सन्ध्योपासनादि वैश्वदेव पर्यन्त के नित्यकर्मो को करनेवाले एवं शौचाचार सम्पन्न वाले द्विजाति को ही पके हुए अन्नादि का भोग लगाना अधिकार हैं। इस रहस्य को जानने के लिए यह जानना आवश्यक हैं कि वैश्वदेव करने के पश्चात् ही क्यों ? और वैश्वदेव की विधा क्या हैं ?
बिना वैश्वदेव किये सिद्धान्न रूप भोग-नैवेद्य देवता ग्रहण नहीं करते -
लघ्वाश्वालयनस्मृति १/१४५
"अकृत्वा देवयज्ञं च नैवेद्यं यो निवेदयेत्।
तदन्नं नैव गृह्णन्ति देवताश्चापि सर्वथा।।"
संस्काररत्नमालायाम् मनुः -
"वैश्वदेवविशुद्धोऽसौ विष्णवेऽन्नं निवेदयेत्।।"
तत्रैव स्मृतौ -
वैश्वदेवं पुरा कृत्वा नैवेद्यं विनिवेदयेत्
अकृत्वा वैश्वदेवं यो नैवेद्यं विनिवेदयेत्।।
तदन्नं न गृह्णन्ति देवा विष्ण्वादयो ध्रुवम्।।"
तथा च प्रयोगसागरे स्मृत्यन्तरे -
"देवार्थमन्नमुद्धृत्य वैश्वदेवं समाचरेत्।
नैवेद्यमर्पयेत्पश्चान्नृयज्ञं तु ततश्चरेत्।।"
कुलपारम्परिक स्वशाखासूत्र में जिस प्रकार की पद्धति द्वारा विधा उचित हो ऐसी ही विधा से वैश्वदेव करना चाहिये -
एवं तत्रैव व्यासः -
"वैश्वदेवं प्रकुर्वीत स्वशाखाविहितं ततः।।"
अब कोई कहते हैं कि हम तो सन्ध्योपासना करते हैं तो प्रश्न उठता हैं कि क्या (१)पारम्परिक शाखासूत्रविधा से करते हैं ?(२) सन्ध्योपासना करने के लिए भी अधिकृत हैं कि नहीं ? और (३) कितने समय से सन्ध्योपासना करते आये हैं उपनयन के दिन से ही या बिच में कुछ सप्ताहतक विराम क्या कारण रहा सब विचारणीय हैं।
क्योंकि सन्ध्योपासना भी स्वशाखासूत्रविधा से ही करनी चाहिये -
विश्वामित्र स्मृति १/१११ -स्मृतिसन्दर्भ पृष्ठ २६५६---
"स्वसूत्रोक्त विधानेन सन्ध्यावन्दनमाचरेत्।
अन्यथा यस्तु कुरुते आसुरीं तनुमाप्नुयात्।।
स्कं०पुराण वै०ख० अयोध्यामाहा० ५/२०-
"ततः सन्ध्यामुपासीत स्वसूत्रोक्तेन वर्त्मना।
ततः कार्यो जपो देव्या यावदर्कोदयो भवेत्।। तत्रैव ब्राह्मखण्ड धर्मारण्यमाहात्म्ये ५/९६-९७---
"उपस्थानं ततः कुर्याच्छाखोक्तविधिना ततः। सहस्रकृत्वो गायत्र्या शतकृत्वोऽथवा पुनः।। दशकृत्वोऽथ देव्यैव कुर्यात् सौरीमुपस्थितिम्।।"
वृद्धहारितस्मृति ४/४६-४७--
"स्वगृह्योक्तविधानेन सन्ध्योपास्तिं समाचरेत्। ध्यात्वा नारायणं देवं रविमण्डलमध्यगम्।।"
सन्ध्योपासना के अधिकार हेतु भी दो प्रश्न उठते हैं (१) उपनयन समय स्वशाखा के मन्त्रोच्चारविधासे गायत्री का उपदेश प्राप्त हुआ था या नहीं और (२) उपनयन स्वशाखासूत्र विहित पद्धतिविधा से हुआ हैं या नहीं।
कुछ सप्ताह सन्ध्योपासना विराम हो जानेपर प्रायश्चित्तपूर्वक पुनरुपनयन करवाना उचित हैं।
(१) प्रत्येक वेदशाखा की शिक्षा कल्प के अनुसार ही किसी भी वेदमन्त्रोच्चार करना उचित हैं और (२) जब उपनयन करना ही अनुपनीतकुमार की पारम्परिक शाखासूत्रानुसार हैं तो फिर गायत्र्युपदेश करना भी तच्छाखानुसार ही सिद्ध होता हैं--
अपरार्क-
गृह्योक्तकर्मणा येन समीपं नीयते गुरोः। बालो वेदाय तद् योगाद् बालस्योपनयनं विदुः।।"
औशनसस्मृतौ -
"कृतोपनयनो वेदानधीयीत द्विजोत्तमः। गर्भाष्टमे व्यष्टमे वा स्वसूत्रोक्त विधानतः।।"
तैत्तरीयारण्यक २/१५/७ के अनुसार वेद का अध्ययन स्वशाखा से आरम्भ करना चाहिये अब वेद का आरम्भ भी स्वशाखोक्त गायत्री मन्त्रोच्चार के बिना आरम्भ किये नहीं होता -
याज्ञवलक्यशिक्षायाम् --
"ओङ्कारपूर्विकास्तिस्रो
महाव्याहृतयोऽव्ययाः।
त्रिपदी चैव गायत्री
विज्ञेयं ब्राह्मणो मुखम्।।"
इस प्रकार उस स्वशाखीयोपनीत कुमार का गायत्र्युपदेश भी स्वशाखाविहित शिक्षा के उच्चारणविधा से ही होता हैं।
उपनयन का क्या प्रयोजन हैं ?
द्विजत्व को प्राप्त करना और द्विजकर्माधिकारी होकर कर्तव्य परायण होना -
स्मृतिसंग्रहे संस्काररत्नमालायाम् --
"उपनीतेः फलं त्वेतद् द्विजतासिद्धिपूर्विका।।"
जब उपनयन स्वशाखासूत्रविधा से न हुआ हो तो फिर द्विजत्व की प्राप्ति होना ही संभव नहीं हैं क्योंकि परशाखीय उपनयन या गायत्र्युपदेश के कारण कृतोपनयन निष्फल हो जाता हैं --
ज्योतिर्निबन्धे--
"स्वशाखाविधिमुत्सृज्य
संस्कुर्यादन्यशाखया।
प्राजापत्यत्रयं कृत्वा
पुनः संस्कारमर्हति।। इदन्त्वोपनयनचरमावधिकालात्पूर्वम् , अत ऊर्ध्वं व्रात्याः भवन्ति।
चतुर्वर्गचिंतामणि प्राय०ख० गौतमः-
"यः स्वशाखां परित्यज्य अन्य शाखामनुस्मरन् । उपनयनादिकं तत्र कुर्वन् विप्रो यदा भवेत्। शाखारण्डः स विज्ञेयो सर्ववर्णबहिष्कृतः।।"
अंगिरा संस्काररत्ने अत्र्याश्वालयनौ -
"स्वे स्वे गृह्ये यथा प्रोक्तास्तथा संस्कृतयोऽखिलाः। कर्तव्या भूतिकामेन नान्यथा सिद्धिमृच्छति।।"
छांदोग्यपरिशिष्टे कात्यायनः -
"अक्रिया त्रिविधा प्रोक्ता विद्वद्भिः कर्मकारिणाम्। अक्रिया च परोक्ता च तृतीया चाऽयथाक्रिया।। तत्रैव परिशिष्टप्रकाशे - १ अकरणं २ परशाखोक्तकरणम् ३ विहितेतरप्रकारेण क्रमान्तरादिनाकरणं_ त्रिविधैव कर्मणामक्रिया निष्फलत्वात्।।"
फिर कोई कहेगे कि हमारा उपनयन भी स्वशाखानुसार हुआ हैं और गायत्र्युपदेश भी तो अन्य शंका उठती हैं कि गायत्रीमन्त्र का उच्चार क्या शाखा सम्मत हैं ? अथवा किसी (ब्राह्मण)के भी पास से खरीदे हुए सूत्र से जनेऊ से उपनयन हुआ था ?
(१) सामान्यतः माध्यंदिनी शाखावाले के उपनयन भले ही स्वशाखीय विधा से हुआ हो परंतु याज्ञवलक्य शिक्षा के अनुसार कुछ उच्चार की भिन्नता हैं उस भिन्नता को पारम्परिक गुरुमुख से वेदाध्ययन करनेवाले माध्यंदिनीय स्वाध्यायी ही जान सकते हैं इस लिये उसका उच्चार वाचिक परिक्षण से पता चलेगा (२) बिना उपवास किये एवं अनध्याय में निर्मित तथा किसी के पाससे खरीदे हुए जनेऊ को पहनकर जो जो कर्म किये जाएगे वह निष्फल होगे अतः सिद्ध हैं कि खरीदे हुए जनेऊ के बाद ही ब्रह्मोदेश करना सभी शाखा में उक्त विधा हैं इसलिये स्वशाखीय गायत्र्युपदेश आदि जो जो भी जनेऊ धारण करने के बाद उपनयनप्रधान दण्डाजिनमेखलाधारण ब्रह्मोपदेश अंजलिक्षारण उपस्थान हृदयालम्भन अग्निपरिचर्या संधुक्षणसमिदाधान भिक्षाचर्या आदि जो जो कर्म हैं वह सब निष्फल होते हैं इसलिये अङ्गवैकल्यता के कारण सम्पूर्ण उपनयन निष्फल हो जाता हैं -
"चतुर्वर्गचिंतामणि प्रा०खण्ड ब्रह्माण्डपुराण
अनध्याये तु यत्सूत्रं
यत्सूत्रं रण्डया कृतम्।
यत्सूत्रं दारुसम्भृतं --------------
व्रात्यादिभिस्तथा दत्तं
तत्सूत्रं परिवर्जयेत्।
कोई यह विचार करते हैं कि सब कुछ ठिक ठिक स्वशाखासूत्र विधा से ही हुआ हैं तो भी विचारणीय हैं कि उपनयन किस आचार्य ने किया था पतित ने , विदेशयात्रीने , शाखारण्ड ने या पुनरुपनयननिमित्तवाले किसी द्विजत्वहीन द्विजभ्रष्टात्माने ? - यदि इन में से कोई दोष हैं तो भी कृतोपनयन व्यर्थ हो जाता हैं।
चलो मान लिजिए कि आचार्य भी अयाज्ययाजन करनेवाले नहीं थे ४६ प्रकार के पुनरुपनयन-निमित्तों -->
द्विजत्वभ्रष्ट नहीं हुए थे वयोवृद्ध आचारसम्पन्न थे फिर भी शास्त्र की आज्ञा हैं कि बिना परिक्षण के उपनयन आदि न किया जाय तो परिक्षण तो होता ही हैं। परिक्षण करने की विधा क्या हैं -->
उक्त सब विधिनिषेधो को ध्यान में रखकर यही निष्कर्ष निकलेगा कि उपनयन से पूर्व परिक्षण में जो अनुत्तीर्ण रहे वे वैश्वदेवकर्म तक अनधिकारी ही रहेगे इस प्रकार से वैश्वदेव के पूर्व जो जो नित्यकर्म हैं या द्विजाधिकृत जो जो भी वैदिकयजन , किसी भी प्रकार का याजन, अध्यापन , वेदवेदांगो का अध्ययन, समन्त्रक दान और प्रतिग्रह के साथ साथ मधुपर्कार्हणविधा से आतिथ्यसत्कार में भी अनधिकारी हैं।
ब्रह्मचारी को स्वयंपाक कर वैश्वदेवाधिकार न होने से वे भी पक्व अन्न के नैवेद्य का भोग नहीं लगा सकते, आजकल द्विजों का पतन होने से एवं स्ववर्णाश्रमधर्म के पालन करवाने करने में गुरुशिष्यों दोनों का प्रमाद हैं, इस कारण से भिक्षाचर्या का लोप हो चूका हैं, इसलिये ब्रह्मचारीलोग कहीं कहीं स्वयंपाक कर लेतें हैं मातान्नपूर्णा से भिक्षाचर्या का भाव करते हैं, उन ब्रह्मचारीओं को नैवेद्य में फल आदि आमान्न पक्वान्न से भिन्न नैवेद्य का ही भोग लगाना चाहिये।
यदि अथ से लेकर इति तक सब ठिक हैं परन्तु शौचारशून्य एवं उच्छिष्टानुच्छिष्ट आदि आचारपालन में अनभिज्ञ हैं तो भी देवता को नमक जल और अग्निसंयोग से बने सिद्धान्न के भोग-नैवेद्य लगाने में अनधिकार हैं।
( प्रथम लेख

का प्रामाणिक विस्तार

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