर करने में समर्थ है।
इस प्रकार महाकवि माघ के विषय में ‘माघे सन्ति त्रयो गुणाः’ यह लोकोक्ति  अक्षरशः सत्य है।
भाषा पर अपने अप्रतिम अधिकार के चलते चित्रकाव्य के जिस भाषिक चमत्कार (किरातार्जुनीयम् के पंद्रहवें सर्ग में) की परम्परा भारवि ने शुरू की, उनके बाद के कवियों के लिए वह कसौटी बन गई और माघ (शिशुपालवध) में जाकर परवान चढ़ी।
किरातार्जुनीयम् भारवि की एकमात्र उपलब्ध कृति है, जिसने एक सांगोपांग महाकाव्य का मार्ग प्रशस्त किया। माघ जैसे कवियों ने उसी का अनुगमन करते हुए संस्कृत साहित्य भंडार को इस विधा से समृद्ध किया और इसे नई ऊँचाई प्रदान की। कालिदास की लघुत्रयी और अश्वघोष के बुद्धचरितम् में महाकाव्य की जिस धारा का दर्शन होता है, अपने विशिष्ट गुणों के बावजूद उसमें वह विषदता और समग्रता नहीं है, जिसका सूत्रपात भारवि ने किया। संस्कृत काव्य को भारवि की यह महत्वपूर्णदेन है, जिसे अपूर्व मान्यता भी मिली। संस्कृत में किरातार्जुनीयम् की कम से कम 37 टीकाएँ हुई है, जिनमें मल्लिनाथ की टीका घंटापथ सर्वश्रेष्ठ है। भारवि का उपनाम ‘आतपत्रा भारवि’ था। यह लगभग सभी विद्वानों द्वारा मान्य है।
षिषुपालवधम्- यह महाकवि माघ की एकमात्र कृति 20 सर्गो के महाकाव्य के रूप में है। देवर्षि नारद के द्वारा इन्द्र का सन्देश द्वारकापुरी में कृष्ण को मिलता है। जिसमें शिशुपाल के अत्याचार से जगत् की रक्षा की प्रार्थना है। कृष्ण को इसी समय युधिष्ठिर का आमन्त्रण मिलता है कि राजसूय-यज्ञ में आयें। इस कर्तव्य संकट की स्थिति में कृष्ण, बलराम और उद्धव बड़ी गंभीर विवेचना से यह स्थापित करते है कि युधिष्ठिर के यज्ञ में सेना सहित जाना उचित होगा। वहीं दुष्टता करने पर शिशुपाल को मारा जाये। तदनुसार कृष्ण बलराम इन्द्रप्रस्थ के लिए प्रस्थान करते है तथा मार्ग में विविध दृश्यों को देखते हुए वहां पहुंचते है। यज्ञ में भीष्म द्वारा कृष्ण का सम्मान करने पर शिशुपाल कुपित होता है और उनके प्रति अशिष्ट व्यवहार करता है। श्रीकृष्ण उनका वध कर देते है। इस मूल कथानक को माघ ने कलात्मकता और विविध वर्णनों का प्रयोग करके बड़ा बना दिया है।
महाकाव्यत्व-माघ रचित शिशुपालवधम् महाकाव्य के लक्षणों को सर्वाधिक ग्रहण करने वाला महाकाव्य है, इसीलिए विद्वानों के बीच एक लोकोक्ति हैं- काव्येषु माघः कवि कालिदासः। अर्थात् कवि की दृष्टि से कालिदास श्रेष्ठ है किन्तु महाकाव्य के लेखन में माघ उत्कृष्ट है। अलंकारवादी महाकवियों में भी माघ अग्रणी हैं क्योंकि प्रौढ़ पाण्डित्य के साथ कथानक को विचित्र मार्ग पर ले जाने की क्षमता इनमें सर्वाधिक है। इस महाकाव्य का प्रधान रस वीर है जिसके समर्थन के लिय सेना प्रयाण और वास्तविक युद्ध का वर्णन किया गया है।
संस्कृत साहित्य में एक मात्र माघ ही ऐसे कवि है जिन्होंने अपने काल तक विकसित महाकाव्यों के सभी उत्कृष्ट गुणों का समावेश अपनी रचना में किया है। कालिदास का काव्य सौन्दर्य और अभिव्यंजना भी इसमें है तो भारवि का अर्थगौरव एवं भट्टि का शब्दशास्त्रानुराग भी इनमें वर्तमान है। काव्य केे अन्तरंग भेद उत्तम, मध्यम और चित्रकाव्य के रूप में मम्मट-द्वारा कालान्तर में किये गए। माघ ने तीनों के उदाहरण अपनी रचना में पहले ही से प्रस्तुत कर रखे थे। कलापक्ष और भावपक्ष दोनों को सजाने-सवाँरने की प्रवृत्ति माघ में पुष्कल रूप से है। तभी तो इन्होंने जीवन में दैव और पुरुषार्थ के समन्वय के समान काव्य जगत् में शब्द और अर्थ दोनों का समान महत्त्व स्थापित किया है। माघ वास्तव में एक प्रकाण्ड विद्वान थे उनके पाण्डित्य और कवित्व के विषय में कई प्रशस्तियाँ विख्यात है। इनके शब्द भण्डार के विषय में कहा गया है- नवसर्गे किराते च नवसर्गे च नैषधे। नवसर्गगते माघे नव शब्दो न जायते (विद्यते)। अर्थात् माघकाव्य के नौ सर्ग समाप्त कर लेने पर संस्कृत में कोई नया शब्द जानने को रह ही नहीं जाता।
एक अर्थ के लिए माघ ने यथाशक्ति पुनः उसी नाम और आख्यान की आवृत्ति नहीं की है। उदाहरणार्थ एकादश सर्ग में सूर्य का वर्णन आरंभ से अंत तक किया है किन्तु कहीं भी सूर्य के किसी एक नाम को दुहराया नहीं गया है। यथा- वासरणां विधातुः, अर्क, विवस्वान्, अतुहिनरूचिना, बालसूर्यः, सप्तसप्तिः, भास्करेण, तपन, अहिमरोचि, दिनकर, भानो, रवि, हरिदश्वः, भास्वता, धर्मभानुः आदि।
माघ की अन्य प्रशस्ति है- माघे मेघे गतं वयः। अर्थात् माघकाव्य के अध्ययन में और मेघदूत का आनन्द लेने में सारी आयु बीत गई। इन दोनों काव्यों के समीचीन अनुशीलन तथा आस्वादन में यदि किसी विद्वान का पूरा जीवन लग जाये तो आश्चर्य की बात नहीं, उसे अन्य किसी ग्रंथ के अवगाहन की आवश्यकता भी नहीं होगी क्योंकि शास्त्र और कवित्व का परिणत फल ललित एवं गंभीर दोनों दृष्टियों से यह शिशुपालवधम् है।
राजशेखर ने ठीक ही कहा है कि -रवि की किरणों के समान भारवि की कविता सबको जगाने वाली है-समय ज्ञान को पैदा करने वाली है पर माघ मास के समान माघ का नाम सुनकर किस कवि को कँपकँपी नहीं बंध जाती ?
नीतिज्ञों ने क्षमा को मानवीय भावों में सर्वोपरि कहा है। वस्तुतः दण्ड देने की शक्ति होने पर भी दण्ड न देना सच्ची क्षमा है। परन्तु महाकवि माघ का कथन है कि जो क्षमाशील है वह थोड़ा या एक बार विरोध करने वाले को भले ही क्षमा कर दे, किन्तु बार-बार विरोध करने वाले को क्षमा कौन करेगा ? निःसंदेह किसी भी वस्तु या विजय को सहन करने की एक सीमा होती है, उसके उल्लंघन के बाद उसे सहन कर पाना सम्भव नहीं है। दृश्यमान विषय में पर्वत कभी भी समुद्र की और समुद्र भी पर्वत की बराबरी नहीं कर सकता है, भले ही ये दोनों अपने आप में वैशिष्ट्यपूर्ण है। कवि माघ कहते है कि संसार में मनस्वी पुरुष की ही ऐसी प्रकृति होती है जिनमें पर्वत की तरह ऊँचाई और समुद्र की भांति अगाधता एक साथ विद्यमान होती है। महाकवि माघ का मानना है कि कायर मनुष्य शत्रु के सामने आते ही प्रणाम करने लगते है। शत्रु का सामना करने का साहस उन में नहीं होता है। वस्तुतः ऐसे मनुष्य तुच्छ तृण तुल्य होते है जो थोड़ी सी भी हवा से अपना स्वाभिमान छोड़ निम्नाभिमुख हो जाते हैं।
तेजस्विमध्ये तेजस्वी दवीयानपि गण्यते।
महाकवि माघ कहते है कि अपनी-अपनी वाणी के होते हुए भी प्रसंग बद्धवचनाभिव्यक्ति अपेक्षाकृत दुर्लभ होती है। अपनी इच्छा से असंगत वचन तो बहुत कहे जा सकते है किन्तु कार्य संगति को नहीं छोड़ने वाला संदर्भ कठिनता से ही कहा जा सकता हैं। यू तो मनुष्य शयन के अतिरिक्त दिन-भर बोलते ही रहते है जिसका कोई निश्चित प्रयोजन नहीं होता है।
महाकवि माघ ने कहा है कि सन्तों की बुद्धि तीक्ष्ण होती है, किन्तु मर्मस्थलों को पीड़ित करने वाली नहीं होती है, कर्म प्रतापयुक्त होता है परन्तु शक्त होता है, मन कुल शीलादि के अभिमान से युक्त होने से उष्ण होता है परन्तु दूसरों को संतप्त करने वाला नहीं।
सर्वः प्रियः खलु भवन्त्यनुरूप चेष्टः।
इसीलिए महाकवि माघ ने ‘प्रिय’ को स्पष्ट करते हुए कहा है कि अनुरूप अर्थात् अनुकूल चेष्टा वाले सभी प्रिय होते है। सामान्य व्यवहार में भी अपने विचारों का समर्थन करने वाले मनुष्य प्रिय की गणना में और विरोधी प्रकृति वाले अप्रिय की गणना में आते हैं। जैसे कमल को सूर्य प्रिय है तो कुमुदिनी के लिए चन्द्रमा।
सर्वो हि नोपनतमप्यचीयमानं वर्धिष्णुमाश्रय मनागतमस्युपैति।
शिशुपालवधम् महाकाव्य में प्रसंग आया है कि जन समूह ने पेड़ों की विद्यमान बड़ी छाया को भी छोड़कर आगे-आगे आने वाली छाया को ग्रहण किया, क्योंकि सभी लोग उपस्थित आश्रय को क्षीण होते देखकर अनागत आश्रय को ही अपनाते है। स्वयं बहुमूल्य होता हुआ भी माणिक्य स्वर्ण के आश्रय की अपेक्षा रखता है।
माघ तथा भारवि पर पूर्ववर्ती एवं उत्तरवर्ती के प्रभाव का आदान-प्रदान
वस्तुतः साहित्य के विकास में ‘आदान-प्रदान’ प्रक्रिया का महत्वपूर्ण योगदान रहता है। यह एक गतिशील जीवंत प्रक्रिया है। उसमें पूर्ववर्ती से आधार रूप में उसे जो कुछ मिलता है, उस पर खड़े होकर ही वह आगे के लिए कदम उठाता है। उसी तथ्य से नीतिवाक्य में उस प्रकार व्यक्त किया गया है, ‘चलत्येकेन पादेन तिष्ठत्येकेन बुद्धिमान’ बुद्धिमान व्यक्ति एक पैर पर खड़ा रहता है और दूसरे पैर से चलता है। यह केवल व्यक्ति सत्य नहीं है साहित्यिक सन्दर्भ में भी यही शाश्वत सत्य है। खडे़ पैर का आधार पूर्ववर्ती उपजीव्य साहित्य होता है। इसी उपजीव्य-परम्परागत साहित्य की भूमि पर कवि का पैर खड़ा रहता है। यही उसका ‘आदान’ है और चलता पैर है- ‘प्रदान’ जो उत्तरवर्ती साहित्य पर उसकी छाया अर्थात् उसकी कृति का प्रभाव है। कोई भी कवि यह दावा नहीं कर सकता है कि वह परम्परा से पूर्ववर्ती साहित्य से एकदम कटा हुआ है। कार्य कारण रूप में आधार आधेय के रूप में परम्परा की पूर्ववर्ती कवियों के द्वारा की एक अविच्छेद्य शृंखला अतीत की बहुत गहराई तक गयी हुई है।
निश्चित ही माघ को अपने पूर्ववर्ती कवियों विशेषकर कवि भारवि को पछाड़ने के लिए उनके द्वारा वर्णित वर्णनों को अपने काव्य में चित्रित कर और आगे बढ़कर अपना काव्य कौशल दिखाने के व्यक्तितारिक्त अन्य मार्ग नहीं था। ऐसी स्थिति में पूर्ववर्ती कवियों के वर्णनों की छाया या उनकी समानता माघ के काव्य शिशुपालवधम् में दिखाई देना कोई आश्चर्य नहीं है। असमानता केा आप इनकी नकल या उनका अनुकरण और कह सकते हैं, किन्तु अपने अभिलाषा (यशोलिप्सा)की पूर्ति के लिए हुए कवि के ये प्रयत्न सहज स्वाभाविक ही माने जायेंगे।  वैज्ञानिकों की दृष्टि में मौलिकता का दूसरा नाम नवीन विवेचन की नवीनता को ही मौलिकता कहा जाता है। केवल भाव साम्य अथवा प्रभाव ग्रहण से मौलिकता नष्ट नहीं होती। माघ का कवि ‘भावपरिपन्थी’ तो नहीं कहा जा सकता। वह पूर्व वर्णित भाव को अपनी अध्ययन प्रतिभा और व्युत्पत्ति के साँचे में ढालने में खूब कुशल है। परिणामतः पूर्वदृष्ट सारे भाव-पदार्थ भी नए से प्रतीत होने लगते हैं। भारवि के भाव को ग्रहण कर माघ के कवि ने अपनी मौलिकता से सजाकर किस प्रकार उपन्यास किया हैं-
भारवि कहते है-
कृतावधानं जितवर्हिणहवनौ सुरक्तगोपीजनगीतनिः स्वने।
उदं जिघत्सामयहाय भयूसी न सस्यमभ्येति मृगीकदम्बकम्।।
इसी भाव से माघ के कवि ने इस प्रकार प्रस्तुत किया है-
विगतसस्य जिघत्समधट्टयत्कलमगोपवधूर्नमृगव्रजनं।
श्रुततदीरितकोमलगीतकध्वनिमिषेनिमिषेक्षणमतः।।
यही मौलिकता उसके सभी प्रयाण वाले सर्गों (5,12,13) तथा एकादश सर्ग के प्रभाव वर्णन परिलक्षित होती है।
उक्त पदों के भावों में साम्यता होने पर भी माघ के प्रस्तुत करने के अभिनव ढंग ने उसकी ध्वन्यात्मकता के भाव को ‘अनाघ्रातं पुष्पं किसलयमलूनं.... आदि की तरह अस्पष्ट बना दिया है। माघ कवि की सुहृदयता, काव्य कुशलता तथा भावों को प्रस्तुत करने की मौलिकता का इससे बढ़कर क्या प्रमाण चाहिए ? माघ का एकादशसर्ग तो वास्तव में एक अनूठा सर्ग है, जिसमें माघ के कवि ने प्रौढोक्ति-कुशलता तथा स्वाभावोक्ति की अपूर्व चित्रोपमता को एक साथ अंकित कर अपनी सुहृदयता तथा सूक्ष्म निरीक्षण क्षमता को बड़ी कुशलता से प्रदर्शित किया है। विद्वानों के अनुसार कालिदास की कविता का प्रभाव माघ के कई वर्णनों पर, विशेषरूप से माघ के एकादश तथा त्रयोदश सर्ग पर स्पष्टरूप से परिलक्षित होता है।
इस प्रकार देखा जा सकता है कि माघ ने ‘शिशुपालवधम्’ में किरातार्जुनीयम् की पद्धति को अपनाया ही नहीं, अपितु अलंकृति और विद्वत्ता प्रदर्शन में उससे आगे निकल जाने का प्रयास भी किया है। परिणामतः उत्तरवर्ती काव्यों में कृत्रिमता बढ़ती ही गई है। अब कालिदास की भावतरलता या भावनोत्कटता, भारवि की विचार प्रवणता और माघ का पाण्डित्यपूर्ण कल्पनाविलास, माघोत्तरवर्ती काव्यों में नहीं मिलता। अब केवल श्लेषादि शब्द प्रधान्य रत्नाकर कृत ‘हरविजय’ (50सर्ग) शिवस्वामीकृत ‘कक्णिाभ्युदय’ भरवक कृत श्री कण्ठचरित हरिशचन्द्र कृत धर्म शर्माभ्युदय आदि काव्यों में पर्याप्त मात्रा में देखने को मिलती है। उक्त सभी काव्य माघ से प्रभावित है। ये सभी हृासोन्मुख होकर चमत्कार प्रदर्शन पालन करते दिखाई देते है।
षिषुपालवधम् और किरातार्जुनीयम् में साम्य और वैषम्य:-
माघ कवि भारवि से विशेषरूप से प्रभावित माने जाते है। प्रभावित होने का प्रमुख कारण उनकी ‘दशोलिप्सा’ ही है। ऐसा प्रतीत होता है कि कवि में ‘सुकविकीर्ति’ को प्राप्त करने का ऐसा दर्निवार ‘अहं’ या अभिलाष था, जिससे विवश होकर उसे अपनी व्युत्पत्रता का परिचय हटात् देना पड़ा है। यह निश्चित है कि कवि के हृदय में भारवि के काव्य और उसकी कीर्ति को देखकर यह प्रतिक्रिया जाग्रत हो चुकी थी कि ‘किरातार्जुनीयम्’ की प्रसिद्धि और लोकप्रियता को दबाकर अपना काव्य शिशुपालवधम् उससे अधिक प्रतिष्ठा प्राप्त करें। इसीलिए माघ ने सादृश्यवाद को स्वीकार किया है और पूर्ववर्ती सभी काव्यों विशेषरूप से किरातार्जुनीयम् के वस्तु और शिल्प का सादृश्य स्वीकार कर उस पर अपनी मौलिकता और अगाध व्युत्पन्नता की छाप लगा दी है।
कथा वस्तु की साज-सज्जा, सर्गों का विभाजन और वण्र्य विषयों को प्रस्तुत करने में माघ, भारवि के पद चिह्नांे पर चलते परिलक्षित होते हैं। भेद केवल दोनों के इष्ट देवों के कारण है। भारवि ने शिव भक्त होने के कारण महाभारत से शिव से सम्बन्धित इतिकृत को ग्रहण किया है, और माघ ने कृष्ण भक्त होने के कारण कृष्ण से सम्बन्धित इतिवृत्त को।
माघ पर भट्टि के व्याकरण विषयक प्रभाव को सिद्ध करने के पूर्व हमें यह समझ लेना चाहिए कि माघ स्वयं महावैयाकरण थे। इसका प्रमाण काव्य में यत्र-तत्र अंकित व्याकरण के सूक्ष्म नियमों को देखने से मिल जाता है। सामान्यभूते लुङ् , यङ्- लुगन्त क्रियापद तथा अन्य पाणिनि सम्मत प्रयोगों का मोद माघ को भट्टि से मिला है, ऐसा कहने में भी संकोच होता है, क्योंकि भट्टि की तरह व्याकरण के सूत्रों का उदाहरण प्रस्तुत करने के लिए वे नहीं बैठे थे और न श्रीहर्ष की तरह जटिल शब्दों को ढूँढ-ढूँढकर पदों में पच्चीकारी करने का ही उन्हें व्यसन था, किन्तु यह कहा जा सकता है कि काव्य में माघ ने जितने नवीन शब्दों का प्रयोग किया है, वह केवल व्याकरण के सूक्ष्म नियमों के ज्ञान के कारण ही हो सकता है, इतना अन्य कवि से नहीं बन पड़ा है।
माघ के महाकवि होने में तनिक भी सन्देह नहीं है। बहुतों का अनुमान है कि माघ ने साम्प्रदायिक प्रेम से उत्तेजित होकर अपने पूर्ववर्ती भारवि से बढ़ जाने के लिए बड़ा प्रयत्न किया है। भारवि शैव थे अथवा कम से कम शिव के बड़े भक्त थे। इनका काव्य शिव के वरदान के विषय में है। माघ वैष्णव थे। इन्होंने महाकाव्य में विष्णु विषयक महाकाव्य की रचना की है। अतएव महाकाव्य में विष्णु के पूर्णावतार श्रीकृष्ण के द्वारा शिशुपाल के मारे जाने का विस्तृत वर्णन है। भारवि से बढ़ जाने के लिए माघ ने कुछ भी नहीं उठा रखा है। किरातार्जुनीयम् को अपना आदर्श मानकर भी माघ ने अपने काव्य में बहुत कुछ अलौकिक चमत्कार पैदा किया है। किरात के समान ही माघकाव्य भी मंगलार्थक ‘श्री’ शब्द से आरम्भ होता है। किरातार्जुनीयम् के आरंभ में ‘श्रियः कुरूणामधिपस्य पालिनी’ है। उसी प्रकार माघ के प्रारंभ में ‘श्रियः पतिः श्रीमति शासितंु जगत्’ है।
दोनों काव्यों- शिशुपालवधम् और किरातार्जुनीयम् में साम्य और वैषम्य इस प्रकार समझा जा सकता है।
1 शिशुपालवधम् काव्य में ‘श्री’ शब्द का प्रयोग मंगलाचरण के लिए है जबकि किरातार्जुनीयम् काव्य के आरम्भ मे भी ‘श्री’ शब्द का प्रयोग मंगलाचरण के लिए है।
2 शिशुपालवधम् काव्य में प्रतिसर्ग के अन्तिम श्लोक में ‘श्री’ शब्द का उल्लेख है जबकि किरातार्जुनीयम् के अन्तिम श्लोक में ‘लक्ष्मी’ शब्द का प्रयोग किया गया है।
3 शिशुपालवधम् काव्य में नारद श्रीकृष्ण को इन्द्र का सन्देश सुनाते है जबकि किरातार्जुनीयम् में म्नेचर युधिष्ठिर को दुर्योधन सम्बन्धी समाचार देता है।
4 शिशुपालवधम् काव्य में द्वितीय सर्ग में बलराम, श्रीकृष्ण और उद्धव के मध्य राजनीति विषय की बातें होती है, रैवतक का वर्णन यमक में किया गया है जबकि किरातार्जुनीयम् के भी द्वितीय सर्ग में युधिष्ठिर, भीम और द्रौपदी के मध्य राजनीति विषयक बातें होती है, हिमालय का वर्णन यमक में है।
5 शिशुपालवधम् काव्य के 19 वें सर्ग में विविध छन्दों का प्रयोग किया गया है जबकि किरातार्जुनीयम् का 15 वाँ सर्ग चित्रकाव्य जैसा है।
6 शिशुपालवधम् काव्य के चतुर्थ सर्ग में विविध छन्दों का प्रयोग किया गया हैै जबकि किरातार्जुनीयम् के भी चतुर्थ सर्ग में विविध छन्दों का प्रयोग किया गया हैं।
इसके अतिरिक्त दोनों काव्यों में वण्र्य विषय एक जैसे है- जैसे शत्रुवर्णन, राजनीति-वर्णन, पुष्पावचय वर्णन, जलक्रीड़ा वर्णन, सायं तथा रात्रिवर्णन, सुरतक्रीड़ा-वर्णन आदि।
इस प्रकार दोनों में समानता होने पर भी किरात और माघ में बड़ी भिन्नता है। कहीं-कहीं भारवि की छाया माघ पर दीख पड़ती है परन्तु माघ की संस्कृत साहित्य में कुछ ऐसी विशेषता है जो भारवि में देखने को न मिलेगी। इस प्रकार दोनों काव्यों में समता होने पर भी सहृदय पाठक माघ के सामने भारवि को हीन समझते हैं
‘तावद्भा भारवेर्भाति यावन्माघस्य नोदयः।’
महाकवि माघ व महाकवि भारवि को प्रणाम कर हम अपनी वाणी को विराम देते हैं।
संकलन व संशोधन कर्ता
शास्त्री प्रवीण कुमार जटाशंकर जी त्रिवेदी
आलोक स्कूल के सामने, भीनमाल
मो- 9414153628, 9820488163


इस वर्ष का प्रथम खग्रास चन्द्र ग्रहण 31 जनवरी को

इस वर्ष का प्रथम खग्रास चन्द्र ग्रहण 31 जनवरी को
        शास्त्री प्रवीण त्रिवेदी भीनमाल

इस वर्ष का प्रथम खग्रास चन्द्र ग्रहण बुधवार, माघ शुक्ला पूर्णिमा,  31 जनवरी को भारत में दिखाई देगा। यह ग्रहण पुष्य नक्षत्र व कर्क राशि पर रहेगा जिसमें कर्क राशि पर ज्यादा असर कारक है।
यह ग्रहण मेष, कर्क, सिंह व धनु राशि वालों के लिए अशुभ रहेगा, मिथुन, वृश्चिक, मकर व मीन राशि वालों के लिए मध्य व वृषभ, कन्या, तुला व कुम्भ राशि वालों के शुभ रहेगा।
साथ ग्रहण काल में मंगल व शनि का द्विर्दादश योग होने से विश्व स्तर पर मानसिक तनाव से शीतयुद्ध व राज्य  परिवर्तन जैसी घटनाएं घटित हो सकती है।
ग्रहण काल कर्क व सिंह लग्न में हो रहा है। कर्क लग्न में राहु तथा सिंह लग्न में बारहवें राहु जाने से सŸाा को लेकर राज्य, देश व विश्व स्तर पर कई नये आयाम या परिवर्तन के संकेत देखने को मिलेंगे। बृहस्पति की अपनी शत्रु राशि होने से पृथ्वी वासियों हेतु अशुभता का संदेश  रहता हैं।
ग्रहण का स्पर्श भारतीय समयानुसार शाम 5 बजकर 18 मिनट पर है एवं ग्रहण मोक्ष 8 बजकर 42 मिनट पर रहेगा। यह ग्रहण भारत सहित संपूर्ण एशिया खंड, अमेरिका, यूरोप के ईशान भाग में, आस्ट्रेलिया, न्यूजिलैण्ड, पेसिफिक महासागर तथा हिन्दमहासागर में दिखाई देगा। भारत में ग्रहण का स्पर्श दिखाई नहीं देगा इसलिए ग्रहण हुआ बिम्ब ही उदय होगा। ग्रहण की खग्रास अवस्था पूरे भारत में दिखाई देगी।
ग्रहण का वेध प्रातः सूर्योदय से शुरू होगा। अशक्त लोगों, गर्भवती महिलाओं आदि हेतु दोपहर 11.30 से वेध लगेगा।
ग्रहण के समय स्नान करके देवपूजा, तर्पण, श्राद्ध, जप, होम व दान करें। और ग्रहण पूर्ण होने पर पुनः दान करें। जननशौच या मृतात्माशौच में ग्रहण संबंधी स्नान, दान आदि कर्म करने की शुद्धि है।
मंत्र-तंत्र पुनश्चरण संबंधी- नया मंत्र ग्रहण करना या पुनश्चरण करना हो तो ग्रहण काल में तुरंत फलदायी होते है। ग्रहण काल में किये जाने वाले कृत्यों के स्थान पर नींद आदि करने से बुखार आदि पीड़ा, मूत्रोत्सर्ग करने से मूत्र संबंधी रोग या दरिद्रता, शौच करने से कृमि रोग, अभ्यंग करने से कुष्ठ रोग और भोजन करने से नरक की प्राप्ति होती है।


Saturday, 20 January 2018

आर्य भाषा की लिपि देवनागरी

आर्य भाषा की लिपि देवनागरी है। देवनागरी को देवनागरी इसलिए कहा गया है , क्यूंकि यह देवों की भाषा है। भाषाएँ दो प्रकार की होती है।
(1)कल्पित और
(2) अपौरुषेय (ईश्वरीय वैज्ञानिक)
कल्पित भाषा का आधार कल्पना के अतिरिक्त और कोई नहीं होता। ऐसी भाषा में वर्णरचना का आधार भी वैज्ञानिक के स्थान पर काल्पनिक होता है।
अपौरुषेय भाषा का आधार नित्य अनादि वाणी होता है। उसमें समय समय पर परिवर्तन होते रहते है परन्तु वह अपना मूल आधार अनादि अपौरुषेय वाणी को कभी नहीं छोड़ती। ऐसी भाषा का आधार भी अनादि विज्ञान ही होता है।
वैदिक वर्णमाला में मुख्यतः 17 अक्षर है। इन 17 अक्षरों में कितने अक्षर केवल प्रयत्नशील अर्थात मुख और जिव्हा की इधर-उधर गति आकुंचन और प्रसारण से बोले जाते है , और किसी विशेष स्थान से इनका कोई सम्बन्ध नहीं होता। उन्हें स्वर कहते है।
जिनके उच्चारण में स्वर और प्रयत्न दोनों की सहायता लेनी पड़ती है उन्हें व्यंजन कहते है।
कितने ही अवांतर भेद हो जाने पर हमारी इस वर्णमाला के अक्षर 64 हो जाते है। यजुर्वेद में इन्हीं १७ अक्षरों की नीचे के मंत्र द्वारा स्पष्ट गणना है-
“”अग्निरेकाक्षरेण, अश्विनौ द्व्यक्षरेण, विष्णु: त्र्यक्षरेण, सोमश्चतुरक्षेण, पूषा पंचाक्षरेण, सविता षडक्षरेण, मरुत: सप्ताक्षरेण, बृहस्पति अष्टाक्षरेण, मित्रो नवाक्षरेण, वरुणो दशाक्षरेण, इन्द्र एकादशाक्षरेण, विश्वदेवा द्वादशाक्षरेण, वसवस्त्रयोदशाक्षरेण,रुद्रश्चतुर्दशाक्षरेण, आदित्या: पंचदशाक्षरेण, अदिति: षोडशाक्षरेण, प्रजापति: सप्तदशाक्षरेण। “”
(यजुर्वेद ९-३१-३४)
इस प्रकार यह मूलरूप से 17अक्षरों की वर्णमाला वैदिक होने से अनादि और अपौरुषेय है। वर्णमाला के 17 अक्षरों का मूल एक ही अकार है। यह अकार ही अपने स्थान और प्रयत्नों के भेद से अनेक प्रकार का हो जाता है। ओष्ठ बंद करके यदि अकार का उच्चारण किया जाए तो पकार हो जावेगा और यदि अकार का ही कंठ से उच्चारण करें तो ककार सुनाई देगा। इस प्रकार से सभी वर्णों के विषय में समझ लेना चाहिये। अकार प्रत्येक उच्चारण में उपस्थित रहता है, बिना उसकी सहायता के न कोई वर्ण भलीभांति बोला जा सकता है और न सुनाई देता है। इसलिए अकार के निम्न अनेक अर्थ है-
” सब, कुल, पूर्ण, व्यापक, अव्यय, एक और अखंड आदि अकार अक्षर के ही अर्थ है। इन अर्थों को देखकर अकार अक्षर व्यापक और अखंड प्रतीत होता है। क्यूंकि शेष अक्षर उसी में प्रविष्ट होने से इन्हीं के रूप में ही प्रतीत होते है। उपनिषद् में ब्राह्मण कम् और खम् दो अर्थ है। इसलिए इस अपौरुषेय वर्णमाला का उच्चारण करते समय हम एक प्रकार से ब्रह्म की उपासना कर रहे होते है। वर्णों के शब्द बनते हैं और शब्दों का समुदाय भाषा है। इस प्रकार से हिंदी भाषा को ‘ब्रह्मवादिनी’ भी कह सकते है। “”
इस प्रकार देवनागरी लिपि में प्रत्येक अक्षर का उच्चारण करते समय हम ब्रह्म की उपासना कर रहे होते है। इसलिए देवनागरी हमारी संस्कृति का प्रतीक है। हमारी संस्कृति वैदिक है। वैदिक संस्कृति वेद द्वारा भगवान की देन है और वेदों के अनादि होने से हमारी संस्कृति और हमारी भाषा भी अनादि और अपौरुषेय है। एक और तथ्य यह है कि हमारी भाषा में सभी भाषाओँ के शब्द लिखे और पढ़े जा सकते है क्यूंकि इसके 64 अक्षर किसी भी शब्द की तथा उच्चारण की किसी भी न्यूनता को रहने नहीं देते।
देवनागरी लिपि के विकास की जहाँ तक बात है तो स्वामी दयानंद पूना प्रवचन के नौवें प्रवचन में लिखते है कि इक्ष्वाकु यह आर्यावर्त का प्रथम राजा हुआ। इक्ष्वाकु के समय अक्षर स्याही आदि से लिखने की लिपि का विकास किया। ऐसा प्रतीत होता है। इक्ष्वाकु के समय वेद को कंठस्थ करने की रीती कुछ कम होने लगी थी । जिस लिपि में वेद लिखे गए उसका नाम देवनागरी है। विद्वान अर्थात देव लोगों ने संकेत से अक्षर लिखना प्रारम्भ किया इसलिए भी इसका नाम देवनागरी है।
इस प्रकार से आर्य भाषा अपौरुषेय एवं वैदिक काल की भाषा है जिसकी लिपि का विकास भी वैदिक काल में हो गया था।
सन्दर्भ- उपदेश मंजरी- स्वामी दयानंद पूना प्रवचन एवं स्वामी आत्मानंद सरस्वती पत्र व्यवहार-209
अब आते है पाली भाषा पर ,
तो सर्व प्रथम आपको बता दे यह भाषा का विकास बहूत बाद में हुआ था ।
पुरानी भाषा कौनसी संस्कृत या पाली
एक लेखक ने संस्कृत को नवीन भाषा बताया उसका आधार उसने शिलालेख आदि बताये | लेकिन यह आधार अयुक्त है क्यूंकि प्राकृत भाषा लोक भाषा थी जब यह शिलालेख आदि लिखे गये थे जबकि संस्कृत केवल कुछ विद्वान लोगो की भाषा थी |
शिलालेख आदि का संदेश आम जन को कोई सुचना या राज्य की परियोजना अथवा कोई संदेश के लिए होता था | आमजन के लिए उन्ही की समझने लायक भाषा में ही संदेश लिखा जाएगा | जैसे आज हिंदी का प्रचलन है तो कोई भी सरकारी घोषणा संस्कृत में नही दी जायेगी बल्कि हिंदी में ही दी जायेगी | इस बात का प्रबल प्रमाण एक जैन लेखक के द्वारा मिलता है जिससे सिद्ध होता है कि प्राकृत बुद्ध ,महावीर के समय की सामान्य जन की भाषा थी –
” जैन आचार्य हरीभद्र सूरी दशवेकालीक टीका की भूमिका 101 पर लिखता है –
” बाल स्त्री मूढ़ मूर्खाणा मूणा चारित्रकांगक्षि
णाम |
अनुग्रहार्थ तत्वज्ञ: सिद्धांत: प्राकृत: स्मृत : ||
अर्थात बाल ,मूढ़ ,मुर्ख के लिए जैन सिद्धांत प्राकृत में दिया गया | ”
इससे सिद्ध है कि संस्कृत भाषा भी महावीर आदि के समय थी महावीर का काल चन्द्रगुप्त से पुराना मानना होगा क्यूंकि तथाकथित इतिहासकार उसे चन्द्रगुप्त का जैन बनना मानते है यदि इसे न माने तो अशोक का चौथा उतराधिकारी शालीशुक मौर्य जैन था | इससे जैन मत इससे भी प्राचीन सिद्ध होता है | अत: संस्कृत की प्राचीनता हरीभद्र अनुसार शालिशुक से पुरानी तो हो ही जाती है |
संस्कृत में ग्रन्थ लेखन का ही कार्य होता था ग्रंथो को भोजपत्र या ताड़पत्र पर लिखा जाता था जिसका काल अधिक नही होता था अधिक से अधिक १०० वर्ष के अंदर वो नष्ट हो जाता था | उसकी पुनरावृत्ति दुसरे ताड़ या भोज पत्र पर हो जाती थी इस तरह नया संस्करण निकाल पुराने ग्रंथो के वचन सुरक्षित रखे जाते थे | आज जो पांडूलिपि मिलती है वो ग्रन्थ के वास्तविक काल की न हो उसके अंत के संस्करणो की है | आज की अच्छी क्वालिटी का कागज भी ६०-७० साल में टूट टूट नष्ट हो जाता है | इसलिए पांडूलिपि ,शिलालेख यह वास्तविक आधार नही कौनसी भाषा प्राचीन है यह जानने का |
इसका आधार है उस भाषा में लिखे विभिन्न व्याकरण ग्रन्थ जिनमे उसके शब्द विकार ,शब्द सिद्धि दर्शाई जाती है |
प्राकृत के अध्ययन हेतु निम्न सामग्री है –
(१) भरत का नाट्य शास्त्र –
भरत मुनि का उलेख महाभारत में होने से तथा भरत मुनि द्वारा प्राकृत सूत्र दिए जाने से प्राकृत का काल भी महाभारत समकक्ष तो बैठता ही है |
कोहल – मार्कण्डेय कवीन्द्र के अनुसार कोहल के ग्रन्थ में भी प्राकृत का उलेख है |
वाल्मीकि सूत्र – यह प्राकृत भाषा के व्याकरण के सूत्र है इन पर अप्पय दीक्षित की व्याख्या है यह वाल्मीक जी की रचना है | इससे यह सम्भव है प्राकृत भी तथाकथित मूलनिवासियों की भाषा नही बल्कि आर्यों की ही भाषा है ।
शाकल्य – यह ऋग्वेद के एक शाखा के रचेयता है तथा प्राचीन ऋषि है | मार्कंड कवीन्द्र के अनुसार शाकल्य ऋषि प्राकृत पर लिखे है |
लगभग त्रेताकाल से दोनों भाषाए चली है संस्कृत और प्राकृत |
वररुचिकृत प्राकृत लक्षण – यह प्राकृत अध्ययन में सबसे महत्वपूर्ण ग्रन्थ है | इसमें भामह व्याख्या भी है| भामाह विक्रम सम्वत पूर्व के आसपास था |
प्राकृतदीपिका – यह अभिनवगुप्त द्वारा लिखा ग्रन्थ है |
चंडकृत प्राकृत लक्षण – इसमें महाराष्ट्र तथा जैन प्राकृतो का वर्णन है |
हेमचन्द्र का प्राकृत व्याकरण – यह प्राकृत के शब्दानुशासन का ग्रन्थ है |
प्राकृत पिंगल – इसमें प्राकृत के पद्यो और छन्दों का संग्रह है |
यह सब प्राकृत के जान्ने के ग्रन्थ है | इन सबसे एक निष्कर्ष निकलता है कि संस्कृत में किसी शब्द सिद्धि संस्कृत धातु से प्रत्यय उपसर्ग से ही हो जाती है | अर्थात संस्कृत में किसी अन्य भाषा से कोई शब्द उधार नही लिया लेकिन आगे जब इन प्राकृत व्याकरण ग्रंथो के प्रमाण देखोगे तो पता चलेगा कि संस्कृत के कई अपभ्रंश इस भाषा में लिए गये है अपभ्रष कहलाता है एक भाषा के शुद्ध रूप का बिगड़ कर अन्य भाषा में प्रयुक्त होना इससे अपभ्रश प्रयोग वाली भाषा आत्मजा और शुद्ध प्रयोग वाली जनक सिद्ध हो जाती है |
अब प्राकृत के सामान्य नियम समझिये –
प्राकृत में तीन प्रकार के शब्द प्रयोग करे गये है –
“ समानशब्द विभ्रष्ट देशीगतथापि च – भरतनाट्य शास्त्र १७/३
अर्थात समान ,विभ्रष्ट और देशी पद प्राकृत में है |
इसी पर हरिपाल कृत टीका में लिखा है –
“ तद्भव: तत्समो देशी त्रिविध: प्राकृतकम: “ अर्थात संस्कृत के सदृश्य ,संस्कृत से विकृत और देशी यह तीन प्रकार के शब्द प्राकृत में है |
जैन आचार्य हेमचन्द्र अभिधान चिंतामणि की स्वोपज्ञ टीका में इस बात के प्रमाण देता है कि प्राकृत में प्रयुक्त देशज शब्द भी संस्कृत से आये है –
“ गोसो देश्याम | संस्कृतेsपि
तुंगी देश्याम | संस्कृतेsपि
अब संस्कृत के तत्सम का प्राकृत में किस तरह विकार हो तद्भव होता है यह निम्न नियम से पाया जाता है –
“ ए ओ आर पराणि अ अं आरपरं अ पाअए णत्थि |
व स आर मज्झिमाइ अ क च वग्ग तवग्ग णिहणाइ || “
अर्थात ए ओकार से परे अर्थात ऐ औ अंकार के परे अर्थात विसर्ग नहीं होता अर्थात संस्कृत में आये विसर्ग का प्राकृत में लोप हो जाता है | तथा व सकार के मध्य के श ष वर्ण तथा क च त वर्गो के निधनानि ङ ञ न का भी प्राकृत में लोप कर देते है |
यहा स्पष्ट पता चल रहा है कि प्राकृत संस्कृत के कुछ शब्द को तद्भव कर बनाई गयी भाषा है अर्थात इसके शब्द संस्कृत से उधार लिए गये है |
साहित्य रत्नाकार नामक ग्रन्थ में निम्न श्लोक मिलता है जिससे पता चलता है कि किन किन वर्णों को लुप्त कर प्राकृत वर्णमाला रची –
“ ऐ औ कं क: ऋ ऋ(दीर्घ स्वर में ) लृ लृ(दीर्घ) प्लुप्त श षाबिंदुश्चतुर्थी क्वचित |
प्रान्ते न क्ष डं ञा पृथग द्विवचन नाष्टादश प्राकृते |
रूपञ्चापि यदातमेपदकृत यद्वा परस्मैपद्म |
भेदों नैव तयोर्न लिंगनियमस्ताद्र्ग्यथा संस्कृते ||
अर्थात ऐ औ कं क: ऋकार लृकार प्लुत श ष अबिंदु तथा ४ विभक्ति प्रांत में न क्ष ङ ञ और द्विवचन यह १८ प्राकृत में नही रहे |
यहा भी संस्कृत से प्राकृत का बनना बताया जा रहा है |
प्राकृत पैंगल में उग्गाह छंद में निम्नलिखित गाथा है –
“ एऔ अं म ल पुरऔ सआर ,पुब्बेहि बे बि वण्णाई |
कच्चबग्गे अन्ता दहबणा पाउए ण हूअति || “
ए ओ अं म ल के अगले वर्ण ऐ औ : य व स से पहले दो वर्ण श ष तथा क वर्ग और त वर्ग के अंतिम वर्ण ङ णञ प्राकृत में नही होते | अर्थात प्राकृत में इनका लोप हो जाता है |
संस्कृत से बदलाव लाने के आलावा भी प्राकृत का सिलसिला यही न रुका यह भाषा बार बार बदल बदल नये नये रूप में आती गयी पहले शौरसेनी प्राकृत हुई फिर मागधी में हुआ |
मागधी में संस्कृत के स के स्थान पर श कर कुछ शब्द बना लिए गये – जैसे सामवेद से शामवेद इस पर नामिसाधू श्लोक 12 में व्याख्यात है – “ रसयोर्लशौ मागधिकायाम “
अर्थात र के स्थान पर ल और स के स्थान पर श अर्थात संस्कृत में पुरुष शब्द ष का ल विकार हो माधवी प्राकृत में – पुलिश हो गयी | इसी तरह फिर अर्धमागधी प्राकृत हुई | इसके बाद जैन में श्वेताम्बर सम्प्रदाय की प्राकृत का प्रचलन हुआ इसे महाराष्ट्री भी कहते है | रामदासकृत सेतुबंध टीका में लिखा है – “ महाराष्ट्रभाषाया बहुवचने sप्येकवचन प्रयोगात पृष्ठ 174 तथाच –युद्ध = जुज्झ (सेतुबंध पृष्ठ 502 )
यहा उदाहरण दे बताया है संस्कृत के युद्ध का महाराष्ट्री प्राकृत में किस तरह रूपान्तर हुआ |
अश्वघोष के दो नाटको के त्रुटीयुक्त पत्ते चीन में प्राप्त हुए है अध्यापक लूडर्स (जर्मन ) ने उन्हें जोड़ एक लेख लिखा जिसका अनुवाद श्रीमती तुहिनिका चैटर्जी ने किया –
“ पेज 40 पर लूडर्स लिखता है – “ we can distinguish clearly at least three dialects
अर्थात प्राकृत की तीन बोलिया अश्वगोष के काव्य में है |
यहा स्पष्ट है पहले संस्कृत से विकार पा यह भाषा बनी फिर कुछ शब्दों में और विकार हुआ और अंत में विकार प्राप्त हो काफी भेद इस भाषा में हुआ | जबकि संस्कृत भाषा के किसी भी प्राचीन संस्कृत व्याकरण में ऐसा कोई नियम नही मिलता की अमुक वर्ण अमुक भाषा के वर्ण से इस भाषा में लिया गया या अमुक भाषा के तत्सम से तद्भव हुआ | संस्कृत में लौकिक में अगर कुछ विकार देखा जाता है तो व्याकरण कार उसे वैदिक ( वैदिक वाक् –वैदिक संस्कृत ) से बताते है न कि प्राकृत ,पाली भाषा से जबकि प्राकृत में बहुधा उदाहरण मिल जायेंगे संस्कृत के तत्सम के तद्भव रूप में | अत: प्राकृत से संस्कृत नही संस्कृत से प्राकृत बनी है | और यह तथाकथित मूलनिवासी भाषा नही बल्कि ब्राह्मण ,द्विज से लेकर आर्य शुद्र तक इसे प्रयोग करते थे क्यूंकि बौद्ध के प्रमाण में प्रत्येक २८ बुद्ध द्विज (ब्रह्म ज्ञानी , एवम वेद वेत्ता) ही था कोई भी कथित मंदबुद्धि मूलनिवासी नही था | और उन्होंने इस भाषा का प्रयोग करा उनके अनुयायी बौधिधर्म अरिहंत आदि बड़े बड़े बौद्ध भी द्विज वर्ण (ब्रह्म ज्ञानी , वेदवेत्ता) से ही थे | इसलिए प्राकृत और संस्कृत दोनों आर्यों की ही भाषा है | इस भाषा के नाम पर लोगो को आपस में पागल बनाने इतिहास मोड़ने ,भावनाए आहत करने जानबुझ नीचा दिखाने दो पक्षों को लदवाने का कार्य अम्बेडकरवादी कर रहे है |
राजीव मल्होत्रा अपनी पुस्तक “द बैटल फॉर संस्कृत” लिखते हैं के –
“बुद्ध से 2000 साल पहले “इंडस सरस्वती सिविलाइज़ेशन” थी, जिनकी लिपि भी थी, तथा कई सारा साहित्य इनके समय में लिखा गया है | अतः यह बात बिलकुल निरर्थक है कि बौद्ध धर्म के आने के बाद भारत में लेखन की शुरुआत हुई |”
कई वैदिक और बौद्ध ग्रंथ भी संस्कृत में ही लिखे गए बाद में पाली में भी लिखे गए है ।
इसमें एक तथ्यपूर्ण बाद यह भी है के यदि “पाली भाषा का इतिहास पढ़ा जाए तो पता चलता है यह बुद्ध के काफी बाद में विकसित हुई है | अतः बुद्ध के प्रवचन पाली में नहीं थे | बल्कि बाद में लोगों ने उन्हें पाली में लिखा है | कई लोगों का मत यह भी है के बुद्ध के काफी प्रवचन संस्कृत में ही थे |
अगर सामान्य बुद्धि से भी सोचे तो यदि संस्कृत , प्राकृतिक से बनी होती तो एक ही प्राकृतिक रूप से अनेक अर्थो वाले संस्कृत शब्द न होते ।
संस्कृत आज नासा द्वारा भी सबसे वैज्ञानिक भाषा सिद्ध हुए , और UNO ने दुनिया की 97% भाषा को संस्कृत से प्रभावित माना है । यह अपुरुषेय भाषा वैज्ञानिक होने से
अति प्राचीन और अद्भुत भी है ।
✍🏻
हिमांशु शुक्ला

सूतक समस्या विचार

​सूतक समस्या विचार =​
जन्म मरण आदि के कारण जो मृतक हो जाते हैं उनमें शुभ कर्म निषिद्ध है। जब तक शुद्धि न हो जाय तब तक यज्ञ, ब्रह्म भोजन आदि नहीं किये जाते। परन्तु यदि वह शुभ कार्य प्रारंभ हो जाय तो फिर सूतक उपस्थिति होने पर उस कार्य का रोकना आवश्यक नहीं। ऐसे समयों पर शास्त्रकारों की आज्ञा है कि उस यज्ञादि कर्म को बीच में न रोककर उसे यथावत चालू रखा जाय। इस सम्बंध में कुछ शास्त्रीय अभिमत नीचे दिये जाते हैं-
यज्ञे प्रवर्तमाने तु जायेतार्थ म्रियेत वा।
पूर्व संकल्पिते कार्ये न दोष स्तत्र विद्यते।
यज्ञ काले विवाहे च देवयागे तथैव च।
हूय माने तथा चाग्नौ नाशौचं नापि सतकम्।
दक्षस्मृति 6।19-20
यज्ञ हो रहा हो ऐसे समय यदि जन्म या मृत्यु का सूतक हो जाए तो इससे पूर्व संकल्पित यज्ञादि धर्म में कोई दोष नहीं होता। यज्ञ, विवाह, देवयोग आदि के अवसर पर जो सूतक होता है उसके कारण कार्य नहीं रुकता।
न देव प्रतिष्ठोर्त्सगविवाहेषु देशविभ्रमे।
नापद्यपि च कष्टायामा शौचम्॥
-विष्णु स्मृति
देव प्रतिष्ठा, उत्सर्ग, विवाह आदि में उपस्थित सूतक में बाधा नहीं।
विवाह दुर्ग यज्ञेषु यात्रायाँ तीर्थ कर्मणि।
न तत्र सूतकं तद्वत कर्म याज्ञादि कारयेत॥
-पैठानसि
विवाह, किला बनाना, यज्ञ, यात्रा, तीर्थ कर्म के समय यदि सूतक हो जाय तो उसकी चिन्ता नहीं करनी चाहिए।
यज्ञ करने वाले यजमान पर ही नहीं यह बात ऋत्विज् ब्रह्मा आचार्य आदि पर भी लागू होती है। उनके यहाँ कोई सूतक हो जाय तो वह यज्ञ करने-कराने या उसमें भाग लेने के अनधिकारी नहीं होते तथा-
ऋत्विजाँ यजमानस्य तत्पत्न्या देशकस्य च।
कर्ममध्ये तु नाशौच मन्त एव तु तद्भवेत-॥
ऋत्विजों को यजमान को, यजमान की पत्नी को और आचार्य को जन्म या मरण का सूतक नहीं लगता। यज्ञ कर्म की पूर्ति हो जाने पर ही उन्हें सूतक लगता है।
ऋत्विजाँ दीक्षितानाँ च याज्ञिकं कर्म कुर्वता

संस्कृत मंत्रों के उच्चारण से बढ़ती है याददाश्त*

अमेरिकी पत्रिका का दावा-
*संस्कृत मंत्रों के उच्चारण से बढ़ती है याददाश्त*
【एक्सपर्ट की इस टीम ने 42 वॉलंटियर्स को चुना, जिनमें 21 प्रशिक्षित वैदिक पंडित (22 साल) थे। इन लोगों ने 7 सालों तक शुक्ला यजुर्वेद के उच्चारण में पारंगत हासिल की थी। ये सभी पंडित दिल्ली के एक वैदिक स्कूल के थे।】
एक अमेरिकी पत्रिका में दावा किया गया है कि वैदिक मंत्रों को याद करने से दिमाग के उसे हिस्से में बढ़ोतरी होती है जिसका काम संज्ञान लेना है, यानी की चीजों को याद करना है। डॉ जेम्स हार्टजेल नाम के न्यूरो साइंटिस्ट के इस शोध को साइंटिफिक अमेरिकन नाम के जरनल ने प्रकाशित किया है। न्यूरो साइंटिस्ट डॉ हार्टजेल ने अपने शोध के बाद ‘द संस्कृति इफेक्ट’ नाम का टर्म तैयार किया है। वह अपने रिपोर्ट में लिखते हैं कि भारतीय मान्यता यह कहती है कि वैदिक मंत्रों का लगातार उच्चारण करने और उसे याद करने की कोशिश से याददाश्त और सोच बढ़ती है। इस धारणा की जांच के लिए डॉ जेम्स और इटली के ट्रेन्टो यूनिवर्सिटी के उनके साथी ने भारत स्थित नेशनल ब्रेन रिसर्च सेंटर के डॉ तन्मय नाथ और डॉ नंदिनी चटर्जी के साथ टीम बनाई।
‘द हिन्दू’ में छपी रिपोर्ट के मुताबिक एक्सपर्ट की इस टीम ने 42 वॉलंटियर्स को चुना, जिनमें 21 प्रशिक्षित वैदिक पंडित (22 साल) थे। इन लोगों ने 7 सालों तक शुक्ला यजुर्वेद के उच्चारण में पारंगत हासिल की थी। ये सभी पंडित दिल्ली के एक वैदिक स्कूल के थे। जबकि एक कॉलेज के छात्रों में 21 को संस्कृत उच्चारण के लिए चुना गया। इस टीम ने इन सभी 42 प्रतिभागियों के ब्रेन की मैपिंग की। इसके लिए आधुनिक तकनीक का इस्तेमाल किया गया। नेशनल ब्रेन रिसर्च सेंटर के पास मौजूद इस तकनीक से दिमाग के अलग अलग हिस्सों का आकार की जानकारी ली जा सकती है।
टीम ने जब 21 पंडितों और 21 दूसरे वालंटियर्स के ब्रेन की मैपिंग की तो दोनों में काफी अंतर पाया गया। उन्होंने पाया कि वे छात्र जो संस्कृत उच्चारण में पारंगत थे उनके दिमाग का वो हिस्सा, जहां से याददाश्त, भावनाएं, निर्णय लेने की क्षमता नियंत्रित होती है, वो ज्यादा सघन था। इसमें ज्यादा अहम बात यह है कि दिमाग की संरचना में ये परिवर्तन तात्कालिक नहीं थे बल्कि वैज्ञानिकों के मुताबिक जो छात्र वैदिक मंत्रों के उच्चारण में पारंगत थे उनमें बदलवा लंबे समय तक रहने वाले थे। इसका मतलब यह है कि संस्कृत में प्रशिक्षित छात्रों की याददाश्त, निर्णय लेने की क्षमता, अनुभूति की क्षमता लंबे समय तक कायम रहने वाली थी।
(साभार, जनसत्ता आनलाइन १४-०१-२०१८)